हिमालय पर 4,500 मीटर की ऊंचाई चढ़ने पर पहाड़ों पर साल भर हिम जमी रहती है। इस पर्वतमाला की ऊंचाइयां हिम से ढंकी रहने के कारण ही इसका नाम हिमालय पड़ा। गर्मी के दिनों में यह हिम का विशाल भंडार पिघलने लगता है। ये हिम के भंडार पिघलने पर गंगा, यमुना जैसी बड़ी-बड़ी नदियों को जन्म देते हैं।आसमान को छूने वाली, चमकीली बर्फ से ढकी ये चोटियां हिमालय पर्वत की है। इन्हीं पर्वतों में दुनिया की सबसे ऊंची चोटियां हैं। यही से गंगा-यमुना, सिंधु-सतलज जैसी साल भर बहने वाली नदियां निकलती है। इन पर्वतों की घाटियों और ढलानों पर भी लोग रहते है। कैसे होंगे उनके गांव-शहर? कैसा होगा उनका जीवन? आओ, पढ़े।
हिमालय पर्वत पश्चिम से पूर्व तक 2.500 कि.मी. लंबा है। इसके पश्चिम छोर पर जम्मू-कश्मीर राज्य और पूर्वी छोर पर अरुणाचल प्रदेश पड़ता है। हिमालय की चोटियां समुद्र की सतह से 6.000 से लेकर 8.900 मीटर ऊंची हैं- यानी कि समुद्र की सतह से लगभग 9 कि. मी. ऊपर।
हिमालय में भारत के अन्य प्रदेशों की तुलना में तापमान बहुत कम रहता है। गर्मी के दिनों में हिमलाय के निचले हिस्सों में जरूर अधिक गर्मी पड़ती है, लेकिन ऊंचे हिस्सो में बहुत कम गर्मी पड़ती है। ठंड के महीनों में कड़ाके की ठंड पड़ती है। ऊंचे प्रदेशों में तापमान 0 डिग्री सेंटीग्रेड से भी कम हो जाता है। ऐसे में वहां हिमपात होता है, यानी बर्फ गिरती है।
हिमालय पर 4,500 मीटर की ऊंचाई चढ़ने पर पहाड़ों पर साल भर हिम जमी रहती है। जाड़े में अधिक ठंड पड़ने के कारण निचले पहाड़ों पर भी हिमपात होता है। बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थान बहुत ऊंचाई पर हैं - वहां जाड़े में खूब बर्फ जम जाती है और वहां के रास्ते बंद हो जाते है।
इस पर्वतमाला की ऊंचाइयां हिम से ढंकी रहने के कारण ही इसका नाम हिमालय पड़ा। (हिम+आलय=हिमालय) यानी हिम का घर।
गर्मी के दिनों में यह हिम का विशाल भंडार पिघलने लगता है। ये हिम के भंडार पिघलने पर गंगा, यमुना जैसी बड़ी-बड़ी नदियों को जन्म देते हैं। (गंगोत्री नाम के स्थान पर गंगा नदी को हिम से निकलते हुए देखा जा सकता है।)
ये नदियां हिमालय के ऊंचे पहाड़ों को काटती हुई बहुत गहरी घाटियों से बहती है। इस तरह उत्तर भारत की सारी प्रमुख नदियां हिमालय से ही निकलती हैं। हिमालय में वर्षा ऋतु में तेज बारिश भी होती है, सो उसका पानी भी इन नदियों में ही बहता है। बरसात और ठंड की ऋतुओं में ये नदियां बारिश का पानी लाती हैं। गर्मी में हिम से पिघला पानी इन नदियों में बहता है। इस तरह इन नदियों में साल भर भरपूर पानी रहता है। इसके विपरीत, दकन के पठार से निकली नदियों में गर्मी के समय पानी बहुत कम हो जाता है, क्योंकि दकन के पहाड़ों पर हिम नहीं है।
हिमालय पर्वत भारत के उत्तर में एक ऊंची दीवार की तरह खड़ा है। सागर से भाप भरी हवाएं, जो जून और जुलाई के महीनों में यहां पहुंचने लगती हैं, इस दीवार को फांदने के लिए ऊपर उठती हैं। ऊपर भाप भरी हवाएं ठंडी हो जाती हैं, तो भाप पानी की बूंदों में बदल जाती है और नीचे बारिश के रूप में गिरने लगती है। इस कारण हिमालय के कई हिस्सों में वर्षा ऋतु में तेज वर्षा होती है।
इस तरह हमने देखा कि हिमालय पर्वत के पूर्वी हिस्सों में बहुत अधिक वर्षा होती है और पश्चिम की तरफ जाते-जाते वर्षा कम होती जाती है।
हिमालय पर्वत की चोटियों में साल भर हिम जमी रहती है। इसलिए वहां पेड़-पौधे उग ही नहीं सकते।हिमालय पर्वत की चोटियों में साल भर हिम जमी रहती है। इसलिए वहां पेड़-पौधे उग ही नहीं सकते। अगर हम हिम से घिरे इस ऊंचे इलाके से कुछ नीचे उतरें तो पहाड़ों की ढलानों पर मुलायम रसीली घास पाएंगे। यहां इतनी ठंड है कि पेड़ नहीं उग सकते हैं। मगर यहां पर घास भी गर्मी के महीनों में ही उग पाती है। ठंड में यहां पर भी हिम जम जाती है और कुछ नहीं उगता।
इस घास वाले प्रदेश से और नीचे उतरने पर ही हमें पेड़ देखने को मिलेंगे। सबसे पहले नुकीली, सुईनुमा पत्तियों के कोणधारी पेड़ों के वन मिलेंगे। इनमें पाईन (चीड़) और देवदार के पेड़ प्रमुख है। देवदार का पेड़ बहुत ऊंचा (40 मीटर तक) होता है।
कोणधारी वन के प्रदेश से नीचे उतरने पर चौड़े पत्तों के वन मिलते हैं जिनमें तरह-तरह के पेड़ होते हैं, जैसे ओक, बर्च आदि।
हिमालय से नीचे उतरने पर तराई प्रदेश मिलता है जहां तेज वर्षा होती है व गर्मी भी रहती है। यहां चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों के घने जंगल हैं। इन जंगलों में शेर, चिता, हिरण जैसे जानवर पाए जाते हैं।
हिमालय पर्वत को तीन हिस्सो में बांटा जाता है। पूर्वी हिमालय, मध्य का हिमालय और पश्चिमी हिमालय। पूर्वी हिमालय में भारत के उत्तर पूर्वी राज्य और भूटान देश पड़ते है। मध्य हिमालय में नेपाल देश और उत्तर प्रदेश के हिस्से पड़ते हैं। पश्चिमी हिमालय में हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर राज्य पड़ते है। अब हम इस पाठ में पश्चिमी और पूर्वी हिमालय के बारे में पढ़ेंगे।
पशुपालन और घुमक्कड़ लोग
आओ, यहां के लोगो के जीवन को समझे।
यहां, हिमालय के ऊपरी हिस्सों में गर्मी के दिनों में रसीली और मुलायम घास उगती है। यह घास जानवरों, खासकर भेड़ों के चरने के लिए बहुत उपयुक्त है। इस कारण यहां पर भेड़ पालन एक मुख्य धंधा है। पश्चिमी हिमालय में भेड़ मांस और ऊन के लिए पाली जाती है। मगर जैसे तुमने ऊपर पढ़ा था, सर्दी के दिनों में वहां बर्फ जम जाती है और घास खत्म हो जाती है। तब ये भेड़ें क्या करेंगी?
