हिन्दुकुश हिमालयी क्षेत्र के देशों को टिकाऊ विकास के लिये जल संसाधन की क्षमता को पहचानना चाहिए।
इस तरह पानी राष्ट्रीय जीडीपी, जीविकोपार्जन और आय की स्थितियाँ बनाने में स्थानीय स्तर पर सीधे योगदान देता है। हालांकि पानी स्थाई विकास का आधार है लेकिन एचकेएच इलाके में जल प्रबन्धन विखण्डित और तालमेल से रहित है और आवश्यक क्षेत्रीय मुद्दों पर विचार नहीं करता।
सिन्धु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी कई बड़ी नदियाँ बर्फ और ग्लेशियर से ढके पहाड़ की ऊँची चोटियों से निकलती हैं और उनमें मौसमी और सालाना स्तर पर पानी का पर्याप्त भण्डार रहता है। इसके बावजूद चोटी और ढलान पर रहने वाले पर्वतीय लोगों को पीने और खेती के लिये बहुत कम पानी मिल पाता है।
पूरे पर्वतीय क्षेत्र में झरने सूख रहे हैं और पर्वतीय खेती पर सूखे का बुरा असर पड़ा है। पानी की कमी के कारण पर्वतीय समुदायों और विशेषकर स्त्रियों पर लगातार भार बढ़ रहा है। इसके अलावा तमाम पानी से पैदा होने वाली प्राकृतिक आपदाओं के कारण समुदायों को जन और धन की हानि का सामना करना पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन ने भविष्य में पानी की उपलब्धता और सुरक्षा को लेकर जो अनिश्चितता पैदा की है उससे स्थिति और भी बिगड़ गई है। टिकाऊ जल प्रबन्धन के लिये पानी के चरित्र को समझना जरूरी है। यह लेख एचकेएच इलाके में जल प्रबन्धन की कुछ जटिलताओं और चुनौतियों को सामने रखता है और टिकाऊ प्रबन्धन के सम्भव मार्ग पर चर्चा करता है।
टिकाऊ जल प्रबन्धन के लिये ऊर्जा सबसे महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है। एचकेएच इलाके में जल विद्युत सबसे सम्भावनाशील पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा का स्रोत है। पाँच लाख मेगावाट ऊर्जा की क्षमता वाले इस इलाके में जल विद्युत के विकास की बहुत सारी सम्भावनाएँ हैं।
ऊर्जा सुरक्षा से विकास और रोज़गार के अवसर खुल सकते हैं और इससे राष्ट्रीय जीडीपी में योगदान हो सकता है। इसके अलावा नए समाधान जैसे कि विद्युत परिवहन और घरेलू व औद्योगिक ऊर्जा के स्वच्छ स्रोत इलाके के बिगड़ते पर्यावरणीय हालात को महत्त्वपूर्ण तरीके से सुधारेंगे। हालांकि इलाके के तमाम देश अपनी उपलब्ध सम्भावनाओं का छोटा हिस्सा ही इस्तेमाल कर सके हैं।
नेपाल में 42,000 मेगावाट बिजली उत्पादन की सम्भावना है लेकिन अभी तक वह दो प्रतिशत ही उपयोग कर सका है जबकि पाकिस्तान ने अपनी कुल सम्भावना का 11 प्रतिशत इस्तेमाल किया है। इसके बावजूद इन दोनों देशों की जनता कई घंटे की बिजली कटौती झेलती है।
नदी वाले इलाके में अलग पारिस्थितिकी सेवाएँ कायम करने में पानी की अहम भूमिका होती है। विशेष तौर पर ताजे पानी की पारिस्थितिकी उनसे होकर गुजरने वाली नदियों के विशेष प्रवाह पर निर्भर करती है। हालांकि ढाँचागत विकास से होने वाले हस्तक्षेप के कारण उन निचले इलाकों में प्रवाह बदलता है, जहाँ के समुदायों की आजीविका मछली के शिकार पर निर्भर करती है।
एक प्रमुख चिन्ता इस बात की है कि किस तरह एक न्यूनतम प्रवाह कायम रखा जाए ताकि ताजे पानी की सप्लाई बनी रहे और उससे आश्रित पारिस्थितिकी को मदद मिल सके। इस क्षेत्र में पानी के न्यूनतम प्रवाह की प्रणाली की निगरानी बहुत कमजोर है।
