पिछले तीन दशकों में बड़े बांधों को लेकर दुनिया में जो बहस हुई उसने छोटे-छोटे बांधों की दिशा में सरकारों को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है और कई देशों ने अपने बड़े बांधों को तोड़ा है। अब पंचेश्वर जैसा दुनिया का बड़ा बांध एक बार फिर विश्व के पटल पर वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, आमजन और सरकार के बीच निश्चित ही चर्चा का विषय बनेगा।
इसके आधार पर पंचेश्वर विकास प्राधिकरण को महत्व देकर समझौता हुआ है कि इसका कार्यालय नेेेपाल के कंचनपुर में होगा, जिसमें भारत औेर नेपाल से 6-6 अधिकारी होंगे। बिजली उत्पादन पर दोनों देशों का बराबर हक होगा, लेकिन इस परियोजना पर होने वाले कुल खर्च में से भारत 62.5 प्रतिशत और नेपाल शेेष 37.5 प्रतिशत राशि खर्च करेगा।
पंचेश्वर उत्तराखंड के चंपावत जिले में पड़ता है जहां पर नेपाल और भारत के लोगों का आस्था का पंचेश्वर मंदिर है। लोग इस मंदिर पर आकर अपनी मन्नते मनाते है। पंचेश्वर मंदिर के सामने ही महाकाली एवं सरयू का संगम है। इसके पीछे बागेश्वर से होकर आने वाली सरयू एवं मुनस्यारी (पिथौरागढ़) से आने वाली रामगंगा का संगम भी है, जिसे रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है। यहां पर पवित्र रामेश्वर का मंदिर भी है। कुमाऊं क्षेत्र की पनार नदी भी यहीं पर सरयू में मिलती है। इसमें सबसे अधिक पानी महाकाली में है और दूसरे स्थान पर सरयू का जल है।
पहली बार जब 12 फरवरी 1996 में पंचेश्वर बांध निर्माण के लिए महाकाली जल विकास संधि के नाम से समझौता हुआ था तो उस समय भी इस परियोजना पर सन् 1995 की दरों पर 29,800 करोड़ डाॅलर खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। इस बांध से 6480 मेगावाट बिजली पैदा करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगभग 13 वर्षों का समय निर्धारित किया गया था।
इस बांध की ऊंचाई 315 मीटर रखी गई है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर पुनः प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी नेेेेपाल के साथ अभी फिर समझौता कर लिया है। तब यह भी निर्णय था कि पंचेश्वर से 2 किमी नीचे की ओर 315 मीटर ऊंचा बनेगा और इसके और आगे नीचे की ओर शारदा नदी में पूर्णागिरी स्थल पर 184 मीटर ऊंचा एक और अन्य बांध बनेगा। जो 400 मेगावाट बिजली की क्षमता के साथ भीमकाय पंचेश्वर बांध को रेग्यूलेट करेगा।
सन् 1996 में टिहरी बांध का विरोध चरम सीमा पर था जहां उस समय भाजपा के नेता मुरली मनोहर जोशी, पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जी और विश्व हिन्दू परिषद के अशोेक सिंघल ने टिहरी बांध का विरोध किया था। ऐसे वक्त में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने टिहरी बांध की अनसुनी करके नेपाल के साथ महाकाली पर एक और बड़ा बांध बनाने की कसरत प्रांरभ की थी।
इस वक्त भी देश में गंगा-यमुना को बचाने के लिए सरकार ने स्वयं ही गंगा अभियान मंत्रालय बना दिया है। इसके कैबिनेट मंत्री उमा भारती जी लगातार नदियों को बचाने के लिए संकल्पित हैं। अब इस तरह के दोेहरे निर्णय को सीमान्त इलाके की प्रभावित जनता को कितना भाएगा यह तो समय ही बता सकेगा।
पिछले दिनों जब सरकार ने बजट सत्र के दौरान हिमालय के विषय पर बहुत गंभीर चर्चा की तो माननीय सांसदों ने गंगा के साथ-साथ हिमालय बचाने के लिए हिमालय के लिए अलग मंत्रालय, हिमालय अध्ययन केन्द्र जैसे विषयों पर गहन रूप से चर्चा की है और उनके लिए बजट भी रखा है ऐसी स्थिति में पंचेश्वर बांध पर निर्णय लेना बहुत जल्दबाजी हो रही है क्योंकि टिहरी बांध परियोजना निर्माण का लक्ष्य भी सन् 1972 में 260 मीटर ऊंचा बांध रखा गया था।