ठंड के दिनों में पशुपालक लोग अपने जानवरों के साथ हिमालय के निचले हिस्सों से आ जाते है। निचले हिस्सों में ठंड कम पड़ती है और चारा भी मिल जाता है। यही पर इन पशुपालको के गांव भी है। यहां इनके पक्के मकान है और यहां वे खेती भी करते हैं।
सर्दी के महीनों में लोगो के घरों में ऊन कातने, कंबल आदि बनाने का काम होता है। जब गर्मी के दिन आते हैं और पहाड़ों के ऊपर बर्फ पिघलती है और घास उग आती हैं, तब ये पशुपालक अपने जानवरों को चराने फिर से ऊपर चले जाते हैं।
हिमालय पर खेती लायक जमीन बहुत कम है। खेतिहर भूमि की कमी के कारण पहाड़ों पर आबादी कम और बिखरी हुई है। यहां के लोग सदियों से पहाड़ो की ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर खेती करते आए हैं। हिमालय के लोग सीढ़ीनुमा खेतों में चावल, मक्का, सब्जियां और फल उगाते हैं। हिमालय पर खेती लायक जमीन बहुत कम है। बस, चौड़ी घाटियां और हल्के ढाल वाले पहाड़ों पर खेती की जा सकती है। जहां-जहां ऐसी जमीन मिलती है वहां लोगों की बसाहट भी है। इस कारण हिमालय में दूर-दूर और छोटी-छोटी बस्तियां ही पाई जाती है। खेतिहर भूमि की कमी के कारण पहाड़ों पर आबादी कम और बिखरी हुई है।
यहां के लोग सदियों से पहाड़ो की ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर खेती करते आए हैं।
हिमालय के लोग सीढ़ीनुमा खेतों में चावल, मक्का, सब्जियां और फल उगाते हैं। पहाड़ी खेतों में अनाज की पैदावार ज्यादा नहीं होती। पर तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि इन खेतों में सब्जियां बहुत अच्छी होती है। तुमने शिमला के पहाड़ी आलू और शिमला मिर्च के बारे में तो सुना ही होगा। इसी तरह सेब, आलू बुखारा, खुबानी, नाशपाती, आलूचा और चेरी जैसे फल हिमालय के पहाड़ों की ढलानों पर बहुत होते है।
तुम जानते ही हो कि हिमालय अपने देश की सीमा पर है। अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि वहां तक आसानी से सेना आ-जा सके। इसके लिए आजादी के बाद हिमालय में सड़कों का जाल बिछाया गया।
पुराने समय में सब्जी या फल की खेती भी बहुत कम ही होती थी। इसका एक महत्वपूर्ण कारण था यातायात के साधनों की कमी। पहाड़ों पर सड़क बिछाना तो बहुत कठिन काम होता है और महंगा भी। अतः आजादी से पहले हिमालय में सड़कें बहुत कम थी। सड़कें नहीं थी तो ट्रक वालों का आना-जाना भी नहीं था। लोग मीलों संकरी, ढलवां पहाड़ी, पगडंडियों से चलकर एक जगह से दूसरी जगह जाते थे।
ऐसे हालातों में फल या सब्जी दूर के शहरों के बाजारों में बेचने के लिए ले जाना बहुत मुश्किल था। और फिर फल-सब्जी की खेती में लागत भी अधिक लगती है। लागत भी लगाओ और उन्हें बेच नहीं पाओ तो उन्हें उगाकर कोई क्या करे? इसलिए तब फल व सब्जियां कम उगाई जाती थी।
सन् 1947 के बाद पहाड़ों में बहुत दूर-दराज के पहाड़ी इलाके भी सड़कों से जुड़ गए। सड़कें बनी, जिनसे यहां मैदानों से मोटरगाड़ी व ट्रक आने लगे। परिवहन के साधनों के बढ़ने से अब हिमालय की सूरत ही बदल रही है। किसान सब्जी अधिक-से-अधिक उगाने लगे है। इतना कि शिमला के आलू मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तक बिकने आते है। इसी तरह फलों के बगीचे भी बढ़ने लगे है। पंजाब व उत्तर प्रदेश के धनी लोगों ने मौका पाकर हिमालय में जंगलों की जमीन खरीदी, जंगल साफ करके वहां फलों के बड़े-बड़े बाग लगाए खासकर सेब के। सेब अधिक दिन तक सड़ता नहीं है। हिमालय का सेब महीनों बाद भी मद्रास व केरल में बिकने जाता है। आज पूरे भारत में जितना भी सेब उगता है, उसका एक तिहाई भाग हिमाचल प्रदेश में ही होता है।
हिमाचल प्रदेश में फलों के बाग मुख्य रूप से बाहर के लोगों के हाथ में है। हिमाचल के पहाड़ी निवासियों के पास इतना धन इकट्ठा नहीं हो पाया था कि वे खुद बड़े-बड़े बाग लगाएं। वे बागों में मजदूरों के रूप में काम करते हैं। बागों में, फलों को डिब्बों में पैक करने के काम में, सामान लाने ले जाने के काम में कई लोगों को रोजगार मिल जाता है।
हिमालय में खूब वर्षा होती है, जिसके कारण छोटे-बड़े नदी-नाले तेजी से ढलानों पर बहते हैं। इन नदियों का उपयोग बिजली के उत्पादन में खूब हो रहा है। पहाड़ी नदियों का पानी ढलानों पर, पाईपों द्वारा तेजी से गिराया जाता है और उससे पनबिजली की मशीने चलती हैं। इस तरह बिजली पैदा होती है।तुमने देखा कि हिमालय में खूब वर्षा होती है, जिसके कारण छोटे-बड़े नदी-नाले तेजी से ढलानों पर बहते हैं। इन नदियों का उपयोग बिजली के उत्पादन में खूब हो रहा है। पहाड़ी नदियों का पानी ढलानों पर, पाईपों द्वारा तेजी से गिराया जाता है और उससे पनबिजली की मशीने चलती हैं। इस तरह बिजली पैदा होती है। अब तो हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य के गांव-गांव में बिजली पहुंच गई है। हिमाचल प्रदेश को भाखड़ा नांगल जोगेंद्र नगर और सतलज-व्यास लिंक योजना आदि से बिजली मिलती है। सतलज नदी की घाटी में कई अन्य पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही है।
वैसे इस बिजली से बड़े कारखाने और उद्योग-धंधे भी चल सकते हैं। मगर हिमालय के क्षेत्र में ऐसे उद्योग नहीं हैं।
क्या तुम इसका कारण सोच सकते हो? एक मुख्य कारण यह है कि पहाड़ो पर रेल लाईंनों का जाल बिछाना कठिन है। दूसरा कारण यह है कि हिमालय में लोहा, कोयला जैसी खनिज संपदा की कमी है।
हिमालय में एक खनिज जरूर मिलता है। यहां के चूने के पत्थर के उपयोग से सीमेंट के कारखाने लगने लगे है। चूना पत्थर की खदानों में और सीमेंट कारखानों में भी लोगों को रोजगार मिला है। साथ-ही-साथ सीमेंट की उपलब्धि के चलते पुल, बांध, घर, पन बिजली केंद्र बनाने में आसानी हो गई है। पर यह काम हिमालय पर्वत के पर्यावरण को ध्यान में रख कर नहीं हो पाया है। चूना खदानों से जमीन का खिसकना, मलबे का जमा होना और उससे जुड़ी सभी समस्याए पैदा हुई हैं। सीमेंट बनाने के कारखानों से सीमेंट की धूल उड़कर चारों ओर छा जाती है। इस धूल से लोगों की सेहत, पेड़-पौधों और फसलों को नुकसान होने लगा है।
यहां के परंपरागत उद्योग है - पुराने हस्पशिल्प, जैसे हथकरघे से बने कपड़े व शाल की बुनाई, कषीदाकारी, लकड़ी की तराशी हुई चीजें, आदि। इसके अलावा कागज की लुगदी से भी सुंदर डिजाइनदार सामान बनाए जाते हैं। ये उद्योग कश्मीर में बहुत महत्वपूर्ण हैं।
ये सब छोटे गृह उद्योग है। कारखानों में बने माल की बिक्री के कारण ये घरेलू धंधे खत्म हो रहे थे। पर सरकार ने इन्हें विशेष प्रोत्साहन दिया। इसका फायदा उठाते हुए, इनमें बनी चीजें दूर-दूर के बाजारों में पहुंचने लगी है और इनकी मांग अब काफी बढ़ गई है। ये सब अच्छी कीमत पर बिक जाते है।
हिमाचल प्रदेश में, हाल के कुछ सालो में, फलों का रस निकालने, मुरब्बे, अचार आदि बनाने के छोटे कारखाने भी लगने लगे हैं। इनमें वहां पर उगने वाले फलों का उपयोग किया जाता है।
पहाड़ी इलाकों में कुछ वर्षों से पर्यटन का धंधा तेजी से फल-फूल रहा है। बड़े शहरों में रहने वाले धनी लोग और विदेशी यात्री हिमालय की प्राकृतिक खूबसूरती का आनंद लेने और ठंडक के लिए भारी संख्या में कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, असम आदि राज्यों में आते है। उनके ठहरने, रहने, खाने-पीने के लिए होटल और लाने ले जाने के लिए मोटर-टैक्सी के धंधे अब तेजी से विकसित हो रहे हैं। इस तरह के धंधो में भी बहुत लोगों को रोजगार मिल जाता है। हिमालय में महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल भी है- वैष्णोदेवी, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, धर्मशाला आदि।
ऊपर तुमने हिमलाय के वनों के बारे में पढ़ा था। यहां के देवदार और चीड़ नामक वृक्ष दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। सन् 1950 में हिमाचल प्रदेश की 38 प्रतिशत जमीन जंगलों से ढंकी थी, आज केवल 18 प्रतिशत पर जंगल हैं। इस तरह तेजी से जंगल कटने के पीछे क्या कारण है?
