जितना हम हिमालय से छेड़छाड़ करेंगे, उतना और अधिक नुकसान ही होगा। प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध परियोजना क्या-क्या समस्याएँ पैदा करेगी उनकी गिनती टिहरी बाँध की समस्याओं का उदाहरण देखकर भी की जा सकती है। जुलाई 2006 में टिहरी बाँध का उद्घाटन हुआ किन्तु सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश के कारण आज भी टिहरी बाँध पूरी तरह नहीं भर सका है। टिहरी बाँध के जलाशय के सभी तरफ के गाँव धसक रहे हैं। जिनका भू-गर्भीय परीक्षण कभी ईमानदारी से पूरा नहीं किया गया था। 2014 में अपनी पहली यात्रा में प्रधानमन्त्री जी ने पंचेश्वर बाँध परियोजना की शुरुआत का तोहफ़ा नेपाल को दिया। मध्य हिमालय में टिहरी बाँध परियोजना के सन्दर्भों में ही इस परियोजना को अगर समझें तो 280 मीटर ऊँची यह बाँध परियोजना मध्य हिमालय का बड़ा हिस्सा डुबाएगी।
यहाँ कुछ प्रश्न विचारणीय हैं। टिहरी बाँध जैसी विस्थापन की अनुत्तरित समस्याएँ और पर्यावरण का कभी सही नहीं होने वाला विनाश जिसमें हजारों, लाखों पेड़ कटेंगे और डूबेंगे। इसके बारे में प्रकृति को समझने वाले वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों सहित लोग आन्दोलनकारी करते भी रहे हैं।
यहाँ विस्थापन और पर्यावरण की उपजने वाली समस्याओं की लम्बी सूची दोहराने की कोई जरुरत नहीं लगती है न जाने कितने टन विस्फोटकों का उपयोग होगा जिससे हिमालय का यह हिस्सा और कमजोर होने वाला है। यह सिद्ध हो चुका है कि 2013 में उत्तराखण्ड में जो त्रासदी हुई उसमें बाँधों का बड़ा योगदान रहा है।
केदारनाथ मन्दिर के नीचे घाटी में लोगों ने अपनी आजीविका के लिये जो भी बनाया वो फॉटा-व्योंग और सिंगोली-भटवाड़ी जैसी नदी को पूरी तरह रोकने वाली जलविद्युत परियोजनाओं से बड़ा नहीं था। मद्महेश्वर और सरस्वती नदियों पर भी जो छोटे बाँध निर्माणाधीन के उन सबने केदारघाटी में तो कहर ढाया ही साथ में अपने मलबे से अलकनन्दा गंगा में नीचे भी खूब कहर ढाया।
प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध परियोजना के सन्दर्भ में हमें उस उसी घाटी में बने बाँधों के इतिहास को भी जानना होगा। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में एक बड़ी नदी बहती है काली नदी! जिसके दूसरी तरफ नेपाल देश है। कई साल पहले वहाँ जाना हुआ था। सामने नेपाल का हिस्सा देखकर बहुत खुशी हुई थी। उत्तराखण्ड का हिस्सा काफी सूखा और वृक्षविहीन था।
पिथौरागढ़ जिले में काली नदी की सहयोगिनी धौलीगंगा पर एनएचपीसी की ‘धौलीगंगा जल विद्युत परियोजना’ को देखना लेखक का मकसद था। इस परियोजना को जापान इंटरनेशनल बैंक की मदद मिली थी। जिले की धारचूला तहसील में चौदास घाटी के दारमा से निकलने वाली धौलीगंगा के छिरकिला नामक स्थान पर नेशनल हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) ने धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना के लिये 51 मीटर ऊँचा बाँध बनाया।
बाँध से सर्ज सॉफ्ट तक 5.4 किमी. लम्बी मुख्य टनल बनाई गई है। सर्ज सॉफ्ट में 50 हजार घनमीटर पानी जमा होता है। उसके बाद परियोजना के लिये दो टरबाइनों में तीन-तीन हजार घनमीटर पानी छोड़ा जाता है। साल 2005 के जून माह में इसी बाँध से सर्ज सॉफ्ट की और पानी छोड़ा गया था।
बिना बरसात सूखे मौसम में मुख्य टनल के नीचे बसे तल्ला स्यांकुरी और ऐला तोक में टनल से हुए रिसाव ने तबाही मचा कर लोगों की नींद उड़ा दी। मुख्य टनल में बाँध से जैसे ही पानी छोड़ा गया वैसे ही टनल में बने प्रेशर होलों से पानी रिसने लगा। तब इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया और बाँध स्थल से पानी छोड़ने का कार्य लगभग तीन दिनों तक जारी रहा। मुख्य टनल में पानी भर जाने के बाद रिसाव की दर भी बढ़ने लगी।
