ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा हिमाच्छादित क्षेत्र कहा जाने वाला जैवविविधता से समृद्ध हमारा हिमालय विश्व के सुंदरतम प्राकृतिक स्थलों में से एक है। भूवैज्ञानिकों का दावा है कि पृथ्वी का यह सबसे युवा पर्वत हमारा हिमालय आज भी निरंतर ऊपर की ओर बढ़ रहा है। इसका कारण सम्भवतः लगभग सात करोड़ साल पूर्व की वे दो इण्डो-आस्ट्रेलियन और यूरेशियन प्लेटें ही हैं, जिनके आपस में टकराने से हिमालय की उत्पत्ति हुई और ऐसा माना जा रहा है कि अभी भी इन्हीं प्लेटों के दबाव के कारण हिमालय की ऊँचाई लगातार बढ़ रही है।
पश्चिम में सिन्धु नदी के निकट नागा पर्वत से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी के निकट नमचा बरवा तक विस्तारित हिमालय को तीन श्रेणियों क्रमशः बृहत्तर, निम्नतर और शिवालिक हिमालय में बाँटा जा सकता है। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान से लेकर भारत के उत्तरी और पूर्वी भागों तक विस्तारित लगभग 2500 लम्बाई और 6100 मी. से अधिक की औसत ऊँचाई वाले बृहत्तर हिमालय में ही विश्व की सबसे ऊँची चोटी माउन्ट एवरेस्ट (8848 मी.) स्थित है। इसके समानान्तर ही पूर्व-पश्चिम दिशा में लगभग 1800-4600 मी. ऊँचा निम्नतर हिमालय सिन्धु नदी से लेकर उत्तरी भारत, नेपाल और सिक्किम से होते हुए भूटान के पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी के आस-पास तक फैला है। इसके बाद कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, नेपाल, पश्चिम बंगाल, भूटान और अरुणाचल प्रदेश तक फैला 1500-2000 मी. की औसत ऊँचाई और 10-15 किमी चौड़ाई वाला हिमालय का सबसे दक्षिणी भाग आता है। यदि केवल भारत के संदर्भ में देखा जाए तो 26 डिग्री 20 मिनट और 35 डिग्री 40 मिनट उत्तर अक्षांशों तथा 74 डिग्री 50 मिनट और 95 डिग्री 40 मिनट पूर्व देशांतरों के मध्य विस्तारित हिमालय का 73 प्रतिशत क्षेत्र भारत भूमि में आता है।
देश की समग्र उत्तरी सीमा के सजग प्रहरी की भूमिका निभा रहे हिमालय का भारतीय क्षेत्र में भौगोलिक विस्तार 5.3 लाख वर्ग किमी तक है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 16.2% है। भारत के प्रमुख पाँच पारिस्थितिकीय उप-क्षेत्रों में से एक भारतीय हिमालय पर्वत श्रृंखला को तीन भागों क्रमशःहिमालय की तलहटी, पश्चिमी हिमालय तथा पूर्वी हिमालय में विभाजित किया गया है। भारतीय हिमालय क्षेत्र (आईएचआर) में भारत के बारह राज्य क्रमशः जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल आते हैं।
80 से 300 किमी तक की चौड़ाई और आठ हजार मीटर तक की ऊँचाई वाले भारतीय हिमालय के भौगोलिक क्षेत्र का 41.5 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है, जो देश के कुल वन क्षेत्र का एक तिहाई है और उत्तम श्रेणी के वन के रूप में इसकी भागीदारी लगभग 47 प्रतिशत है। पारिस्थितिक तंत्र की विविधता को दर्शाते भारतीय हिमालय क्षेत्र में जलोढ़ और अल्पाइन घास के मैदानों से लेकर उपोष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण तथा शंकुवृक्ष वाले वन शामिल हैं। दोनों पूर्वी और पश्चिमी हिमालय वनक्षेत्र वैश्विक जैव विविधता के समृद्धशाली भण्डार हैं। शेर और हाथी जैसे बड़े स्तनपायी के साथ-साथ हिम तेंदुए, कस्तूरी हिरण, हिमालयी तह, नीली भेड़, ब्लैक बियर, चिर तीतर, हिमालयी मोनल और वेस्टर्न ट्रागोपान यहाँ के कुछ विशिष्ट जीव हैं। भारतीय हिमालय क्षेत्र में लगभग 1000 पक्षी प्रजातियों को दर्ज किया गया है, जो पूरे देश में पाई जाने वाली पक्षी प्रजातियों का 60% से अधिक है। इसके अलावा यहाँ छिपकलियों और कछुओं सहित 35 स्थानिक सरीसृप प्रजातियाँ और 68 उभयचरजीव प्रजातियाँ भी शामिल हैं।
