हिम युग की वापसी

विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक और लेखक जयंत विष्णु नार्लीकर की हिमयुग को लेकर अपनी अलग संकल्पना है जिसे उन्होंने यहां एक विज्ञान-कथा के जरिये सहजता से समझाया है। आइए उनकी नजर से देखें कि अगर हिमयुग आएगा तो क्यों और कैसे?

‘पापा! ‘जल्दी उठो, देखो, बाहर कितनी सारी बर्फ है! कितना अच्छा लग रहा है!’

राजीव शाह की सुबह-सुबह की गहरी नींद बच्चों के शोरगुल से उचट गई, पहले तो उसे समझ नहीं आया कि शोरगुल किस बात पर हो रहा है। कविता और प्रमोद क्यों इतने उत्तेजित हो रहे हैं?

‘पापा, क्या हम नीचे जाकर बर्फ में खेल सकते हैं?’ कविता ने पूछा, बर्फ! यहां मुंबई में! यह कैसे मुमकिन है? वह लपककर खिड़की के पास पहुंचा और बाहर झांका। उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। वाकई! बाहर बर्फबारी हुई थी। दूर-दूर तक घरों के बीच में बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी और तभी उसे महसूस हुआ कि कितनी अधिक ठंड पड़ रही थीं। बच्चों ने तो दो-दो स्वेटर तक चढ़ा लिये थे। गरम कपड़ों के नाम पर उनके पास वही स्वेटर थे।

‘नहीं! नीचे मत जाओ।’ ठंड से सिहरते हुए राजीव बोला और फिर अपने चारों ओर शॉल लपेटते हुए उसने भी हथियार डाल दिए, ‘हम छत पर चलेंगे, लेकिन पहले अपने जूते-मोजे पहन लो।’

प्रमोद और कविता दौड़कर पहले ही छत पर पहुंच गए। राजीव ने भी एक और मोटा शॉल निकाल लिया। उसकी दिली इच्छा हो रही थी कि उनके पास भी कोई हीटर होता। यहां तक कि कोयले वाली अंगीठी से भी काम चल जाता है।

पिछले एक हफ्ते से जलवायु में जो बदलाव आ रहे थे उसी की परिणति थी यह बर्फ, आमतौर पर तापमान 15 डिग्री सेल्सियस तक गिरने पर ही मुंबई वाले शोर मचाने लगते हैं कि ठंड पड़ रही है। कल दिन का तापमान मुश्किल से पांच डिग्री पहुंचा था और रात में शून्य डिग्री हो गया। लेकिन किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि बर्फ भी पड़ने लगेगी। इस बर्फबारी ने मौसम के अच्छे-अच्छे पंडितों के मुंह बंद कर दिए थे।

‘जल्दी आओ, पापा!’ छत की ऊपरी सीढ़ी से प्रमोद चिल्लाया। अपार्टमेंट की सबसे ऊंची मंजिल पर बने इस फ्लैट के मालिक होने के नाते छत पर भी उन्हीं का अधिकार था। मुंबई जैसे शहर में यह बड़े शान की बात थी।

‘मैं आ रहा हूं पर अपना ध्यान रखो। बर्फ फिसलन भरी हो सकती है।’ सीढ़ियां चढ़ते हुए राजीव ने बच्चों को सावधान किया। वह समझ नहीं पा रहा था कि छत पर कितनी ठंड होगी।

लेकिन छत पर पहुंचते ही आस-पास का नज़ारा देखकर वह अपनी चिंता भूल गया। उसे लगा कि गरम और आर्द्र जलवायु के शहर मुंबई की बजाय वह क्रिसमस कार्ड पर छपे किसी यूरोपीय शहर की तस्वीर देख रहा हो। हिंदू कॉलोनी की कुंज गलियों में लगे पेड़ों पर भी सफेद चादर बिछी हुई थी। लेकिन फुटपाथों और सड़कों पर यातायात के कारण काले-सफेद का बेमेल संगम हो रहा था। दादर के पार जाती रेल लाइन भी सुनसान पड़ी थी।

‘मैं शर्त लगा सकता हूं कि मध्य रेलवेवालों ने भी अपना तामझाम समेट लिया होगा। उन्हें किसी बड़े बहाने की जरूरत नहीं पड़ती।’ राजीव बड़बड़ाया।

‘मुझे हैरानी है कि पश्चिम रेलवे वाले क्या कह रहे होंगे।’ जवाब के तौर पर तभी उसे माहिम की ओर जाती पटरी पर लोकल ट्रेन दिखाई दी।

लेकिन राजीव की कल्पनाएं पांच साल पीछे की उड़ान भर रही थीं, तब उसने एक शर्त लगाई थी। उस वक्त तो शर्त लगाना बहुत आसान लग रहा था कि क्या मुंबई में बर्फ पड़ेगी उसकी दावा था, ‘कभी नहीं।’ लेकिन वसंत ने बड़े यकीन के साथ कहा था, ‘अगले दस वर्षों के भीतर मुंबई में बर्फ पड़ेगी।’

लेकिन ऐसा केवल पांच वर्षों के भीतर ही हो गया।

वाशिंगटन में भारतीय राजदूत द्वारा दी गई दावत में पहली बार वह वसंत से मिला था। वसंत यानी प्रोफेसर वसंत चिटनिस, जो उस दौरान अमेरिका में जगह-जगह व्याख्यान दे रहे थे। राजदूत ने उस दावत में डीसी, मैरीलैंड और वर्जीनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को बुलाया था। कुछ पत्रकार भी थे, जिनमें राजीव भी एक था।

विज्ञान और राजनीति पर गपशप का दौर जारी था। लेकिन वसंत चुपचाप बैठा था। ऐसी दावतों और गपशप में वह शायद ही कभी शामिल होता हो।

टेलीप्रिंटर पर अभी-अभी एक संदेश आया है। ज्वालामुखी वेसवियस दोबारा फट पड़ा है। एक पत्रकार लगभग चिल्लाता हुआ अंदर दाखिल हुआ। ‘हे भगवान! तीन महीनों के भीतर फटने वाला यह चौथा ज्वालामुखी है। ऐसा लगता है कि धरती माता का पेट खराब हो गया।’ राजीव ने वसंत से कहा, जो उसकी बगल में ही बैठा था।

‘पर हमें धरती मां के पेट की बजाय उसकी खाल की परवाह करनी चाहिए।’ वसंत ने तुरंत ही जवाब दिया।

‘हां-हां वसंत! हमें भी बताओ।’ मेरीलैंड विश्वविद्यालय से आए एक प्रोफेसर ने कहा।

‘अच्छा! जब कोई ज्वालामुखी फटता है तो उसका सब कुछ धरती पर ही नहीं गिरता है। कुछ पदार्थ वायुमंडल में भी घुल-मिल जाता है। यह निर्भर करता है कितना? क्योंकि एक निश्चित स्तर पार करने पर प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। मुझे डर है कि हम उस सीमा को अगर पार नहीं कर गए हैं तो उसके निकट तो पहुंच ही गए हैं।’ वसंत ने गंभीरपूर्वक बताया।

