हिमालय के उत्थान में क्षेप भ्रंशों का विशेष महत्त्व है। आमतौर पर माना जाता है कि इन भ्रंशों पर 80 कि.मी. तक का विस्थापन हुआ है। विदेशी पर्वतमालाओं पर जहाँ भी इस परिमाण का विस्थापन बताया गया है वहाँ भ्रंश सतह पर कोई स्नेहक स्तर पाया गया है जैसे नमक, जिप्सम, ग्रेफाइट आदि। लघु हिमालय में जहाँ अधिकतम क्षेप विस्थापन प्रस्तावित किया गया है वहाँ इस तरह का कोई स्नेहक स्तर नहीं है।
हिमालय पर्वत प्रकृति की एक अनूठी रचना है जिसका निर्माण भारतवर्ष के लिये अनन्य वरदान की तरह है। तीसरा ध्रुव, सदा नीरा नदियां, घने जंगल, विविध जीव-जन्तु, अनेकों जड़ी-बूटियां और शीतल वातास। यदि हिमालय नहीं होता तो मानसून भी नहीं होता और प्यासी धरा पर रेगिस्तान की तरह सिर्फ कीड़े – मकोड़े ही होते। साइबेरिया से आने वाली बर्फीली हवा को यदि हिमालय नहीं रोकता तो विकट ठण्ड में उत्तर भारत में जीना मुहाल हो जाता। जाहिर है इन्हीं विशेषताओं के कारण हिमालय पर वैज्ञानिक शोध पर भी पूरा ध्यान दिया गया है। देश और विदेश के शोधकर्ताओं में जीवविज्ञान वाले भी हैं, वनस्पति विज्ञान वाले भी, जलविज्ञान वाले भी, वायुमण्डलीय विज्ञान वाले भी और भूविज्ञान वाले भी। इनमें शायद सबसे कठिन कार्य भूविज्ञान वालों का ही है आमतौर पर दूसरे विज्ञानों में प्रयोग से परिणाम की ओर जाते हैं मगर भूविज्ञान में प्रयोग तो प्रकृति ने कर लिया है और परिणाम हमारे सामने है।अब इस परिणाम से हमें उन प्रक्रियाओं को समझना है जो क्रियान्वित हो चुकी हैं। जटिलता यह है कि इनका क्रियाकाल भी कोई छोटा-मोटा सौ-दो सौ साल का नहीं वरन करोड़ों वर्षो में है। अब इतने लम्बे अंतराल में जो कुछ घटित हुआ है उसे समझना कोई आसान काम तो नहीं। भू-भौतिकी से प्राप्त आंकड़ों का विवेचन तो और भी दुष्कर है। पृथ्वी के गर्भ में जो परिलक्षित नहीं है उसे समझने के लिये जो प्रयास हुए हैं उनमें अनेकों प्रश्न अनुत्तरित रह गए हैं। दुख की बात तो यह है कि जो मॉडल हम अपना रहे हैं वह हमारे मौलिक नहीं हैं वरन विदेशी मॉडलों का अनुसरण है। मुख्यतः आल्प्स, स्कॉटिश हायलैण्ड और कैनेडियन राकीज में जो माडल प्रस्तावित किये गए थे उन्हीं को हम येन-केन-प्रकारेण हिमालय में फिट करने का प्रयास कर रहे हैं। नतीजे में नई-नई समस्याएं पैदा हो रही हैं और नए-नए संशय उत्पन्न हो रहे हैं। हाँ, कुछ प्रक्रियाएं अवश्य ऐसी हैं जो विश्व की समस्त पर्वतमालाओं में पाई जाती हैं, जैसे-
1. पर्वत श्रेणियों की वक्रता
2. विवर्तनिकी उपविभाजन (अग्रभूमि में अवसादी शैल, निम्न या पादप में कायांतरी-अवसादी शैल तथा क्रोड में उच्च क्रम कायांतरी शैल)
3. पूर्व तथा सम पर्वतनी कायांतरण
4. वलन और क्षेप पट्टी (बेल्ट)
5. पूर्ववर्ती तथा अध्यारोपित विवर्तनिकी
6. भ्रंशों का पुन: सक्रियण
7. पर्वत तल में डिकोलमेंट समतल की उपस्थिति
उपरोक्त को दृष्टिगत रखते हुए हमें उन लक्षणों की ओर विशेष ध्यान देना होगा जो सिर्फ हिमालय की विशेषताएं हैं जैसे-
1. पूर्व में की गई गभीर भूकम्पी परिज्ञापन प्रोफाइल (कैला एवं अन्य, 1978) में कई ऊर्ध्वाधर भ्रंश दर्शाए गए हैं जिनमें डिकोलमेंट समतल अनुपस्थित है। सन सत्तर और अस्सी के दशक में विदेशी पर्वत मालाओं में जो अनुसंधान हुआ उसके पश्चात हिमालय में एक दूसरा अनुप्रस्थ काट दिखाया गया जिसमें एक डिकोलमेंट समतल से सभी प्रमुख क्षेप भ्रंश निकलकर सतह की ओर संचरण कर रहे हैं (एलोग्री एवं अन्य, 1984)। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि डिकोलमेंट समतल से नीचे भी भूकम्पीय गतिविधियां जारी हैं (डे एवं कायल, 2003)।