पानी और खाने के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है और दोनों मानवीय अस्तित्व और विकास के लिये आवश्यक तत्व हैं। एचकेएच देशों के जीडीपी में खेती का महत्त्वपूर्ण योगदान है। नेपाल में देश के जीडीपी का 35 प्रतिशत खेती से आता है। सिन्धु नदी की प्रणाली से 144,900 हेक्टेयर ज़मीन की सिंचाई होती है जबकि गंगा घाटी से 156,300 हेक्टेयर खेती की ज़मीन सींची जाती है।
खाद्य उत्पादन के लिये जल संसाधन कैसे उपलब्ध हो और उसका टिकाऊ प्रबन्धन कैसे हो यह चिन्ता स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक रहती है। तीव्र पर्यावरणीय और सामाजिक आर्थिक परिवर्तन को देखते हुए, बढ़ती आबादी को ज्यादा पानी और खाद्य की जरूरत होगी और अहम संसाधनों की समान उपलब्धता एक प्रमुख सवाल बन गया है।
इन समस्याओं के टिकाऊ समाधान के लिये आवश्यक है कि जल संसाधनों का खेती में कुशलतापूर्वक इस्तेमाल किया जाए इसमें तकनीकी आविष्कारों से महत्त्वपूर्ण भूमिका बन सकती है।
अपनी भौतिक स्थितियों के कारण एचकेएच क्षेत्र तमाम तरह की जल जनित आपदा (भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियर, झील के फटने से आने वाली बाढ़ और सूखा) के मुहाने पर खड़ा हुआ है। हर साल मानसून के दौरान बाढ़ के कारण पहाड़ों और मैदानी इलाकों में तबाही आती है। यह बाढ़ अक्सर सीमाओं के पार जाती है।
वैश्विक स्तर पर आने वाली सभी बाढ़ों में दस प्रतिशत ऐसी होती हैं जो कि देश की सीमाओं के पार जाती हैं और इनका योगदान बाढ़ से होने वाले हताहतों में 30 प्रतिशत और विस्थापन में 60 प्रतिशत होता है। इलाके का सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के चलते यहाँ के लोगों के सामने प्राकृतिक आपदाओं का ज्यादा खतरा उपस्थित होता है।
इस दौरान स्थानीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर सहायक नीतियों और प्रशासकीय प्रक्रियाओं की अनुपस्थिति, खतरे को कम करने के विधिवत नियोजित संरचनागत और गैर- संरचनागत के न होने से भी जोखिम बढ़ जाता है।
ऊपर के उदाहरणों से पता चलता है कि पानी में फायदे और नुकसान दोनों के गुण हैं, उसका प्रबन्धन जटिल है और अक्सर क्षेत्रीय दृष्टिकोण आवश्यक है। जलविद्युत सम्भावनाएँ मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों में होती हैं लेकिन ऊर्जा के प्रमुख प्रयोक्ता मैदान के शहरी इलाकों और औद्योगिक क्षेत्रों में होते हैं।
बड़े मजबूत किस्म के तकनीकी और राजनीतिक अवरोधक इन दोनों को अलग करते हैं और यह जलविद्युत के धीमे विकास के पीछे एक प्रमुख कारण है। हालांकि हाल के रुझानों में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आए हैं। हाल में काठमाण्डू में हुए 18वें सार्क सम्मेलन में सदस्य देशों ने ऊर्जा सहयोग पर एक फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किया।
इस समझौते से दक्षिण एशिया में ऊर्जा का बाजार खुला है और इस तरह ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग का एक माहौल बना है। लेकिन अभी यह देखा जाना है कि यह सहयोग किस सीमा तक ऊर्जा सुरक्षा में अपनी भूमिका निभा सकता है।
इस बात के मजबूत संकेत हैं कि एचकेएच क्षेत्र आगामी वर्षों में ज्यादा गर्म होने जा रहा है। विभिन्न इलाकों में वर्षा बढ़ेगी और मौसम में सालाना और साल के भीतर भी ज्यादा बदलाव होंगे। तामपान और बारिश में होने वाले बदलाव के एचकेएच इलाके के लिये क्या मायने हैं? हिमतापी वातावरण से बनने वाली गत्यात्मकता से इस समीकरण में क्या जटिलता आने वाली है? क्या यह परिवर्तन इलाके के जलसंसाधन विकास में कोई दिक्कत पैदा करेंगे? इन सवालों का जवाब इलाके के देशों के समवेत प्रयास के बिना नहीं दिया जा सकता।