‘प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा! फिर उससे क्या होगा?’ किसी सनसनीखेज ‘कथा’ की उम्मीद में एक अमेरिकी खबरनवीस पेन और पैड निकालकर तैयार हो गया।

उसकी आंखों में सीधे देखते हुए वसंत ने उल्टा सवाल कर दिया, ‘कल्पना करें कि मैं अपनी सलाह दूं कि आप अपनी राजधानी वाशिंगटन से हटाकर होनोलूलू ले जाएं।’

‘पर उसकी जरूरत ही क्यों पड़ेगी?’ खबरनवीस ने पूछा।

‘क्योंकि आप खबरनवीसों को पहेलियां बुझाना अच्छा नहीं लगता मैं इसका जवाब भी दूंगा।’ मुस्कराते हुए वसंत ने कहा, ‘मामूली हिमयुग के आने से आपको न्यूयॉर्क, शिकागो और यहां तक कि वाशिंगटन जैसे उत्तरी शहर खाली करने पड़ेंगे।’

इससे पहले कि प्रो. वसंत और कुछ बता पाते, विदेश मंत्रालय से एक खास मेहमान के आने से उनकी बातचीत में व्यवधान पड़ गया। फिर आम बातचीत होने लगी। लेकिन राजीव, वसंत को थोड़ा और कुरेदना चाहता था। अतः जैसे ही बातचीत का मौका मिला, उसने सीधे मतलब की बात की।

‘आप अपने सभी दावों को ठोस सबूतों के साथ पेश करने के लिए विख्यात हैं। लेकिन क्या हिमयुग के बारे में आपकी भविष्यवाणी कुछ दूर की कौड़ी नहीं लगती? अवश्य ही मैं आपके क्षेत्र का नहीं हूं, मगर मेरा मानना है कि अगले हजारों साल तक कई हिमयुग नहीं आएगा। बशर्ते कि हमारा पारंपरिक ज्ञान..’।

‘गलत साबित न हो!’ पापड़ खाते हुए वसंत ने उसकी बात पूरी करते हुए कहा, ‘मैं साबित कर सकता हूं कि अगर हमारे वर्तमान पारिस्थितिकी तंत्र में प्रकृति का संतुलन यों ही बिगड़ता गया तो दस साल के भीतर ही यह मुसीबत आ जाएगी। लेकिन मिस्टर शाह, आपको डरने की जरूरत नहीं। मुंबई में आप सुरक्षित हैं। भूमध्य रेखा के दोनों ओर उत्तर-दक्षिण में 20 डिग्री अक्षांश तक की पट्टी को सुरक्षित रहना चाहिए।’

‘अगर मुझे स्कूल में पढ़ी भूगोल की कुछ मोटी-मोटी बातें याद हैं तो मुंबई भी इसी अक्षांश के भीतर करीब 10 डिग्री उत्तर स्थित है। आपकी पट्टी के सीमांत पर..।’

‘तो हम मुंबई वालों को बर्फबारी और अन्य सब चीजों के साथ असली शीत लहर का सामना करना पड़ सकता है। मुझे कहना चाहिए कि हम आसानी से बचे रहेंगे।’ वसंत ने चहकते हुए कहा।

‘मैं यकीन नहीं कर सकता, केवल दस साल के भीतर मुंबई में बर्फ गिरेगी, यह नामुमकिन है। अगर आप एक दमड़ी लगाएं तो मैं दस डॉलर की शर्त लगा सकता हूं कि ऐसा कभी नहीं होगा। निश्चित रूप से यह बहुत दुःसाहसपूर्ण शर्त है।’ दस डॉलर का नोट निकालते हुए राजीव ने कहा।

‘मुझे डर है हालात मेरे पक्ष में कुछ ज्यादा ही अनुकूल हैं। निश्चित बातों पर मैं शर्त नहीं लगाता हूं। पत्रकार साहब, आप निश्चित रूप से यह दस डॉलर हार जाएंगे। उसकी बजाय आइए, हम अपने कार्ड बदल लेते हैं। यह रहा मेरा कार्ड, मैं इस पर आज की तारीख लिख देता हूं। आप भी ऐसा ही करें। अगर दस साल के भीतर मुंबई में बर्फ गिरती है तो आप मेरा कार्ड लौटा देंगे और अपनी हार मान लेंगे। अगर नहीं पड़ी तो मैं अपनी हार मान लूंगा।’

अभी वे कार्डों का लेन-देन कर ही रहे थे कि मेजबान ने आकर घोषणा की, ‘आइए और हमारे खानसामे द्वारा बनाई गई खास मिठाई का आनंद लीजिए।’

एक बड़ा सा आइस केक उसी मेज पर लाया गया जिस पर कुछ देर पहले दावत चल रही थी। केक का नाम पढ़कर राजीव और वसंत दोनों के चेहरों पर मुस्कराहट दौड़ गई। केक का नाम था-‘आर्कटिक सरप्राइज’।

‘वास्तविक सरप्राइज तो दस साल के भीतर आने वाला है।’ वसंत बुदबुदाया, ‘पर वह उतना खुशनुमा नहीं होगा।’

छत पर बच्चों ने धमा-चौकड़ी मच रखी थी। कविता द्वारा फेंका गया बर्फ का गोला राजीव को आकर लगा और वह अतीत से तुरंत वर्तमान में आ गया। सचमुच वह शर्त हार चुका था। अब उसे डाक द्वारा प्रो. चिटनिस का कार्ड वापस भेजना था। वह सीढ़ियों से नीचे उतरा।

पर डेस्क से कार्ड निकालते ही उस पर अंकित फोन नंबर से उसे एक बेहतर विचार सूझा। अवश्य ही शर्त के अनुसार उसे कार्ड डाक द्वारा भेजना था। पर फोन द्वारा उनसे सीधे बात क्यों न की जाए। उसने तुरंत ही फोन मिलाया।

‘हां, चिटनिस?’ उसने पूछा। दूसरे छोर पर स्थिति व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘जी हां, वसंत चिटनिस बोल रहा हूं। क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं प्लीज?’

‘मैं राजीव शाह बोल रहा हूं, आपको याद होगा।’

‘हमारी शर्त! बिल्कुल, मैं आज तुम्हें ही याद कर रहा था। तो तुम हार मानते हो?’