यहां की लकड़ी फर्नीचर बनाने, खेल-खिलौने का सामान व माचिस बनाने तथा लकड़ी की पेटियां बनाने के उद्योगों में लगती है। इन उद्योगों की मांग को पूरा करने के लिए ही ये पेड़ कट रहे हैं।
जैसा कि तुमने ऊपर पढ़ा था, हिमालय में खनिज संसाधन बहुत कम है। जंगल ही यहां का प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। सरकार को जंगल की लकड़ी की बिक्री से अच्छी आमदनी मिलती है। सरकार लकड़ी काटने का काम ठेके पर दे देती है। ठेकेदार सरकार को एक-एक पेड़ के लिए 600 से 1,000 रुपए तक देते है। वही पेड़ वे 2,500 रुपए तक में बेचते है। साथ ही वे निर्धारित पेड़ों के अलावा अवैध तरीके से अन्य पेड़ों को भी काटते हैं। इस प्रकार हिमालय का जंगल अंधाधुंध कटता जा रहा है।
हिमालय पहाड़ की चट्टाने बहुत कठोर नहीं है। पेड़ कटने से तेज ढलाने टूट-टूट कर गिरने लगी है। कई बार तो गांव-के-गांव ऊपर की ढलान के टूटे मलबे से दब जाते है।तुमने पेड़ों की कटाई के दुष्परिणामों की बात कक्षा 7 में पढ़ी थी। हिमालय उस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। हिमालय पहाड़ की चट्टाने बहुत कठोर नहीं है। पेड़ कटने से तेज ढलाने टूट-टूट कर गिरने लगी है और यह अब यहां की गंभीर समस्या बन गई है। कई बार तो गांव- के-गांव ऊपर की ढलान के टूटे मलबे से दब जाते है- लोग मरते हैं, घर टूट जाते है। सड़को पर मलबा जमा हो जाता है तो आवागमन रुक जाता है। इस तरह के भूस्खलन (जमीन के खिसकने) से नदियों में मलबा जमा हो जाता है तो नदियों के मार्ग भी रुक जाते है। नदियों से झीले बनने लगती हैं- पर ये अस्थाई झीले होती है। कुछ समय में पानी के दबाव से मलबे का ढेर टूट जाता है और पहाड़ के निचले भागों में बाढ़ आ जाती है।
पहाड़ों की बर्बादी को रोकने के लिए कुमाऊ और गढ़वाल क्षेत्र के लोगों ने एक आंदोलन चलाया है जिसे “चिपको” आंदोलन कहते हैं। जब ठेकेदार पेड़ काटने आते तो आसपास के गांवों के सब लोग पेड़ो को घेर कर खड़े हो जाते और ठेकेदार पेड़ नहीं काट पाते। अब तो पहाड़ की नंगी हुई ढलानों पर वृक्षारोपण किया जा रहा है, जिससे ढलानें फिर वनों से ढक जाएं।
तुम उत्तर के मैदान में बड़े-बड़े शहरों में बहुत सारे पहाड़ी लोगों को मजदूरी करते देख सकते हो। पहाड़ों में अपने घर-बार छोड़कर ये पहाड़ी लोग इन शहरों में क्यों आते हैं?
पहाड़ों में खेतिहर जमीन की कमी है। तो वहां खेती बढ़ाने के तरीके नहीं है। वहां न बहुत सारे उद्योग-धंधे लगे है, न बड़े शहर है। इस कारण वहां जीविका के साधन सीमित है। मैदानों में बसे बड़े शहरों में बड़े-बड़े उद्योग लग रहे है, तरह-तरह के काम धंधे पनप रहे है। तो मैदानों के शहरों में रोजगार मिलने की संभावना अधिक है। इसीलिए पहाड़ी लोग दिल्ली-कानपुर जैसे शहरों में आते हैं। इनमें से कई लोग गर्मियों में खेती करने अपने गांवों को लौट जाते हैं। कई पहाड़ी लोग मैदान के इन शहरों में ही बस गए हैं।
आओ, अब पूर्वी हिमालय के लोगों के बारे में कुछ जाने। ऊंचे पहाड़ी इलाके के कारण पूर्वी और पश्चिमी हिमालय में कई बातें तो एक समान है पर कुछ बातों में अंतर भी है।
1. ये पहाड़ी राज्य ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी को चारों तरफ से घेरे है।
2. इस राज्य के बारे में तुम उत्तर के मैदान पाठ में पढ़ोगे।
3. पूर्वी हिमालय के राज्यों में कई कबीले रहते हैं। जैसे नागा, मीजो, बोडो, मिशमी, मोनपा, तराओ, गलोग।
4. आओ, उनके काम-धंधे और रहन-सहन देखे।
मानचित्र में देखो तो पाओगे कि हिमालय पर्वत पूर्वी भाग बंगाल की खाड़ी के बहुत निकट है। बंगाल की खाड़ी की भाप भरी हवाएं इन पर्वतों पर घनघोर वर्षा करती है। यह प्रदेश विश्व के सबसे अधिक वर्षा वाले प्रदेशों में से है। इसके अधिकांश भागों में 300 से. मी. से अधिक वर्षा होती है।
विश्व में सबसे अधिक वर्षा मेघालय राज्य के मानसिनराम नाम की जगह पर होती है। यहां पर हर साल लगभग 1,400 से. मी. (14 मीटर) वर्षा होती है। तुम जहां रहते हो, वहां 100 से. मी. से 120 से. मी. तक वर्षा होती है। यानी कि अपने यहां से चौदह गुना अधिक वर्षा मानसिनराम में होती है।
तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूर्वी हिमालय में साल में दो-तीन महीनों को छोड़कर, बाकी समय वर्षा होती रहती है। मार्च के महीने में, जब भारत के अन्य भागों में गर्मी पड़ने लगती है, तब उत्तर-पूर्व में वर्षा शुरू हो जाती है। मई से सितंबर तक मूसलाधार वर्षा होती है। यहां पर केवल दिसंबर, जनवरी और फरवरी में बहुत कम बारिश होती है।
गर्मी की ऋतु में लगातार वर्षा होने के कारण पूर्वी हिमालय में गर्मी अधिक नहीं पड़ती है। काफी अधिक ऊंचाई होने के कारण भी यहां कम गर्मी पड़ती है। लेकिन यहां सर्दी के मौसम में कड़ाके की ठंड पड़ती है। कहीं-कहीं हिमपात भी होता है।
बहुत अधिक वर्षा होने के कारण पूर्वी हिमालय में बहुत घने वन उग आते हैं। कटने पर भी बहुत तेजी से यहां फिर से पेड़ उग आते हैं। इन वनों में बांस और बेत के पेड़ और तेजपात, बड़ी इलायची, दालचीनी जैसे मसालो के पेड़ बहुत पाए जाते हैं।
पहाड़ो की तेज ढलान और अत्यधिक वर्षा के कारण पूर्वी हिमालय में खेती करने में काफी कठिनाई होती है। तेज ढलानों पर अगर मिट्टी को खोद कर खेत बनाए जाएं तो ढीली मिट्टी घनघोर वर्षा में बह जाएगी। इस समस्या को हल करने के लिए सीढ़ीनुमा खेत बनाए जाते हैं। पूर्वी हिमालय में भी लोग सीढ़ीनुमा खेत बनाते हैं। पर यहां के बहुत बड़े इलाके में सीढ़ीनुमा खेतों के बजाए एक दूसरी तरह से खेती की जाती है। इसे झूम खेती कहते हैं। झूम खेती कैसे की जाती है, इसे देखने के लिए अरुणाचल प्रदेश की एक बस्ती में चले।
यह अरुणाचल प्रदेश की एक छोटी-सी बस्ती है। ऊंचे पहाड़ के ऊपर जो समतल भूमि है, उस पर यह गांव बसा है। बस यही कुछ बीस एक घर है। बांस के खंभो पर चबूतरा बनाकर उस पर एक बरामदा और लंबा कमरा बना है। ऐसा लगता है कि पहाड़ की ढलान पर बांसो से घर को टिका कर रखा है। बहुत अधिक वर्षा होने के कारण जमीन में बहुत सीलन रहती है, और फिर कीड़े-मकोड़े, बिच्छू सांप और जोक, ये सब भी घर में घुस जाते हैं। सीलन और कीड़ो से बचने के लिए ही यहां पर खंभो के ऊपर घर बनाए जाते हैं। घरों के आसपास के बाड़ो में फलदार पेड़ सब्जियां, चाय और काॅफी उगाई जाती हैं।
यह बस्ती है निशि कबीले की। इस बस्ती के सारे लोग एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। ये सब लोग एक ही कुनबे के लोग है। वैसे रहते है अलग-अलग घरो में।
दिसंबर का महीना है। कड़ाके की ठंड पड़ रही है। लेकिन इस महीने में बारिश बहुत कम होती है। इन महीनों में यहां पर पानी की समस्या पैदा हो जाती है। बरसात का पानी तेज ढलानों से बह जाता है तो ऊपर पानी की कमी पड़ती है। पीने का पानी गहरी घाटी में उतरकर वहां बहने वाली नदियों से लाना पड़ता है।
दिसंबर के इसी सूखे महीने में लोग अपने खेत बनाएंगे- पर उनके खेत कहां है?
