हिमालय की तेज ढलानों में बर्फ और वनों के कारण पानी ज़मीन के अन्दर जमा होता रहता है और जहाँ भी ढलान में पानी को बाहर निकलने की जगह मिलती है, यह बाहर फूट पड़ता है। ऐसे स्थानों पर लकड़ी, धातु या पत्थर के पाइप लगाकर पानी भरने का स्थान बना लिया जाता है।
पहाड़ों में 80 प्रतिशत जलस्रोत ऐसे ही हैं। इन्हें कश्मीर में चश्मा, हिमाचल में नाड़ू, छरूहड़ू, पणिहार और गढ़वाल में धारा कहा जाता है। तराई के क्षेत्रों में बावड़ियाँ भी कहीं-कहीं देखने को मिलती हैं। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिला में चट्टानों से रिसने वाले पानी का संग्रहण करने के लिये चट्टानों को काटकर भण्डारण बावड़ियाँ बनाई जाती हैं, जिन्हें खातरी कहा जाता है।
पानी की कमी होने के कारण कई जगह खातरियों के बाहर लकड़ी के दरवाजे लगाकर इन्हें ताला लगाकर रखा जाता है। यह बड़ी अद्भुत विकेन्द्रित जल आपूर्ति व्यवस्था थी। पहाड़ी गाँव ऐसे जलस्रोतों के आसपास बसे हैं।
इन जल स्रोतों में रासायनिक या आर्सेनिक प्रदूषण की सम्भावना नगण्य ही है। हाँ, खुले में शौच की परम्परा के चलते जैविक प्रदूषण की सम्भावना बनी रहती है। खुला शौच मुक्ति अभियान को गम्भीरता से लागू करके इस चुनौती से पार पाया जा सकता है।
चश्मों के पानी की समय-समय पर जाँच करते रहने की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि इसकी गुणवत्ता को वैज्ञानिक समझ के आधार पर बनाए रखा जा सके। जब से नलों से जलापूर्ति की व्यवस्था होने लगी है, प्राकृतिक जलस्रोतों की अनदेखी का दौर शुरू हो गया है।
हालांकि, नलों से जलापूर्ति योजनाओं के लिये भी पानी ज्यादातर ऐसे स्रोतों से ही लिया जाता है। इनके अभाव में नदी-नालों और खड्डों से भी पानी लिया जाता है। इस तरह की केन्द्रीकृत जलापूर्ति व्यवस्था की अपनी लाभ-हानियाँ हैं। एक जगह पानी का भण्डारण करके स्वच्छ पानी आपूर्ति को आसान माना जाता है। उसमें दवाई मिलाकर स्वच्छता मानक सुनिश्चित किये जा सकते हैं।
किन्तु यह भी देखा जाता है कि नालों-खड्डों से सीधे पानी बिना उचित फिल्टर व्यवस्था के पाइप लाइनों में डाल दिया जाता है। ऐसा होने से पूरे आपूर्ति क्षेत्र में दूषित जल से होने वाले नुकसानों को खतरा बढ़ जाता है। विकेन्द्रित व्यवस्था में ऐसा खतरा गाँव तक ही सीमित रहेगा।
पेयजल आपूर्ति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मुद्दों के अलावा जलस्रोतों का संरक्षण, उसमें पानी की मात्रा का संरक्षण भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। हिमालय में अत्यधिक चीड़ रोपण और सफेदा (यूकेलिप्टस) रोपण से कई जलस्रोत सूख गए हैं। इस तरह के पेड़ जल संरक्षण नहीं कर सकते, बल्कि पानी को शोषण करके जलस्रोतों को सुखाते हैं।
जल विद्युत परियोजनाओं के लिये बनाई जा रही सुरंगों के ऊपर बसे गाँवों के जल त भी सूखते जा रहे हैं। अन्धाधुन्ध वृहत निर्माण कार्यों से भी जलस्रोत सूख रहे हैं। इस तरह वृहद परियोजनाओं के लिये संवेदनशील वन क्षेत्रों के विनाश और बढ़ती आबादी की बढ़ती र्इंधन व इमारती लकड़ी की माँग के कारण भी वनों का विनाश हो रहा है।
नई रोपवानियों को बचाने की व्यवस्थाएँ भी कारगर नहीं। इससे घटत वन क्षेत्र का प्रभाव धरती की जल संरक्षण क्षमता पर पड़ता है।
जल संरक्षण क्षमता के घटन से वर्षाजल बहकर समुद्र में चला जाता है और बाढ़ का कारण बनता है। वर्ष का शेष भाग, जिनमें वर्षा नहीं होती है, जल संकट का शिकार हो जाता है। हिमालय से जुड़े गंगा और सिन्ध के मैदान के वे भाग जो भूजल पर निर्भर हैं, वहाँ के भूजल भण्डारों में जल भरण क्षमता के ह्रास से होता है।