2. सतह से ऊपर और नीचे जो संरचनाएं दिखाई गई हैं उनमें सामंजस्य बैठाना संभव नहीं है। जो संरचनाएं सतह के नीचे होने से दिखाई नहीं देतीं उन्हें निकुंच बेण्ड ज्यामिति द्वारा दर्शाया गया है जिनमें द्वितीय कोटि वलन दृष्टिगोचर नहीं होते (पावर्स एवं अन्य, 1998)। इस तरह की ज्यामिति सर्वप्रथम केनेडियन राकीज में दिखाकर अनुप्रस्थ काट का अविरूपित पुनर्निर्माण किया गया था (डालस्ट्रॉम, 1969)। हिमालय में किसी तरह जोड़-तोड़ बैठाई तो गई है मगर समस्या यह है कि जो वलन सतह पर दिखाई देते हैं वह स्पष्ट रूप से गोलाकार प्रोफाइल वाले और द्वितीय कोटि के वलन हैं। पृथ्वी के गर्भ में ताप-दाब की विभिन्न दशाएं होने के कारण संरचनाएं भिन्न रूप दर्शा सकती हैं मगर सतह के आर-पार इतना परिवर्तन मान्य नहीं हो सकता।
3. हिमालय में क्षेप भ्रंशों की आधार भित्ति में भी विरूपण पाया जाता है जो कैनेडियन रॉकीज में अनुपस्थित है।
4. हिमालय के अधिकांश विकृति आंकड़े द्वि-आयामी अनुप्रस्थ काटों पर आधारित हैं। पूर्ववर्ती तथा अध्यारोपित वलनों के साथ उनका संभावित संबंध स्थापित नहीं किया गया है।
5. हिमालय-पूर्व कायांतरण स्थापित तो हो गया है मगर इसके विस्तृत विवेचन पर कार्य किया जाना बाकी है।
6. हिमालय की पर्वत श्रेणियां कश्मीर से अरुणाचल तक चापाकार में फैली हुई हैं। चूँकि समस्त संरचनाएं संपूर्ण क्षेत्र में एक समान ज्यामिती दर्शाती हैं इसलिये यह आकार द्वितीयक नहीं वरन प्राथमिक होना चाहिये। हिमालय - पूर्व द्रोण विन्यास इस विषय पर और प्रकाश डाल सकता है।
7. सभी प्रमुख क्षेप भ्रंशों पर मेटाबेसिक शैल क्यों पाई जाती हैं ?
8. प्लेट विवर्तनिकी मॉडल के अनुसार भारतीय प्लेट उत्तर दिशा की ओर संचरण करती हुई तिब्बत प्लेट के साथ मिलकर संपीड़न कर रही है मगर अध्यारोपित वलन पूर्व - पश्चिम क्षेत्रीय तल में मुख्य संपीडन दर्शाते हैं।
9. पूरा दक्षिण पर्वतीय क्षेत्र भूकम्पीय आपदाओं से प्रभावित है। यह भूकम्प क्षेप, प्रसामान्य तथा नतिलंब सर्पण भ्रंशों से उत्पन्न हुए हैं। चूँकि इन तीन प्रकार के भ्रंशों की क्रियाविधि अलग-अलग है इसलिये भूकम्पीय उत्पत्ति की असली खोज अभी जारी रहनी चाहिये।
10. वैक्रिता क्षेप के दोनों तरफ की चट्टानें दर्शाती हैं कि तरुण शैल उपरिभित्ति में हैं तथा पुराने शैल समूह आधार भित्ति में। यह स्थिति प्रतिलोमन विवर्तनिकी की तरफ इंगित करती है। इस दिशा में एक मॉडल दुबे (2014) द्वारा प्रस्तुत किया गया है जिससे कई समस्याएं हल हुई हैं।
11. हिमालय के उत्थान में क्षेप भ्रंशों का विशेष महत्त्व है। आमतौर पर माना जाता है कि इन भ्रंशों पर 80 कि.मी. तक का विस्थापन हुआ है। विदेशी पर्वतमालाओं पर जहाँ भी इस परिमाण का विस्थापन बताया गया है वहाँ भ्रंश सतह पर कोई स्नेहक स्तर पाया गया है जैसे नमक, जिप्सम, ग्रेफाइट आदि। लघु हिमालय में जहाँ अधिकतम क्षेप विस्थापन प्रस्तावित किया गया है वहाँ इस तरह का कोई स्नेहक स्तर नहीं है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए पाप-अप क्लिपे मॉडल सुझाया गया है। मसूरी और गढ़वाल अभिनतों में जो कार्य किया गया है उसे दूसरे क्षेत्रों में भी आजमाया जाना चाहिये।
12. पामिर गांठ और हिमालय के आपसी संबंधों की विवेचना की जानी चाहिये।
13. प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत कई विवर्तनिक पहेलियों का हल प्रदान करता है मगर सभी का नहीं। अतः इस सिद्धांत की क्रियाविधि को समझने का प्रयास किया जाना चाहिये। इस प्रयास में हमें अवश्य ही एक बेहतर सिद्धांत की प्राप्ति होगी जो न सिर्फ पृथ्वी वरन दूसरे ग्रहों की विवर्तनिकी को समझने में भी सहायता प्रदान करेगा।
और अंत में यह याद रहे ‘‘अभी तो मीलों हमको, मीलों हमको मीलों हमको चलना है”
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अशोक दुबे
60/4, मोहित नगर, देहरादून
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