हिमालय बचाने की मुहिम

हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।
हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।
हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।

सभी कहते हैं कि हिमालय नहीं रहेगा तो, देश नहीं रहेगा, इस प्रकार हिमालय बचाओ! देश बचाओ! केवल नारा नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता है। इसी तरह चिपको आन्दोलन में पहाड़ की महिलाओं ने कहा कि ‘मिट्टी, पानी और बयार! जिन्दा रहने के आधार!’ और आगे चलकर रक्षासूत्र आन्दोलन का नारा है कि ‘ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे! नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे!’, ये तमाम निर्देशन पहाड़ के लोगों ने देशवासियों को दिये हैं।

‘‘धार ऐंचपाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला!’’ इसका अर्थ यह है कि चोटी पर पानी पहुँचना चाहिए, ढालदार पहाड़ियों पर चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगे और इन पहाड़ियों के बीच से आ रहे नदी, नालों के पानी से घराट और नहरें बनाकर बिजली एवं सिंचाई की व्यवस्था की जाए। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालयी क्षेत्रों में रह रहे लोगों, सामाजिक अभियानों तथा आक्रामक विकास नीति को चुनौती देने वाले कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों ने कई बार हिमालय नीति के लिये केन्द्र सरकार पर दबाव बनाया है।

इस दौरान इसके कई रूप दिखाई भी दे रहे हैं। नदी बचाओ अभियान ने हिमालय नीति के लिये वर्ष 2008 से लगातार पैरवी की है। हिमालय देश और दुनिया के लिये प्रेरणा का स्रोत बना रहे, इसे ध्यान में रखकर के हिमालयवासियों द्वारा ‘हिमालय लोक नीति’ प्रस्तुत की गई है। इसके लिये हिमालयी राज्यों के लोग स्थान-स्थान पर एकत्रित होकर हिमालय लोक नीति के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करके केन्द्र सरकार को सौंप रहे हैं।

हिमालय लोकनीति एक समग्र हिमालय नीति की मार्गदर्शिका


हिमालय का पानी, हिमालय की मिट्टी पूरे देश के काम आ रही है। हिमालय शुद्ध ऑक्सीजन का भण्डार है। हिमालय जलवायु को नियन्त्रित कर रहा है, यहाँ से निकलने वाले गाड़-गदेरे, नदियाँ और ग्लेशियरों को भी हिमालय ने जीवित रखा है। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालय में उपभोक्तावादी, शोषणयुक्त, अविवेकपूर्ण विकासवादी दृष्टि कभी टिकाऊ विकास नहीं कर सकती है।

देश के योजनाकारों, राजनेताओं, वैज्ञानिकों को अब यह समझाने का समय आ गया है कि हिमालयी समाज, संस्कृति और यहाँ के पर्यावरण के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिये तत्पर हिमालय को मैदानों के भौगोलिक आकार-प्रकार तथा विकासीय दृष्टिकोण से नहीं मापा जा सकता है।

बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन के साथ-साथ अब मानवकृत आपदाओं से त्रस्त हिमालय और इससे जुड़े मैदानी क्षेत्रों की चिन्ता केन्द्र और राज्य सरकारों को समय रहते नहीं हुई तो, तेजी से बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन से भी संकट बढ़ेगा, इसके साथ-साथ बाँधों के सुरंग शृंखलाबद्ध निर्माण से हिमालयी नदियाँ सूखकर मटियामेट होने की सम्भावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसके परिणाम यही होंगे कि हिमालयी राज्यों से विस्थापन एवं पलायन की समस्या बढ़ेगी, क्योंकि हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण, वैश्विक व निजीकरण की कुचेष्टाओं पर आधारित हो गया है।

अधिकांश हिमालयी राज्यों की स्थिति यह है कि यहाँ के निवासी जल, ज़मीन, और सघन वनों के बीच रहकर भी, इन पर उनका अधिकार नहीं है। इस उपेक्षा के परिणाम यह भी है कि सीमान्त इलाकों से पलायन हो रहा है। हिमालयी क्षेत्रों की पर्यावरणीय, भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति को देखते हुए केन्द्र सरकार को एक एकीकृत केन्द्रीय हिमालय नीति बनानी चाहिए। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालयवासियों के द्वारा ‘हिमालय लोक नीति’ का मसौदा तैयार किया गया है। सन् 2010 में उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में हिमालयी राज्यों के लोग एकत्रित हुए थे। जिन्होंने हिमालय लोकनीति का मसौदा तैयार किया है।

लोकसभा में हिमालय की गूँज


16वीं लोकसभा के चुनाव में भी सभी राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में हिमालय नीति का विषय शामिल करवाया गया था। इसमें मुख्यतः भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में हिमालय के विषय को शामिल किया है। केन्द्र में जब भाजपा की सरकार बनी तो उन्होंने हिमालय अध्ययन केन्द्र के लिये सौ करोड़ का बजट भी प्रस्तावित किया है। इसके साथ ही हरिद्वार के सांसद एवं उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने हिमालय के लिये अलग मन्त्रालय बनाने पर पार्लियामेंट में बहस करवाई है। लेकिन वर्तमान में हिमालय के विकास का ऐसा कोई मॉडल नहीं है कि जिससे बाढ़, भूस्खलन, भूकम्प से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।

हिमालय नीति अभियानहिमालय का पानी और जवानी हिमालयवासियों के काम भी आ सके। हिमालय की संवेदनशील व कमजोर पर्वतीय इलाकोें की सुरक्षा रहेगी तो गंगा की अविरलता भी बनी रहेगी और मैदानी क्षेत्र भी बच पाएँगे। इस तरह के उपाय हिमालय लोक नीति के दस्तावेज़ में दिए गए हैं। केन्द्र सरकार ने हिमालय के बारे में अलग से प्रस्तावित हिमालय अध्ययन केन्द्र की बात कही है, लेकिन हिमालय के बारे मे ऐसा कौन सा अध्ययन है जो हुआ न हो? यहाँ पर स्थित गढ़वाल विश्वविद्यालय, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, वाडिया भूगर्भ विज्ञान संस्थान, गोविन्द बल्लभ पन्त हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान, आईआईटी रुड़की की उन रिर्पोटों को देख लेना चाहिए जिसमें हिमालय को कमजोर करने वाले कारकों को जिम्मेदारीपूर्वक वैज्ञानिकों ने प्रकाश में लाया है।

राष्ट्रीय हिमालय नीति अभियान (गंगोत्री से गंगासागर)


प्रचण्ड बहुमत के साथ केन्द्र में पहुँची श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार गंगा को अविरल निर्मल बनाने के लिये संकल्पित हुई है। इसके लिये 2035 करोड़ का बजट भी रखा गया, लेकिन गंगा के मायके हिमालय के संकट के प्रति उदासीनता सामने आई है। केवल इतने भर कहने से सन्तुष्टि नहीं बल्कि हिमालय के गम्भीर सवालों से दरकिनार भी किया जा रहा है।

ऐसी स्थिति में यह याद दिलाना जरूरी था कि गंगा की अविरलता और निर्मलता में हिमालय के अहम योगदान को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। इसको ध्यान में रखकर हिमालय गंगा का दाता है, गंगा को अविरल निर्मल बनाता है के सन्देश के साथ 11 अक्टूबर 2014 को जय प्रकाश नारायण की जयन्ती के अवसर पर हिमालय नीति अभियान का प्रारम्भ गंगोत्री से किया गया था। इस अभियान का प्रथम चरण 30 अक्टूबर तक हरिद्वार तक हुआ था।

हरिद्वार में सर्वोदय सत्संग आश्रम में इस अभियान का प्रथम चरण पूरा होने पर उत्तराखण्ड के लगभग 6 जिलों के लोगों ने भाग लिया है। इसके बाद उत्तराखण्ड के प्रत्येक जनपद से 11 नवम्बर को एक साथ हिमालय लोकनीति का दस्तावेज़ प्रधानमन्त्री जी को जिलाधिकारियों के माध्यम से भेजा गया है।

राष्ट्रीय हिमालय नीति अभियान का दूसरा चरण 2-18 फरवरी 2015 के बीच चला। जो आगे मेरठ, बरेली, हरदोई, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी, बनारस, कैथी, बलिया, छपरा, डोरीगंज, सोनपुर, पटना, भागलपुर, कृष्णनगर, कोलकाता, डायमंड हर्बर से गंगा सागर पहुँचा। इस बीच लगभग 5000 लोगों ने केन्द्र सरकार को हिमालय नीति के सम्बन्ध में पत्र भी भेजे।