उनका गांव जहां है, वह पहाड़ी और आसपास की दो-तीन पहाडि़यां इस कुनबे की पहाडि़यां हैं। यही पहाड़ी ढलान इनके खेत है। यहां का जंगल इनका है। यहां दूसरे कुनबे के लोग आकर खेती नहीं कर सकते। सारी जमीन कुनबे की है तो कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि यह मेरी जमीन है।
हर साल दिसंबर के महीने में इस बस्ती के लोग इन पहाड़ियो पर किसी एक जगह खेत बनाते हैं। पिछले वर्ष जहां खेती की, उस जमीन का क्या होगा? उस जमीन को पड़ती छोड़ देते हैं, ताकि उस पर जंगल उग आए। उस जमीन पर सात-आठ साल कोई खेती नहीं होती। वहां बांस और झाड़िया और दूसरे पेड़ उग आएंगे। सात-आठ साल बाद शायद वहां फिर से खेती होगी।
पिछले वर्ष के खेत को पड़ती छोड़ने के कारण इस वर्ष नई जगह जंगल काटकर खेती करनी है। इसी नई जगह को तय करने के लिए बस्ती के लोग निकले है। काफी देर जंगल में घूमने के बाद और वाद-विवाद के बाद तय हुआ कि पास की पहाड़ी की दक्षिणी ढलान पर इस वर्ष खेती होगी।
अब अगले दिन से जंगल काटने का काम शुरू हुआ। यह बहुत कठिन और मेहनत का काम है। हर परिवार के खेत तैयार करने के लिए पूरी बस्ती के पुरुष इकट्ठा होते है, और साथ जाकर पेड़ काटते हैं। इस तरह बारी-बारी से सबका खेत तैयार किया जाता है। किसी भी परिवार को मजदूर लगाकर काम करवाने की जरूरत नहीं पड़ती और फिर इस प्रदेश में मजदूरी करने वाले भी नहीं हैं।
पेड़ काटते समय उनके निचले हिस्सो को छोड़ दिया जाता है। पेड़ो के ठूंठ और जड़े मिट्टी को कटकर बहने से बचाती है।
एक बार पेड़ कट जाएं, तो फिर उन्हें खेत में पेड़ रहने देते हैं, ताकि वे सूख जाएं। मार्च या अप्रैल के महीने में बारिश शुरू होने से पहले सूखे पेड़ों को जला दिया जाता है। अब जमीन पर राख-ही-राख बिछी रहती है। बीच-बीच में अधजले पेड़ और ठूंठ रह जाते है। एकाध बारिश के बाद राख मिट्टी में घुल जाती है। इस तरह झूम खेत तैयार होता है।
यहां तेज ढलानों पर हल-बखर का उपयोग नहीं होता है। तेज ढलवा जमीन को बखरने से मिट्टी खुल जाती है और बारिश के पानी के साथ बह जाती है। इस कारण इन प्रदेशों में हल नहीं चलाया जाता है।
अप्रैल का महीना है। अब हल्की बारिश होने लगी है। मई से घनघोर वर्षा शुरू हो जाएगी। उससे पहले बोनी का काम करना है। परिवार के सब लोग, पुरुष और महिलाएं, टोकरियों में बीज और हाथ में कुदाल लिए झूम खेत की ओर जाते हैं। बोनी ढलान के निचले हिस्सों से शुरू करते है। कुदाल से मिट्टी में थोड़े-से छेद बनाकर उसमें बीज डाल देते हैं और फिर मिट्टी से उसे ढक देते है।
झूम खेतों में परिवार के उपयोग की सारी फसल इकट्ठा एक ही खेत में बो दी जाती है। एक ही खेत में धान, मक्का, ज्वार, तिल, सेम, फली, प्याज, तम्बाकू, कपास, शकरकंद, मिर्ची, कद्दू आदि मिला जुलाकर बोया जाता है। जैसे-जैसे फसलें पकती है, वैसे-वैसे उन्हें काट भी लिया जाता है।
बोनी के तुरंत बाद खेतो में ऊंची मचाने व झोपडि़यां बनाई जाती है। यहां रहकर परिवार वाले खेतों की देख-रेख करेगे, क्योंकि आसपास के जंगलों में बहुत जानवर है।
जब तेज वर्षा शुरू हो जाती है तो खेतों में फसल भी तेजी से बढ़ने लगती है और साथ में खरपतवार भी। यहां खरपतवार की खास समस्या है। इस कारण चार-पांच बार निदाई करना जरूरी हो जाता है।
अगस्त से लेकर दिसंबर तक फसले एक-एक कर के पकती है और उनकी कटाई होती जाती है।
तुमने इतिहास के पाठ में उड़ीसा के एक कबीले को इसी तरह खेती करते देखा था। पूर्वी हिमालय में रह रहे कई कबीले आज भी ऐसी खेती करते हैं।
झूम खेतों पर साल से एक बार तरह-तरह की फसलें उगाने के अलावा बस्ती के लोगों के लिए जंगलों से फल व कंद बटोरना एक महत्वपूर्ण काम रहता है जिसे वहां की महिलाएं करती हैं। आमतौर पर झूम खेत बनाते समय फलदार पेड़ों को नहीं काटते है ताकि उनके फलों का उपयोग हो।
यहां के पुरुष जंगलों में शिकार करते हैं। शिकार से मिला मांस उनके भोजन का मुख्य अंग है। लेकिन आजकल जंगल में जानवर कम होते जा रहे हैं, इसलिए शिकार पर कई पाबंदिया लग रही हैं।
पूर्वी हिमालय में मुख्य रूप से चावल, सब्जियां, मांस और फल खाए जाते हैं। यहां के लोग अपने भोजन की अधिकांश चीजों को अपने झूम खेतो में या घर के बाड़ों में उगा लेते है। जंगल से शिकार और फल भी मिल जाता है। बस, तेल, शक्कर और नमक की कमी होती है। ये चीजें बाहर से लाई जाती हैं, इसलिए बहुत महंगी होती हैं और कम खाई जाती हैं। यहां गाय, बकरी जैसे जानवर पाले तो जाते हैं, मगर दूध के लिए नहीं, केवल मांस के लिए।
आजकल लकड़ी की मांग बढ़ने के कारण व्यापार के लिए जंगल तेजी से कटने लगे हैं। इससे जंगल कम हो रहे हैं। आबादी भी बढ़ रही है। अब झूम खेती के लिए पर्याप्त जंगल नहीं हैं। जहां 20 साल एक खेत को पड़ती छोड़ते थे, अब सिर्फ चार या पांच साल छोड़ पा रहे हैं। इस वजह से उस जमीन पर पेड़ बढ़ नहीं पाते हैं और जंगल खराब होने लगे हैं। तीन-चार साल में ही उस जमीन पर फिर से झूम खेती करने से पैदावार भी कम होती है।
कई लोगों का यह मानना है कि झूम खेती के कारण जंगल नष्ट हो रहे हैं और यहां के लोगों को झूम खेती बंद करके ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाना चाहिए। इससे वे एक ही जगह स्थाई रूप से खेती कर सकते है और उन्हें हर साल नए जंगल काटने की जरूरत नहीं होगी।
पर यहां तेज ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाने में कुछ कठिनाइयां हैं। एक तो यह कि तेज ढलान पर सीढि़यां बनाना बहुत मेहनत का और बहुत खर्चीला काम है।
दूसरा यह कि सीढ़ीनुमा खेत बनाने में ऊपर की मिट्टी कट जाती है, इसलिए शुरू के कुछ सालों में पैदावार अच्छी नहीं होती। फिर पूर्वी हिमालय में कई महीने लगातार इतनी घनघोर वर्षा होती है कि सीढ़ीनुमा खेतों में से भी मिट्टी बह जाती है।
ऐसे कई कारणों से पूर्वी हिमालय के बहुत से हिस्सों में लोग आज भी झूम खेती ही कर रहे हैं।
तुम आगे के पाठों में पढ़ोगे कि कैसे भारत के दूसरे प्रदेशो में आदिवासियों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। कैसे बाहर से आए जमीदारों, व्यापारियों और साहूकारों ने आदिवासियों की जमीन पर कब्जा किया है। कैसे वहां लग रहे उद्योगों से आदिवासियों को विशेष फायदा नहीं मिल रहा है।