ग्रामीणों के चिल्लाने के बाद एनएचपीसी ने मुख्य टनल में पानी की निकासी रोकी लेकिन तब तक उक्त दोनों तोकोें के अधिकांश घरों की दीवारों में भी दरारें पड़ चुकीं थीं। मकानों के लैंटरों ने दीवारें छोड़ दीं। पानी के स्रोत धरती में समा गए हैं। आवासीय भवनों का भूगोल बदल गया है। तवाघाट मोटर मार्ग से जीरो प्वाइंट तक टनल निर्माण करने वाली कम्पनियों द्वारा निर्मित मोटर मार्ग पर जगह-जगह दरारें आईं हैं। सड़क के किनारे भूस्खलन से सुरक्षा के लिये बनी दीवारें भी मटियामेट हो गई है। इस इलाके की काश्तभूमि भी दरक गई, ऐला तोक रहने के लिये सुरक्षित नहीं बचा था।
1977 में आए भूकम्प के कारण ग्राम पंचायत स्यांकुरी के ऐलातोक के लगभग 11 परिवारों को तराई में सितारगंज के निकट सिरोना, कल्याणपुर में भूमि मिली थी। कुछ परिवारों की भूमि ग्राम पंचायत स्यांकुरी में भी है। इसी ऐलातोक की चट्टानों को धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना की टनल के रिसाव ने कमजोर कर दिया। जो कभी भी मौत बन कर उनकी जीवनलीला को समाप्त कर सकते है।
अब तक उनका ना जाने क्या हुआ होगा पर धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना 2013 की आपदा के बाद इस काबिल नहीं बची की विद्युत उत्पादन कर सके। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना के जिन भूगर्भवेत्ताओं ने जिस पहाड़ी चट्टान को मुख्य टनल बनाने के लिये अपना प्रमाण पत्र दिया था वे ही बाद में इस चट्टान को कमजोर व भूस्खलन से प्रभावित बताने लगे।
किसे याद दिलाएँ कि हिमालय नया पर्वत है इसके पहाड़ कच्चे हैं। प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध परियोजना भूकम्पीय क्षेत्र 4 व 5 के अन्तर्गत है जो कि खतरे से भरपूर है। बड़े बाँधों की पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट बहुत कमजोर बनाई जाती है। नियमों कानूनों की अवहेलना कर मात्र किसी तरह बाँध को आगे बढ़ाना की उनका प्रमुख सोच हैं। परियोजना वाले चाहे कोई भी कम्पनी/निगम हो वो जानकारी छुपाते है और परियोजनाओं को विकास के लिये, नए शहरों की बिजली की ज़रूरतों जबरन लादा जा रहा है।
जितना हम हिमालय से छेड़छाड़ करेंगे, उतना और अधिक नुकसान ही होगा। प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध परियोजना क्या-क्या समस्याएँ पैदा करेगी उनकी गिनती टिहरी बाँध की समस्याओं का उदाहरण देखकर भी की जा सकती है। जुलाई 2006 में टिहरी बाँध का उद्घाटन हुआ किन्तु सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश के कारण आज भी टिहरी बाँध पूरी तरह नहीं भर सका है। टिहरी बाँध के जलाशय के सभी तरफ के गाँव धसक रहे हैं। जिनका भू-गर्भीय परीक्षण कभी ईमानदारी से पूरा नहीं किया गया था।
क्यों इस तथ्य को भी भूला दिया जा रहा है कि पंचेश्वर बाँध जिस महाकाली नदी पर प्रस्तावित है उसकी प्रमुख सहायक धौली गंगा पर वर्ष जून 2013 में एनएचपीसी का बाँध बनने के बाद भी आज बर्बाद पड़ा है। साथ ही ऐला तोक जैसे ना जाने कितने रिहायशी इलाकों को भी बर्बाद कर चुका है। टिहरी बाँध की समस्याओं को देखते हुए ये तत्कालीन सरकार ने ये कहा की अब हम टिहरी जैसा बाँध और नहीं बनाएँगे। लेखक ने तब भी यह बात उठाई थी कि क्या वे पंचेश्वर बाँध परियोजना, यमुना पर किसाउ आदि परियोजना को हमेशा के लिये छोड़ देने की बात कर रहे हैं? पर इन शब्दों की गारंटी क्या होती है?