गोमुख से गंगासागर के बीच हिमालयी नदियों का संगम


गोमुख से गंगासागर तक 2525 किमी लम्बी गंगा बेसिन में भारत की कुल जनसंख्या की 40 प्रतिशत आवादी निवास करती है। हिमालय की गोद से निकलकर माँ गंगा प्रतिवर्ष 36 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी मैदानी क्षेत्रों में पहुँचाती है। गंगा बेसिन में 560 मिलियन लोग और 70 मिलियन पशुओं को जीवन प्रदान करती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि सूर्य के प्रभाव से पृथ्वी के सागर से जल वाष्प बनकर उड़ता है, जो बादल के रूप में ऊँची चोटियों पर ठंडा होकर जम जाता है। यह ग्लेशियर के रूप में दिखाई देता है। इसलिये समुद्र और हिमालय दोनों आपस में जलवायु को नियत्रिन्त रखते हैं।

देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा मिलकर गंगा कहलाती हैै। इसमें आगे सत्यनारायण के पास चन्द्रभागा नदी, हरिद्वार से पहले सुसवा, कन्नौज में रामगंगा मिलती है। रामगंगा की सहायक नदी काली व ढेला नदी है। गंगा में कानपुर से पाण्डु, इलाहाबाद में यमुना तथा सरस्वती का संगम है। इलाहाबाद (प्रयाग) में गंगा से मिलने वाली यमुना की सहायक नदियाँ रूपिन, सुपिन, गिरी, टौंस, पाबर, गम्भीर, सेसा, खेर, पार्वती, असान, हिण्डन, चम्बल, बनास, बर्क, क्षिप्रा, खानकली, सिन्ध, बेतवा विभिन्न स्थानों पर मिलती है।

प्रयाग के आगे गंगा में वरुणा, असि, बसुदी, गोमती मिलती है। इसकी सहायक नदियाँ जोकनई, कटना, झमका, सकरिया, सरयन, सड़ा, घई, पीली मयूरी, तम्बरा, सई आदि है। बलिया के पास गंगा में बिसान, गंगी, कर्मनाशा आदि नदियाँ मिलती है।

हिमालय नीति अभियानबिहार में गंगा की धारा में घाघरा जिसकी सहायक नदी शारदा, गौरी, बौनसाई, टोंस, देबहा आदि मिलती है। गण्डक (त्रिशुली नदी) सोन नदी (रिहन्द, पुनपुन, मोरहन, दूधवा) फल्गु (लीलाजन, मोहना) कोशी (दूधकाशी, भूतकोशी, अरुण, तमर, सप्तकोशी, इन्द्रावती, सोनकोशी, बागमती, कमला, बलान) मिलती है। फरक्का से आगे पश्चिम बंगाल में उत्तर की तरफ से महनन्दा तथा पश्चिम से हुगली जिसमें दामोदर व रूपनारायण शामिल होती है।

बांग्लादेश में ग्वालन्दों घाट के निकट गंगा में विशाल ब्रह्मपुत्र नद मिलता है। गंगा और ब्रह्मपुत्र की संयुक्त धारा पद्मा कहलाती है जो चौधंपुर के निकट मेघना में शामिल होती है। इसके बाद बंगाल की खाड़ी में समाहित होती है। बाहर से यही देखने को मिलता है कि गंगा की धारा गंगासागर में समुद्र से मिलकर खत्म हो जाती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि बंगाल की खाड़ी में 70 मील तक पानी के अन्दर भी रेत की पूँछ के रूप में गंगा ने अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। इतना ही नहीं गंगा द्वारा छोड़ी गई मिट्टी और रेत के कारण लगभग 400 मील तक हिन्द महासागर का पानी सफेद दिखाई देता है।

हिमालय लोकनीति की आवश्यकता क्यों?


1. हिमालयी नदियों से देश को 60 प्रतिशत जलापूर्ति होती है, अतः नदियों के उद्गम वाले हिमालयी राज्यों में नदियों का जलबहाव निरन्तर एवं अविरल रखना अनिवार्य है।
2. हिमालय का वनक्षेत्र स्वस्थ पर्यावरण के मानकों से अभी अधिक है, इसको बनाए रखने हेतु हिमालयी जैवविविधता का संरक्षण व संवर्धन स्थानीय लोगों के साथ मिलकर करने की आवश्यकता है।
3. अधिकतर हिमालयी राज्यों की सरकारों ने नदियों को रोककर विद्युत ऊर्जा बनाने के लिये राज्य के नाम को ऊर्जा प्रदेश से जोड़कर सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण का बीड़ा उठा दिया है, लेकिन इन जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण से पहले प्रभावित लोगों का जीवन एवं उनकी आजीविका के प्राकृतिक संसाधनों का जिस तरह से अतिक्रमण, शोषण एवं प्रदूषण विकासकर्ताओं के साथ मिलकर सरकारी समझौतों के द्वारा किया जा रहा है, उससे सम्पूर्ण हिमालयी जन-जीवन खतरे में पड़ता नजर आ रहा है।
4. बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन के लिये भारत के सभी हिमालयी राज्य संवेदनशील है। यहाँ पर आपदाओं का सामना करने के लिये स्थानीय निवासियों की पारम्परिक शिल्पकला, लोक विज्ञान व अनुभवों की उपेक्षाएँ हैं। आपदा प्रबन्धन का काम गाँव के लोगों के साथ कम और सरकारी अधिकारियों की ज़िम्मेदारी में अधिक है।
5. हिमालय बदलते मौसम व जलवायु परिवर्तन को नियन्त्रित करता है। वनों का अन्धाधुन्ध कटान, एकल प्रजाति के शंकुधारी वनों का विस्तार, चौड़ी पत्ती के वनों की निरन्तर कमी, सूखते जलस्रोत, सिकुड़ते ग्लेशियर, वनाग्नि, नदियों की घटती जलराशि, आदि कई घटनाएँ हैं, जो मानवकृत ही हैं।
6. महिलाएँ इन पर्वतीय राज्यों की रीढ़ मानी जाती हैं। आज भी महिलाओं को पीठ एवं सिर पर घास, लकड़ी, पानी के लिये 8-15 किमी तक पैदल आना-जाना पड़ता है।
7. हिमालयी राज्यों के लोगों ने विश्व विख्यात चिपको, रक्षासूत्र, नदी बचाओ, टिहरी बाँध विरोध के आन्दोलन किए हैं। यहाँ के लोग निरन्तर समाज एवं पर्यावरण को बचाने के लिये अपनी आवाज बुलन्द करते रहते हैं, लेकिन केन्द्र ने चाहे वन अधिनियम बनाया हो अथवा जल, ज़मीन की नीतियाँ सभी हिमालयवासियों के लिये अनुपयोगी सिद्ध हुई है। समस्या इतनी विकराल है कि लोगों द्वारा भी संरक्षित प्राकृतिक संसाधन उनके नियन्त्रण से बाहर है।
8. हिमालय स्वयं में एक जैविक प्रदेश है। यहाँ के निवासी एक ही खेत से बारहनाजा की फसल उगाते रहे हैं। लेकिन बाहर से कभी किसी सरकारी योजना ने उनको पारम्परिक बीज, जैविक खाद्य, कृषि और इससे जुड़े पशुपालन को नहीं समझा। लोगों के पास जो कृषि भूमि है, उसके लिये चकबन्दी करवाने का प्रयास नजरअन्दाज करके, बाहर से कृषि विविधीकरण के नाम पर अजैविक व्यवस्था को हिमालय पर थोपा गया है। आज भी रासायनिक खादों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बीज हिमालय क्षेत्र की जैविक खेती को अजैविक में परिवर्तित करने का काम कर रही है।
9. हिमालय दुनिया के पर्यटकों को अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य की ओर आकर्षित करता है, जिसके परिणामस्वरूप हिमालय की पवित्रता, शुद्धता, अस्मिता खतरे में पड़ी हुई है। पर्यटन के नाम पर पंचतारा होटलों का विकास एक मात्र उद्देश्य है। महिलाओं व बच्चों की ट्रेफिकिंग इससे जुड़ गई है।
10. हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली कुल वर्षा का 3 प्रतिशत उपयोग भी नहीं हो पाता है। स्थानीय जल संरक्षण की विधियों को जो प्रोत्साहन मिलना चाहिये था वह नहीं मिला है।
11. हिमालयी राज्य पर्यावरणीय दृष्टि से भी अति संवेदनशील है। मानवीय विकास की छेड़छाड़ से ही अधिकांश भूस्खलन, भू-धँसाव की समस्या पैदा होती है। इस सम्बन्ध में समय-समय पर वैज्ञानिकों, भूगर्भवेत्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्वैच्छिक संगठनों ने कई अध्ययन करके महत्वपूर्ण दस्तावेज सरकार को दिए हैं। वाडिया भूगर्भ विज्ञान संस्थान, भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान, रिमोट सेंसिग, विश्वविद्यालयों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों, गोविन्द बल्लभ पन्त हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के द्वारा तो हिमालयी पर्यावरण (जल, जंगल, ज़मीन) की संवेदनशीलता एवं इसमें किये जा सकने वाले विकास की गतिविधियों में सावधानियों हेतु कई दस्तावेज़ सरकार के पास है, फिर भी उस पर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा जाता है। कई उदाहरण है कि विकास के नाम पर बनने वाली कई परियोजनाओं की स्वीकृति न तो पर्यावरण मन्त्रालय ने दी है और न ही प्रभावित जनता के बीच उसकी कोई जनसुनवाई होती है, लेकिन आश्चर्य है कि उस पर रात-दिन भारी विस्फोटक सामग्रियों का इस्तेमाल करके काम होता रहता है। इस प्रक्रिया में कई घर-बार तबाह हो जाते हैं, लोग अपने को बचाने के लिये लड़ाई लड़ते हैं, लेकिन सुनने वाला ही कोई नहीं होता है।