भारत के पूर्वी हिमालय के राज्यों में आदिवासियों की स्थिति इससे काफी फर्क है। यहां ऐसा कानून बना है कि बाहर का कोई व्यक्ति सरकार की अनुमति के बिना वहां जा भी नहीं सकता है, जमीन आदि खरीदने की बात तो दूर है। इससे यहां के जमीन, जंगल आदि पर बाहर के लोगों का कब्जा नहीं हुआ है। यहां के कबीले स्वतंत्र रूप से विकास कर पाए हैं और आज यहां के बड़े अफसर, शिक्षक, व्यापारी और दुकानदार, सब यही के कबीलों के लोग है। इस विकास में आधुनिक शिक्षा के फैलने का बड़ा योगदान रहा है। आदिवासी युवक और युवतियां पढ़-लिखकर अपनेे प्रदेश के ऊंचे पदो पर पहुंच गए हैं।
लेकिन इन इलाकों में बड़े उद्योग या व्यापारिक खेती न होने के कारण जीविका के नए साधन सीमित है। लोगो को रोजगार बहुत कम मिलता है। किसान अपनी फसल का बहुत छोटा भाग ही बेचते हैं। इसलिए उनके पास दूसरी बहुत सी चीजे खरीदने के लिए पैसे नहीं रहते हैं।
फिर भी पश्चिमी हिमालय के लोगों की तुलना में पूर्वी हिमालय के लोग रोजगार की तलाश में बाहर बहुत कम जाते हैं।
पश्चिमी हिमालय की तुलना में पूर्वी हिमालय में सड़के बहुत कम बनी है और इस इलाके और देश के दूसरे भागों के बीच आना-जाना भी कम है।
हां, पूर्वी हिमालय के कुछ भागों में एक ऐसी चीज होती है जो देश के कोने-कोने में पहुंचती है। यह है- चाय।
चाय अपने देश के गांव-गांव में पी जाती है। इसमें से अधिकतर चाय पूर्वी हिमालय से आती है। असम राज्य की निचली पहाडि़यों में चाय के बड़े-बड़े बागान है। चाय बागानों के मालिक अधिकतर बाहर के लोग हैं। चाय के पौधे की नई पत्तियों को तोड़कर उन्हें मशीनों से मसलकर काटा और सुखाया जाता है। चाय असम की प्रमुख व्यापारिक फसल है।
हिमालय पर्वत पश्चिम से पूर्व तक 2.500 कि.मी. लंबा है। इसके पश्चिम छोर पर जम्मू-कश्मीर राज्य और पूर्वी छोर पर अरुणाचल प्रदेश पड़ता है। हिमालय की चोटियां समुद्र की सतह से 6.000 से लेकर 8.900 मीटर ऊंची हैं- यानी कि समुद्र की सतह से लगभग 9 कि. मी. ऊपर।
हिमालय में गर्मी और सर्दी
हिमालय में भारत के अन्य प्रदेशों की तुलना में तापमान बहुत कम रहता है। गर्मी के दिनों में हिमलाय के निचले हिस्सों में जरूर अधिक गर्मी पड़ती है, लेकिन ऊंचे हिस्सो में बहुत कम गर्मी पड़ती है। ठंड के महीनों में कड़ाके की ठंड पड़ती है। ऊंचे प्रदेशों में तापमान 0 डिग्री सेंटीग्रेड से भी कम हो जाता है। ऐसे में वहां हिमपात होता है, यानी बर्फ गिरती है।
हिम और नदियां
हिमालय पर 4,500 मीटर की ऊंचाई चढ़ने पर पहाड़ों पर साल भर हिम जमी रहती है। जाड़े में अधिक ठंड पड़ने के कारण निचले पहाड़ों पर भी हिमपात होता है। बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थान बहुत ऊंचाई पर हैं - वहां जाड़े में खूब बर्फ जम जाती है और वहां के रास्ते बंद हो जाते है।
इस पर्वतमाला की ऊंचाइयां हिम से ढंकी रहने के कारण ही इसका नाम हिमालय पड़ा। (हिम+आलय=हिमालय) यानी हिम का घर।
गर्मी के दिनों में यह हिम का विशाल भंडार पिघलने लगता है। ये हिम के भंडार पिघलने पर गंगा, यमुना जैसी बड़ी-बड़ी नदियों को जन्म देते हैं। (गंगोत्री नाम के स्थान पर गंगा नदी को हिम से निकलते हुए देखा जा सकता है।)
ये नदियां हिमालय के ऊंचे पहाड़ों को काटती हुई बहुत गहरी घाटियों से बहती है। इस तरह उत्तर भारत की सारी प्रमुख नदियां हिमालय से ही निकलती हैं। हिमालय में वर्षा ऋतु में तेज बारिश भी होती है, सो उसका पानी भी इन नदियों में ही बहता है। बरसात और ठंड की ऋतुओं में ये नदियां बारिश का पानी लाती हैं। गर्मी में हिम से पिघला पानी इन नदियों में बहता है। इस तरह इन नदियों में साल भर भरपूर पानी रहता है। इसके विपरीत, दकन के पठार से निकली नदियों में गर्मी के समय पानी बहुत कम हो जाता है, क्योंकि दकन के पहाड़ों पर हिम नहीं है।
हिमालय में वर्षा
हिमालय पर्वत भारत के उत्तर में एक ऊंची दीवार की तरह खड़ा है। सागर से भाप भरी हवाएं, जो जून और जुलाई के महीनों में यहां पहुंचने लगती हैं, इस दीवार को फांदने के लिए ऊपर उठती हैं। ऊपर भाप भरी हवाएं ठंडी हो जाती हैं, तो भाप पानी की बूंदों में बदल जाती है और नीचे बारिश के रूप में गिरने लगती है। इस कारण हिमालय के कई हिस्सों में वर्षा ऋतु में तेज वर्षा होती है।
इस तरह हमने देखा कि हिमालय पर्वत के पूर्वी हिस्सों में बहुत अधिक वर्षा होती है और पश्चिम की तरफ जाते-जाते वर्षा कम होती जाती है।
हिमालय में प्राकृतिक वनस्पति
हिमालय पर्वत की चोटियों में साल भर हिम जमी रहती है। इसलिए वहां पेड़-पौधे उग ही नहीं सकते।हिमालय पर्वत की चोटियों में साल भर हिम जमी रहती है। इसलिए वहां पेड़-पौधे उग ही नहीं सकते। अगर हम हिम से घिरे इस ऊंचे इलाके से कुछ नीचे उतरें तो पहाड़ों की ढलानों पर मुलायम रसीली घास पाएंगे। यहां इतनी ठंड है कि पेड़ नहीं उग सकते हैं। मगर यहां पर घास भी गर्मी के महीनों में ही उग पाती है। ठंड में यहां पर भी हिम जम जाती है और कुछ नहीं उगता।
इस घास वाले प्रदेश से और नीचे उतरने पर ही हमें पेड़ देखने को मिलेंगे। सबसे पहले नुकीली, सुईनुमा पत्तियों के कोणधारी पेड़ों के वन मिलेंगे। इनमें पाईन (चीड़) और देवदार के पेड़ प्रमुख है। देवदार का पेड़ बहुत ऊंचा (40 मीटर तक) होता है।
कोणधारी वन के प्रदेश से नीचे उतरने पर चौड़े पत्तों के वन मिलते हैं जिनमें तरह-तरह के पेड़ होते हैं, जैसे ओक, बर्च आदि।
हिमालय से नीचे उतरने पर तराई प्रदेश मिलता है जहां तेज वर्षा होती है व गर्मी भी रहती है। यहां चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों के घने जंगल हैं। इन जंगलों में शेर, चिता, हिरण जैसे जानवर पाए जाते हैं।
हिमालय पर्वत के भाग
हिमालय पर्वत को तीन हिस्सो में बांटा जाता है। पूर्वी हिमालय, मध्य का हिमालय और पश्चिमी हिमालय। पूर्वी हिमालय में भारत के उत्तर पूर्वी राज्य और भूटान देश पड़ते है। मध्य हिमालय में नेपाल देश और उत्तर प्रदेश के हिस्से पड़ते हैं। पश्चिमी हिमालय में हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर राज्य पड़ते है। अब हम इस पाठ में पश्चिमी और पूर्वी हिमालय के बारे में पढ़ेंगे।
पश्चिमी हिमालय (हिमाचल प्रदेश)
पशुपालन और घुमक्कड़ लोग
आओ, यहां के लोगो के जीवन को समझे।
यहां, हिमालय के ऊपरी हिस्सों में गर्मी के दिनों में रसीली और मुलायम घास उगती है। यह घास जानवरों, खासकर भेड़ों के चरने के लिए बहुत उपयुक्त है। इस कारण यहां पर भेड़ पालन एक मुख्य धंधा है। पश्चिमी हिमालय में भेड़ मांस और ऊन के लिए पाली जाती है। मगर जैसे तुमने ऊपर पढ़ा था, सर्दी के दिनों में वहां बर्फ जम जाती है और घास खत्म हो जाती है। तब ये भेड़ें क्या करेंगी?