हम क्यों भूल जाते हैं कि प्रकृति सन्देश बार-बार देती है और फिर उसके बाद भीषण तबाही लाती है। पंचेश्वर बाँध इसी मध्य हिमालय में स्थापित किया जाएगा इसलिये टिहरी और धौलीगंगा जलविद्युत परियोजनाओं के उदाहरणों को सामने रखना होगा।
यहाँ कुछ प्रश्न विचारणीय हैं। टिहरी बाँध जैसी विस्थापन की अनुत्तरित समस्याएँ और पर्यावरण का कभी सही नहीं होने वाला विनाश जिसमें हजारों, लाखों पेड़ कटेंगे और डूबेंगे। इसके बारे में प्रकृति को समझने वाले वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों सहित लोग आन्दोलनकारी करते भी रहे हैं।
यहाँ विस्थापन और पर्यावरण की उपजने वाली समस्याओं की लम्बी सूची दोहराने की कोई जरुरत नहीं लगती है न जाने कितने टन विस्फोटकों का उपयोग होगा जिससे हिमालय का यह हिस्सा और कमजोर होने वाला है। यह सिद्ध हो चुका है कि 2013 में उत्तराखण्ड में जो त्रासदी हुई उसमें बाँधों का बड़ा योगदान रहा है।
केदारनाथ मन्दिर के नीचे घाटी में लोगों ने अपनी आजीविका के लिये जो भी बनाया वो फॉटा-व्योंग और सिंगोली-भटवाड़ी जैसी नदी को पूरी तरह रोकने वाली जलविद्युत परियोजनाओं से बड़ा नहीं था। मद्महेश्वर और सरस्वती नदियों पर भी जो छोटे बाँध निर्माणाधीन के उन सबने केदारघाटी में तो कहर ढाया ही साथ में अपने मलबे से अलकनन्दा गंगा में नीचे भी खूब कहर ढाया।
प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध परियोजना के सन्दर्भ में हमें उस उसी घाटी में बने बाँधों के इतिहास को भी जानना होगा। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में एक बड़ी नदी बहती है काली नदी! जिसके दूसरी तरफ नेपाल देश है। कई साल पहले वहाँ जाना हुआ था। सामने नेपाल का हिस्सा देखकर बहुत खुशी हुई थी। उत्तराखण्ड का हिस्सा काफी सूखा और वृक्षविहीन था।
पिथौरागढ़ जिले में काली नदी की सहयोगिनी धौलीगंगा पर एनएचपीसी की ‘धौलीगंगा जल विद्युत परियोजना’ को देखना लेखक का मकसद था। इस परियोजना को जापान इंटरनेशनल बैंक की मदद मिली थी। जिले की धारचूला तहसील में चौदास घाटी के दारमा से निकलने वाली धौलीगंगा के छिरकिला नामक स्थान पर नेशनल हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) ने धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना के लिये 51 मीटर ऊँचा बाँध बनाया।
बाँध से सर्ज सॉफ्ट तक 5.4 किमी. लम्बी मुख्य टनल बनाई गई है। सर्ज सॉफ्ट में 50 हजार घनमीटर पानी जमा होता है। उसके बाद परियोजना के लिये दो टरबाइनों में तीन-तीन हजार घनमीटर पानी छोड़ा जाता है। साल 2005 के जून माह में इसी बाँध से सर्ज सॉफ्ट की और पानी छोड़ा गया था।
बिना बरसात सूखे मौसम में मुख्य टनल के नीचे बसे तल्ला स्यांकुरी और ऐला तोक में टनल से हुए रिसाव ने तबाही मचा कर लोगों की नींद उड़ा दी। मुख्य टनल में बाँध से जैसे ही पानी छोड़ा गया वैसे ही टनल में बने प्रेशर होलों से पानी रिसने लगा। तब इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया और बाँध स्थल से पानी छोड़ने का कार्य लगभग तीन दिनों तक जारी रहा। मुख्य टनल में पानी भर जाने के बाद रिसाव की दर भी बढ़ने लगी।