इसकी कुल लागत 500 करोड़ के बराबर भी नहीं थी। सन् 1978 से 1986 तक इस बांध पर कुल खर्च 236 करोड़ रुपए हुआ था जो सन् 2003 तक बढ़ते-बढ़ते 16 हजार करोड़ तक पहुंच गया था। ताज्जुब है कि सन् 1978 से सन् 2003 तक कितने ही प्रधानमंत्री हमारे देश में आए और गए लेकिन टिहरी बांध का खर्चा बढ़ता ही गया है। जिसका लक्ष्य 2400 मेगावाट बिजली बनाने का था वहीं टिहरी बांध 1000 मेगावाट बिजली आज तब बनाता है जब बारिश के दिनों में झील में पानी लबालब भर जाता है।
इस बांध के लिए टिहरी उत्तरकाशी की सर्वोत्तम कृषि भूमि को डुबाया गया है। लगभग 2 लाख की आबादी का पुनर्वास किया गया है। इसके बावजूद भी अभी और 50 गांव जलाशय की ओर फिसलते नजर आ रहे हैं। हर साल ऊपरी अदालतों के फैसले के आधार पर नए-नए गांवों को यहां से विस्थापित करने के लिए राज्य व केन्द्र सरकार को निर्देशित किया जाता रहता है।
इसके साथ ही जहां-जहां पर टिहरी बांध के प्रभावितों को बसाया गया वहां पर अधिकांश लोग बैचेेनी की जिंदगी जी रहे हैं क्योंकि उन्हें उनके समाज, परिवार, संस्कृति, प्रकृति, से काटकर नया विस्थापन का दंश वे वर्तमान में झेल रहे हैं।
पंचेश्वर बांध भारत व नेपाल की सरकारों ने बहुत ही महत्वकांक्षी परियोजना के रूप में चुना है। इस परियोजना के कारण बनने वाली लगभग 134 वर्ग किलोमीटर झील में भारत के 200 से अधिक गांव और नेपाल के लगभग 70 बस्तियां जिसमें 14 ग्राम विकास समितियां (गाविस) डूब जाएंगे। इस क्षेत्र से लगभग तीन लाख से अधिक लोगों को सरकार को विस्थापन करना पड़ेगा।
भारत नेपाल के बीच में पंचेश्वर पर हुई सहमति से पहले भारत के भू-अधिग्रहण कानून के अनुसार महाकाली नदी क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों की सहमति अवश्य लेनी चाहिए। अच्छा होता कि इस हिमालयी क्षेत्र से बाहर विस्थापित होने वाले संभावित लोगों के सामने पंचेश्वर बांध का सही खाका प्रस्तुत करके, दोनों देशों के प्रभावितों के साथ जन सुनवाईयां करते और पर्यावरण प्रभाव आंकलन व सामाजिक प्रभाव आंकलन का काम पहले पूरा कर लेते।
यह भी देखना चाहिए कि क्या सही पुनर्वास के लिए कहीं जमीन उपलब्ध हो पाएगी, या अब तक के अनुभवों के आधार पर लोगों को परियोजना क्षेत्र से क्या सीधा छोड़कर जाना पड़ेगा? क्योंकि कहा जा रहा है कि हमारे देश में अभी भी डेढ़ करोड़ लोगों का विस्थापन नहीं हो सका है। वे सड़कों पर भीख मांगते है। दोनों देश निश्चित ही बिजली और सिंचाई की व्यवस्था करें, लेकिन इसके लिए समाज और पर्यावरण के सब हिस्सों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए।
सन् 1996 मेें जब पंचेश्वर पर बांध बनाने की सहमति दिखाई गई थी तो उस समय काठमाण्डू, लोहाघाट, झूलाघाट, दिल्ली, आदि स्थानों पर इस महत्वकांक्षी परियोजना पर लोगों ने सवाल खड़े कर दिए थे। जब नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड कमल दहल के नेतृत्व में सरकार बनी थी तब वे उत्सुकता से टिहरी को देखने आए थे जब से वापस स्वदेश लौटे तो वे बहुत आशाविन्त निर्णय नहीं ले सके थे। इस बांध के संभावित प्रभावित क्षेत्र में उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई बार यात्राएं कर दी हैं।