राजीव की आंखों के सामने दूसरे छोर पर वसंत का मुस्कुराता चेहरा घूम गया।

‘सचमुच, पर क्या आप मुझे साक्षात्कार के लिए आधे घंटे का समय देंगे? मैं आपकी भविष्यवाणी का वैज्ञानिक आधार जानना चाहता हूं। मैं आपके सिद्धांत को प्रकाशित कराना चाहता हूं।’

‘बिल्कुल, पर अब इसका कोई फायदा नहीं होगा। फिर भी तुम्हारा स्वागत है, बशर्ते कि तुम सुबह ग्यारह बजे तक संस्थान में पहुंच जाओ।’

राजीव तुरंत मान गया, वह झटपट दाढ़ी बनाने में जुट गया और साथ ही रेडियों भी चालू कर दिया। रेडियों पर विशेष समाचार बुलेटिन आ रहा था।

‘समूचा उत्तर भारत जबरदस्त शीत लहर की चपेट में है। पश्चिमी राजस्थान से बंगाल की खाड़ी तक और हिमालय से लेकर सह्याद्रि की पहाड़ियों तक ज़बरदस्त बर्फ पड़ी है। हताहतों की संख्या का अनुमान लगाना संभव नहीं है। हजारों की संख्या में अप्रवासी पक्षियों के झुंड मृत पाए गए हैं, जिन्हें मौसम में आए इस अचानक बदलाव का जरा भी अंदाजा नहीं था। ज्यादातर फसलें चौपट हो गई हैं। सड़क और रेल संपर्क बुरी तरह बाधित हो गया है। प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों ने अपने-अपने क्षेत्रों का हवाई सर्वेक्षण किया है। बर्फ की आपदा का सामना करने के लिए प्रधानमंत्री ने विशेष कोष की घोषणा की है। सभी से इस कोष में खुलकर दान करने की अपील की गयी है।’

तभी कविता की उत्साह भरी चीख सुनाई पड़ी, ‘पापा! आओ, टी.वी. देखो-देखो, इस पर सब जगह बर्फ की तस्वीरें दिखा रहे हैं।’

टेलीविजन पर भी विशेष समाचार बुलेटिनों में और कुछ नहीं था। कम से कम तकनीकी तो सूचना के प्रवाह को थामने में समर्थ थी। राजीव को रूसी फिल्म ‘डॉ. जिवागो’ में दिखाए गए दृश्य याद आ गए। टेलीविजन पर देश के प्रमुख शहरों के तापमान दिखाए जा रहे थे। श्री नगर -20 डिग्री, चंडीगढ़ -15 डिग्री, बीकानेर -15 डिग्री, दिल्ली -12 डिग्री, वाराणसी -10 डिग्री, कोलकाता - 3 डिग्री।

केवल मुंबई के दक्षिण में पारा शून्य डिग्री के मनोवैज्ञानिक स्तर से ऊपर रहने में कामयाब हो पाया था। मद्रास -3 डिग्री, बंगलूरू -2 डिग्री, त्रिवेंद्रम -7 डिग्री तापमान के साथ अपेक्षाकृत गरम लग रहे थे, तभी एक न्यूज फ्लैश आया। राष्ट्रपति ने एक आपात बैठक बुलाई जिसमें उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल के सदस्य, तीनों सेनाओं के प्रमुख सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्षी दलों के नेता शिरकत करेंगे। इस बैठक में फैसला लिया जाएगा कि क्या राष्ट्रीय राजधानी को दिल्ली से मुंबई ले जाया जाए?

‘तुम्हें अपनी राजधानी वाशिंगटन से होनोलूलू ले जानी पड़ सकती है।’ राजीव को पांच साल पहले वसंत के कहे गए शब्द याद आ गए, जो उन्होंने अमेरिकी खबरनवीस से कहे थे। अगर भारत जैसे गरम देश में बर्फ ने इतना कहर बरपा दिया है तो यूरोप और रूस जैसे ठंडे मुल्कों का क्या हाल होगा? वहां का हाल जानने के लिए उसने बी.बी.सी. वर्ल्ड चैनल लगाया। सचमुच चारों ओर तबाही और बर्बादी का आलम था। तापमान 20 से 30 डिग्री तक गिर चुका था।

अचानक ही राजीव को अपनी मुलाकात का खयाल आ गया। घड़ी में सुबह के 9 बजकर 5 मिनट हो रहे थे। सूरज अपनी पूरी क्षमता से चमकने का प्रयास कर रहा था, लेकिन उसकी चमक किसी ग्रह या चाँद से ज्यादा नहीं थीं। कविता और प्रमोद मानकर बैठे थे कि उनका स्कूल आज बंद रहेगा, इसलिए वे दोनों आराम से टेलीविजन देख रहे थे। राजीव ने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया और गैराज से अपनी कार बाहर निकाली। कार भी ठंडी पड़ चुकी थी और बहुत माथा-पच्ची करने के बाद स्टार्ट हो सकी। सड़क पर निकलने के बाद असली मुसीबत से सामना होने लगा। बर्फ से ढंकी सड़क पर कार बार-बार फिसल रही थी। पर चूंकि राजीव विदेशों में ऐसी सड़कों पर कार चला चुका था, इसलिए थोड़ी-बहुत दिक्कत के बाद वह कार पर नियंत्रण रखने में सफल हो गया। लेकिन मुंबई के ज्यादातर ड्राइवरों के साथ ऐसा नहीं था। ओडकर रोड पर लावारिस पड़ी या टकराई हुई कारों और बसों को देखकर तो यही लगता था कि मुंबई वालों को बर्फ पर चलने का अभ्यास नहीं है।

‘हम हिंदुस्तानी भी खामख्वाह अपने आपको फन्ने खां ड्राइवर समझते हैं। भले ही हमें केवल ब्रेक ओर एक्सलरेटर से ज्यादा कुछ और पता न हो।’ राजीव बड़बड़ाया और अपनी कार को कीचड़ व मलबे के बीच सावधानी से चलाने लगा।

उसे महसूस हुआ कि कोलाबा पहुंचने में उसे आज कुछ ज्यादा वक्त लगेगा। हालांकि वहां पहुंचने में आमतौर पर 40-50 मिनट ही लगते हैं। खैर, उसके पास अभी डेढ़ घंटे का समय था।

‘आइए पत्रकार साहब! आप एक घंटा लेट हैं। क्या आपको रास्ते में साक्षात्कार के लिए कोई शिकार मिल गया था?’ दफ्तर में घुसते ही वसंत ने उसका स्वागत किया।

‘मुझे खेद है प्रो. चिटनिस, अगर इस गड़बड़ झाले के बीच कार चलाने की बजाय मैं पैदल आया होता तब शायद यहां जल्दी पहुंच जाता।’ राजीव आरामकुर्सी पर पसर गया। वसंत भी उसके सामने ओहदे के अनुसार रिवॉल्विंग चेयर पर बैठ गया।

‘पहले मेरी बधाइयां स्वीकार करें, प्रोफेसर, उस दिन आपने क्या सटीक भविष्यवाणी की थी। बिल्कुल सही निशाना लगा। पर हम पत्रकार और कुछ चाहे न हों, वहमी जरूर होते हैं। कृपया मेरा वहम दूर करें कि आपने ऐसी सटीक भविष्यवाणी की कैसे और यह क्यों कहा कि इसे प्रकाशित करने का कोई फायदा नहीं होगा?’

‘आपको अपने सवालों के जवाब इन कागजात में जरूर मिल जाएंगे।’ यह कहते हुए वसंत ने एक फाइल राजीव के सामने रख दी।

उस फाइल में अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छप चुके आलेखों की टाइप की हुई प्रतिलिपियां तथा हाथ से लिखे कागजों का पुलिंदा था। पर उस विषय में अनभिज्ञ होने के कारण राजीव उनका सिर पैर कुछ समझ नहीं पाया, वह केवल उनके शीर्षकों और निचोड़ों को ही नोट कर सका।

‘हिमयुग की भविष्यवाणी करने वाला मेरा वैज्ञानिक सिद्धांत प्रकाशित भाग की बजाय अप्रकाशित भाग में ज्यादा मिलेगा।’ वसंत ने सहज भाव से कहा।

‘ऐसा क्यों?’