ग्रामीणों के चिल्लाने के बाद एनएचपीसी ने मुख्य टनल में पानी की निकासी रोकी लेकिन तब तक उक्त दोनों तोकोें के अधिकांश घरों की दीवारों में भी दरारें पड़ चुकीं थीं। मकानों के लैंटरों ने दीवारें छोड़ दीं। पानी के स्रोत धरती में समा गए हैं। आवासीय भवनों का भूगोल बदल गया है। तवाघाट मोटर मार्ग से जीरो प्वाइंट तक टनल निर्माण करने वाली कम्पनियों द्वारा निर्मित मोटर मार्ग पर जगह-जगह दरारें आईं हैं। सड़क के किनारे भूस्खलन से सुरक्षा के लिये बनी दीवारें भी मटियामेट हो गई है। इस इलाके की काश्तभूमि भी दरक गई, ऐला तोक रहने के लिये सुरक्षित नहीं बचा था।
1977 में आए भूकम्प के कारण ग्राम पंचायत स्यांकुरी के ऐलातोक के लगभग 11 परिवारों को तराई में सितारगंज के निकट सिरोना, कल्याणपुर में भूमि मिली थी। कुछ परिवारों की भूमि ग्राम पंचायत स्यांकुरी में भी है। इसी ऐलातोक की चट्टानों को धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना की टनल के रिसाव ने कमजोर कर दिया। जो कभी भी मौत बन कर उनकी जीवनलीला को समाप्त कर सकते है।
अब तक उनका ना जाने क्या हुआ होगा पर धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना 2013 की आपदा के बाद इस काबिल नहीं बची की विद्युत उत्पादन कर सके। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना के जिन भूगर्भवेत्ताओं ने जिस पहाड़ी चट्टान को मुख्य टनल बनाने के लिये अपना प्रमाण पत्र दिया था वे ही बाद में इस चट्टान को कमजोर व भूस्खलन से प्रभावित बताने लगे।
किसे याद दिलाएँ कि हिमालय नया पर्वत है इसके पहाड़ कच्चे हैं। प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध परियोजना भूकम्पीय क्षेत्र 4 व 5 के अन्तर्गत है जो कि खतरे से भरपूर है। बड़े बाँधों की पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट बहुत कमजोर बनाई जाती है। नियमों कानूनों की अवहेलना कर मात्र किसी तरह बाँध को आगे बढ़ाना की उनका प्रमुख सोच हैं। परियोजना वाले चाहे कोई भी कम्पनी/निगम हो वो जानकारी छुपाते है और परियोजनाओं को विकास के लिये, नए शहरों की बिजली की ज़रूरतों जबरन लादा जा रहा है।
जितना हम हिमालय से छेड़छाड़ करेंगे, उतना और अधिक नुकसान ही होगा। प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध परियोजना क्या-क्या समस्याएँ पैदा करेगी उनकी गिनती टिहरी बाँध की समस्याओं का उदाहरण देखकर भी की जा सकती है। जुलाई 2006 में टिहरी बाँध का उद्घाटन हुआ किन्तु सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश के कारण आज भी टिहरी बाँध पूरी तरह नहीं भर सका है। टिहरी बाँध के जलाशय के सभी तरफ के गाँव धसक रहे हैं। जिनका भू-गर्भीय परीक्षण कभी ईमानदारी से पूरा नहीं किया गया था।
क्यों इस तथ्य को भी भूला दिया जा रहा है कि पंचेश्वर बाँध जिस महाकाली नदी पर प्रस्तावित है उसकी प्रमुख सहायक धौली गंगा पर वर्ष जून 2013 में एनएचपीसी का बाँध बनने के बाद भी आज बर्बाद पड़ा है। साथ ही ऐला तोक जैसे ना जाने कितने रिहायशी इलाकों को भी बर्बाद कर चुका है। टिहरी बाँध की समस्याओं को देखते हुए ये तत्कालीन सरकार ने ये कहा की अब हम टिहरी जैसा बाँध और नहीं बनाएँगे। लेखक ने तब भी यह बात उठाई थी कि क्या वे पंचेश्वर बाँध परियोजना, यमुना पर किसाउ आदि परियोजना को हमेशा के लिये छोड़ देने की बात कर रहे हैं? पर इन शब्दों की गारंटी क्या होती है?
हम क्यों भूल जाते हैं कि प्रकृति सन्देश बार-बार देती है और फिर उसके बाद भीषण तबाही लाती है। पंचेश्वर बाँध इसी मध्य हिमालय में स्थापित किया जाएगा इसलिये टिहरी और धौलीगंगा जलविद्युत परियोजनाओं के उदाहरणों को सामने रखना होगा।
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