हिमालयी क्षेत्र असाधारण रूप से विविधता और स्थानिकता से समृद्ध होने के कारण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। प्राकृतिक भू-सम्पदा, औषधीय सम्पदा, वन, वन्यजीव, पादप प्रजातियाँ, जैवविविधता, हिमनदों और जलस्रोतों आदि के कारण भारतीय हिमालय क्षेत्र हमेशा से वैज्ञानिकों के शोध का केंद्र रहा है। हिमालय की पारिस्थितिकी से भारत ही नहीं बल्कि एशिया की अधिकांश जलवायु प्रभावित होती है। अतः इसके वैज्ञानिक शोधों की परिधि में यहाँ के वन, पक्षी, कृषि, भूमि, चारागाह, नदियाँ, मृदा, हिमनद, कार्बन अवशोषण क्षमता आदि-आदि अनेक विषय शोध के लिये तैयार रहते हैं। समय-समय पर इन्हीं विविध विषयों पर देश विदेश के विभिन्न संस्थानों के वैज्ञानिक व शोधकर्ता हिमालय पर शोध करते रहते हैं। हाल ही में प्रिंसटन विश्वविद्यालय, प्रिंसटन, अमेरिका के दो वैज्ञानिकों पॉल आर. एलेसन एवं डेविड एस. विल्कोवे के साथ मिलकर भारत वन्यजीव संस्थान, देहरादून के वैज्ञानिकों रामनारायण कल्याणमरण और कृष्णमूर्ति रमेश द्वारा हिमालयी पक्षियों पर किए गए शोध से सम्बन्धित शोधपत्र कन्ज़र्वेशन बॉयोलॉजी नामक रिसर्च जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इसमें हिमालयी पक्षियों की कुछ प्रजातियों पर मँडरा रहे खतरे की चेतावनी दी गई है।
हालाँकि पूर्व के वर्षों में किए गए अन्य शोधों में भी अनेक भारतीय वैज्ञानिकों जैसे राव और पंत (2001), लेले और जोशी (2009), पण्डित और उनके सहयोगी (2007 व 2014) आदि ने अपने-अपने शोधों से इस ओर ध्यान दिलाने का प्रयास किया था कि भारतीय हिमालय क्षेत्र में पिछले कुछ दशकों से निरंतर बढ़ रही वनों की कटाई से जहाँ एक ओर वनों और वन संसाधनों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, वहीं इसके कारण हिमालयी पक्षियों की प्रजातियों को भी खतरा बढ़ गया है। आंकड़ों की मानें तो हिमालय 8 करोड़ 60 लाख घन मीटर जल की आपूर्ति करता है। देश की करीब चार फीसदी आबादी भारतीय हिमालयी क्षेत्र में निवास करती है और अपनी रोजमर्रा की आजीविका के लिये हिमालय पर निर्भर है। एक आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि हिमालय बेल्ट में 6240 अरब रुपए का बाजार है, जो केवल प्राकृतिक तरीके से उत्पन्न आर्गेनिक फूड का है। वर्ष 2010 से 2015 तक के आँकड़ों के अनुसार यहाँ आर्गेनिक कृषि का 22.3 प्रतिशत का माप बढ़ा था। इसी तरह वर्ष 2015 तक पुष्प उत्पादन 30 प्रतिशत की गति से बढ़ा, जिसका बाजार मूल्य 8000 करोड़ रुपए का है। विश्व बाजार व्यवस्था में कहीं न कहीं अपनी पैठ बनाए रखने वाले भारतीय हिमालय की जैव विविधता के संसाधनों पर सम्पूर्ण विश्व के लगभग 130 करोड़ लोग निर्भर हैं।
हिमालय के कृषि आधारित 70 प्रतिशत क्षेत्र में विशेष रूप से कम उत्पादन, न्यूनतम लागत, अपर्याप्त सिंचाई, पारम्परिक खेती, अलाभकारी अनाज आधारित छोटे-बड़े खेत, बागवानी और चराई जैसे प्रतिरुप शामिल हैं। भारत के हिमाचल प्रदेश में 14683 वर्ग किलोमीटर, जम्मू-कश्मीर में 22538 वर्ग किलोमीटर और उत्तराखण्ड में 24508 वर्ग किलोमीटर सहित पूर्वोत्तर राज्यों में 65 प्रतिशत क्षेत्र हिमालयी वनों से आच्छादित हैं। यह देखने में आ रहा है कि ये वनक्षेत्र तेजी से कृषिभूमि और चारागाहों में बदल रहे हैं। उपग्रह से प्राप्त चित्र भी बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक वन बहुत तेजी से विलुप्त होते जा रहे हैं। पश्चिमी हिमालय में मर्ग और कुमायूँ क्षेत्र में बुग्याल तथा पयाल के नाम से प्रचलित चरागाह के रूप में हिमालय का महत्त्व बहुत पहले से ही रहा है क्योंकि इसकी घाटियों में कोमल घास वाले क्षेत्र पाए जाते हैं। यहाँ रहने वाले पहाड़ी लोग जहाँ एक ओर अपने लिये खेती करने हेतु वनों से खेत बना रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर अपने पशुओं को चराने के लिए चारागाह बना रहे हैं। इससे हिमालयीन पारिस्थितिकी के सामने संकट खड़ा होता जा रहा है। सिकुड़ रहे हिमनदों, नदियों के जल और बहाव में अनियमितता, असंतुलित वर्षा, भू-स्खलन से लेकर जैव विविधता के क्षरण तक की बढ़ती प्राकृतिक गतिविधियों ने हिमालयी पारिस्थितिकी पर आश्रित पक्षी प्रजातियों को बुरी तरह प्रभावित किया है।