‘झूठी वास्तविकता के कारण, हर चीज की बारीकी से नुक्ता-चीनी करने और निष्पक्षता के झूठे अहसास के कारण, जिस पर हम वैज्ञानिकों को बहुत गुमान है।’ वसंत के चेहरे पर व्यंग्य और हताशा के भाव तैर रहे थे। आगे बोलने से पहले फिर उसका चेहरा निर्विकार हो गया, ‘आम लोग सोचते हैं कि हम वैज्ञानिक प्रकांड विद्वान होते हैं, जो ईर्ष्या और लालच से परे केवल ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। पर ये सब बकवास है। हम वैज्ञानिक भी आखिर मनुष्य हैं। मानवीय स्वभाव की सभी कमजोरियां हमारे भीतर भी होती हैं। अगर वैज्ञानिक व्यवस्था को नई खोजें हजम नहीं होती तो उसके पुरोधा इन खोजों को दबाने के लिए सब कुछ करेंगे। मुझे भी अपने सिद्धातों और भविष्यवाणियों के स्वर को मंद कर देना पड़ा।’

‘मुझे क्षमा करें, प्रो. चिटनिस।’ ‘मुझे वसंत कहो।’ प्रोफेसर ने बीच में ही कहा। ‘धन्यवाद, वसंत! लेकिन आप जो कुछ कह रहे हैं उसमें कॉपरनिकस और गैलीलियो के दिनों से गजब की समानता दिखती है। अगर मुझे ठीक-ठीक याद है जो कॉपरनिकस ने अपनी पुस्तक में जो प्रस्तावना लिखी थी उसे प्रकाशक ने पूरी तरह बदल डाला, ताकि विरोध न झेलना पड़े।’ राजीव ने बातचीत रिकॉर्ड करने के लिए टेप रिकॉर्डर चालू कर दिया था। इस बीच उत्तर देने से पहले वसंत ने अपने विचारों को कुछ व्यवस्थित कर लिया था।

‘उन दिनों धार्मिक व्यवस्था थी, जो वैज्ञानिकों को हतोत्साहित करती थी। आज वैज्ञानिक नौकरशाही है, जो हम वैज्ञानिकों के सिर पर बैठी है। वे समझदार लोग ही तय करते हैं कि क्या चीज प्रकाशन योग्य है और क्या नहीं। और यदि (चीज) यह वास्तविक विज्ञान है तो इसे दिन की रोशनी भी नसीब न हो पांच सदी पहले वाली धार्मिक व्यवस्था की जगह ये आज वैज्ञानिक जगत के धर्माधिकारी बन बैठे हैं। माफ करना, अगर मैं कुछ ज्यादा ही कड़वा बोल गया हूं तो।’

‘बेशक वसंत, तुम इस पूरी व्यवस्था पर ही टिप्पणी कर रहे हो, तुम अपने निजी अनुभव के आधार पर इसे कोस रहे हो। लेकिन अगर मुझे इसका पक्ष लेना होता तो मैं यही कहता कि अपने पूरे करियर के दौरान वैज्ञानिकों को सैकड़ों अजीबो-गरीब और अधकचरे विचार सूझते हैं। लेकिन इन सबको परखने का वक्त किसके पास है, इसलिए अगर वे लीक से हटकर विचार करने की कोशिश करते हैं तो..’

‘तो किसे दोष दिया जाए? मैं सहमत हूं, लेकिन अगर लीक से हटकर सोचा गया विचार भी तर्कों पर आधारित हो और उसके पक्ष में सबूत भी हों तो क्या उसकी सुनवाई नहीं होनी चाहिए? निश्चित ही ऐसे किसी ठोस विचार को सैकड़ों अजीबो-गरीब और अधकचरे विचारों से अलग पहचानना कोई कठिन काम नहीं है। खासकर इसे प्रतिपादित करने वाला वैज्ञानिक अपने क्षेत्र में अच्छी-ख़ासी साख बना चुका हो, लेकिन इन फ़िजूल की बातों को छोड़कर हमें अपने सिद्धांत पर आना चाहिए।’

‘ठीक है, वसंत। मुझे अपने सिद्धांत के बारे में बताओ और यह भी बताओ कि यह क्या भविष्यवाणी करता है?’ राजीव ने कहा।

वसंत ने संसार का नक्शा निकाला और उसे राजीव के सामने मेज पर फैला दिया।

यहां देखो, नक्शे में दर्शाई गई ठोस जमीन पर गौर करो। इस जमीन ने नक्शे के कुल क्षेत्रफल का लगभग एक-तिहाई भाग घेर रखा है। बाकी सारा भाग पानी है-समुद्रों और महासागरों की शक्ल में। यही महासागर हमारी जलवायु को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके ऊपर की गरम हवा ऊपर उठती है और धरती के वायुमंडल में घुल-मिल जाती है तथा दोबारा नीचे आने से पहले चारों ओर फैल जाती है। ठीक?

‘यह सब तो स्कूल की किताबों में भी लिखा है। राजीव ने कहा। ‘लेकिन हम हमेशा ही इसे इस प्रकार लेते हैं कि महासागर गरम हैं और हमेशा गरम रहेंगे। किस हद तक यह सही है? कुछ साल पहले मैंने समुद्र की गहराईयों में तापमान मापा था। समुद्र का पानी ऊपरी स्तरों पर गरम होता है और नीचे गहराइयों में ठंडा होता जाता है, इतना ठंडा कि बर्फ जम जाए। लेकिन मुझे यह देखकर अचंभा हुआ कि ऊपर की गरम परतें, जिन पर हमारी जलवायु निर्भर है, काफी पतली हैं और साल-दर-साल ये और ज्यादा पतली होती जा रही है।’

‘पर सूर्य क्या कर रहा है? क्या वह महासागरों को पर्याप्त गरमी नहीं देता? ‘राजीव ने पूछा।’

‘ऊष्मा के प्रत्यक्ष स्रोतों के तौर पर सूर्य बहुत ही अप्रभावी है। ध्रुवों पर गरमी के मौसम में चौबीसों घंटे कितनी चमकदार धूप होती है। पर इससे कितनी बर्फ पिघलती है? इसके बजाय बर्फ धूप को परावर्तित कर देती है और उसकी गर्मी को अपने अंदर नहीं आने देती। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से धूप ज्यादा कारगर साबित हो सकती है और होती है। अगर तुम मेरी प्रयोगशाला चलो तो मैं तुम्हें एक प्रयोग करके दिखाता हूं।’ इतना कहकर वसंत उठ खड़ा हुआ और राजीव को गलियारे के पास स्थित अपनी प्रयोगशाला में ले गया।