12. हिमालय जड़ी-बूटियों का विशाल भण्डार है, जो यहाँ का बड़ा आर्थिक स्रोत हो सकता है। यह तभी सम्भव है, जब लोग जड़ी-बूटी उगाएँ और सरकार उसको तत्काल खरीदे, परन्तु यह काम जनता द्वारा बार-बार कहने पर भी जड़ी-बूटी उत्पादकों के हाथों निराशा ही लगती है।

13. हिमालय शुद्ध ऑक्सीजन का भण्डार है। विकसित राष्ट्रों द्वारा पैदा किए जा रहे कार्बन को भी सोखता है, फिर भी हिमालय के सीमान्त किसानों के पास पर्याप्त आय के स्रोत नहीं हैं। लोगों ने मिश्रित वन बनाएँ हैं। अपने गाँवों के वनों की सुरक्षा करते हैं। इसलिये हिमालय के साथ ही हिमालयवासियों का भी वनों को बचाने का एक बड़ा योगदान है। अतः कार्बन को कम करने वाले हिमालय के निवासी भी ग्रीन बोनस के हक़दार हैं।
14. भारतीय हिमालयवासियों के अलावा हिमालय पूरे दक्षिण एशिया में प्रत्यक्ष तथा एशिया के लिये अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के अमूल्य आधार मिट्टी, पानी और हवा प्रदान करता है। इस भू-भाग से निकलने वाली नदियाँ व उनके साथ बहकर जाने वाली मिट्टी न केवल गंगा, यमुना के मैदान बल्कि सम्पूर्ण भारत वर्ष व दक्षिण एशिया के कई देशों के लिये खाद्य सुरक्षा हेतु स्थाई प्रबन्धन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मानसून जैसे वर्षाचक्र के निर्माण में भी हिमालय का एकमेव महत्त्वपूर्ण योगदान है।
15. हिमालय आध्यात्मिक प्रेरणा का स्रोत है और प्राकृतिक देन है। इसके अंग-प्रत्यंग (नदी, ग्लेशियर, जंगल, जमीन) बिकाऊ नहीं बल्कि टिकाऊ बनाए रखने में हमारी भूमिका होनी चाहिये।

हिमालय नीति अभियान

क्या है हिमालय लोकनीति?


एकीकृत जल, जंगल, ज़मीन

1. जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय लोगों का अधिकार होगा, इससे सम्बन्धित विभाग, पंचायतों व स्थानीय लोगों को सहयोग करेंगे। सम्बन्धित विभाग ग्रामसभाओं को तकनीकी, आर्थिक सहयोग, राज्य सरकार के द्वारा उपलब्ध किया जाएगा।
2. प्रत्येक गाँव का अपना जंगल होगा, जहाँ से वह घास, लकड़ी की आपूर्ति कर सकता हो, इसके साथ ही घरेलू उपयोग हेतु आने वाली लकड़ी जैसे- मकान बनवाने, दाह संस्कार, जलावन आदि के लिये ग्रामस्तर पर ग्राम वन समितियों के माध्यम से इच्छुक व्यक्तियों को गाँव के जंगल से उपलब्ध करवाएगा। ऐसे गाँव जिनके पास जंगल नहीं हैं, उन्हें जंगल उपलब्ध करवाना राज्य सरकार का काम है, यदि ऐसा न हो तो गाँव वालों के सहयोग से मिश्रित जंगल तैयार करना होगा।
3. वन उत्पादों जैसे- सूखी लकड़ी, गिरा हुआ पेड़, सिर टूटा पेड़ का निस्तारण ग्राम वन समिति करवाएगी। गाँव की आवश्यकता के अनुसार गाँव में ही एक डिपो बनाया जाएगा, यदि वनोत्पाद गाँव की आवश्यकता से अधिक होंगे तो वह राज्य सरकार के सम्बन्धित विभाग को हस्तान्तरित किया जाएगा।
4. गाँव के खेतों, चारागाहों, ग्रामवन सीमा के अन्तर्गत तमाम भेषज एवं जड़ी-बूटियों का संरक्षण गाँव में जहाँ पर जिस परिवार या कम्युनिटी के नजदीक के उपयोग क्षेत्र में आता है, वे वहाँ पर चाहेंगे तो जड़ी-बूटी भी उगा सकते हैं, लेकिन उनकी सारी जड़ी-बूटी राज्य सरकार खरीदेगी, इसका समझौता गाँव वालों के साथ ग्राम वन समितियों के नेतृत्व में राज्य को करना चाहिए।
5. जिन राज्यों के पास 35 प्रतिशत से अधिक वन एवं वन भूमि हैं, उसे शेष वन एवं वन भूमि गाँव वालों को हस्तान्तरित करनी चाहिये, ताकि जिन गाँवों के पास वन न हो उन्हें वन प्रदान हो जाएगा, गाँव-सभा वन भूमि की ज़मीन भूमिहीन लोगों में प्राथमिकता के अनुसार बाँटेगी।
6. हिमालयी क्षेत्रों के गाँवों में प्रत्येक परिवार को अपनी निजी भूमि पर चारा-पत्ती, फल, रेशे तथा जलावन की वन प्रजातियों को उगाना होगा, उन्हें अधिक-से-अधिक वन उत्पाद स्वयं भी तैयार करने हैं, ताकि गाँव के सामुहिक वनों को अधिक मानवीय शोषण से बचाया जा सके।
7. हिमालयी राज्यों में जहाँ पर वन विदोहन के लिये वन निगम की व्यवस्था है, उसे ग्राम वन समितियों के अधिकार में दिया जाएगा।

