हिमाचल में आपदा प्रबन्धन की जरूरत


विभिन्न सरकारी विभागों को भी अपने स्तर पर विभागीय अन्वेषण, जाँच तथा वैज्ञानिक अध्ययन के साथ डी.पी.आर. तैयार करने तथा परियोजनाओं, सड़कों, पुलों और बाँधों का निर्माण करने की जरूरत है। प्रदेश के जियोलॉजिकल विंग को प्रदेश की भूगर्भीय शोध तथा सावधानियाँ बताने में जिम्मेदारी निभानी चाहिए। भूस्खलन को बढ़ाने में मदद करने वाले नाजायज खनन पर अंकुश लगाना होगा। वन विभाग भी पौधारोपण, नाजायज कटान तथा आपदा स्थितियों पर नियंत्रण में अपना रोल अधिक प्रभावी होकर निभाएँ।

हिमाचल प्रदेश एक अत्यन्त संवेदनशील पहाड़ी राज्य है। प्राकृतिक आपदाओं ने समय-समय पर प्रदेश के राजनेताओं को आभास कराने का प्रयास किया है कि राज्य में प्राकृतिक आपदाओं के प्रबन्धन को सर्वोपरि प्राथमिकता दिये जाने की आवश्यकता है। प्रदेश में दोनों बड़े राजनीतिक दल बारी-बारी सत्ता में आते-जाते रहते हैं और इनमें अगर कभी राजनीतिक प्रबन्धन का संकट दरपेश होता भी है तो आलाकमान हस्तक्षेप करके इसको नियंत्रित करने में सक्षम है। पर प्राकृतिक आपदा के लिये 24 घंटे चौकसी की जरूरत होती है और कुदरत पर किसी का वश नहीं होता है। उससे उत्पन्न स्थितियों से निपटने और अप्रत्याशित हालात को फिर से यथास्थिति में लाने, पुनर्वास द्वारा नुकसान की भरपाई के कार्य ‘कैजुअल अप्रोच’ के साथ सरंजाम नहीं हो सकते। इनमें गम्भीरता से प्रबन्धन की जरूरत होती है।

इसी महीने 12-13 अगस्त के मध्य रात्रिकाल में मंडी जिले के गाँव कोटरूपी में भयानक भूस्खलन से सारा पहाड़ दरक कर नीचे फिसल आया और आँख झपकते ही मलबे में 2 बसें तथा कई दोपहिया वाहन दब गए। 46 लोगों की जिन्दगियाँ हमेशा के लिये लील ली गईं। इससे सारा प्रदेश ही नहीं बल्कि देशभर का जनमानस आहत हो उठा। कोटरूपी गाँव को मेहनत व पूँजी से निर्मित परिसम्पत्तियों से हाथ धोना पड़ा। इससे पूर्व भी कई बार ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ प्रदेश में आई हैं। यह सिलसिला थमा नहीं।

प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी भूस्खलन, बादल फटने की घटनाएँ, नदियों-झीलों में जानलेवा जल प्रवाह, बाढ़ की स्थितियाँ और अन्य तमाम तरह की प्राकृतिक विपदाएँ घटित होती रहती हैं। यह भी सर्वविदित है कि हिमाचल का बड़ा हिस्सा भूकम्प सम्भावित क्षेत्र है। इसमें चम्बा, कांगड़ा, मंडी, शिमला भूकम्प सम्भावित क्षेत्र जोन 4 व 5 में आते हैं। इस सारे परिप्रेक्ष्य में जिन लोगों की सीधी-सीधी जिम्मेदारी है उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। वे लोग प्रदेश में कभी भी कहीं भी कोई दुर्घटना होती है तो वहाँ पहुँचने वाले और राहत कार्य करने-कराने वाले पहले व्यक्ति होने चाहिए।

विभिन्न सरकारी विभागों को भी अपने स्तर पर विभागीय अन्वेषण, जाँच तथा वैज्ञानिक अध्ययन के साथ डी.पी.आर. तैयार करने तथा परियोजनाओं, सड़कों, पुलों और बाँधों का निर्माण करने की जरूरत है। प्रदेश के जियोलॉजिकल विंग को प्रदेश की भूगर्भीय शोध तथा सावधानियाँ बताने में जिम्मेदारी निभानी चाहिए। भूस्खलन को बढ़ाने में मदद करने वाले नाजायज खनन पर अंकुश लगाना होगा। वन विभाग भी पौधारोपण, नाजायज कटान तथा आपदा स्थितियों पर नियंत्रण में अपना रोल अधिक प्रभावी होकर निभाएँ। भूस्खलन तथा अन्य आपदाओं की पूर्व चेतावनी के कुछ साधन तथा संयंत्र विकसित हों, इस ओर ध्यान जरूरी है।

दुर्भाग्यवश प्रदेश अभी तक देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जिसका कोई अपना राज्य आरक्षित आपदा प्रबन्धन बल नहीं है। हालाँकि उस पर सारा व्यय केन्द्र को वहन करना होता है। सरकार ने अभी तक यह कार्य होमगार्ड और पुलिस को सौंप रखा है। प्रदेश में कनेक्टिविटी का एकमात्र साधन सड़कें हैं, जिनके निर्माण तथा रख-रखाव में सुधार लाने तथा दुर्घटनाओं को कम करने पर भी सभी दावेदार गम्भीरता से पग उठाएँ।

इस विषय पर मीडिया ने तथा प्रदेश में बुद्धिजीवियों सहित अनेकों ने व्यवस्था की कमजोरियों को जगजाहिर किया है। इनका सम्यक संज्ञान लेकर अपेक्षित व्यवस्था सुधार तभी सम्भव होगा, अगर राजनेता आपदा प्रबन्धन को गम्भीरता से लें तथा इसके लिये तैनात लोगों की ऊर्जा का इस्तेमाल अन्य राजनीतिक प्रबन्धन के लिये न करें।

ऊना के लिये बड़ी सौगात : भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के डेलिगेटेड इन्वेस्टमेंट बोर्ड की विगत शुक्रवार को स्वास्थ्य मंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में ऊना के लिये पी.जी.आई. सैटेलाइट सेंटर की स्थापना हेतु 495 करोड़ के निवेश को स्वीकृति प्रदान की गई है। यह सेंटर पंजाब में संगरूर की तर्ज पर स्थापित होगा। पी.जी.आई. चंडीगढ़ के इस सैटेलाइट सेंटर में 300 बिस्तरों की व्यवस्था की जाएगी। इसमें सुपर स्पेशलिस्ट चिकित्सकों के अतिरिक्त कुल 1000 के करीब हेल्थ कर्मियों की तैनाती की सूचना है।

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