प्राकृतिक आपदा की क्षेत्रीय प्रकृति ऐसी होती है कि समाधान के लिये एक क्षेत्रीय नजरिया जरूरी होता है। बाढ़ के प्रभावी प्रबन्धन के लिये जरूरी है कि न सिर्फ नदी के ऊपरी इलाके और निचले इलाके एक दूसरे से आँकड़े बाँटें बल्कि आँकड़ों की यह हिस्सेदारी सीमा के दोनों पार हो।
उपग्रह की सूचनाओं पर आधारित तकनीकी नवोन्मेष के साथ जमीनी आँकड़ों को मिलाकर ऐसी सूचना तैयार की जा सकती है जो कि जीवन और सम्पदा की रक्षा में अहम साबित हो सकती है। उदाहरण के लिये इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउनटेन डेवलपमेंट (आइसीआइएमओडी) और उसके राष्ट्रीय पार्टनर नेपाल और भारत की तरफ से विकसित किए जा रहे कोशी फ्लड आउटलुक में घाटी का जीवन और सम्पदा बचाने की काफी सम्भावना है।
इस तरह के प्रयास को घाटी में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अगस्त 2014 में नेपाल में हुई जूरे भूस्खलन की घटना, जिस दौरान सन कोसी नदी कई दिनों तक रुकी रही, उस समय भूस्खलन और उससे निकलने वाली विस्फोटक बाढ़ के बारे में भारत की तरफ से भारी चिन्ता जताई गई। बाढ़ के नज़रिए से महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलने में मदद हुई।
इस उदाहरण के पता चलता है कि आपदा के जोखिम में कमी के प्रयास से तात्कालिक क्षेत्रीय सहयोग की शुरुआत हो सकती है। इससे विश्वास कायम होगा और उससे ज्यादा-से-ज्यादा फायदा लेने के लिये भावी सहयोग लेने का आधार तैयार हो सकता है। उदाहरण के लिये उर्जा व्यापार के क्षेत्र में ही इस विश्वास का उपयोग हो सकता है।
एचकेएच क्षेत्र के देश टिकाऊ विकास के लिये जल संसाधन की क्षमता को पहचान सकते हैं। इन संसाधनों से गरीबी कम हो सकती है, आजीविका सुधर सकती है, पारिस्थितिकी का संरक्षण हो सकता है और इलाके में बाढ़ और सूखे के प्रबन्धन में मदद मिल सकती है।
इससे हमें न सिर्फ मौजूदा संकट का सामना करने में मदद मिलेगी बल्कि जलवायु और सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के बीच पानी की भावी उपलब्धता के मुद्दों के समाधान के अवसर बनाने में भी सहायता मिलेगी। क्षेत्रीय सहयोग टिकाऊपन के तीन स्तम्भों पर आधारित होने चाहिएः आर्थिक जीवन्तता, पर्यावरणीय अखण्डता और सामाजिक समता और वे दोनों राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों पर होने चाहिए।
सन्तोष नेपाल वाटर रिसोर्स स्पेशलिस्ट हैं और अरुण भक्त श्रेष्ठ रिवर बेसिन एंड क्रायोस्फेयर एंड एटमास्फेयर रीजनल प्रोग्राम्स में प्रोग्राम मैनेजर हैं। यह कार्यक्रम इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउनटेन डेवलपमेंट (आइसीआइएमओडी) से सम्बन्धित हैं।
सिन्धु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी कई बड़ी नदियाँ बर्फ और ग्लेशियर से ढके पहाड़ की ऊँची चोटियों से निकलती हैं और उनमें मौसमी और सालाना स्तर पर पानी का पर्याप्त भण्डार रहता है। इसके बावजूद चोटी और ढलान पर रहने वाले पर्वतीय लोगों को पीने और खेती के लिये बहुत कम पानी मिल पाता है। पूरे पर्वतीय क्षेत्र में झरने सूख रहे हैं और पर्वतीय खेती पर सूखे का बुरा असर पड़ा है। पानी की कमी के कारण पर्वतीय समुदायों और विशेषकर स्त्रियों पर लगातार भार बढ़ रहा है।