जल, सिंचाई एवं कृषि, जल ऊर्जा


1. ग्लेशियरों तथा वर्षा के जल से पोषित नदियों, गाड़-गदेरों, झरनों आदि के उद्गम से लेकर बीच में जहाँ-जहाँ पर गाँव, शहर, कस्बा चाहे ऊँचाई पर हो या घाटियों में हो, सर्वप्रथम उन्हें शुद्ध पेयजल उपलब्ध करवाना चाहिए। इसके बाद उनके खेतों की सिंचाई, घराट से जल ऊर्जा, नगदी फसलों का विकास करना आदि के लिये जलापूर्ति सुनिश्चित करवाना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी होगी।
2. जल के उपयोग को बहुपयोगी बनाने के लिये गाँव वालों के ऐेसे मौजूदा उदाहरणों से जो छोटी पनबिजली, घराट, नहरों में निरन्तर जलबहाव से जैविक खेती की जाती है, आदि से सीखना होगा। एकीकृत जल संसाधन प्रबन्धन की इस दृष्टि को राज्यों को गाँम्रसभा एवं जल प्रबन्धन समितियों के साथ मिलकर ऊर्जा प्रदेश के सपने साकार करने चाहिए।
3. ऐतिहासिक रूप से पानी के सन्दर्भ में सामाजिक व आर्थिक रूप में दलित एवं कमजोर वर्गों की उपेक्षा की जाती है, उन्हें पानी की समानता का अधिकार मिलेगा, इसके लिये राज्य सरकार स्थानीय सामाजिक संस्थाओं का सहयोग लेकर समानता के लिये पहल करने में सहयोग देगी।
4. बाढ़, भूस्खलन, भूकम्प के लिये संवेदनशील हिमालयी भौगोलिक संरचना को ध्यान में रखकर सुरंग आधारित परियोजनाएँ लागू नहीं होगी।
5. हिमालयी राज्यों के गाँवों में सिंचाई के लिये नहरें, गूलें, जल संग्रहण तालाबों आदि को महत्व दिया जाएगा। क्योंकि इसमें बहने वाला जल एक तो कृषि भूमि को सिंचित करता है, दूसरा वह आगे जाकर कुछ ही दूरी पर गाड़-गदेरों से नदी में जाकर मिलता है। अतः खेतों में जलापूर्ति के साथ-साथ ढालदार जल बहाव से छोटी-छोटी 5 किलोवाट से 1 मेगावाट तक की क्षमता की परियोजनाएँ जिला पंचायतों की देखरेख में ग्रामसभाएँ निर्मित करेंगी।
6. छोटी पनबिजली से सबसे पहले विद्युत आपूर्ति सम्बन्धित गाँव वालों को होगी, उससे अधिक उत्पादित बिजली का इस्तेमाल पड़ोसी गाँव, कलस्टर, ब्लॉक, जिला से राज्य तक सुनिश्चित की जाएगी। राज्य सरकार को गाँव वालों के साथ इस प्रकार के क्रमबद्ध समझौता करके बिजली की आपूर्ति कराने की योजना बनानी चाहिए।
7. वर्तमान में पानी से चल रहे सभी उद्योगों व पनबिजली पर उन लोगों की हिस्सेदारी होगी, जिन गाँवों को विस्थापित होना पड़ा है, जिनकी ज़मीन, मकान, आजीविका के संसाधन नष्ट हुए, उन्हें तब तक हिस्सेदारी दी जाएगी, जब तक वह उद्योग आय कमाता रहेगा। यदि इनमें से कोई उद्योग निजी कम्पनी चला रही है, तो वह भी स्थानीय लोगों को हिस्सेदार बनाएगा साथ ही राज्य को इसकी रॉयल्टी भी देगा। यह व्यवस्था वहाँ पर तत्काल लागू होगी, जहाँ-जहाँ पर पानी से बाँध एवं पनबिजली या अन्य उद्योग चल रहे हैं।
8. हिमालय से निकलने वाली हिमपोषित एवं वर्षापोषित नदियों के उद्गम से लेकर आगे कम-से-कम 150 किमी तक अविरल बहाव कोे बाधित नहीं किया जाएगा। ऐसे क्षेत्र में बिगड़ते पर्यावरण को बचाने तथा पर्यावरणीय उपाय हेतु स्थानीय समाज के साथ मिलकर लोगों की आजीविका एवं नागरिक सुविधाओं को प्रभावित किये बिना इकोसेंसिटिव क्षेत्र माना जाना चाहिए, इसके लिये स्थानीय लोगों के नेतृत्व में इको टास्क फोर्स बननी चाहिए। राज्यों को इसके दिशा-निर्देश के लिये नियमावली बनानी चाहिये तथा राज्यस्तर पर नदी-घाटी विकास प्राधिकरणों का गठन करना चाहिए।
9. किसी भी नदी पर निर्मित हो चुकी परियोजनाओं में 30 प्रतिशत से अधिक जल न रोका जाय।
10. उत्तराखण्ड में माइक्रोहाइड्रिल की लगभग 200 इकाइयाँ 60 के दशक में बनाई गई थीं जिन्हें नई सुंरगाधारित परियोजनाओं व बड़े बाँधों के सामने निष्क्रिय कर दिया गया है, वे इकाइयाँ पर्यावरण व जनहित में बहुत उपयोगी थीं, ऐसी सभी इकाइयों को पुनः सक्रिय किया जाय व उनके द्वारा लघु ग्रामोपयोगी उद्योग चलाए जाने चाहिए। ऐसी अनेक नई माइक्रोहाइड्रील इकाइयाँ पूरे हिमालय में बनें जो वहाँ की ऊर्जा आपूर्ति कर सकेंगी।
11. जल संवर्धन के प्राकृतिक उपायों - जैसे चौड़ी पत्ती के वृक्षों का रोपण, वर्षाजल को रोकने के विभिन्न उपायों, तथा कम पानी की जरूरत वाली फसलों की खेती आदि को बढ़ावा दिया जाय। जल संवर्धन हिमालय की विकास नीति का प्रमुख मुद्दा बनना चाहिए।
12. शहरी क्षेत्रों में 200 वर्गमीटर या उससे अधिक क्षेत्रफल पर बनने वाले सभी भवनों में वर्षाजल एकत्र करना (Rain Water Harvesting) की व्यवस्था अनिवार्य बनाई जाए।
13. हिमालय में निर्माण के किसी भी कार्य में बड़ी मशीनों (JCBs, Bulldozers,etc.) के बजाय मानव श्रम पर आधारित कार्य किये जाएँ ताकि स्थानीय लोगों को रोज़गार तो मिले ही साथ में हिमालय के पहाड़ों की नाजुक प्राकृतिक बनावट को नुकसान से बचाया जाए।

हिमालय नीति अभियान

भूमि


1. प्रत्येक ग्रामसभा के पास गाँव के सभी भूमिहर परिवारों का रिकार्ड रहेगा, इसका सचिव लेखपाल अथवा पटवारी होगा, जो परिवार भूमिहीन होगा, उसे गाँव की खाली पड़ी कृषि योग्य भूमि राज्य सरकार की मदद से पंजीकृत करवाकर उपलब्ध करवाएगी। राज्य व्यवस्था भूमिहीन परिवार को उपलब्ध करवाई गई भूमि सुधार (समतलीकरण) हेतु आर्थिक सहयोग देगी।
2. हिमालयी क्षेत्रों के ताल, झील, बुग्याल जो 9000 फीट की ऊँचाई से आरम्भ होती है, की जैवविविधता का संरक्षण राज्य स्वयं करेगा। वहाँ वन्य जीवों तथा जड़ी-बूटियों के अवैध दोहन रोकने के लिये निकट के गाँव वालों की मदद से ही यह कार्य किया जाएगा।
3. कृषि योग्य भूमि का किसी अन्य उद्देश्य के लिये उपयोग करना सरकारी व सामुदायिक अनुशासन के अन्तर्गत प्रतिबन्धित होगा।
4. नदियों के जल प्रवाह को बढ़ाने तथा वायुमण्डल में नमी बढ़ाकर बर्फबारी हेतु अनुकूल स्थितियाँ पैदा करने व बढ़ती गर्मी को रोकने हेतु हिमालयी आरक्षित वनों के लिये एक विशेष कार्य योजना बनें। चीड़ (पाइन) के वृक्षों को धीरे-धीरे नीचे से हटाना पड़ेगा, इसके स्थान पर मिश्रित वनों का रोपण युद्धस्तर पर गाँवों की इको टास्क फोर्स को मदद देकर किया जाएगा।
5. हिमालयी संवेदनशील क्षेत्रों में रज्जूमार्ग तथा वायुमार्ग को प्राथमिकता दी जाएगी। सड़कों के निर्माण से मलबा डम्पिंग ऐसे उचित स्थानों पर किया जाएगा, जहाँ पर बाद में इस पर वृक्षारोपण हो सके अथवा बागवानी एवं कृषि योग्य भूमि में तब्दील किया जा सके।
6. सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र के लिये केन्द्र की मदद से एक कूड़ा-कचरा प्रबन्धन हेतु नियमावली बनाई जाएगी। तमाम जैविक एवं अजैविक कचरा का प्रबन्धन शहर एवं गाँव में रहने वाले लोग करेंगे तथा राज्य सरकारें रिसाइकिलिंग के लिये इसे लोगों को प्रोत्साहित करके बाहर ले जाएगी। अजैविक कचरा का उचित दाम भी लोगों को मिलेगा।
7. ‘वनाधिकार कानून 2006’ हिमालयी राज्यों में विशेष रूप से लागू रखने के लिये राज्य सरकारों पर केन्द्र का दबाव रहेगा। इसके साथ ही महिलाओं का कष्ट निवारण हेतु महिला नीति तथा युवाओं का पलायन रोकने हेतु युवा नीति बनवाने के लिये केन्द्र सरकार राज्यों को दिशा-निर्देश करेगी।
8. हिमालयी राज्यों में बड़े खनन प्राकृतिक संसाधनों को अत्यधिक नुकसान पहुँचाते हैं, इसलिये बड़े खनन की अनुमति नहीं दी जाएगी। स्थानीय पारम्परिक लघु खनन को इस चेतावनी के साथ खनन कार्य की अनुमति दी जाएगी, कि जिससे जंगल, ज़मीन व जलस्रोतों पर बुरा प्रभाव न पड़े।