पहाड़ों में नदी-नाले, खड्डे तो नीचे दूर गहराई में बह रहे होते हैं। पहाड़ों के ऊपर बसी आबादी के बढ़ने और जीवनशैली में बदलाव के चलते पानी की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। इसलिये इन चश्मों का संरक्षण लगातार और भी जरूरी होता जा रहा है। पेयजल से लेकर पहाड़ी सूक्ष्म सिंचाई व्यवस्थाओं तक, पहाड़ी जरूरतें इन्हीं चश्मों के सहारे पूरी होती हैं। इसलिये टिकाऊ विकास की दृष्टि से भी जलस्रोतों का संरक्षण महत्त्वपूर्ण हो गया है।
इस कार्य के संरक्षण पक्ष और प्रदूषण नियंत्रण पक्ष को पूरे वैज्ञानिक समझ के साथ प्रतिबन्धित करने की जरूरत है। जल संरक्षण कार्यों के लिये जलस्रोतों के जल-भरण क्षेत्रों को चिह्नित किया जाना चाहिए। हर जलस्रोत का जल भरण, क्षेत्र का नक्शा उस जल स्रोत के इस्तेमाल समूह व स्थानीय पंचायत और सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य विभाग के पास रहना चाहिए, ताकि जल संरक्षण के लिये की जाने वाली गतिविधि जल-भरण क्षेत्र के अन्दर हो।
जल निकास क्षेत्रों से तो पानी बाहर निकल रहा है। वहाँ आप जल संरक्षण के उपाय करेंगे तो व्यर्थ सिद्ध होंगे। इस कार्य के लिये जल सम्बन्धी भूगर्भ वैज्ञानिकों को हर उपमण्डल स्तर पर नियुक्त करके इस कार्य के सर्वेक्षण और प्रबन्धन योजना बनाने के कार्य में लगाना चाहिए।
इस कार्य पर होने वाले अतिरिक्त खर्च की व्यवस्था केन्द्र सरकार, जलस्रोतों के नीचे चल रही तमाम छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं एवं बड़ी सिंचाई परियोजनाओं द्वारा वहन किया जाना चाहिए। हिमालय क्षेत्र में पानी का शोषण करने वाली वृक्षों की प्रजातियों चीड़, सफेदा का रोपण बन्द होना चाहिए। उनके स्थान पर बहुउद्देशीय, गहरी जड़ वाले फल, चारा, र्इंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाले वृक्ष लगाने चाहिए।
गहरी जड़ों वाले, धीरे बढ़ने वाले बांज, बुरांस, कागजी अखरोट, मीमल, कचनार, सानण, बड़, पीपल, आम, आँवला, अर्जुन, हरड़, बेहड़ा आदि अनेक प्रजातियाँ जन उपयोगी होने के साथ-साथ जल संरक्षण करने वाली हैं। जंगली गुलाब, जंगली बेर, करोंदा, मालधन (टौर) आदि झाड़ियाँ और बेलें भी जल संरक्षण करने वाली हैं। इनका रोपण करना और उसके साथ कई इंजीनियरिंग उपाय भी किये जा सकते हैं।
जहाँ तक पर्वतीय जलस्रोतों के प्रदूषण का सवाल है तो यहाँ प्रमुख प्रदूषण जैविक प्रदूषण है। खुले में शौच को पूर्णत: बन्द किये जाने की जरूरत है। वरना बारिशों में प्रदूषित जल बहकर निकास स्थलों पर मिल जाता है। इस तरह के प्रदूषण को जलस्रोतों के ऊपर व दोनों किनारों पर दीवार लगाकर वर्षाजल को चश्मों में घुसने से रोकना जरूरी है।
जलभरण क्षेत्रों में अलग से विशेष सावधानियों की जरूरत है। जलापूर्ति की इस पारम्परिक व्यवस्था को जीवित रखना बहुत जरूरी है। यह व्यवस्था विकेन्द्रित होने के कारण ज्यादा सुरक्षित और स्वावलम्बी है और नलों से जलापूर्ति व्यवस्था से सस्ती भी है। नलों से जलापूर्ति के लिये भी जलस्रोत पानी लेने के लिये अच्छा विकल्प हो सकते हैं।
नालों-खड्डों से लिया जाने वाला पानी बारिश में कीचड़ और दूसरी जैविक अशुद्धियों से इतना खराब हो जाता है कि फिल्टर और दवाई डालने के बाद भी इसकी अशुद्धियाँ खत्म नहीं हो सकतीं। अत: हर दृष्टि से प्राकृतिक जलस्रोतों की हिमालय क्षेत्र में योजनाबद्ध तरीके से वैज्ञानिक समझ व तकनीकों का योगदान लेकर पूरी तरह से सुरक्षा की जानी चाहिए।
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