लोक और उसकी अर्थव्यवस्था के कुशल के लिये पानी से ज्यादा आवश्यक संसाधन के बारे में सोच पाना कठिन है, फिर भी जल संसाधन का प्रबन्धन जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य है। हिन्दुकुश हिमालयी (एचकेएच) क्षेत्र सिंचाई, सफाई और उद्योग और कई महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी सेवाओं के काम करते रहने के लिये जल संसाधन पर बड़े पैमाने पर निर्भर है।इस तरह पानी राष्ट्रीय जीडीपी, जीविकोपार्जन और आय की स्थितियाँ बनाने में स्थानीय स्तर पर सीधे योगदान देता है। हालांकि पानी स्थाई विकास का आधार है लेकिन एचकेएच इलाके में जल प्रबन्धन विखण्डित और तालमेल से रहित है और आवश्यक क्षेत्रीय मुद्दों पर विचार नहीं करता।
सिन्धु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी कई बड़ी नदियाँ बर्फ और ग्लेशियर से ढके पहाड़ की ऊँची चोटियों से निकलती हैं और उनमें मौसमी और सालाना स्तर पर पानी का पर्याप्त भण्डार रहता है। इसके बावजूद चोटी और ढलान पर रहने वाले पर्वतीय लोगों को पीने और खेती के लिये बहुत कम पानी मिल पाता है।
पूरे पर्वतीय क्षेत्र में झरने सूख रहे हैं और पर्वतीय खेती पर सूखे का बुरा असर पड़ा है। पानी की कमी के कारण पर्वतीय समुदायों और विशेषकर स्त्रियों पर लगातार भार बढ़ रहा है। इसके अलावा तमाम पानी से पैदा होने वाली प्राकृतिक आपदाओं के कारण समुदायों को जन और धन की हानि का सामना करना पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन ने भविष्य में पानी की उपलब्धता और सुरक्षा को लेकर जो अनिश्चितता पैदा की है उससे स्थिति और भी बिगड़ गई है। टिकाऊ जल प्रबन्धन के लिये पानी के चरित्र को समझना जरूरी है। यह लेख एचकेएच इलाके में जल प्रबन्धन की कुछ जटिलताओं और चुनौतियों को सामने रखता है और टिकाऊ प्रबन्धन के सम्भव मार्ग पर चर्चा करता है।
जल और ऊर्जा
टिकाऊ जल प्रबन्धन के लिये ऊर्जा सबसे महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है। एचकेएच इलाके में जल विद्युत सबसे सम्भावनाशील पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा का स्रोत है। पाँच लाख मेगावाट ऊर्जा की क्षमता वाले इस इलाके में जल विद्युत के विकास की बहुत सारी सम्भावनाएँ हैं।
ऊर्जा सुरक्षा से विकास और रोज़गार के अवसर खुल सकते हैं और इससे राष्ट्रीय जीडीपी में योगदान हो सकता है। इसके अलावा नए समाधान जैसे कि विद्युत परिवहन और घरेलू व औद्योगिक ऊर्जा के स्वच्छ स्रोत इलाके के बिगड़ते पर्यावरणीय हालात को महत्त्वपूर्ण तरीके से सुधारेंगे। हालांकि इलाके के तमाम देश अपनी उपलब्ध सम्भावनाओं का छोटा हिस्सा ही इस्तेमाल कर सके हैं।
नेपाल में 42,000 मेगावाट बिजली उत्पादन की सम्भावना है लेकिन अभी तक वह दो प्रतिशत ही उपयोग कर सका है जबकि पाकिस्तान ने अपनी कुल सम्भावना का 11 प्रतिशत इस्तेमाल किया है। इसके बावजूद इन दोनों देशों की जनता कई घंटे की बिजली कटौती झेलती है।
पानी और पर्यावरण
नदी वाले इलाके में अलग पारिस्थितिकी सेवाएँ कायम करने में पानी की अहम भूमिका होती है। विशेष तौर पर ताजे पानी की पारिस्थितिकी उनसे होकर गुजरने वाली नदियों के विशेष प्रवाह पर निर्भर करती है। हालांकि ढाँचागत विकास से होने वाले हस्तक्षेप के कारण उन निचले इलाकों में प्रवाह बदलता है, जहाँ के समुदायों की आजीविका मछली के शिकार पर निर्भर करती है।