जलवायु परिवर्तन नियन्त्रण


1. अन्तरराष्ट्रीय कार्बन ट्रेडिंग के अनुबन्धों से हिमालय क्षेत्र मुक्त रहेगा।
2. वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण हिमालय क्षेत्र में पड़ने वाले प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन स्थानीय लोगों के साथ मिलकर किया जाएगा। अध्ययन के उपरान्त प्रभावित लोगों को भी अवगत करके तद्नुसार तापमान वृद्धि को रोकने के लिये लोगों के साथ मिलकर ठोस उपाय पर काम किया जाएगा।
3. मानव निर्मित टिहरी बाँध समेत अन्य निर्मित सुरंग आधारित या झील आधारित बाँधों का अध्ययन होगा। यदि जलवायु परिवर्तन को ये बाँध पोषित करते हों, तो इस पर जन सुनवाईयों के अनुसार केन्द्र सरकार निर्णय लेगी।
4. जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में पवन ऊर्जा, सूक्ष्म जल ऊर्जा, वर्षाजल हेतु चाल, खाल, तालाबों में जल संरक्षण करना, घराट तकनीकी से ऊर्जा बनाने की दिशा में गाँव-गाँव में रोज़गार पैदा करने के उद्देश्य से विकसित किया जाएगा।

भूकम्परोधी भवन


1. हिमालयी क्षेत्रों में भूकम्परोधी आवासों के निर्माण की पारम्परिक तकनीकी को बढ़ावा मिलेगा। भूकम्परोधी भवन निर्माण तकनीकी के साथ वर्षा जल संरक्षण व स्वच्छ शौचालय का निर्माण भी अतिमहत्त्वपूर्ण समझा जाएगा। ग्रामसभाएँ इसका लेखा-जोखा रखेगी तथा भवनों में वर्षाजल संरक्षण की व्यवस्था न होने तक उसे अवैध मानेगी।

हिमालयी शिक्षा, संस्कृति एवं पर्यटन


1. हिमालय क्षेत्र आध्यात्मिक प्रेरणा का केन्द्र है। हिमालय स्वयं में एक शिक्षक है और शिक्षा देने वाली किताब भी, इसे ध्यान में रखते हुये शैक्षणिक स्तर के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
2. हिमालयी संस्कृति, रहन-सहन, पहचान आदि पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिये।
3. हिमालयी क्षेत्रों से महिलाओं की ट्रेफिकिंग रोकने एवं गरीब बच्चों को बाल मजदूरी में जाने से रोकने हेतु महिला सुरक्षा एवं हिंसा विरोधी कानून तथा बाल अधिकार कानून को राज्य सरकारों को विधिवत पालन करना चाहिये।
4. हिमालयी क्षेत्र का प्रत्येक कोना पर्यटकों के लिये आकर्षक है, लेकिन कुछ चुनिन्दा स्थानों पर ही पर्यटक पहुँचते हैं, इसलिये पर्यटक क्षेत्रों का सर्वेक्षण ग्रामसभाओं की मदद से किया जाएगा और स्थानीय लोगों को पर्यटन से मिलने वाले लाभ से जोड़ा जाएगा, जिसके लिये राज्यों को निम्नलिखित काम करने होंगे - पर्यटक क्षेत्रों तक पहुँचने का रोडमैप उस क्षेत्र में रहने वाले ग्रामों के पास होगा। गाँवों से युवकों को इकोटूरिज्म तथा साहसिक पर्यटन में प्रशिक्षित किया जाएगा। पर्यटक क्षेत्रों तक पहुँचने से पूर्व पड़ने वाले गाँव के लोग कृषि जैविक उत्पादों तथा स्थानीय शिल्पकला का प्रदर्शन करेंगे। इसका इस्तेमाल होटलों और ढाबों में किया जाएगा, इससे स्थानीय लोगों की आय बढ़ेगी। इसका उद्देश्य मुख्य रूप से पलायन रोकना होगा। इको टास्क फोर्स से जुड़े गाँववासी पर्यटकों द्वारा बाहर से पहुँचाए जाने वाले प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध करवाएँ, पर्यटक स्वयं अपना कूड़ा जाँच चौकियों में प्रमाणित करवा करके कूड़दान में डालें। राज्य इसकी मॉनिटरिंग के लिये स्थानीय लोगों को रोजगार देकर प्लास्टिक कल्चर हिमालय के दूरस्थ पर्यटक क्षेत्रों तक पहुँचाने से रोकें, इसमें कचरा प्रबन्धन नियमावाली प्रभावी रूप से लागू होगी। तीर्थ एवं पर्यटक विशेष क्षेत्र में पहुँचने तक बीच में पड़ने वाले गाँवों व निकायों के पास ही पर्यटक आवासीय स्थल होने चाहिये। स्थानीय लोगों को विशेष स्वच्छ-सफाई, प्रकृति आकर्षण, गुणवत्तापूर्ण सुविधाओं को देने के लिये एक नियमावली के तहत राज्य के लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिये। राज्य सरकारें पर्यटक एवं धार्मिक स्थलों की क्षमता के अनुसार पर्यटकों व श्रद्धालुओं को नियन्त्रित करेगी। मौसम विभाग की घोषणा के अनुसार बरसात के मौसम में पर्यटकों को बाहर से आने से रोका जाए। इससे भूस्खलन, जल प्रलय आदि से होने वाली जन हानि से बचा जा सकता है। पर्यटक व धार्मिक स्थलों का वार्षिक प्लान पर्यटन मन्त्रालय को जारी करना चाहिये और बताना चाहिये कि कब कहाँ पहुँचा या ठहरा जा सकता है। वहाँ पर स्थानीय लोगों को रोजगार देकर सुविधाएँ देनी चाहिए। इसकी सीमा जैसे पर्यटकों की ठहरने की क्षमता, सुविधा व्यवस्था, यातायात आदि तय हों। गंगा समेत सभी नदियों के उद्गम क्षेत्र में निवास करने वाले सभी गाँव व शहरों के घरों में शौचालय अनिवार्य हों ताकि उद्गम से ही जल स्वच्छता बनी रहे।
5. गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, वाडिया भूगर्भ विज्ञान संस्थान देहरादून, गोविन्द बल्लभ पन्त हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान, आईआईटी रुड़की, पहाड़ आदि के द्वारा हिमालय विकास के सन्दर्भ में किए गए शोधों, अध्ययनों, का उपयोग हिमालय नीति बनाने हेतु सशक्त सन्दर्भ दस्तावेज है।
6. हिमालयी क्षेत्र को पिछले 35 वर्षों में आई लगातार बाढ़, भूस्खलनों, भूकम्पों पर लिखे गए दस्तावेज़ों में भी हिमालय विकास के मॉडल पर ध्यान आकर्षित किए गए हैं। इन्हें हिमालय नीति के सन्दर्भ में उपयोग में लाया जा सकता है।
7. हिमालय क्षेत्र को बचाने के लिये चिपको, नदी बचाओ, रक्षासूत्र, बड़े बाँधों का विरोध, गंगा बचाओ, जलवायु सम्मेलनों, छरबा गाँव में कोकाकोला का विरोध और मलेथा में खनन विरोध आदि के अनुभवों के नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता ये सभी अभियान, आन्दोलन के दस्तावेज़ मजबूत हिमालय नीति की पैरवी करते हैं। इसी तरह 9 सितम्बर को मनाए जाने वाले हिमालय दिवस के घोषणा पत्र भी हिमालय नीति की सशक्त पैरवी करते हैं।
8. यातायात के लिये सड़कों तथा अन्य सभी निर्माण ग्रीन कंसट्रक्शन (हरित निर्माण) की तकनीकी पर निर्धारित होगा इस प्रक्रिया से पहाड़ों को दरकने से बचाया जा सकेगा। यातायात के लिये प्रयोग हो रहे वाहनों को भौगोलिक संरचना के आधार पर मैन्यूफैक्चरिंग (निर्मित) किया जाएगा।

हिमालय नीति अभियान

भारतीय हिमालय क्षेत्र : एक दृष्टि में


क्र. सं.

राज्य/क्षेत्र

भौगोलिक क्षेत्रफल (वर्ग किलोमीटर)

कुल जनसंख्या

2011 के अनुसार

अनु. जनजातिय

(प्रतिशत में)

साक्षरता दर

(प्रतिशत में)

1.

जम्मू एवं कश्मीर

222236

12548926

10.9

56

2.

हिमाचल प्रदेश

55673

6856509

4.0

77

3.

उत्तराखण्ड

53483

10116752

3.0

72

4.

सिक्कीम

7096

607688

20.6

54

5.

अरुणाचल प्रदेश

83743

1382611

64.2

54

6.

नागालैण्ड

16579

1980602

32.3

67

7.

मणिपुर

22327

2721756

85.9

71

8.

मिजोरम

21081             

1091014

94.5

89

9.

मेघालय

22429

2964007

89.1

63

10.

त्रिपुरा

10486

3671032

31.1

73

11.

असम

93760

31169272

12.4

63

12.

प.बं. पर्वतीय क्षेत्र

3149

1605900

अनुपलब्ध

अनुपलब्ध



हिमालय क्षेत्र में वन क्षेत्र का विस्तार - 2011


क्र. सं.

राज्य

कुल वन क्षेत्र (वर्ग किलोमीटर)

वन क्षेत्र का प्रतिशत

1.