वहां उसकी मेज पर शीशे का एक बड़-सा बर्तन रखा था। एक उपकरण को चालू करते हुए वसंत ने समझाना शुरू किया, ‘मैं इस बर्तन के अंदर की हवा को धीरे-धीरे ठंडा कर रहा हूं। इसमें कुछ नमी है यानी कि जलवाष्प। अगर मैं हवा को ठंडा करने की प्रक्रिया को सावधानी के साथ पूरी करूं तो इसका तापमान 0 डिग्री से नीचे गिर जाना चाहिए और जलवाष्प को बर्फ में नहीं जमना चाहिए।’

तापमान-सूचक नीचे गिर रहा था और जब वह शून्य से भी नीचे चला गया तब भी बर्फ नहीं जमी थी। तब वसंत ने बर्तन के आर-पार एक प्रकाश किरण छोड़ी। समकोण से देखने पर बर्तन के भीतर बिल्कुल अंधेरा नजर आ रहा था।

‘ऐसा इसलिए है, क्योंकि प्रकाश इस नम हवा के आर-पार गुजर जाता है।’ वसंत ने समझाया, ‘पर अब मैं तापमान को और कम करूंगा।’

जब तापमान 0 से 40 अंश नीचे तक चला गया तो बर्तन चमकने लगा। यह परिवर्तन एकदम जादू जैसा लग रहा था।

‘ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बर्तन के भीतर हवा में मौजूद जलवाष्प अब जम गयी है। बर्फ के कण प्रकाश जलवाष्प को छतरा देते हैं। जबकि नम हवा ऐसा नहीं कर पाती। यही मुख्य बिंदु है।’

अपने कमरे में लौटते वक्त वसंत ने बताया, ‘यही क्रिया ध्रवीय प्रदेशों में भी होती है। वहां जब तापमान 0 से 40 अंश तक नीचे गिर जाता है तो हवा में बर्फ के कण बन जाते हैं, जिन्हें हम ‘हीरे की धूल’’ कहते हैं। ये वही बर्फ कण हैं जिन्हें तुमने अभी प्रयोग में देखा था। प्रयोग की तरह ध्रुवों पर भी यह धूल धूप को छितरा देती है। अन्य जगहों पर हमें ऐसा होता नजर नहीं आता, क्योंकि कहीं भी तापमान कभी भी इतना नीचे नहीं गिरता है।

वसंत का बयान हालांकि टेपरिकॉर्डर में दर्ज हो रहा था, लेकिन राजीव शाह अपने नोट बनाने में व्यस्त था। हालांकि उसे सवाल का जवाब अभी भी नहीं मिल पाया था। राजीव के चेहरे पर तैर रहे हैरानी के भावों को तोड़कर वसंत मुस्काया और आगे बोला, ‘अब मैं तुम्हें अपने सिद्धांत का लब्बोलुआब बताता हूं। कल्पना करो कि महासागर ठंडे हो रहे हैं और वायुमंडल को पर्याप्त मात्रा में गर्मी नहीं पहुंचा पाते हैं। इससे हर जगह का तापमान कम होता जाएगा और ध्रुवीय प्रदेशों के अलावा अन्य जगहों पर भी हीरे की धूल बनने लगेगी और यह धूल क्या पर्दा धरती को आंशिक तौर पर ढक रहा है।’

बात राजीव की समझ में आ गयी। आगे की बात को उसीने पूरा किया। ‘फिर धरती और ठंडी हो जाएगी। महासागर भी कम गरम होंगे, हीरे की धूल बढ़ती जायेगी और फैलती जायेगी। यह धूल धूप को ज्यादा – से ज्यादा धरती पर पहुंचने से रोक देगी और हम हिम युग की ओर बढ़ते जाएंगे। लेकिन अगर महासागर गरम हों तो यह दुश्चक्र शुरू ही नहीं होने पाएगा।’

‘रुको, रुको।’ वसंत ने कहा, ‘आमतौर पर महासागरों की ऊपर परत इतनी गरम तो होती है कि वह वायुमंडल को हीरे की धूल के खतरे से बचा सके। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जिससे महासागरों के ठंडे होने का दुश्चक्र शुरू होने लगे तो फिर हम हिम युग से नहीं बच सकते। जैसे जब कोई ज्वालामुखी फटता है तो उसके द्वारा उगले गये कण वायुमंडल में भी घुल-मिल सकते हैं, वहां से धूप को सोख लेतें हैं या छितरने लगते हैं। इसलिए अगर ज्वालामुखियों की गतिविधियों सामान्य से ज्यादा बढ़ जाएं तो वायुमंडल में धूल का परदा बनने का खतरा बढ़ जाता है, जो धूप को गरम करने के अपने काम को रोकता है। जैसा कि मैंने कई साल पहले गौर किया था प्रकृति द्वारा निर्धारित सुरक्षा परत धीरे-धीरे पतली होती जा रही थी।’ और अब राजीव को उस बातचीत का सिर पैर समझ में आने लगा जो पांच साल पहल वाशिंगटन में हुई थी और यह भी समझ में आ गया कि वेसूवियस ज्वालामुखी के फटने की खबर सुनकर वसंत उतना चिंतित क्यों हो गया था।

और अब जबकि वसंत की आशंका सही साबित हो चुकी है तो आगे क्या होने वाला है।

‘हिम युग आ गया। भारतीय वैज्ञानिक ने भविष्यवाणी की थी’- यह शीर्षक था राजीव के सनसनीखेज आलेख का। इस आलेख को भारत में खूब वाहवाही मिली। बाद में यह विदेशी समाचार एजेसियों द्वारा पूरी दुनिया में खूब प्रचारित-प्रसारित किया गया। जल्द ही वसंत चिटनिस एक जानी-मानी हस्ती बन गये। इस तथ्य से कि उन्होंने जलवायु में विनाशकारी बदलाव की वैज्ञानिक तौर पर काफी पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी। उन्हें आम जनता के बीच पर्याप्त मान सम्मान मिला और अपने वैज्ञानिक सहयोगियों के बीच उनकी साख भी बहुत बढ़ गयी।

लेकिन अभी भी ऊंचे ओहदों पर जमे हुए वैज्ञानिक ऐसे थे जो हिमयुग की शुरूआत से सहमत नहीं थे। वे मानते थे यह केवल जलवायु में अस्थायी गड़बड़ी है, जो बेशक बड़े पैमाने की ही और असाधारण है, लेकिन है अस्थायी, जो जल्द ही ठीक हो जायेगी। उन्होंने जनता को भरोसा दिलाया कि पुराने व अच्छे गरम दिन कुछ साल के भीतर फिर लौट आयेंगे। बस, महासागरों और उनके ऊपर की हवाओं के गरम एवं ठंडे होने के चक्र में संतुलन कायम हो जाए। लेकिन ठंड से जमे देशों को विश्वास दिलाना वाकई काफी कठिन था। संसार के विख्यात पत्रकारों के सम्मेलन में वसंत ने दोबारा सुस्ती के खिलाफ चेताया, ‘हो सकता है कि अगली गरमी के मौसम में कुछ बर्फ पिघल जाए, लेकिन इसे हिम युग का अंत मत मानिए, क्योंकि उसके बाद आने-वाला सर्दी का मौसम और ज्यादा ठंडा होगा। इसे टालने का तरीका भी है, लेकिन उस तरीके को जल्द-से-जल्द अमल में लाना पड़ेगा। इस चक्र को उलट देना अभी भी संभव है, पर इसमें बहुत सारा धन खर्च होगा। कृपया इसे खर्च करें।’