ठंड के दिनों में पशुपालक लोग अपने जानवरों के साथ हिमालय के निचले हिस्सों से आ जाते है। निचले हिस्सों में ठंड कम पड़ती है और चारा भी मिल जाता है। यही पर इन पशुपालको के गांव भी है। यहां इनके पक्के मकान है और यहां वे खेती भी करते हैं।
सर्दी के महीनों में लोगो के घरों में ऊन कातने, कंबल आदि बनाने का काम होता है। जब गर्मी के दिन आते हैं और पहाड़ों के ऊपर बर्फ पिघलती है और घास उग आती हैं, तब ये पशुपालक अपने जानवरों को चराने फिर से ऊपर चले जाते हैं।
पश्चिमी हिमालय के गांव और सीढ़ीनुमा खेत
हिमालय पर खेती लायक जमीन बहुत कम है। खेतिहर भूमि की कमी के कारण पहाड़ों पर आबादी कम और बिखरी हुई है। यहां के लोग सदियों से पहाड़ो की ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर खेती करते आए हैं। हिमालय के लोग सीढ़ीनुमा खेतों में चावल, मक्का, सब्जियां और फल उगाते हैं। हिमालय पर खेती लायक जमीन बहुत कम है। बस, चौड़ी घाटियां और हल्के ढाल वाले पहाड़ों पर खेती की जा सकती है। जहां-जहां ऐसी जमीन मिलती है वहां लोगों की बसाहट भी है। इस कारण हिमालय में दूर-दूर और छोटी-छोटी बस्तियां ही पाई जाती है। खेतिहर भूमि की कमी के कारण पहाड़ों पर आबादी कम और बिखरी हुई है।
यहां के लोग सदियों से पहाड़ो की ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर खेती करते आए हैं।
हिमालय के लोग सीढ़ीनुमा खेतों में चावल, मक्का, सब्जियां और फल उगाते हैं। पहाड़ी खेतों में अनाज की पैदावार ज्यादा नहीं होती। पर तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि इन खेतों में सब्जियां बहुत अच्छी होती है। तुमने शिमला के पहाड़ी आलू और शिमला मिर्च के बारे में तो सुना ही होगा। इसी तरह सेब, आलू बुखारा, खुबानी, नाशपाती, आलूचा और चेरी जैसे फल हिमालय के पहाड़ों की ढलानों पर बहुत होते है।
देश की सुरक्षा, सड़कें और खेती का विकास
तुम जानते ही हो कि हिमालय अपने देश की सीमा पर है। अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि वहां तक आसानी से सेना आ-जा सके। इसके लिए आजादी के बाद हिमालय में सड़कों का जाल बिछाया गया।
पुराने समय में सब्जी या फल की खेती भी बहुत कम ही होती थी। इसका एक महत्वपूर्ण कारण था यातायात के साधनों की कमी। पहाड़ों पर सड़क बिछाना तो बहुत कठिन काम होता है और महंगा भी। अतः आजादी से पहले हिमालय में सड़कें बहुत कम थी। सड़कें नहीं थी तो ट्रक वालों का आना-जाना भी नहीं था। लोग मीलों संकरी, ढलवां पहाड़ी, पगडंडियों से चलकर एक जगह से दूसरी जगह जाते थे।
ऐसे हालातों में फल या सब्जी दूर के शहरों के बाजारों में बेचने के लिए ले जाना बहुत मुश्किल था। और फिर फल-सब्जी की खेती में लागत भी अधिक लगती है। लागत भी लगाओ और उन्हें बेच नहीं पाओ तो उन्हें उगाकर कोई क्या करे? इसलिए तब फल व सब्जियां कम उगाई जाती थी।
सन् 1947 के बाद पहाड़ों में बहुत दूर-दराज के पहाड़ी इलाके भी सड़कों से जुड़ गए। सड़कें बनी, जिनसे यहां मैदानों से मोटरगाड़ी व ट्रक आने लगे। परिवहन के साधनों के बढ़ने से अब हिमालय की सूरत ही बदल रही है। किसान सब्जी अधिक-से-अधिक उगाने लगे है। इतना कि शिमला के आलू मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तक बिकने आते है। इसी तरह फलों के बगीचे भी बढ़ने लगे है। पंजाब व उत्तर प्रदेश के धनी लोगों ने मौका पाकर हिमालय में जंगलों की जमीन खरीदी, जंगल साफ करके वहां फलों के बड़े-बड़े बाग लगाए खासकर सेब के। सेब अधिक दिन तक सड़ता नहीं है। हिमालय का सेब महीनों बाद भी मद्रास व केरल में बिकने जाता है। आज पूरे भारत में जितना भी सेब उगता है, उसका एक तिहाई भाग हिमाचल प्रदेश में ही होता है।
हिमाचल प्रदेश में फलों के बाग मुख्य रूप से बाहर के लोगों के हाथ में है। हिमाचल के पहाड़ी निवासियों के पास इतना धन इकट्ठा नहीं हो पाया था कि वे खुद बड़े-बड़े बाग लगाएं। वे बागों में मजदूरों के रूप में काम करते हैं। बागों में, फलों को डिब्बों में पैक करने के काम में, सामान लाने ले जाने के काम में कई लोगों को रोजगार मिल जाता है।
बिजली और उद्योग धंधे
हिमालय में खूब वर्षा होती है, जिसके कारण छोटे-बड़े नदी-नाले तेजी से ढलानों पर बहते हैं। इन नदियों का उपयोग बिजली के उत्पादन में खूब हो रहा है। पहाड़ी नदियों का पानी ढलानों पर, पाईपों द्वारा तेजी से गिराया जाता है और उससे पनबिजली की मशीने चलती हैं। इस तरह बिजली पैदा होती है।तुमने देखा कि हिमालय में खूब वर्षा होती है, जिसके कारण छोटे-बड़े नदी-नाले तेजी से ढलानों पर बहते हैं। इन नदियों का उपयोग बिजली के उत्पादन में खूब हो रहा है। पहाड़ी नदियों का पानी ढलानों पर, पाईपों द्वारा तेजी से गिराया जाता है और उससे पनबिजली की मशीने चलती हैं। इस तरह बिजली पैदा होती है। अब तो हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य के गांव-गांव में बिजली पहुंच गई है। हिमाचल प्रदेश को भाखड़ा नांगल जोगेंद्र नगर और सतलज-व्यास लिंक योजना आदि से बिजली मिलती है। सतलज नदी की घाटी में कई अन्य पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही है।
वैसे इस बिजली से बड़े कारखाने और उद्योग-धंधे भी चल सकते हैं। मगर हिमालय के क्षेत्र में ऐसे उद्योग नहीं हैं।
क्या तुम इसका कारण सोच सकते हो? एक मुख्य कारण यह है कि पहाड़ो पर रेल लाईंनों का जाल बिछाना कठिन है। दूसरा कारण यह है कि हिमालय में लोहा, कोयला जैसी खनिज संपदा की कमी है।
हिमालय में एक खनिज जरूर मिलता है। यहां के चूने के पत्थर के उपयोग से सीमेंट के कारखाने लगने लगे है। चूना पत्थर की खदानों में और सीमेंट कारखानों में भी लोगों को रोजगार मिला है। साथ-ही-साथ सीमेंट की उपलब्धि के चलते पुल, बांध, घर, पन बिजली केंद्र बनाने में आसानी हो गई है। पर यह काम हिमालय पर्वत के पर्यावरण को ध्यान में रख कर नहीं हो पाया है। चूना खदानों से जमीन का खिसकना, मलबे का जमा होना और उससे जुड़ी सभी समस्याए पैदा हुई हैं। सीमेंट बनाने के कारखानों से सीमेंट की धूल उड़कर चारों ओर छा जाती है। इस धूल से लोगों की सेहत, पेड़-पौधों और फसलों को नुकसान होने लगा है।
यहां के परंपरागत उद्योग है - पुराने हस्पशिल्प, जैसे हथकरघे से बने कपड़े व शाल की बुनाई, कषीदाकारी, लकड़ी की तराशी हुई चीजें, आदि। इसके अलावा कागज की लुगदी से भी सुंदर डिजाइनदार सामान बनाए जाते हैं। ये उद्योग कश्मीर में बहुत महत्वपूर्ण हैं।
ये सब छोटे गृह उद्योग है। कारखानों में बने माल की बिक्री के कारण ये घरेलू धंधे खत्म हो रहे थे। पर सरकार ने इन्हें विशेष प्रोत्साहन दिया। इसका फायदा उठाते हुए, इनमें बनी चीजें दूर-दूर के बाजारों में पहुंचने लगी है और इनकी मांग अब काफी बढ़ गई है। ये सब अच्छी कीमत पर बिक जाते है।
हिमाचल प्रदेश में, हाल के कुछ सालो में, फलों का रस निकालने, मुरब्बे, अचार आदि बनाने के छोटे कारखाने भी लगने लगे हैं। इनमें वहां पर उगने वाले फलों का उपयोग किया जाता है।
पर्यटन
पहाड़ी इलाकों में कुछ वर्षों से पर्यटन का धंधा तेजी से फल-फूल रहा है। बड़े शहरों में रहने वाले धनी लोग और विदेशी यात्री हिमालय की प्राकृतिक खूबसूरती का आनंद लेने और ठंडक के लिए भारी संख्या में कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, असम आदि राज्यों में आते है। उनके ठहरने, रहने, खाने-पीने के लिए होटल और लाने ले जाने के लिए मोटर-टैक्सी के धंधे अब तेजी से विकसित हो रहे हैं। इस तरह के धंधो में भी बहुत लोगों को रोजगार मिल जाता है। हिमालय में महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल भी है- वैष्णोदेवी, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, धर्मशाला आदि।
जंगल नष्ट हो रहे हैं
ऊपर तुमने हिमलाय के वनों के बारे में पढ़ा था। यहां के देवदार और चीड़ नामक वृक्ष दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। सन् 1950 में हिमाचल प्रदेश की 38 प्रतिशत जमीन जंगलों से ढंकी थी, आज केवल 18 प्रतिशत पर जंगल हैं। इस तरह तेजी से जंगल कटने के पीछे क्या कारण है?
यहां की लकड़ी फर्नीचर बनाने, खेल-खिलौने का सामान व माचिस बनाने तथा लकड़ी की पेटियां बनाने के उद्योगों में लगती है। इन उद्योगों की मांग को पूरा करने के लिए ही ये पेड़ कट रहे हैं।
जैसा कि तुमने ऊपर पढ़ा था, हिमालय में खनिज संसाधन बहुत कम है। जंगल ही यहां का प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। सरकार को जंगल की लकड़ी की बिक्री से अच्छी आमदनी मिलती है। सरकार लकड़ी काटने का काम ठेके पर दे देती है। ठेकेदार सरकार को एक-एक पेड़ के लिए 600 से 1,000 रुपए तक देते है। वही पेड़ वे 2,500 रुपए तक में बेचते है। साथ ही वे निर्धारित पेड़ों के अलावा अवैध तरीके से अन्य पेड़ों को भी काटते हैं। इस प्रकार हिमालय का जंगल अंधाधुंध कटता जा रहा है।
हिमालय पहाड़ की चट्टाने बहुत कठोर नहीं है। पेड़ कटने से तेज ढलाने टूट-टूट कर गिरने लगी है। कई बार तो गांव-के-गांव ऊपर की ढलान के टूटे मलबे से दब जाते है।तुमने पेड़ों की कटाई के दुष्परिणामों की बात कक्षा 7 में पढ़ी थी। हिमालय उस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। हिमालय पहाड़ की चट्टाने बहुत कठोर नहीं है। पेड़ कटने से तेज ढलाने टूट-टूट कर गिरने लगी है और यह अब यहां की गंभीर समस्या बन गई है। कई बार तो गांव- के-गांव ऊपर की ढलान के टूटे मलबे से दब जाते है- लोग मरते हैं, घर टूट जाते है। सड़को पर मलबा जमा हो जाता है तो आवागमन रुक जाता है। इस तरह के भूस्खलन (जमीन के खिसकने) से नदियों में मलबा जमा हो जाता है तो नदियों के मार्ग भी रुक जाते है। नदियों से झीले बनने लगती हैं- पर ये अस्थाई झीले होती है। कुछ समय में पानी के दबाव से मलबे का ढेर टूट जाता है और पहाड़ के निचले भागों में बाढ़ आ जाती है।
पहाड़ों की बर्बादी को रोकने के लिए कुमाऊ और गढ़वाल क्षेत्र के लोगों ने एक आंदोलन चलाया है जिसे “चिपको” आंदोलन कहते हैं। जब ठेकेदार पेड़ काटने आते तो आसपास के गांवों के सब लोग पेड़ो को घेर कर खड़े हो जाते और ठेकेदार पेड़ नहीं काट पाते। अब तो पहाड़ की नंगी हुई ढलानों पर वृक्षारोपण किया जा रहा है, जिससे ढलानें फिर वनों से ढक जाएं।
रोजगार की कमी और पहाड़ों से पलायन
तुम उत्तर के मैदान में बड़े-बड़े शहरों में बहुत सारे पहाड़ी लोगों को मजदूरी करते देख सकते हो। पहाड़ों में अपने घर-बार छोड़कर ये पहाड़ी लोग इन शहरों में क्यों आते हैं?
