हिमालय के चरित्र के अनुरूप बनें योजनायें

अन्तर्राष्ट्रीय भूगोलवेत्ताओं के संघ के तत्वावधान में पर्वतों एवं सीमांत क्षेत्रों में वैश्वीकरण के स्थानीय एवं क्षेत्रीय प्रभाव विषय पर 1 से 9 मई 2011 के बीच भूगोल विभाग डी.एस.बी. परिसर कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल के प्रो. रघुवीर चन्द्र के संयोजकत्व में एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें विश्व के लगभग पन्द्रह देशों स्विटजरलैंड, इस्राइल, ग्रेट ब्रिटेन, जापान, मलेशिया, ऑस्ट्रिया, कजाकिस्तान, चैक गणराज्य, फिनलैंड, अलास्का, अमेरिका आदि देशों के भूगोलविदों के साथ भारत के विभिन्न प्रांतों के लगभग पाँच दर्जन वैज्ञानिकों ने भाग लिया। मुख्य संकल्पना पर्वतों एवं सीमान्त क्षेत्रों में वैश्वीकरण का स्थानीय एवं क्षेत्रीय प्रभाव का अध्ययन था। 2 मई 2011 को नैनीताल क्लब के सभागार में प्रो. मार्टिन प्राइस द्वारा अन्य अतिथियों के साथ संगोष्ठी का उद्घाटन किया गया। मार्टिन प्राइस अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अलगोर की इस टीम के सदस्य थे, जिन्हें वर्ष 2007 मं नोबेल पुरस्कार दिया गया। बतौर मुख्य अतिथि बोलते हुए प्रो. प्राइस ने कहा कि हिमालय पर 1992 के बाद से विशेष ध्यान दिया जा रहा है। वर्ष 2002 को पर्वतीय वर्ष घोषित किये जाने के बाद इस में गति आई है। सरकारों ने नीतियों में परिवर्तन कर पहाड़ों के स्वभाव के अनुसार अपनी योजनायें बनानी प्रारम्भ की है।

मुख्य व्याख्यान अन्तर्राष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास संस्थान, काठमाण्डू के महानिदेशक प्रो. ए. शील्ड ने दिया। उन्होंने ‘हिमालयी पारिस्थितिकी तन्त्र की उपलब्धता, अवसर एवं चुनौतियाँ’ पर प्रकाश डालते हुए कहा कि पर्वतीय एवं सीमांत क्षेत्रों में रहने वाली आबादी वैश्वीकरण के प्रभाव के कारण हाशिये पर जा रही है। इन क्षेत्रों में निवास करने वाली विश्व की एक बड़ी आबादी के बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। उन्होंने पर्वतीय क्षेत्रों को विपुल संसाधनों का भंडार बताते हुए उनकी सुरक्षा हेतु अधिक संवेदनशील होने पर जोर दिया। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. वी.जी.एस. अरोड़ा ने की।

संगोष्ठी के दौरान पर्वतीय एवं सीमान्त क्षेत्रों के रहने वाले समाज, प्राकृतिक वातावरण, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, वनस्पति आवरण के परिवर्तन, ग्लेशियरों का पीछे हटना, जलस्रोतों का सूखना, नगरीकरण, पर्यटन, जनजातीय समाज का अध्ययन, महिलाओं की स्थिति प्रवर्जन, पोषण आदि विषयों से संबंधित लगभग तीन दर्जन से अधिक शोध पत्रों का प्रस्तुतिकरण हुआ। 4 मई 2011 को पद्मश्री प्रो. शेखर पाठक ने विश्व भर के आये विद्वानों को अन्वेषक पंडित नैन सिंह के बारे में बतलाया। तत्पश्चात् पं नैन सिंह व्याख्यान माला के अन्तर्गत प्रो. लिंच द्वारा आर्कटिक क्षेत्र में वैश्वीकरण के प्रभाव विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया। पद्मश्री प्रो. खड्ग सिंह वाल्दिया ने मध्य हिमालय के भीतर हो रही निवर्तनिक हलचलों पर प्रकाश डालते हुए चेतावनी दी की यदि योजनायें बनाते समय सतह पर न दिखायी देने वाली इन मुख्य एवं छोटी-छोटी दरारों अंशों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा तो समाज को एक बड़े विनाश का सामना करना पड़ेगा। उन्होंने मध्य हिमालय क्षेत्र के दरारों के नजदीक बार-बार आने वाले भूकम्पों को शुभ बताया, क्योंकि पृथ्वी के अन्दर बनने वाले तनाव की मात्रा कम हो जाने से इनसे बड़े भूकम्पों की सम्भावना घट जाती है।

समापन सत्र के मुख्य अतिथि पद्मभूषण श्री चंडीप्रसाद भट्ट एवं विशिष्ट अतिथि उत्तराखंड विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के महानिदेशक डॉ. राजेन्द्र डोभाल थे। भट्ट ने स्थानीय समाज की आवश्यकता एवं भूगोल की संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर हिमालय में विकास की नीति बनाने पर जोर दिया। सारांश में लगभग सभी वैज्ञानिकों ने हिमालय एवं विश्व के अन्य पर्वतीय एवं सीमान्त क्षेत्रों के पारिस्थितिकीय तन्त्र पर बिना छेड़छाड़ किये समाज को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक व्यावहारिक आधार वाली योजनायें लाने पर जोर दिया। उद्घाटन एवं समापन सत्रों का संचालन डॉ. दिव्या उपाध्याय जोशी तथा आभार प्रो. रघुवीर चन्द द्वारा किया गया।

5-9 मई 2011 तक प्रतिभागियों द्वारा क्षेत्रीय भ्रमण का कार्यक्रम किया गया। 5 मई को पं. गोविन्द बल्लभ पंत पर्यावरण एवं विकास संस्थान, कटारमल अल्मोड़ा में आयोजित कार्यक्रम में प्रतिभागियों को संस्थान द्वारा संचालित शोध कार्यक्रमों की जानकारी दी गयी। 7 मई 2011 को प्रतिभागियों द्वारा मुन्स्यारी क्षेत्र का अध्ययन किया गया। इसी दिन सायं डॉ. आर.एस. टोलिया द्वारा पं. नैन सिंह व्याख्यान दिया गया। 8 मई को पिथौरागढ़ नगरपालिका हाल में ‘पहाड़’ के जन संस्करण का विमोचन भी किया गया। इस अवसर पर प्रो. मार्टिन प्राइस ने समय रहते जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसानों से बचाने हेतु सुझाव दिये। यदि संगोष्ठी के निष्कर्षों पर यदि कोई कार्ययोजना बने तो उससे हिमालय और विशेष रूप से उत्तराखंड के अच्छे भविष्य की कल्पना की जा सकती है।
 

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