एक प्रमुख चिन्ता इस बात की है कि किस तरह एक न्यूनतम प्रवाह कायम रखा जाए ताकि ताजे पानी की सप्लाई बनी रहे और उससे आश्रित पारिस्थितिकी को मदद मिल सके। इस क्षेत्र में पानी के न्यूनतम प्रवाह की प्रणाली की निगरानी बहुत कमजोर है।
भोजन के लिये पानी
पानी और खाने के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है और दोनों मानवीय अस्तित्व और विकास के लिये आवश्यक तत्व हैं। एचकेएच देशों के जीडीपी में खेती का महत्त्वपूर्ण योगदान है। नेपाल में देश के जीडीपी का 35 प्रतिशत खेती से आता है। सिन्धु नदी की प्रणाली से 144,900 हेक्टेयर ज़मीन की सिंचाई होती है जबकि गंगा घाटी से 156,300 हेक्टेयर खेती की ज़मीन सींची जाती है।
खाद्य उत्पादन के लिये जल संसाधन कैसे उपलब्ध हो और उसका टिकाऊ प्रबन्धन कैसे हो यह चिन्ता स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक रहती है। तीव्र पर्यावरणीय और सामाजिक आर्थिक परिवर्तन को देखते हुए, बढ़ती आबादी को ज्यादा पानी और खाद्य की जरूरत होगी और अहम संसाधनों की समान उपलब्धता एक प्रमुख सवाल बन गया है।
इन समस्याओं के टिकाऊ समाधान के लिये आवश्यक है कि जल संसाधनों का खेती में कुशलतापूर्वक इस्तेमाल किया जाए इसमें तकनीकी आविष्कारों से महत्त्वपूर्ण भूमिका बन सकती है।
पानी और आपदा
अपनी भौतिक स्थितियों के कारण एचकेएच क्षेत्र तमाम तरह की जल जनित आपदा (भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियर, झील के फटने से आने वाली बाढ़ और सूखा) के मुहाने पर खड़ा हुआ है। हर साल मानसून के दौरान बाढ़ के कारण पहाड़ों और मैदानी इलाकों में तबाही आती है। यह बाढ़ अक्सर सीमाओं के पार जाती है।
वैश्विक स्तर पर आने वाली सभी बाढ़ों में दस प्रतिशत ऐसी होती हैं जो कि देश की सीमाओं के पार जाती हैं और इनका योगदान बाढ़ से होने वाले हताहतों में 30 प्रतिशत और विस्थापन में 60 प्रतिशत होता है। इलाके का सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के चलते यहाँ के लोगों के सामने प्राकृतिक आपदाओं का ज्यादा खतरा उपस्थित होता है।
इस दौरान स्थानीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर सहायक नीतियों और प्रशासकीय प्रक्रियाओं की अनुपस्थिति, खतरे को कम करने के विधिवत नियोजित संरचनागत और गैर- संरचनागत के न होने से भी जोखिम बढ़ जाता है।
क्षेत्रीय सहयोग
ऊपर के उदाहरणों से पता चलता है कि पानी में फायदे और नुकसान दोनों के गुण हैं, उसका प्रबन्धन जटिल है और अक्सर क्षेत्रीय दृष्टिकोण आवश्यक है। जलविद्युत सम्भावनाएँ मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों में होती हैं लेकिन ऊर्जा के प्रमुख प्रयोक्ता मैदान के शहरी इलाकों और औद्योगिक क्षेत्रों में होते हैं।
बड़े मजबूत किस्म के तकनीकी और राजनीतिक अवरोधक इन दोनों को अलग करते हैं और यह जलविद्युत के धीमे विकास के पीछे एक प्रमुख कारण है। हालांकि हाल के रुझानों में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आए हैं। हाल में काठमाण्डू में हुए 18वें सार्क सम्मेलन में सदस्य देशों ने ऊर्जा सहयोग पर एक फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किया।
इस समझौते से दक्षिण एशिया में ऊर्जा का बाजार खुला है और इस तरह ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग का एक माहौल बना है। लेकिन अभी यह देखा जाना है कि यह सहयोग किस सीमा तक ऊर्जा सुरक्षा में अपनी भूमिका निभा सकता है।