पॉल एलेसन एवं उनके साथियों ने हिमालयी पक्षियों पर किए गए शोध में उल्लेख करते हुए बताया है कि हिमालयी वनों में दुनिया की लगभग 10% पक्षी प्रजातियाँ प्रवजन प्रवास करती रहती हैं, जिनमें से कुछ तो बेहद अद्वितीय की श्रेणी में आती हैं। विशेष रूप से ये हिमालयी वन सर्दियों के दौरान इन पक्षियों की प्रजनन के समय बहुत बड़े आश्रय स्थल होते हैं। ऐसे में लगातार बढ़ रही वनों की कटाई से इन पक्षी प्रजातियों की बहुलता और सामुदायिक संरचना में किस तरह के प्रभाव पड़ रहे हैं। इस बात का पता लगाने के लिये ही पॉल और उनके सहयोगियों ने सन 2013 में नवम्बर और दिसम्बर की सर्दियों के दौरान पश्चिमी हिमालय में ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क (जीएनपीपी, 31.70 डिग्री उत्तर, 77.50 डिग्री पूर्व) के 12 प्रमुख उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों सहित हिमाचल प्रदेश में सघन मानव आबादी वाले स्थानों के भीतर वहाँ की चार प्रमुख कृषि भूमि क्षेत्रों में एक संशोधित लाइन ट्रांसेक्ट तकनीक का उपयोग करके सभी पक्षियों को दृष्टि और ध्वनि के द्वारा पहचान कर पक्षी सर्वेक्षण किए।
वैज्ञानिकों को हिमालयी वनों के अलावा छोटे-छोटे खेतों वाले बेतरतीब हो गए जंगलों, सीढ़ीदार खेती और फलों के बागों वाली कृषि भूमि तथा चारागाहों में किए गए अपने सर्वेक्षणों से पता चला कि विभिन्न प्रकार के व्यवधानों से होने वाले वनस्पति परिवर्तन सर्दियों में पक्षी समुदाय को प्रभावित करते हैं और इसलिए ये पक्षी सर्दियों के दौरान बड़ी संख्या में कृषि भूमि का भी उपयोग करते हैं। विविध विश्लेषणों और मूल्यांकनों से यह शोध इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कृषिभूमि की उपयोगिता पक्षियों की बहुलता और प्रजातियों की समृद्धि निर्धारित करती है। उन्होंने यह भी पाया कि हिमालयी मुख्य वनों और अन्य कृषि भूमियों व चारागाहों के मध्य पक्षियों की सामुदायिक संरचना में अत्यधिक विविधता है। इस शोध में पॉल और उनके साथियों ने कुल 128 पक्षी प्रजातियों को दर्ज किया और पाया कि हिमालय के मुख्य वनों में पाई जाने वाली पक्षी प्रजातियाँ कृषि भूमि या चारागाहों जैसे अन्य क्षेत्रों में मिलने वाली पक्षी प्रजातियों से सँख्या में कम व अलग होती हैं। पॉल कहते हैं कि पक्षी प्रजातियों जैसे कि पेलआर्कटिक के कुछ समूह सर्दियों के समय हिमालय में प्रवजन करते हैं, वे इस दौरान मुख्य हिमालयी वनों में शायद ही कभी दिखे हों, जबकि कृषिभूमि क्षेत्रों में ये बहुतायत से देखे गए। शोध के परिणामस्वरूप वैज्ञानिकों ने मुख्य हिमालयी वनों में पाँच तथा अन्य प्रयुक्त कृषि भूमि क्षेत्रों में कुल 34 अद्वितीय प्रजातियों को अन्वेषित किया। एक और रोचक तथ्य यह निकलकर सामने आया कि सभी तरह की कृषि भूमि में अधिक संख्या में पक्षी पाए गए, जबकि वहीं चारागाह वाली भूमि में पक्षी अपेक्षाकृत बहुत ही कम थे।
हिमालयी पक्षियों को लेकर भारतीय हिमालय क्षेत्र में किया गया यह सर्वेक्षण के शोध दृष्टिकोण से भले ही अलग मायने हों, लेकिन सार्वजनिक तौर पर यह सर्वेक्षण निकट भविष्य में एक बड़ी चुनौती के लिये तैयार रहने का संकेत अवश्य देता है। यदि हिमालय और उसके पक्षियों और उसकी अन्य जैवविविधता पर सिर्फ शोध सर्वेक्षण होते रहे और नकारात्मक परिणामों के निष्कर्ष यूँ ही निकलते रहे, तो इससे हासिल कुछ भी नहीं होगा सिवाय इसके कि आज पक्षी प्रजातियाँ वनों से दूर हो रही हैं, तो कल सम्भवतः वन हमसे दूर हो जाएँगे। अतः भारतीय हिमालय क्षेत्र के सरकारी व गैरसरकारी प्रशासनिक व लोक समस्त स्तरों पर इसके ठीक से नियोजन, व्यवस्थित दोहन और संरक्षण की अति आवश्यकता है।
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