क्या तुम खुद इसका कोई कारण सोच सकते हो?
पहाड़ों में खेतिहर जमीन की कमी है। तो वहां खेती बढ़ाने के तरीके नहीं है। वहां न बहुत सारे उद्योग-धंधे लगे है, न बड़े शहर है। इस कारण वहां जीविका के साधन सीमित है। मैदानों में बसे बड़े शहरों में बड़े-बड़े उद्योग लग रहे है, तरह-तरह के काम धंधे पनप रहे है। तो मैदानों के शहरों में रोजगार मिलने की संभावना अधिक है। इसीलिए पहाड़ी लोग दिल्ली-कानपुर जैसे शहरों में आते हैं। इनमें से कई लोग गर्मियों में खेती करने अपने गांवों को लौट जाते हैं। कई पहाड़ी लोग मैदान के इन शहरों में ही बस गए हैं।
पूर्वी हिमालय
आओ, अब पूर्वी हिमालय के लोगों के बारे में कुछ जाने। ऊंचे पहाड़ी इलाके के कारण पूर्वी और पश्चिमी हिमालय में कई बातें तो एक समान है पर कुछ बातों में अंतर भी है।
1. ये पहाड़ी राज्य ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी को चारों तरफ से घेरे है।
2. इस राज्य के बारे में तुम उत्तर के मैदान पाठ में पढ़ोगे।
3. पूर्वी हिमालय के राज्यों में कई कबीले रहते हैं। जैसे नागा, मीजो, बोडो, मिशमी, मोनपा, तराओ, गलोग।
4. आओ, उनके काम-धंधे और रहन-सहन देखे।
पूर्वी हिमालय में वर्षा और वन
मानचित्र में देखो तो पाओगे कि हिमालय पर्वत पूर्वी भाग बंगाल की खाड़ी के बहुत निकट है। बंगाल की खाड़ी की भाप भरी हवाएं इन पर्वतों पर घनघोर वर्षा करती है। यह प्रदेश विश्व के सबसे अधिक वर्षा वाले प्रदेशों में से है। इसके अधिकांश भागों में 300 से. मी. से अधिक वर्षा होती है।
विश्व में सबसे अधिक वर्षा मेघालय राज्य के मानसिनराम नाम की जगह पर होती है। यहां पर हर साल लगभग 1,400 से. मी. (14 मीटर) वर्षा होती है। तुम जहां रहते हो, वहां 100 से. मी. से 120 से. मी. तक वर्षा होती है। यानी कि अपने यहां से चौदह गुना अधिक वर्षा मानसिनराम में होती है।
तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूर्वी हिमालय में साल में दो-तीन महीनों को छोड़कर, बाकी समय वर्षा होती रहती है। मार्च के महीने में, जब भारत के अन्य भागों में गर्मी पड़ने लगती है, तब उत्तर-पूर्व में वर्षा शुरू हो जाती है। मई से सितंबर तक मूसलाधार वर्षा होती है। यहां पर केवल दिसंबर, जनवरी और फरवरी में बहुत कम बारिश होती है।
गर्मी की ऋतु में लगातार वर्षा होने के कारण पूर्वी हिमालय में गर्मी अधिक नहीं पड़ती है। काफी अधिक ऊंचाई होने के कारण भी यहां कम गर्मी पड़ती है। लेकिन यहां सर्दी के मौसम में कड़ाके की ठंड पड़ती है। कहीं-कहीं हिमपात भी होता है।
बहुत अधिक वर्षा होने के कारण पूर्वी हिमालय में बहुत घने वन उग आते हैं। कटने पर भी बहुत तेजी से यहां फिर से पेड़ उग आते हैं। इन वनों में बांस और बेत के पेड़ और तेजपात, बड़ी इलायची, दालचीनी जैसे मसालो के पेड़ बहुत पाए जाते हैं।
पहाड़ो की तेज ढलान और अत्यधिक वर्षा के कारण पूर्वी हिमालय में खेती करने में काफी कठिनाई होती है। तेज ढलानों पर अगर मिट्टी को खोद कर खेत बनाए जाएं तो ढीली मिट्टी घनघोर वर्षा में बह जाएगी। इस समस्या को हल करने के लिए सीढ़ीनुमा खेत बनाए जाते हैं। पूर्वी हिमालय में भी लोग सीढ़ीनुमा खेत बनाते हैं। पर यहां के बहुत बड़े इलाके में सीढ़ीनुमा खेतों के बजाए एक दूसरी तरह से खेती की जाती है। इसे झूम खेती कहते हैं। झूम खेती कैसे की जाती है, इसे देखने के लिए अरुणाचल प्रदेश की एक बस्ती में चले।
यह अरुणाचल प्रदेश की एक छोटी-सी बस्ती है। ऊंचे पहाड़ के ऊपर जो समतल भूमि है, उस पर यह गांव बसा है। बस यही कुछ बीस एक घर है। बांस के खंभो पर चबूतरा बनाकर उस पर एक बरामदा और लंबा कमरा बना है। ऐसा लगता है कि पहाड़ की ढलान पर बांसो से घर को टिका कर रखा है। बहुत अधिक वर्षा होने के कारण जमीन में बहुत सीलन रहती है, और फिर कीड़े-मकोड़े, बिच्छू सांप और जोक, ये सब भी घर में घुस जाते हैं। सीलन और कीड़ो से बचने के लिए ही यहां पर खंभो के ऊपर घर बनाए जाते हैं। घरों के आसपास के बाड़ो में फलदार पेड़ सब्जियां, चाय और काॅफी उगाई जाती हैं।
यह बस्ती है निशि कबीले की। इस बस्ती के सारे लोग एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। ये सब लोग एक ही कुनबे के लोग है। वैसे रहते है अलग-अलग घरो में।
खेत खोजने निकले
दिसंबर का महीना है। कड़ाके की ठंड पड़ रही है। लेकिन इस महीने में बारिश बहुत कम होती है। इन महीनों में यहां पर पानी की समस्या पैदा हो जाती है। बरसात का पानी तेज ढलानों से बह जाता है तो ऊपर पानी की कमी पड़ती है। पीने का पानी गहरी घाटी में उतरकर वहां बहने वाली नदियों से लाना पड़ता है।
दिसंबर के इसी सूखे महीने में लोग अपने खेत बनाएंगे- पर उनके खेत कहां है?