लेकिन इस चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ। अप्रैल में वसंत का मौसम आया और तापमान मामूली रूप से बढ़ा। उत्तरी गोलार्द्ध में हर जगह गरमी का मौसम चमकदार और गरम था, यहां तक कि दक्षिणी गोलार्द्ध में भी सर्दी का मौसम इतना टंडा नहीं था जितना उत्तरी गोलार्द्ध में रह चुका था। इसलिए मौसम-विज्ञानी व अन्य लोग भविष्यवाणी करने लगे कि बर्फ पिघलने लगी है।

विंबलडन के मैच अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हुए। हालांकि खिलाड़ियों को स्वेटर पहनकर खेलना पड़ा। हर कोई खुश था कि मैचों के दौरान बारिश नहीं हुई। आस्ट्रेलिया ने दोबारा एशेज श्रृंखला जीत ली और इस बार कोई मौसम को दोष नहीं दे सका। यू.एस. ओपन गोल्फ के मैच भी बड़े आरामदेह मौसम में खेले गये, जिसकी कोई उम्मीद नहीं ती, नीचे विषुवतीय प्रदेशों में भी भयंकर गर्मी का नामोनिशान नहीं था, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून अपने समय पर और पर्याप्त मात्रा में आया।

तो हमें घबराने की कतई जरूरत नहीं थी। दुनिया के सभी छोटे-बड़े देशों ने सोचा, एक बार फिर भारत की भोली जनता ने लाल फीते में बंधी अपनी नौकरशाही का अहसास माना, जो अभी भी राजधानी को दिल्ली से मुंबई ले जाने के मनसूबे बांध रही थी। गरमी का मौसम देखकर इन मनसूबों को इस टिप्पणी के साथ ताक पर रख दिया गया कि ‘अगली सूचना तक निर्णय स्थगित’।

लेकिन वसंत चिटनिस को चिंता लगातार बढ़ती जा रहा थी, एक लौ भी बुझने से पहले तेज रोशनी के साथ भभकती है। गरमी का मौसम उम्मीद के मुताबिक ही था। लेकिन कोई भी उनकी बात को सुनने के मूड में नहीं था।

लेकिन एक आदमी था राजीव शाह, जिसे वसंत के तर्कों पर पूर्ण विश्वास था। एक दिन जब राजीव अपने दफ्तर में बैठा टेलीप्रिंटर पर आयी खबरों की काट-छांट कर रहा था कि तभी वसंत वहां पर आ धमका। उसके चेहरे से राजीव ने ताड़ लिया कि उसके पास जरूर कोई खबर है।

‘लो, देखो यह टेलेक्स।’ यह कहते हुए वसंत ने उसे एक छोटा-सा संदेश पढ़ने के लिए दिया।

‘आपके निर्देशानुसार हमने अंटार्कटिक पर जमी हुई बर्फ की पैमाइश की है। हमने पक्का पता लगाया है कि बर्फ का क्षेत्रफल बढ़ा है और समुद्र के पानी का तापमान पहले की तुलना में दो अंश गिरा है।’

‘यह संदेश अंटार्कटिक में स्थापित अंतरराष्ट्रीय संस्थान से आया है।’ वसंत ने कहा, ‘मुझे इसी नतीजे की उम्मीद थी, मैं इसे पक्का करना चाहता था। बदकिस्मती से मेरी आशंका सही साबित हुई।’

‘तुम्हारा मतलब है कि आने-वाली सर्दी में हमें और ज्यादा ठंड का सामना करना पड़ेगा?’

‘बिल्कुल ठीक, राजीव! तुम मेरे पूर्वाग्रह से ग्रस्त वैज्ञानिक सहकर्मियों से कहीं ज्यादा समझदार हो। किसे परवाह है। हम सभी इन सर्दियों में जमकर मौत की नींद सोने जा रहे हैं।’

‘चलो भी वसंत, क्या इतना बुरा हाल होने जा रहा है? क्या इस बर्फीले दुश्चक्र से निकलने का कोई रास्ता नहीं है?’ राजीव ने पूछा।

‘रास्ता है, लेकिन अब मैं चुप रहूँगा, जब तक ये पूर्वाग्रही और हठी वैज्ञानिक मुझसे आकर पूछते नहीं। हां, दोस्त होने के नाते मैं तुम्हें एक नेक सलाह जरूर दूंगा। भूमध्य रेखा के जितने निकट तुम जा सकते हो, चले जाओ। शायद अगले कुछ महीनों में इंडोनेशिया का मौसम कुछ बरदाश्त करने लायक बचे। मैं तो बानडुंग के टिकट खरीदने जा रहा हूं।’ और वसंत जल्दी से बाहर निकल गया।

2 नवम्बर को मुंबई के लोगों ने एक अद्भूत नजारा देखा। हजारों-हजार पक्षी आसमान में उड़े जा रहे थे। वे सारे-के-सारे पक्षी बहुत ही अनुशासित ढंग से उड़ रहे थे। पक्षी विज्ञानी अपने-अपने घरों से बाहर निकल आये, ताकि इस नजारे को देख सकें और कुछ सीख सकें। उनमें से अनेक पक्षी पहले कभी भी इस दिशा में उड़कर नहीं आये थे।

जल्द ही मुंबई के कौए, गौरैया और कबूतर भी इस झुंड में शामिल हो गये। राजीव ने गौर किया कि वे सभी पक्षी दक्षिण दिशा की ओर जा रहे थे। न पक्षियों ने अपनी सहज वृत्ति से वह जान लिया था जो मानव अपनी तमाम उन्नत तकनीकों के बल पर भी नहीं जान पाया था। स्पष्ट है कि पक्षियों में समझदारी थी और उन्होंने पिछले साल के अनुभवों से काफी कुछ सीखा था।

आखिरकार दो दिन बाद आसमान में मंडरा रहे मानव निर्मित उपग्रहों ने भी मौसम किसी अनहोनी का पता लगा ही लिया। 14 नवंबर को एक चेतावनी प्रसारित की गयी। वायुमंडलीय बदलाव तेजी से हो रहे हैं और इस बात के संकेत हैं कि अगले चौबीस घंटों के भीतर धरती पर अनेक जगहों पर भारी बर्फ गिरेगी। गर्व से गरदन अकड़ाए मौसम-विज्ञानियों ने बताया कि उनकी उन्नत तकनीकों के बगैर यह पूर्व चेतावनी नहीं आ सकती थी। उन्हें शायद मालूम नहीं था कि पक्षी काफी पहले ही भूमध्य रेखा के पास सुरक्षित जगहों पर पलायन कर चुके थे।