जम्मू एवं कश्मीर

20230

9.10

2.

हिमाचल प्रदेश

37033

66.52

3.

उत्तराखण्ड

34651

64.79

4.

सिक्किम

5841

82.31

5.

अरुणाचल प्रदेश

51540

61.55

6.

नागालैंड

9222

55.62

7.

मणिपुर

17418

78.01

8.

मिजोरम

16717

79.30

9.

मेघालय

9496

42.34

10.

त्रिपुरा

6294

60.02

11.

असम

26832

34.21



भारतीय हिमालय क्षेत्र में राज्यवार पर्यटकों की संख्या - 2006


क्र.सं.

राज्य

पर्यटकों की संख्या

भारत में कुल पर्यटकों का प्रतिशत

 

 

स्वदेशी

विदेशी

स्वदेशी

विदेशी

1.

जम्मू एवं कश्मीर

76,46,274

46,087

1.66

0.39

2.

हिमाचल प्रदेश

76,71,902

281,569

1.66

2.40

3.

उत्तराखण्ड

16,666,525

85,284

3.61

0.73

4.

सिक्किम

2,92,486

18,026

0.06

0.15

5.

अरुणाचल प्रदेश

80,137

607

0.02

0.01

6.

नागालैण्ड

15,850

426

0.00

0.00

7.

मणिपुर

1,16,984

295

0.03

0.00

8.

मिजोरम

50,987

436

0.01

0.00

9.

मेघालय

4,01,529

4287

0.09

0.04

10.

त्रिपुरा

230,645

3245

0.05

0.03



स्रोत : भारतीय जनगणना 2009 एवं एन.एन.एस. रिपोर्ट संख्या 517, स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2009 भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून, केन्द्रीय सांख्यिकी संस्थान

हिमालय में जलवायु परिवर्तन का बढ़ता खतरा


प्रकृति के अनुचित दोहन तथा शोषण के चलते पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याएँ विकराल होती जा रही हैं, जिनके कारण जलवायु परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग जैसी अन्य विसंगतियाँ जन्म ले रही हैं। विशेषज्ञों तथा वैज्ञानिकों की राय के अनुरूप अगर प्रदूषण की मौजूदा दर इसी प्रकार बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी समय से पूर्व ही जीवनविहीन हो जाएगी।

बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से आने वाले कुछ दशकों में ध्रुवों की बर्फ पिघल जाएगी, जिससे महासागरों के जलस्तर में वृद्धि होने से कई समुद्र तटीय शहर जल समाधि ले चुके होंगे। मौसम तथा जलवायु का चक्र टूट जाएगा, जिससे खाद्यान उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होगा।

हिमालयी क्षेत्रों की बर्फ पिघलने से सिंचाई, पेयजल तथा जलविद्युत उत्पादन की समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। अनेक जीवन तथा वनस्पतियाँ विलुप्त हो जाएगी। प्रदूषण, तापमान वृद्धि, अम्लीय वर्षा तथा अनियमित मौसम चक्र के कारण जहाँ परम्परागत रोगों का प्रकोप बढ़ जाएगा, वहीं कई अन्य रोग उत्पन्न हो जाएँगे। इसके अलावा पूरे विश्व में भयंकर ऊर्जा संकट पैदा जाएगा।

विश्व का पुरातन इतिहास इस बात का साक्षी है कि, सभी धर्म व विचारधाराएँ यह मानती रही हैं कि, स्वच्छ वातावरण किसी भी समुदाय या स्थान विशेष के समग्र विकास के लिये अति आवश्यक है। व्यवहारिक जीवन में हम देखते हैं कि कोई भी महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व अपने-अपने धर्म के अनुसार इष्टदेवों के आह्वान करने का प्रचलन पुराने समय से ही रहा है। इसके पीछे उन प्राकृतिक तत्वों, जैसे- वायु, जल, पृथ्वी, वन, खनिज सम्पदा आदि के प्रति आदर प्रकट करना भी था।

सदियों से ऐसा करते-करते वर्तमान में हम दुर्भाग्यवश ऐसी स्थिति में आ पहुँचे हैं, जहाँ विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अविवेकपूर्ण ढंग से हो रहा है। सम्पन्नता की होड़ में प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन किया गया। उसका परिणाम आज शहरों व कस्बों में वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण एवं जल प्रदूषण, मौसम चक्रों में परिवर्तन, वैश्विक स्तर पर बढ़ता तापमान, जलस्तर का लगातार नीचे जाना आदि अनेक पर्यावरणीय विसंगतियों के रूप में दिखाई देने लगा है।

औद्योगिकरण की इस भोगवादी दौड़ में आम विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का जिस क्रूरता से दोहन किया जा रहा है, वहाँ मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। विकास के लिये हम प्राकृतिक परिणामों की चिन्ता किए बगैर प्रकृति के नियमों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, उसके परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आ रहे हैं।

आज मानव समाज की जो क्षीणता हमें नजर आती है, उसके पीछे हमारी सोच काम कर रही है कि प्रकृति की प्रत्येक वस्तु केवल मनुष्य मात्र के उपभोग के लिये ही है। विकास मानव की केवल भौतिक आवश्यकताओं से नहीं, बल्कि उसके जीवन की सामाजिक दशाओं में सुधार से सम्बन्धित होना चाहिये। स्पष्ट है कि विकास के लिये अनुकूल वातारण आर्थिक विकास की पहली शर्त मानी जा रही है, जो चिन्ता की बात है।

विकास और पर्यावरण एक-दूसरे के विरोधी नहीं है, अपितु एक-दूसरे के पूरक है। एक सन्तुलित पर्यावरण के माध्यम से ही विकास के प्रयास रह सकते हैं, तभी मानव जीवन सुखी रह सकता है। यह सही है कि विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आवश्यक है, लेकिन विकास की इस अन्धी दौड़ में मनुष्य प्रकृति के संसाधनों का दोहन इतनी तीव्रता से कर रहा है कि पृथ्वी के जीवन को पोषित करने की क्षमता तेजी से नष्ट हो रही है।

वर्तमान समय में मनुष्य ज़मीन, जायदाद के पीछे खून-खराबा करता हुआ नजर आ रहा है, यदि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों के लिये अब भी नहीं चेते तो शायद जल व खाद्य-पदार्थों के लिये भविष्य में लड़ते हुए नजर आएँगे। प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग हमारे अस्तित्व को समाप्त कर देगा। अतः अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण करने की सख्त आवश्यकता है।

ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे से परेशान विश्व के सामने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना आज सबसे बड़ी जरूरत बन गई है। विकासशील देशों की अपेक्षा विकसित देशों में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन अधिक हुआ है। इसके लिये सूखे प्रदेशों में जंगलों की रक्षा करना जरूरी है। पर्यावरण अलग-अलग महाद्वीपों या देशों की तरह सीमाओं में नहीं बँटा है, सारी दुनिया का जीवन धरती के पर्यावरण पर निर्भर है। जीव-जन्तु और प्रकृति में बहुत नज़दीकी सम्बन्ध है। सब एक-दूसरे पर निर्भर है।

वृक्षों के बिना मानव जीवित नहीं रह सकता है, लोभ-लालच में वृक्षों का कटान जारी है। नेपाल में देखें तो वहाँ हिमालय व घने जंगल है, परन्तु वह अपने जंगल अलग-अलग देशों को बेच रहा है, पिछले कुछ सालों में नेपाल के आधे से अधिक वृक्ष साफ हो गए हैं। जरा सोचिये यदि पूरी दुनिया में उष्णकटिबन्धीय जंगल नष्ट हो गए तो जीव-जगत को ऑक्सीजन कौन प्रदान करेगा?