सन् 1996 में 18-22 मई के दौरान प्रसिद्ध समाजसेवी राधा बहन के नेेतृत्व में जिसमें लेखक भी शामिल थे एक पदयात्रा पंचेश्वर से झूलाघाट तक की गई। पदयात्रा के दौरान जब लोगों को महाकाली पर हुई संधि की जानकारी के बारे में पूछा गया तो पहले तो उन्हें यह पता ही नहीं है कि यहां पर टिहरी से ऊंचा बांध बनेगा और उन्हें भी यहां से विस्थापित होना पड़ेगा। जब उनको यह बताया गया तो उनका कहना था वे कभी ऐसा समय नहीं देखना चाहेंगे।
उत्तराखंड में प्रस्तावित पंचेश्वर से पहले ही 558 बांध बनाने की योजना है, इसी के कारण 30 लाख लोगों को अपने स्थानों से जाना पड़ सकता है। इस दौरान नई सरकार द्वारा प्रस्तावित हिमालय अध्ययन केन्द्र का बजट भी उत्तराखंड में आएगा।
अब केवल यही अध्ययन होगा कि किन बांधों को पहले बनाया जाए और प्रतियोगिता होगी कि उस सरकार ने तो टिहरी बांध और हम इससे भी बड़ा बनाएंगे। यह कठिन दौर हिमालय के निवासियों को आने वाले दिनों में देखना पड़ेगा।
जबकि सुझाव है कि यहां पर छोटी-छोटी परियोजनाएं बने। एक आंकलन के आधार पर मौेजूदा सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है, इससे स्थानीय युवकों को रोजगार मिल सकता है। आगे पानी और पलायन की समस्या का समाधान भी हो सकता है लेकिन इसका काम कौन भगीरथ करेगा?
(लेखक-उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं एवं वर्तमान में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं)
अब केवल यही अध्ययन होगा कि किन बांधों को पहले बनाया जाए और प्रतियोगिता होगी कि उस सरकार ने तो टिहरी बांध और हम इससे भी बड़ा बनाएंगे। यह कठिन दौर हिमालय के निवासियों को आने वाले दिनों में देखना पड़ेगा। जबकि सुझाव है कि यहां पर छोटी-छोटी परियोजनाएं बने। एक आंकलन के आधार पर मौेजूदा सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है, इससे स्थानीय युवकों को रोजगार मिल सकता है। आगे पानी और पलायन की समस्या का समाधान भी हो सकता है लेकिन इसका काम कौन भगीरथ करेगा?
नर्मदा और टिहरी में बड़े बांधों के निर्माण के बाद अब फिर से हिमालय में पंचेश्वर जैसा दुनिया का सबसे बड़ा बांध भारत-नेपाल की सीमा पर बहने वाली महाकाली नदी पर बनाने की पुनः तैयारी चल रही है। अभी हाल ही में नेपाल की यात्रा पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कुमार कोइराला के साथ मिलकर इस बांध निर्माण के लिए एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं।इसके आधार पर पंचेश्वर विकास प्राधिकरण को महत्व देकर समझौता हुआ है कि इसका कार्यालय नेेेपाल के कंचनपुर में होगा, जिसमें भारत औेर नेपाल से 6-6 अधिकारी होंगे। बिजली उत्पादन पर दोनों देशों का बराबर हक होगा, लेकिन इस परियोजना पर होने वाले कुल खर्च में से भारत 62.5 प्रतिशत और नेपाल शेेष 37.5 प्रतिशत राशि खर्च करेगा।
पंचेश्वर उत्तराखंड के चंपावत जिले में पड़ता है जहां पर नेपाल और भारत के लोगों का आस्था का पंचेश्वर मंदिर है। लोग इस मंदिर पर आकर अपनी मन्नते मनाते है। पंचेश्वर मंदिर के सामने ही महाकाली एवं सरयू का संगम है। इसके पीछे बागेश्वर से होकर आने वाली सरयू एवं मुनस्यारी (पिथौरागढ़) से आने वाली रामगंगा का संगम भी है, जिसे रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है। यहां पर पवित्र रामेश्वर का मंदिर भी है। कुमाऊं क्षेत्र की पनार नदी भी यहीं पर सरयू में मिलती है। इसमें सबसे अधिक पानी महाकाली में है और दूसरे स्थान पर सरयू का जल है।