पक्षियों के समान अनुशासन के अभाव में मनुष्यों के बीच भगदड़ मच गयी। जापान, कनाडा, अमेरिका और तकनीकी रूप से विकसित यूरोपीय देशों का विश्वास था कि पिछली सर्दियां बिता लेने के बाद वे इस बार किसी भी तरह की ठंड का सामना कर लेंगे। लेकिन वे इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि उनके बड़े-बड़े शहर भी पांच मीटर बर्फ के तले दब जायेंगे। नतीजा यह हुआ कि उसके बाद मची भगदड़ में केवल वे ही सौभाग्यशाली लोग बच पाये जो परमाणु हमलों से बचानेवाली बंकरों तक पहुंच सके। पारंपरिक तौर पर गरम देशों में ठंड का कहर कुछ कम था। लेकिन उनमें भी तैयारी के अभाव में काफी जनसंख्या हताहत हो गयी।

राजीव शाह भी मद्रास में अपने चचेरे भाई के पास चला गया, लेकिन वहां भी ठंड के मारे बुरा हाल था। प्रमोद और कविता को भी अब बर्फ में खेलने में मजा नहीं आता था। अन्य लोगों की तरह वे भी पूछते कि अच्छे पुराने गरम दिन कब आयेंगे। लेकिन आम आदमियों को छोड़िये, विशेषज्ञ भी यकीन के साथ कुछ भी बता पाने में असमर्थ थे। विशेषज्ञ लोगों में भी, जो पिछली सर्दी के मौसम को बेहद हलके से ले रहे थे, ज्यादातर लोग मर-खप गये थे। उनमें से केवल एक व्यक्ति ही बच पाया, क्योंकि वह वाशिंगटन छोड़कर मियासी बीच पर आ गया था। वह रिचर्ड होम्स था, जो अमेरिकी ऊर्जा बोर्ड का सदस्य था।

एक दिन अचानक उसके फोन ने राजीव को आश्चर्य में डाल दिया, ‘हाय राजीव! कैसे हो तुम? शर्तिया तुम मद्रास में गरम मौसम का मजे ले रहे हो, जबकि हम यहां मियामी में जमे जा रहे हैं।’ रिचर्ड मजाकिया बनने की कोशिश कर रहा था। लेकिन राजीव को उसके शब्दों में छिपी चिंता का अहसास हो गया था।

‘चलो भी रिचर्ड! वास्तव में तुम वहां पर अच्छे-खासे गरम घर में दिन गुजार रहे हो।’ उसने कहा।

‘मियामी में गरम घर! तुम बचकानी बात कर रहे हो। लेकिन राजीव, मैंने वसंत का पता लगाने के लिए फोन किया है। तुम जानते हो न, वसंत चिटनिस, वह कहां गया होगा? मुंबई और दिल्ली के तो फोन काम ही नहीं कर रहे हैं।’

‘जैसे कि इन शहरों के फोन हमेशा ठीक से काम करते ही हैं।’ राजीव बड़बड़ाया। उसके बाद उसने रिचर्ड को बानडुंग में वसंत का पता और फोन नंबर दिया।

‘मैं जानना हूं कि वह इन सबका क्या मतलब निकालता है। हो सकता है, उसके पास इस संकट से निकलने का कोई रास्ता ह।’ सूचना के लिए राजीव को धन्यवाद देते हुए रिचर्ड ने कहा।

‘अब अक्लमंद लोग भी बात करने को तैयार हैं।’ राजीव ने सोचा। कुछ महीने पहले इसी होम्स ने बुरे दिनों के लिए वसंत की भविष्यवाणी का मजाक उड़ाया था। पर अभी भी देर नहीं हुई थी, बशर्ते कि वसंत सुनने के मूड में हो।

‘आपके सुनने वाशिंगटन के क्या हाल-चाल हैं, रिचर्ड?’ बानडुंग हवाई अड्डे पर रिचर्ड का स्वागत करते हुए वसंत ने पूछा।

‘वहां तो कोई नहीं बचा। दरअसल हमसे ज्यादा समझदार तो पक्षी ही निकले। उन्होंने समय पर अपने इलाकों को छोड़ दिया।’ होम्स ने उत्तर दिया। पिछली मुलाकात की तुलना में इस बार उसके स्वर में वह जोश-खरोश नहीं था। उसे वसंत की प्रतिक्रिया का अनुमान नहीं था, इसलिए वह राजीव को भी साथ लाया था। अब वे चुपचाप वसंत के घर की ओर चले जा रहे थे।

‘तुमने भी अपने लिए कोई सुरक्षित जगह नहीं तलाशी है। तुम नहीं जानते कि सारी दुनिया पर बर्फ कहर बरपा रही है। देखो, इन टेलेक्स और फैक्स संदेशों को देखो।’ राजीव ने कागजों का पुलिंदा वसंत को थमा दिया।

वसंत ने उन कागजों को गौर से पढ़ा। अगर परिस्थितियां सामान्य होतीं तो वे सनसनीखेज बन जातीं, पर आज कागजों पर लिखी ये बातें सामान्य लग रही थीं।

‘ब्रिटिश सरकार ने अपनी बाकी बची 40 प्रतिशत आबादी को केन्या पहुंचाने का कार्यक्रम पूरा होने की घोषणा की, इस कार्यक्रम को पूरा करने में दो महीने लगे।’

‘मास्को और लेनिनग्राद खाली कराये गये- रूसी प्रधानमंत्री की घोषणा।’ ‘हम अपने भूमिगत ठिकानों में एक साल तक जिंदा रहेंगे-इजरायल के राष्ट्रपति।’

‘उत्तरी भारत में सभी नदियां पूरी तरह जम गयीं, यू.एन.आई. की खबर।’

विस्तृत संदेशों को पढ़ने के बाद वसंत एक-एक कर कागज राजीव को थमाता गया। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। कागजों को पढ़ने के बाद उसने नपी-तुली टिप्पणी की, ‘पिछले साल तो हमने केवल एक झलक देखी थी। अब पूरा नज़ारा देखने को मिल रहा है। मुझे तो संदेह है कि हम अगला साल देखने के लिए जिंदा भी बचेंगे कि नहीं।’

क्या इतना बुरा हाल होने जा रहा है ? राजीव ने जितित होकर पूछा।

‘क्या इसे टाला नहीं जा सकता है?’ रिचर्ड ने पूछा, ‘अब शायद बहुत देर हो चुकी है रिचर्ड, लेकिन हो सकता है कि मैं गलत हूं। हम कोशिश कर सकते हैं, पर अब हमारे पास क्या विकल्प है? हमें इसे पिछले साल ही करना चाहिए था।’

वसंत ने अपने डेस्क से टाइप किये हुए कागजों का पुलिंदा निकाला। उसके ऊपर लिखा ‘परियोजनाः इंद्र का आक्रमण।’

‘इंद्र स्वर्ग का राजा है, जिसका निवास ऊपर आसमान में है। वहीं सारी समस्याओं की जड़ है।’ आसमान की तरफ ऊंगली उठाते हुए होम्स ने कहा और चुपचाप कागजों का वह पुलिंदा लिया। एक साल पहले वह इनकी तरफ देखना भी नहीं चाहता था।