उनका गांव जहां है, वह पहाड़ी और आसपास की दो-तीन पहाडि़यां इस कुनबे की पहाडि़यां हैं। यही पहाड़ी ढलान इनके खेत है। यहां का जंगल इनका है। यहां दूसरे कुनबे के लोग आकर खेती नहीं कर सकते। सारी जमीन कुनबे की है तो कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि यह मेरी जमीन है।
हर साल दिसंबर के महीने में इस बस्ती के लोग इन पहाड़ियो पर किसी एक जगह खेत बनाते हैं। पिछले वर्ष जहां खेती की, उस जमीन का क्या होगा? उस जमीन को पड़ती छोड़ देते हैं, ताकि उस पर जंगल उग आए। उस जमीन पर सात-आठ साल कोई खेती नहीं होती। वहां बांस और झाड़िया और दूसरे पेड़ उग आएंगे। सात-आठ साल बाद शायद वहां फिर से खेती होगी।
पिछले वर्ष के खेत को पड़ती छोड़ने के कारण इस वर्ष नई जगह जंगल काटकर खेती करनी है। इसी नई जगह को तय करने के लिए बस्ती के लोग निकले है। काफी देर जंगल में घूमने के बाद और वाद-विवाद के बाद तय हुआ कि पास की पहाड़ी की दक्षिणी ढलान पर इस वर्ष खेती होगी।
जंगल काटे
अब अगले दिन से जंगल काटने का काम शुरू हुआ। यह बहुत कठिन और मेहनत का काम है। हर परिवार के खेत तैयार करने के लिए पूरी बस्ती के पुरुष इकट्ठा होते है, और साथ जाकर पेड़ काटते हैं। इस तरह बारी-बारी से सबका खेत तैयार किया जाता है। किसी भी परिवार को मजदूर लगाकर काम करवाने की जरूरत नहीं पड़ती और फिर इस प्रदेश में मजदूरी करने वाले भी नहीं हैं।
पेड़ काटते समय उनके निचले हिस्सो को छोड़ दिया जाता है। पेड़ो के ठूंठ और जड़े मिट्टी को कटकर बहने से बचाती है।
पेड़ जलाए
एक बार पेड़ कट जाएं, तो फिर उन्हें खेत में पेड़ रहने देते हैं, ताकि वे सूख जाएं। मार्च या अप्रैल के महीने में बारिश शुरू होने से पहले सूखे पेड़ों को जला दिया जाता है। अब जमीन पर राख-ही-राख बिछी रहती है। बीच-बीच में अधजले पेड़ और ठूंठ रह जाते है। एकाध बारिश के बाद राख मिट्टी में घुल जाती है। इस तरह झूम खेत तैयार होता है।
यहां तेज ढलानों पर हल-बखर का उपयोग नहीं होता है। तेज ढलवा जमीन को बखरने से मिट्टी खुल जाती है और बारिश के पानी के साथ बह जाती है। इस कारण इन प्रदेशों में हल नहीं चलाया जाता है।
बोनी
अप्रैल का महीना है। अब हल्की बारिश होने लगी है। मई से घनघोर वर्षा शुरू हो जाएगी। उससे पहले बोनी का काम करना है। परिवार के सब लोग, पुरुष और महिलाएं, टोकरियों में बीज और हाथ में कुदाल लिए झूम खेत की ओर जाते हैं। बोनी ढलान के निचले हिस्सों से शुरू करते है। कुदाल से मिट्टी में थोड़े-से छेद बनाकर उसमें बीज डाल देते हैं और फिर मिट्टी से उसे ढक देते है।
फसल
झूम खेतों में परिवार के उपयोग की सारी फसल इकट्ठा एक ही खेत में बो दी जाती है। एक ही खेत में धान, मक्का, ज्वार, तिल, सेम, फली, प्याज, तम्बाकू, कपास, शकरकंद, मिर्ची, कद्दू आदि मिला जुलाकर बोया जाता है। जैसे-जैसे फसलें पकती है, वैसे-वैसे उन्हें काट भी लिया जाता है।
खेत में मचान
बोनी के तुरंत बाद खेतो में ऊंची मचाने व झोपडि़यां बनाई जाती है। यहां रहकर परिवार वाले खेतों की देख-रेख करेगे, क्योंकि आसपास के जंगलों में बहुत जानवर है।
निंदाई
जब तेज वर्षा शुरू हो जाती है तो खेतों में फसल भी तेजी से बढ़ने लगती है और साथ में खरपतवार भी। यहां खरपतवार की खास समस्या है। इस कारण चार-पांच बार निदाई करना जरूरी हो जाता है।
कटाई
अगस्त से लेकर दिसंबर तक फसले एक-एक कर के पकती है और उनकी कटाई होती जाती है।
तुमने इतिहास के पाठ में उड़ीसा के एक कबीले को इसी तरह खेती करते देखा था। पूर्वी हिमालय में रह रहे कई कबीले आज भी ऐसी खेती करते हैं।
जंगल का उपयोग
झूम खेतों पर साल से एक बार तरह-तरह की फसलें उगाने के अलावा बस्ती के लोगों के लिए जंगलों से फल व कंद बटोरना एक महत्वपूर्ण काम रहता है जिसे वहां की महिलाएं करती हैं। आमतौर पर झूम खेत बनाते समय फलदार पेड़ों को नहीं काटते है ताकि उनके फलों का उपयोग हो।
यहां के पुरुष जंगलों में शिकार करते हैं। शिकार से मिला मांस उनके भोजन का मुख्य अंग है। लेकिन आजकल जंगल में जानवर कम होते जा रहे हैं, इसलिए शिकार पर कई पाबंदिया लग रही हैं।
भोजन
पूर्वी हिमालय में मुख्य रूप से चावल, सब्जियां, मांस और फल खाए जाते हैं। यहां के लोग अपने भोजन की अधिकांश चीजों को अपने झूम खेतो में या घर के बाड़ों में उगा लेते है। जंगल से शिकार और फल भी मिल जाता है। बस, तेल, शक्कर और नमक की कमी होती है। ये चीजें बाहर से लाई जाती हैं, इसलिए बहुत महंगी होती हैं और कम खाई जाती हैं। यहां गाय, बकरी जैसे जानवर पाले तो जाते हैं, मगर दूध के लिए नहीं, केवल मांस के लिए।
झूम खेती की समस्याएं
आजकल लकड़ी की मांग बढ़ने के कारण व्यापार के लिए जंगल तेजी से कटने लगे हैं। इससे जंगल कम हो रहे हैं। आबादी भी बढ़ रही है। अब झूम खेती के लिए पर्याप्त जंगल नहीं हैं। जहां 20 साल एक खेत को पड़ती छोड़ते थे, अब सिर्फ चार या पांच साल छोड़ पा रहे हैं। इस वजह से उस जमीन पर पेड़ बढ़ नहीं पाते हैं और जंगल खराब होने लगे हैं। तीन-चार साल में ही उस जमीन पर फिर से झूम खेती करने से पैदावार भी कम होती है।
कई लोगों का यह मानना है कि झूम खेती के कारण जंगल नष्ट हो रहे हैं और यहां के लोगों को झूम खेती बंद करके ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाना चाहिए। इससे वे एक ही जगह स्थाई रूप से खेती कर सकते है और उन्हें हर साल नए जंगल काटने की जरूरत नहीं होगी।
पर यहां तेज ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाने में कुछ कठिनाइयां हैं। एक तो यह कि तेज ढलान पर सीढि़यां बनाना बहुत मेहनत का और बहुत खर्चीला काम है।
दूसरा यह कि सीढ़ीनुमा खेत बनाने में ऊपर की मिट्टी कट जाती है, इसलिए शुरू के कुछ सालों में पैदावार अच्छी नहीं होती। फिर पूर्वी हिमालय में कई महीने लगातार इतनी घनघोर वर्षा होती है कि सीढ़ीनुमा खेतों में से भी मिट्टी बह जाती है।
ऐसे कई कारणों से पूर्वी हिमालय के बहुत से हिस्सों में लोग आज भी झूम खेती ही कर रहे हैं।
उत्तर पूर्वी राज्यों में आदिवासी लोगों का विकास
तुम आगे के पाठों में पढ़ोगे कि कैसे भारत के दूसरे प्रदेशो में आदिवासियों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। कैसे बाहर से आए जमीदारों, व्यापारियों और साहूकारों ने आदिवासियों की जमीन पर कब्जा किया है। कैसे वहां लग रहे उद्योगों से आदिवासियों को विशेष फायदा नहीं मिल रहा है।
भारत के पूर्वी हिमालय के राज्यों में आदिवासियों की स्थिति इससे काफी फर्क है। यहां ऐसा कानून बना है कि बाहर का कोई व्यक्ति सरकार की अनुमति के बिना वहां जा भी नहीं सकता है, जमीन आदि खरीदने की बात तो दूर है। इससे यहां के जमीन, जंगल आदि पर बाहर के लोगों का कब्जा नहीं हुआ है। यहां के कबीले स्वतंत्र रूप से विकास कर पाए हैं और आज यहां के बड़े अफसर, शिक्षक, व्यापारी और दुकानदार, सब यही के कबीलों के लोग है। इस विकास में आधुनिक शिक्षा के फैलने का बड़ा योगदान रहा है। आदिवासी युवक और युवतियां पढ़-लिखकर अपनेे प्रदेश के ऊंचे पदो पर पहुंच गए हैं।
लेकिन इन इलाकों में बड़े उद्योग या व्यापारिक खेती न होने के कारण जीविका के नए साधन सीमित है। लोगो को रोजगार बहुत कम मिलता है। किसान अपनी फसल का बहुत छोटा भाग ही बेचते हैं। इसलिए उनके पास दूसरी बहुत सी चीजे खरीदने के लिए पैसे नहीं रहते हैं।
फिर भी पश्चिमी हिमालय के लोगों की तुलना में पूर्वी हिमालय के लोग रोजगार की तलाश में बाहर बहुत कम जाते हैं।
पश्चिमी हिमालय की तुलना में पूर्वी हिमालय में सड़के बहुत कम बनी है और इस इलाके और देश के दूसरे भागों के बीच आना-जाना भी कम है।
हां, पूर्वी हिमालय के कुछ भागों में एक ऐसी चीज होती है जो देश के कोने-कोने में पहुंचती है। यह है- चाय।
चाय के बागान
चाय अपने देश के गांव-गांव में पी जाती है। इसमें से अधिकतर चाय पूर्वी हिमालय से आती है। असम राज्य की निचली पहाडि़यों में चाय के बड़े-बड़े बागान है। चाय बागानों के मालिक अधिकतर बाहर के लोग हैं। चाय के पौधे की नई पत्तियों को तोड़कर उन्हें मशीनों से मसलकर काटा और सुखाया जाता है। चाय असम की प्रमुख व्यापारिक फसल है।
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Post By: pankajbagwan