पहली बार जब 12 फरवरी 1996 में पंचेश्वर बांध निर्माण के लिए महाकाली जल विकास संधि के नाम से समझौता हुआ था तो उस समय भी इस परियोजना पर सन् 1995 की दरों पर 29,800 करोड़ डाॅलर खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। इस बांध से 6480 मेगावाट बिजली पैदा करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगभग 13 वर्षों का समय निर्धारित किया गया था।
इस बांध की ऊंचाई 315 मीटर रखी गई है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर पुनः प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी नेेेेपाल के साथ अभी फिर समझौता कर लिया है। तब यह भी निर्णय था कि पंचेश्वर से 2 किमी नीचे की ओर 315 मीटर ऊंचा बनेगा और इसके और आगे नीचे की ओर शारदा नदी में पूर्णागिरी स्थल पर 184 मीटर ऊंचा एक और अन्य बांध बनेगा। जो 400 मेगावाट बिजली की क्षमता के साथ भीमकाय पंचेश्वर बांध को रेग्यूलेट करेगा।
सन् 1996 में टिहरी बांध का विरोध चरम सीमा पर था जहां उस समय भाजपा के नेता मुरली मनोहर जोशी, पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जी और विश्व हिन्दू परिषद के अशोेक सिंघल ने टिहरी बांध का विरोध किया था। ऐसे वक्त में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने टिहरी बांध की अनसुनी करके नेपाल के साथ महाकाली पर एक और बड़ा बांध बनाने की कसरत प्रांरभ की थी।
इस वक्त भी देश में गंगा-यमुना को बचाने के लिए सरकार ने स्वयं ही गंगा अभियान मंत्रालय बना दिया है। इसके कैबिनेट मंत्री उमा भारती जी लगातार नदियों को बचाने के लिए संकल्पित हैं। अब इस तरह के दोेहरे निर्णय को सीमान्त इलाके की प्रभावित जनता को कितना भाएगा यह तो समय ही बता सकेगा।
पिछले दिनों जब सरकार ने बजट सत्र के दौरान हिमालय के विषय पर बहुत गंभीर चर्चा की तो माननीय सांसदों ने गंगा के साथ-साथ हिमालय बचाने के लिए हिमालय के लिए अलग मंत्रालय, हिमालय अध्ययन केन्द्र जैसे विषयों पर गहन रूप से चर्चा की है और उनके लिए बजट भी रखा है ऐसी स्थिति में पंचेश्वर बांध पर निर्णय लेना बहुत जल्दबाजी हो रही है क्योंकि टिहरी बांध परियोजना निर्माण का लक्ष्य भी सन् 1972 में 260 मीटर ऊंचा बांध रखा गया था।
इसकी कुल लागत 500 करोड़ के बराबर भी नहीं थी। सन् 1978 से 1986 तक इस बांध पर कुल खर्च 236 करोड़ रुपए हुआ था जो सन् 2003 तक बढ़ते-बढ़ते 16 हजार करोड़ तक पहुंच गया था। ताज्जुब है कि सन् 1978 से सन् 2003 तक कितने ही प्रधानमंत्री हमारे देश में आए और गए लेकिन टिहरी बांध का खर्चा बढ़ता ही गया है। जिसका लक्ष्य 2400 मेगावाट बिजली बनाने का था वहीं टिहरी बांध 1000 मेगावाट बिजली आज तब बनाता है जब बारिश के दिनों में झील में पानी लबालब भर जाता है।
इस बांध के लिए टिहरी उत्तरकाशी की सर्वोत्तम कृषि भूमि को डुबाया गया है। लगभग 2 लाख की आबादी का पुनर्वास किया गया है। इसके बावजूद भी अभी और 50 गांव जलाशय की ओर फिसलते नजर आ रहे हैं। हर साल ऊपरी अदालतों के फैसले के आधार पर नए-नए गांवों को यहां से विस्थापित करने के लिए राज्य व केन्द्र सरकार को निर्देशित किया जाता रहता है।
इसके साथ ही जहां-जहां पर टिहरी बांध के प्रभावितों को बसाया गया वहां पर अधिकांश लोग बैचेेनी की जिंदगी जी रहे हैं क्योंकि उन्हें उनके समाज, परिवार, संस्कृति, प्रकृति, से काटकर नया विस्थापन का दंश वे वर्तमान में झेल रहे हैं।