होम्स और चिटनिस की मुलाकात को छह महीने बीच चुके थे। भूमध्य रेखा के उत्तर और दक्षिण दोनों ओर केवल दस अक्षांश तक ही इलाका हरा-भरा और नीला था, जो धरती की पहचान माना जाता है। बल्कि हर जगह हिम युग अपने पैर पसार चुका था और इसी पतली-सी पट्टी में समूची मानव सभ्यता सिमट गयी थी और इसी पट्टी में इस सभ्यता को बर्फ के आक्रमण को रोकने के लिए अपने प्रयास करने पड़े।

मरता क्या न करता।

लेकिन वसंत अब ज्यादा आशान्वित था कि वे अब रॉकेट छोड़ने के लिए तैयार थे। थुंबा में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र में रॉकेट लॉन्चर के पास खड़ा वह बेसब्री से अभियान शुरू होने का इंतजार कर रहा था।

‘हम तैयार हैं।’ अभियान प्रमुख ने कहा। ‘तब, दागो।’ वसंत ने आदेश दिया। उसे किसी अभियान को शुरू करने के लिए शुभ घड़ी का इंतजार करने से ही चिढ़ थी।

प्रमुख ने एक बटन दबाया। अगला पल बड़ी बेचैनी में बीता, फिर चमचमाता हुआ रॉकेट नारंगी लपटें छोड़ता आसमान की ओर लपका। इंद्र का विजय अभियान शुरू हो चुका था। सभी ने चैन की सांस ली।

इस अंतरिक्ष केंद्र से वायुमंडल की जानकारी हासिल करने के लिए पहले ही कई रॉकेट छोड़े जा चुके थे । अबकी बार छोड़ा गया रॉकेट वायुमंडल को काबू में करने के लिए बनाया गया था। बशर्ते कि यह और भूमध्य रेखा की पट्टी से छोड़े जानेवाले अन्य रॉकेट बखूबी अपना काम करने में सफल हो जाएं। श्री हरिकोटा, श्रीलंका, सुमात्रा, केन्या और ग्वाटेमाला में भी लॉन्च पैड एसे ही रॉकेटों और उपग्रहों को छोड़ने के लिए तैयार थे क्योंकि यह योजना वसंत के दिमाग की उपज थी, इसलिए पहले प्रक्षेपण की अध्यक्षता करने का सम्मान उसे ही दिया गया।

अपने सामने पैनल पर लगे उपकरणों को देखकर पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कान आयी। उसने लाल रंगवाला फोन उठाया और रिसीवर पर बोलना शुरू किया।

‘अभियान सफलतापूर्वक शुरू हो चुका है।’ रॉकेटों, उपग्रहों, गुब्बारों और ऊंची उड़ान भरनेवाले हवाई जहाजों-सभी को इस अभियान में झोंक दिया गया था। ये सभी आक्रमणकारी सेना के चार अंग थे और समूची मानव जाति उपग्रहों द्वारा भेजी गयी सूचनाओं का बेचैनी से इंतजार कर रही थी। ये उपग्रह आधुनिक महाभारत में संजय की भूमिका निभा रहे थे। राजीव ने अपनी डायरी में लिखा, ‘हमारे इस पुराण में धरती के राजाओं ने इंद्र पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया है। क्या यह आक्रमण सफल होगा?’

और आक्रमण क्या था? दरअसल यह वायुमंडल पर धातु के छोटे-छोटे कणों की बौछार करने की महत्वाकांक्षी योजना थी। ये कण धूप की गरमी को सोखकर नीचे जमीन पर बैठ जायेंगे, यह वसंत की योजना थी। उसे उम्मीद थी कि अब तक ज्वालामुखियों के फटने से निकली राख के कण-जो वायुमंडल में घुल-मिल गये थे, अब धूप को धरती तक नहीं पहुंचने दे रहे थे, बैठ चुके होंगे। उसे यह उम्मीद भी थी कि वायुमंडल पर धात्विक कणों की बौछार से राख द्वारा हुआ नुकसान पूरा हो जायेगा।

लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं था। वायुमंडल में छितराये हुए हिमकणों को भी तुरंत ही कम करना था। ऐसा केवल वायुमंडल को विस्फोटक द्वारा गरक करके ही हो पाता। इसके लिए वसंत ने अस्त्र तकनीकी के विनाशक की बजाय रचनात्मक तरीके से उपयोग करने की शर्त रख दी।

विनाश के कगार पर पहुंच चुके सभी देशों ने इस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया और सहयोग की भावना से कार्य करने लगे। इस तरह छह महीने वायुमंडल को विस्फोटक तरीके से निकली ऊर्जा द्वारा गरम करने के तरीके खोजने में जुट गये। इन मिले-जुले प्रयासों के अंत में अब भी सवाल मुंह बाए खड़ा था- ‘क्या यह तरीका काम करेगा?’

सितंबर का महीना आते-आते इस सवाल का जवाब भी मिल गया। जवाब मानव जाति के पक्ष में था। सबसे पहले गंगा के मैदानों में जमी बर्फ पिघलने लगी। उसके तुरंत बाद कैलिफोर्निया से लेकर फ्लोरिडा तक बड़े-बड़े इलाके बर्फ की कैद से मुक्त होने लगे। मियामी से रिचर्ड होम्स ने वसंत को फोन लगाया।

‘बहुत-बहुत बधाइयां, वसंत! इंद्र के आक्रमण ने विजय प्राप्त की है। हीरे की धूल तेजी से वायुमंडल से गायब हो रही है। संपूर्ण धरती का वायुमंडल गरम हो रहा है। तुम वाकई महान हो, वसंत।’

वसत के चेहरे पर वैसा ही संतोष झलक रहा था जैसा तमाम कठिनाइयों पार करने वाले वैज्ञानिक के चेहरे पर झलकता है। अब साथी वैज्ञानिक भी उसके कार्य की सराहना कर रहे थे। लेकिन भीतर-ही-भीतर उसके मन में गहरी चिंता और अनिश्चितता अब भी बनी हुई थी।

यह युद्ध तो उन्होंने जीत लिया, पर असली युद्ध तो अभी आने वाला था। जैसा कि अक्सर होता है, किसी लड़ाई में अपनी सारी ताकत झोंक देने के बाद विजेता भी थककर चूर हो जाता है। आदमी थोड़ी देर रुककर अपनी उपलब्धियों के लिए खुद की पीठ थपथपा सकता है, परंतु बड़े संघर्ष अभी आने बाकी थे। हिम युग के कारण मनुष्यों की आबादी घटकर आधी रह गयी थी। इंद्र के आक्रमण में बहुत सारी ऊर्जा एवं अन्य आवश्यक संसाधन झोंक दिये गये थे। और अब पिघलती हुई बर्फ से बड़े पैमाने पर बाढ़ आने का खतरा पैदा हो गया था। क्या मनुष्य आगे भी सहयोग की भावना के साथ इन समस्याओं का सामना करता रहेगा? यह सोचते-सोचते वसंत के माथे पर पसीना आ गया। पिछले दो साल में उसे पहली बार पसीना आया था।

(लेखक प्रसिद्ध वैज्ञानिक हैं। यह विज्ञान कथा उनके कहानी संग्रह ‘रोमाचक विज्ञान कथाएं’ से साभार)

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