क्या हिमालय के सभी हिमनद सन 2035 तक पिघल जायेंगे? क्या पतित पावनी गंगा का अस्तित्व वैश्विक तापक्रम बढ़ने से शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा? इन प्रश्नों का उत्तर समस्त मानव जाति के लिये जानना आवश्यक है। कुछ वैज्ञानिकों की हिमालयी भूल के कारण ही यह भ्रान्ति फैली हुई है कि हिमालय के हिमनद शीघ्र ही पिघल जायेंगे। इस विषय में कुछ आवश्यक जानकारी यहाँ दी जा रही है, जिससे यह धारणा गलत सिद्ध होगी कि हिमालय के हिमनदों को अतिशीघ्र कोई संकट आने वाला है।
इण्टर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आई. पी. सी. सी.) के 2500 जलवायु परिवर्तन में कार्यरत वैज्ञानिकों ने यह मान लिया है कि उनके द्वारा यह भयंकर भूल हुई है, जिसमें उन्होंने अपनी चौथी रिपोर्ट में यह छापा है कि सन 2035 तक हिमालय के हिमनद पिघल जायेंगे। इसमें नोबल पुरस्कार से सम्मानित आइ.पी.सी.सी. (जिसके चेयरमैन एक भारतीय वैज्ञानिक हैं) का यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना है कि उन्होंने हिमालय के हिमनदों के पिघलने के बारे में सही अनुमान नहीं लगाया एवं कुछ तथाकथित वैज्ञानिकों की रिपोर्ट के आधार पर (बिना सत्यापन किए) यह निर्णय लिया था। यह बहुत ही खेदजनक है। इस कमेटी की लापरवाही के कारण ही भारत की छवि खराब हुई है एवं एक गलत संदेश जन साधारण तक पहुँचा कि सन 2035 तक सारे हिमालयी हिमनद पिघल जायेंगे। यह 1000 पृष्ठ की रिपोर्ट है जिसमें विश्व की जलवायु परिवर्तन के संबंध में गहनता से विचार करके लिखा गया है।यह भयंकर हिमालयी भूल एक रूसी वैज्ञानिक के 1996 के शोध पत्र को गलत रूप से प्रस्तुत करने (टंकण की गलती) से हुई। वास्तव में रूसी वैज्ञानिक वी.एम. कोटल्याकोव के अनुसार हिमालय के हिमनदों के पिघलने का वर्ष संभवत: 2350 लिखा था। आई.पी.सी.सी. के वैज्ञानिकों ने इसे गलती से वर्ष 2035 टंकण कर दिया एवं यही चौथी रिपोर्ट में भी छप गया। इस एक टंकण की भूल ने पूरे विश्व में एक विवाद को जन्म दे दिया। आई.पी.सी.सी. वैज्ञानिक तथ्यों की जाँच किए बिना ही डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ. संस्था के आंकड़ों को सच मान लिया। डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ. संस्था ने यह आंकड़े ‘‘न्यू सांइटिस्ट’’ मैगजीन से प्राप्त किए थे और ‘‘न्यू सांइटिस्ट’’ ने यह आंकड़े नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय के एक आचार्य से प्राप्त किए थे। इस तरह यह भूल होती चली गई एवं आई.पी.सी.सी. ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।
इसी प्रकार की एक और भंयकर भ्रान्ति पश्चिमी देशों के जलवायु वैज्ञानिकों एवं सरकारों द्वारा प्रचलित की जा रही है कि एशिया के ऊपर भूरे बादल (ब्राउन क्लाउड्स) बन रहे हैं। भूरे बादलों के बनने का कारण भारत एवं अन्य विकासशील देशों में लकड़ी जलाने एवं गाय के गोबर से उत्पन्न मीथेन गैस के उत्सर्जन को माना जा रहा है। यह काला कार्बन हिमालय के ऊपर वातावरण में जमा हो रहा है एवं हिमालय के हिमनदों को पिघला रहा है। ऐसा दुष्प्रचार केवल इसलिये किया जा रहा है कि पश्चिमी देशों द्वारा उत्सर्जित क्लोरो-फ्लोरो कार्बन द्वारा वैश्विक तापक्रम के बढ़ने को झुठलाया जा सके एवं विकासशील देशों पर यह दोषारोपण किया जा सके। यह तथ्य वर्ष 2001 में हुई कोपेनहेगन संगोष्ठी में भी प्रस्तुत किए गये थे। यह सच है कि हिमालय के हिमनद धीरे-धीरे सिकुड़ रहे हैं। परंतु यह गति अति तीव्र नहीं है। इसी तरह यह भी देखा जा रहा है कि हिमालय के कुछ हिमनद आगे बढ़ रहे हैं एवं उन पर वैश्विक तापक्रम बढ़ने का असर कम है। अभी तक हिमालय के हिमनदों का कोई तुलनात्मक अध्ययन एवं गणितीय मॉडल तैयार नहीं है जिसके आधार पर यह निश्चित किया जा सके कि कौन से हिमनद जल्दी पिघलेंगे तथा कौन से बाद में।
हिमालय के हिमनदों के सिकुड़ने के संबंध में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा एक नई खोज हाल ही में पूरी की गई है। इसरो के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले पाँच दशकों में 16 फीसदी हिमनद पिघल चुके हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड एवं सिक्किम राज्यों में हिमनदों के पीछे खिसकने के अध्ययन से यह पता चला है कि वर्ष 1962 से दस घाटियों में 1317 हिमनदों का कुल क्षेत्रफल 5866 वर्ग किमी. से घटकर 4921 वर्ग किमी. रह गया है। इस तरह पाँच दशकों में हिमनद 16 प्रतिशत घट गये हैं। इसरों ने गेहूँ, चावल, मक्का एवं बाजरा, चार फसलों के उत्पादन पर कार्बन डाइआक्साइड एवं तापक्रम के स्तर में वृद्धि के लिये भी सर्वेक्षण किया है। ऐसा माना जा रहा है कि तापक्रम बढ़ने से उत्पादन कम हो रहा है। इसके अतिरिक्त इसरो ने चावल के उत्पादन एवं मीथेन गैस के उत्सर्जन के सह-संबंध को भी स्थापित किया है।
भविष्य में अंतरिक्ष तकनीकी द्वारा हिमालयी क्रायोस्फेयर एवं जलवायु परिवर्तन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यता है। अंत में यही संदेश जन-जन तक पहुँचाना है।
हिमालय को बचाना है।
हिमनदों को बचाना है।
पृथ्वी को बचाना है।
वैश्विक उष्णता को रोकना है।
सम्पर्क
विनोद चन्द्र तिवारी
वाड़िया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून
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