पंचेश्वर बांध भारत व नेपाल की सरकारों ने बहुत ही महत्वकांक्षी परियोजना के रूप में चुना है। इस परियोजना के कारण बनने वाली लगभग 134 वर्ग किलोमीटर झील में भारत के 200 से अधिक गांव और नेपाल के लगभग 70 बस्तियां जिसमें 14 ग्राम विकास समितियां (गाविस) डूब जाएंगे। इस क्षेत्र से लगभग तीन लाख से अधिक लोगों को सरकार को विस्थापन करना पड़ेगा।
भारत नेपाल के बीच में पंचेश्वर पर हुई सहमति से पहले भारत के भू-अधिग्रहण कानून के अनुसार महाकाली नदी क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों की सहमति अवश्य लेनी चाहिए। अच्छा होता कि इस हिमालयी क्षेत्र से बाहर विस्थापित होने वाले संभावित लोगों के सामने पंचेश्वर बांध का सही खाका प्रस्तुत करके, दोनों देशों के प्रभावितों के साथ जन सुनवाईयां करते और पर्यावरण प्रभाव आंकलन व सामाजिक प्रभाव आंकलन का काम पहले पूरा कर लेते।
यह भी देखना चाहिए कि क्या सही पुनर्वास के लिए कहीं जमीन उपलब्ध हो पाएगी, या अब तक के अनुभवों के आधार पर लोगों को परियोजना क्षेत्र से क्या सीधा छोड़कर जाना पड़ेगा? क्योंकि कहा जा रहा है कि हमारे देश में अभी भी डेढ़ करोड़ लोगों का विस्थापन नहीं हो सका है। वे सड़कों पर भीख मांगते है। दोनों देश निश्चित ही बिजली और सिंचाई की व्यवस्था करें, लेकिन इसके लिए समाज और पर्यावरण के सब हिस्सों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए।
सन् 1996 मेें जब पंचेश्वर पर बांध बनाने की सहमति दिखाई गई थी तो उस समय काठमाण्डू, लोहाघाट, झूलाघाट, दिल्ली, आदि स्थानों पर इस महत्वकांक्षी परियोजना पर लोगों ने सवाल खड़े कर दिए थे। जब नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड कमल दहल के नेतृत्व में सरकार बनी थी तब वे उत्सुकता से टिहरी को देखने आए थे जब से वापस स्वदेश लौटे तो वे बहुत आशाविन्त निर्णय नहीं ले सके थे। इस बांध के संभावित प्रभावित क्षेत्र में उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई बार यात्राएं कर दी हैं।
सन् 1996 में 18-22 मई के दौरान प्रसिद्ध समाजसेवी राधा बहन के नेेतृत्व में जिसमें लेखक भी शामिल थे एक पदयात्रा पंचेश्वर से झूलाघाट तक की गई। पदयात्रा के दौरान जब लोगों को महाकाली पर हुई संधि की जानकारी के बारे में पूछा गया तो पहले तो उन्हें यह पता ही नहीं है कि यहां पर टिहरी से ऊंचा बांध बनेगा और उन्हें भी यहां से विस्थापित होना पड़ेगा। जब उनको यह बताया गया तो उनका कहना था वे कभी ऐसा समय नहीं देखना चाहेंगे।
उत्तराखंड में प्रस्तावित पंचेश्वर से पहले ही 558 बांध बनाने की योजना है, इसी के कारण 30 लाख लोगों को अपने स्थानों से जाना पड़ सकता है। इस दौरान नई सरकार द्वारा प्रस्तावित हिमालय अध्ययन केन्द्र का बजट भी उत्तराखंड में आएगा।
अब केवल यही अध्ययन होगा कि किन बांधों को पहले बनाया जाए और प्रतियोगिता होगी कि उस सरकार ने तो टिहरी बांध और हम इससे भी बड़ा बनाएंगे। यह कठिन दौर हिमालय के निवासियों को आने वाले दिनों में देखना पड़ेगा।
जबकि सुझाव है कि यहां पर छोटी-छोटी परियोजनाएं बने। एक आंकलन के आधार पर मौेजूदा सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है, इससे स्थानीय युवकों को रोजगार मिल सकता है। आगे पानी और पलायन की समस्या का समाधान भी हो सकता है लेकिन इसका काम कौन भगीरथ करेगा?
(लेखक-उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं एवं वर्तमान में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं)
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Post By: Shivendra