हिमालय नीति अभियानऑक्सीजन न होने पर वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ेगी, जिससे तापमान बढ़ेगा, इसके कारण हिमखण्डों का और तेजी से पिघलना शुरू हो जाएगा। यदि ऐसा ही रहा तो महासागरों का जलस्तर बढ़ जाएगा और अनेक तटवर्तीय इलाके डूब जाएँगे। ऊर्जा की आवश्यकताओं को देखकर कहें तो कोयला आधारित ऊर्जा के बजाय दूसरे विकल्पों पर विचार करना होगा, जिसमें पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, जैव ऊर्जा एवं लघु जल विद्युत ऊर्जा शामिल हो।

नदियों पर संकट को लेकर देखें तो हिमालय के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं, भारतीय हिमालय क्षेत्र में नौ हजार से भी अधिक हिमनद हैं, जिनसे अनेक बड़ी नदियों का उद्गम होता है। आज हिमालय में स्थित दो तिहाई हिमनद पिघलकर पीछे हट रहे हैं, जिनमें गंगोत्री एवं यमुनोत्री हिमनद भी शामिल हैं।

हिमनदों के पिघलने से भारतीय उपमहाद्वीप की इन बड़ी नदियों में बाढ़ की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। ऐसे में नदियों का आयतन बढ़ जाएगा, लेकिन जलीय मात्रा बढ़ने के अनुपात में हिमनदों का आयतन घटता नजर आएगा और धीरे-धीरे नदियों के स्रोत सूख जाएँगे।

हिमालय के हिमनद जिस गति से पीछे हट रहे हैं, उसके अनुसार यह आगामी 40 वर्षों में विलुप्त हो जाएँगे। हाल ही में उपग्रह के आँकड़ों से स्पष्ट हुआ है कि पश्चिम क्षेत्र में 10 प्रतिशत एवं पूर्वी हिमालय में 30 प्रतिशत हिमनद कम हो गए हैं, जब तक हिमनद में हिम के पिघलने तथा संचय (जमाव) में सन्तुलन रहता है, तब तक हिमनद का अस्तित्व पूर्ववत बना रहता है, लेकिन बढ़ते तापमान ने हिम संचय में कमी कर दी है और पिघलने की दर बढ़ा दी है, लिहाजा इनके अस्तित्व पर संकट मँडराने लगा है।

हिमालय में गंगोत्री हिमनद के पिघलने (पीछे हटने) की दर 98 फीट प्रतिवर्ष हो गई है तथा इस आधार पर कहा जा सकता है कि वर्ष 2035 तक पूर्वी हिमालय के समस्त हिमनद विलुप्त हो जाएँगे। सम्पूर्ण हिमालय प्रदेश का औसत तापमान उपमहाद्वीप में तापमान बढ़ने से एक बार तो प्रमुख बड़ी नदियों में बाढ़ आएगी।

वर्तमान शताब्दी के अन्तिम दशकों में प्रतिवर्ष भारत सहित दुनिया की लगभग 10 करोड़ आबादी बाढ़ से प्रभावित होगी। ताजा जानकारी के अनुसार भारत, बांग्लादेश, चीन, वियतमान तथा इंडोनेशिया आदि देशों की तो लगभग आधी से अधिक आबादी ग्लोबल वार्मिंग से आई बाढ़ का संकट झेलेगी। प्रसिद्ध सुन्दरबन का 18500 एकड़ वन क्षेत्र डूब की जद में आने की सम्भावना है।

विश्व तापमान का सर्वाधिक प्रभाव जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता पर पड़ेगा। सन् 2050 तक बढ़ते तापमान के कारण प्रति व्यक्ति की जल उपलब्धता में 30 प्रतिशत कमी आएगी। बर्फ के पिघलने से सागर तल में वृद्धि होगी तथा मौसमी बदलाव से लोग शरणार्थी बन जाएँगे। इन मौसमी पर्यावरण शरणार्थियों (Eco-Refugees) की संख्या आगामी दशक में 5 करोड़ हो जाएगी।

ये सभी परिवर्तन यद्यपि प्रकृति में नवीन नहीं है, लेकिन वर्तमान में आए परिवर्तनों से सारी दुनिया पर एक आपदाकारी प्रभाव पड़ रहा है, इसीलिये विश्व तापमान के सम्भावित खतरों से बचने के लिये रणनीति बनानी होगी, क्योंकि तापमान बढ़ने का जो क्रम चल पड़ा है, इसे एकाएक नियन्त्रित कर पाना तो सम्भव नहीं है, लेकिन इसके लिये समय रहते कदम उठाए जाएँ तो मानव जाति सहित सम्पूर्ण जीवजगत का भविष्य सुरक्षित रह सकेगा।

1. देशभर की कुल ऊर्जा में से 79 प्रतिशत ऊर्जा जलविद्युत के नाम से हिमालयी राज्यों से उत्पादित करने की सरकारी योजना है।
2. भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से 16.2 प्रतिशत में हिमालयी राज्य तथा पश्चिमी बंगाल का पहाड़ी क्षेत्र शामिल है।
3. 2,500 किमी क्षेत्र में 11 हिमालयी राज्य फैले हैं।
4. हिमालयी राज्यों में 9000 ग्लेशियर हैं।
5. हिमालयी राज्यों में 65 प्रतिशत कुल वन क्षेत्र है, जिसमें घने वन 46 प्रतिशत क्षेत्र में ही हैं।
6. हिमालयी राज्यों के विकास की तरफ 5वीं पंचवर्षीय योजना से ही ध्यान दिया गया, जो पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम के रूप में सामने आया है।

हिमालय विकास- खतरे एवं चुनौतियाँ


हिमालय विश्व की सबसे नवीन पर्वत शृंखलाओं में एक है। भौगोलिक संरचना और जैव विविधता के अनुसार भी यह विशिष्ट क्षेत्र के रूप में देखा जाता है। यद्यपि देश की कुल जनसंख्या में से 4 प्रतिशत लोग हिमालय में निवास करते हैं, इस सन्दर्भ का महत्व इसलिये भी आवश्यक है कि यहाँ की आबादी ने सीमान्त क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को नैतिक मजबूती प्रदान की है।

हिमालय में वन्य जीवों की 1280 प्रजातियाँ हैं। इसके अलावा 8000 प्रकार की पादप प्रजातियाँ, 816 वृक्ष प्रजातियाँ, 675 प्रकार के वन्य खाद्य प्रजातियाँ और 1740 औषधीय पादपों की प्रजातियाँ उपलब्ध हैं। हिमालय क्षेत्र का 17 प्रतिशत भू-भाग बर्फ से ढँका रहता है। इसके अलावा 30-40 प्रतिशत भाग मौसमी बर्फ से ढँका रहता है। जिसके कारण हिमालय जल का एक अद्वितीय भण्डार कहा जाता है। यह जल भण्डार कई नदियों को जल प्रदान कर रहा है।

प्रत्येक वर्ष लगभग 12 लाख मिलियन क्यूबिक मीटर पानी हिमालय की नदियों से बहता है, जो पूरे देश में 60 प्रतिशत जल आपूर्ति कर रहा है। इस प्रकार भारतीय हिमालय क्षेत्र की कुल जनसंख्या 6.66 करोड़ लोग में से आज भी 4.50 करोड़ लोग जलावन हेतु लकड़ी का प्रयोग करते हैं।

हिमालय भारत का मुकुट है। भारतीय हिमालय क्षेत्र जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, असम कुल मिलाकर 11 हिमालयी राज्यों में बँटा है। पश्चिम बंगाल का पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग भी इसमें शामिल करके यह विशिष्ठ भू-भाग 16.3 प्रतिशत क्षेत्र में फैला हुआ है।

भारतीय हिमालय क्षेत्र में मुख्यतः 11 छोटे राज्य हैं। जहाँ से कुल सांसदों की संख्या 36 है, लेकिन अकेले बिहार में 39, मध्य प्रदेश में 29, राजस्थान में 25 तथा गुजरात से 26 सांसद है। इस सन्दर्भ का अर्थ यह है कि देश का मुकुट कहे जाने वाले हिमालयी भू-भाग की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय पहुँच संसद में भी कमजोर है। सामरिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील हिमालयी राज्यों को पूरे देश और दुनिया के सन्दर्भ में नई सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से देखेने की नितान्त आवश्यकता है।

हिमालयी राज्यों से आ रही सदानीरा नदियों के उद्गम स्थलों के ग्लेशियरों की पिघलने की दर 18-20 मीटर प्रतिवर्ष है। भूगर्भविदों के अनुसार यह क्षेत्र जोन 4-5 में आता है। जो बाढ़, भूस्खलन, भूकम्प के लिये अतिसंवेदनशील है। पिछले 20 वर्षों में इस क्षेत्र में 30 बार आपदाएँ आ चुकी हैं। अनियमित और बेमौसमी बारिश ने यहाँ कहर बरपाना प्रारम्भ कर दिया है। इसके कारण छोटे किसान प्रभावित हो रहे हैं।

यह स्थिति केवल ऊपरी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि देशभर में इसके बहाव क्षेत्र में रह रहे लोगों के जीवन एवं जीविका संकट में पड़ गई है। इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 कहती है कि पर्वतों के संरक्षण के लिये समुचित भूमि उपयोग, संवेदनशील क्षेत्रों को बचाने के लिये बुनियादी निर्माण, किसानों को उनके उत्पादों का लाभ दिलाना, पर्यटन से स्थानीय लोगों की आजीविका चलनी चाहिये, पर्यटकों की संख्या के आधार पर पर्यटक स्थलों की क्षमता को देखकर ही प्राथमिकता होनी चाहिये।

इसके अलावा जलवायु परिवर्तन पर एनएपीसीसी में राष्ट्रीय हिमालय इको सिस्टम के अन्तर्गत हिमालयी ग्लेशियरों पर उत्पन्न संकट का समाधान करने के लिये समुदाय आधारित वनभूमि संरक्षण के प्रबन्धन पर जोर दिया है, ताकि राज और समाज मिलकर हिमालय को बचा सकें परन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा है। आधुनिक विकास के मॉडल ने हिमालय के तन्त्र में बड़े पैमाने पर अनियन्त्रित छेड़-छाड़ पैदा कर दी है। हिमालय लोक जीवन में पर्यावरण के प्रति जितनी जागरुकता और संवेदनशीलता सामने दिखाई देती है, उतनी ही सरकारों में हिमालय बचाने की गम्भीरता सामने क्यों नहीं आ रही है?