इस बात के मजबूत संकेत हैं कि एचकेएच क्षेत्र आगामी वर्षों में ज्यादा गर्म होने जा रहा है। विभिन्न इलाकों में वर्षा बढ़ेगी और मौसम में सालाना और साल के भीतर भी ज्यादा बदलाव होंगे। तामपान और बारिश में होने वाले बदलाव के एचकेएच इलाके के लिये क्या मायने हैं? हिमतापी वातावरण से बनने वाली गत्यात्मकता से इस समीकरण में क्या जटिलता आने वाली है? क्या यह परिवर्तन इलाके के जलसंसाधन विकास में कोई दिक्कत पैदा करेंगे? इन सवालों का जवाब इलाके के देशों के समवेत प्रयास के बिना नहीं दिया जा सकता।
प्राकृतिक आपदा की क्षेत्रीय प्रकृति ऐसी होती है कि समाधान के लिये एक क्षेत्रीय नजरिया जरूरी होता है। बाढ़ के प्रभावी प्रबन्धन के लिये जरूरी है कि न सिर्फ नदी के ऊपरी इलाके और निचले इलाके एक दूसरे से आँकड़े बाँटें बल्कि आँकड़ों की यह हिस्सेदारी सीमा के दोनों पार हो।
उपग्रह की सूचनाओं पर आधारित तकनीकी नवोन्मेष के साथ जमीनी आँकड़ों को मिलाकर ऐसी सूचना तैयार की जा सकती है जो कि जीवन और सम्पदा की रक्षा में अहम साबित हो सकती है। उदाहरण के लिये इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउनटेन डेवलपमेंट (आइसीआइएमओडी) और उसके राष्ट्रीय पार्टनर नेपाल और भारत की तरफ से विकसित किए जा रहे कोशी फ्लड आउटलुक में घाटी का जीवन और सम्पदा बचाने की काफी सम्भावना है।
इस तरह के प्रयास को घाटी में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अगस्त 2014 में नेपाल में हुई जूरे भूस्खलन की घटना, जिस दौरान सन कोसी नदी कई दिनों तक रुकी रही, उस समय भूस्खलन और उससे निकलने वाली विस्फोटक बाढ़ के बारे में भारत की तरफ से भारी चिन्ता जताई गई। बाढ़ के नज़रिए से महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलने में मदद हुई।
इस उदाहरण के पता चलता है कि आपदा के जोखिम में कमी के प्रयास से तात्कालिक क्षेत्रीय सहयोग की शुरुआत हो सकती है। इससे विश्वास कायम होगा और उससे ज्यादा-से-ज्यादा फायदा लेने के लिये भावी सहयोग लेने का आधार तैयार हो सकता है। उदाहरण के लिये उर्जा व्यापार के क्षेत्र में ही इस विश्वास का उपयोग हो सकता है।
एचकेएच क्षेत्र के देश टिकाऊ विकास के लिये जल संसाधन की क्षमता को पहचान सकते हैं। इन संसाधनों से गरीबी कम हो सकती है, आजीविका सुधर सकती है, पारिस्थितिकी का संरक्षण हो सकता है और इलाके में बाढ़ और सूखे के प्रबन्धन में मदद मिल सकती है।
इससे हमें न सिर्फ मौजूदा संकट का सामना करने में मदद मिलेगी बल्कि जलवायु और सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के बीच पानी की भावी उपलब्धता के मुद्दों के समाधान के अवसर बनाने में भी सहायता मिलेगी। क्षेत्रीय सहयोग टिकाऊपन के तीन स्तम्भों पर आधारित होने चाहिएः आर्थिक जीवन्तता, पर्यावरणीय अखण्डता और सामाजिक समता और वे दोनों राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों पर होने चाहिए।
सन्तोष नेपाल वाटर रिसोर्स स्पेशलिस्ट हैं और अरुण भक्त श्रेष्ठ रिवर बेसिन एंड क्रायोस्फेयर एंड एटमास्फेयर रीजनल प्रोग्राम्स में प्रोग्राम मैनेजर हैं। यह कार्यक्रम इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउनटेन डेवलपमेंट (आइसीआइएमओडी) से सम्बन्धित हैं।
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