हिमालय बचेगा तो गंगा बचेगी


भगीरथ ने गंगा को हिमालय रूपी स्वर्ग से धरती पर उतारा है। उनके प्रयास से गंगा के पवित्र जल को स्पर्श करके भारत ही नहीं दुनिया के लोग अपने को धन्य मानते हैं। गंगा को अविरल बनाए रखने के लिये हिमालय में गोमुख जैसा ग्लेशियर है। इसके साथ ही जितनी भी हिमालय से निकलने वाली नदियाँ हैं उनको 9 हजार से भी अधिक ग्लेशियरों ने जिन्दा रखा हुआ है। इसलिये गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरलता हिमालयी ग्लेशियरों पर टिकी हुई है।

हरिद्वार गंगा का पहला द्वार कहा गया है लेकिन गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ से गंगा में मिलने वाली सैंकड़ों नदी धाराएँ गंगाजल को पोषित एवं नियन्त्रित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। हिमालय के साथ विकास के नाम पर जो छेड़छाड़ दशकों से चल रही है उससे गंगा को बचाने की आवश्यकता है। हिमालय से गंगासागर तक मिलने वाली सभी नदियों से 60 प्रतिशत जल पूरे देश को मिलता है। अब यह जल धीरे-धीरे पिछले 5 दशकों से कम होता जा रहा है।

हिमालय नीति अभियानगोमुख ग्लेशियर प्रतिवर्ष 18 मीटर पीछे जा रहा है। कभी बर्फ अधिक तो कभी कम पड़ती है लेकिन पिघलने की दर उससे दोगुना हो गई है। हिमालय पर बर्फ का तेजी से पिघलने का सिलसिला सन् 1997 से अधिक बढ़ा है। जलवायु परिवर्तन इसका एक कारण है। दूसरा वह विकास है जिसके कारण हिमालय को छलनी कर दिया गया है। इसके प्रभाव से हिमालय से निकलने वाली गंगा व इसकी सहायक नदियाँ साँप की तरह तेजी से डँसने लग गई हैं।

16-17 जून 2013 की ऐतिहासिक आपदा के समय का दृश्य कभी भुलाया नहीं जा सकता, जिसने गंगा के किनारे बसे लोगों के तामझाम नष्ट करने में एक मिनट भी नहीं लगाया है। अगर यह जलप्रलय रात को होता तो उत्तराखण्ड के सैकड़ों गाँव एवं शहरों में लाखों लोग मर गए होते लेकिन यह विचित्र रूप में गंगा ने सबको गवाह बनाकर दिखा दिया कि मानवजनित तथाकथित विकास के नाम पर पहाड़ों की गोद को छीलना कितना महंगा पड़ सकता है। दूसरी ओर इस आपदा में देशी-विदेशी हजारों पर्यटक, श्रद्धालुओं को यह संकेत मिल गया है कि हिमालय के पवित्र धामों में आना है तो नियन्त्रित होकर आइए।

यूपीए की सरकार में हिमालय इको मिशन बनाया गया था। जिसके अन्तर्गत समुदाय व पंचायतों को भूमि संरक्षण व प्रबन्धन के लिये जिम्मेदार बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करनी थी। इसके पीछे मुख्य मंशा यह थी कि हिमालय में भूमि प्रबन्धन के साथ-साथ वन संरक्षण और जल संरक्षण के काम को मजबूती दी जा सके, ताकि गंगा समेत इसकी सहायक नदियों में जल की मात्रा बनी रहे लेकिन ऐसा करने के स्थान पर आधुनिक विज्ञान ने सुरंग बाँधों को मंजूूरी देकर गंगा के पानी को हिमालय से नीचे न उतरने की सलाह दे दी है। जबकि बिजली सिंचाई नहरों से भी बन सकती है।

वर्तमान भाजपा की सरकार ने गंगा बचाने के लिये नदी अभियान मन्त्रालय बनाकर निश्चित ही सबको चकाचौंध कर रहे हैं। जिस अभियान को पहले ही कई स्वैच्छिक संगठन, साधु-सन्त और पर्यावरणविद् चलाते रहे हैं वह अब सरकार का अभियान बन गया है। यह निश्चित ही पहले से काम करने वालों की उपलब्धि ही है। लेकिन गंगा स्वच्छता के उपाय केन्द्रीय व्यवस्था से ही नहीं चल सकते हैं।

यह तभी सम्भव है जब गंगा तट पर रहने वाले लोगों के ऊपर विश्वास किया जा सके। बाहर से गंगा सफाई के नाम पर आने वाली निर्माण कम्पनियाँ ज़रूर कुछ दिन के लिये गंगा को स्वच्छ कर देंगे, लेकिन समाज की भागीदारी के बिना गंगा पुनः दूषित हो जाएगी। इसके लिये यह जरूरी है कि गंगा के उद्गम से गंगासागर तक प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व हरियाली बचाने वाले समाज को रोज़गार देना होगा।

जो समाज गन्दगी पैदा करता है उसे अपनी गन्दगी को दूर करने की ज़िम्मेदारी देनी होगी। नदी तटों पर बसी हुई आबादी के बीच ही पंचायतों व नगरपालिकाओं की निगरानी समिति बनानी होगी। लेकिन इसमें यह ध्यान अवश्य करना है कि इस नाम पर सरकार जो भी खर्च करे वह समाज के साथ करेे ताकि उसे स्वच्छता के गुर भी सिखाए जा सकें और उसे इसका मुनाफ़ा भी मिले। इसके कारण समाज और सरकार दोनों की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित होगी। दूसरा हिमालय के बिना गंगा का अस्तित्व सम्भव नहीं है।

अब न तो कोई भगीरथ आएगा किन्तु वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी का प्रयास तभी सफल हो सकता है जब गंगा नदी के तट पर बसे हुए समाजों के साथ राज्य सरकारें ईमानदारी से गंगा की अविरलता के लिये काम करे। यदि इसे हासिल करना है तो हिमालय के विकास के मॉडल पर विचार करना जरूरी है आज के विकास से हिमालय को बचाकर रखना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके लिये हिमालय नीति जरूरी है। ताकि गंगा की अविरलता, निर्मलता बनी रहे।

केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की वर्तमान में सरकार है। उनके घोषणा पत्र में हिमालय के विषय पर लिखा गया है। हिमालय के लिये अलग मन्त्रालय बने इस पर भी घोषणा की जा रही है। वर्तमान बजट में भी हिमालय को समझने के लिये उत्तराखण्ड हिमालय अध्ययन केन्द्र भी बनने जा रहा है, जो स्वागत योग्य है।

लेकिन हिमालयी राज्यों में गढ़वाल, कुमाऊँ जम्मू कश्मीर, उत्तर पूर्व और हिमाचल के विश्वविद्यालयों ने तो पहले से ही हिमालय के विषय पर शोध एवं अध्ययन किए हुए हैं जिसके बल पर हिमालय के लिये अलग विकास का मॉडल तैयार हो सकता है। यहाँ तक कि उत्तराखण्ड में पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कार्यकर्ताओं व पर्यावरणविदों ने नदी बचाओ अभियान के दौरान हिमालय लोक नीति का मसौदा-2011 भी तैयार किया है। 9 सितम्बर को हिमालय दिवस के रूप में मना रहें हैं।

हमारे देश की सरकार को पाँचवी पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्रों के विकास की याद आई थी जो हिल एरिया डेवलपमेंट के नाम से चलाई गई थी, इसी के विस्तार में हिमालयी क्षेत्र को अलग-अलग राज्यों में विभक्त किया गया है, लेकिन विकास के मानक आज भी मैदानी है। जिसके फलस्वरूप हिमालय का शोषण बढ़ा है, गंगा में प्रदूषण बढ़ा है, बाढ़ और भूस्खलन को गति मिली है। इसलिये हिमालय बचेगा तो गंगा बचेगी इस पर गम्भीरतापूर्वक गंगा नदी अभियान को कार्य करना होगा।

लेखक गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता एवं पर्यावरण के सवालों पर मुखर रूप से काम करते हैं।

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