भारतीय उपखंड पर एक वर्ष के भीतर जलचक्र के माध्यम से करीब 4000 घन किमी. वर्षा होती है। अर्थात भारतीय उपखंड के पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरबी समुद्र के खारे पानी पर निसर्ग की अनेक प्रक्रिया होकर जैसे की समुद्र जल का तपना, उस जल का वाष्प बनना, बादल के रूप में पवन ऊर्जा के माध्यम से उस वाष्प को भारत वर्ष के कोने-कोने तक ले जाना और हिमालय की चोटी से लेकर समुद्र तट तक सांद्रीभवन के माध्यम से शुद्धजल भारतीय उपखंड पर बरसाना। जाहिर है इतनी सारी प्रक्रिया में निसर्ग अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल करता है। क्या हम जल का नियोजन करके मानव जाति के उत्थान के लिये इस ऊर्जा को फिर से वापस नहीं मिला सकते? अलग-अलग ऊँचाई पर बरसा हुआ पानी, चाहे वह बर्फ के रूप में ही क्यों न हो, उस जल में उसके ऊँचाईयों के कारण, एक विशिष्ट ऊर्जा समाई रहती है, जो कि वह एक भौतिक शास्त्रीय गणितीय तथ्यों के कारण होती हैं। (PE = mgh)
उसी ऊर्जा का उपयोग हम संपन्न जल स्रोतों और जल अभाव वाले क्षेत्रों को जोड़ने के लिये कर सकते हैं। भारतीय उपखंड की स्वाभाविक रचना इस प्रावधान के लिये बड़ी उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जहां उत्तर में 8000 मी0 की अधिकतम ऊँचाई पर हिमालय पर हिम का सागर फैला हुआ है और धीरे-धीरे पिघलकर वह जल का भंडार भारत भूमि में उतरता है। वहीं दूसरी ओर पूरे भारत भूमि का दक्षिणी छोर तक उतार है। जहाँ साल के अधिकतम महीने पानी की कमी रहती हैं। क्या हम किसी भी तरह इन क्षेत्रों को जोड़ नहीं सकते? ये हिम सागर हमारे लिये कभी खत्म न होने वाला ब्रह्मसागर नहीं बन सकता? अगर ऐसा हुआ तो हम बडे़ भाग्यशाली साबित हो सकते हैं और बडे़ से बडे़ किसी भी उपखंड के लिये इस तरह जल नियोजन के लिये यह संकल्पना एक आदर्श उदाहरण बन सकती है।
हिम - ब्रह्मसागर योजना : जल और विद्युत ऊर्जा का अविरत स्रोत (Him-Brahmasagar Project : An everlasting source of water and electrical energy)
पी एन विधले एवं आर के राय
भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, 01 जून, 2012
सारांश:
भारतीय उपखण्ड पर एक वर्ष के भीतर जलचक्र के माध्यम से करीब 4000 घन किमी वर्षा होती है। अर्थात भारतीय उपखंड के पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरबी समुद्र के खारे पानी पर निसर्ग की अनेक प्रक्रिया होकर जैसे कि समुद्र जल का तपना, वाष्प बनना, बादल के रूप में पवन ऊर्जा के माध्यम से उस वाष्प को भारत के कोेने-कोने तक ले जाना और हिमालय की चोटी से लेकर समुद्र तट तक सांद्र्रीभवन के माध्यम से शुद्धजल भारतीय उपखंड पर बरसाना। जाहिर है इतनी सारी प्रक्रिया में निसर्ग अपनी उर्जा का इस्तेमाल करता है। क्या हम जल का नियोजन करके मानव जाति के उत्थान के लिये इस उर्जा को फिर से वापस नहीं मिला सकते? अलग-अलग ऊँचाई पर बरसा हुआ पानी चाहे वह बर्फ के रूप में ही क्यों न हो, उस जल में ऊँचाइयों के कारण, एक विशिष्ट ऊर्जा समाई रहती है, जोकि वह एक भौतिकशास्त्रीय गणितीय तथ्यों के कारण होती है (PE=mgh)। उसी ऊर्जा का उपयोग हम संपन्न जलस्रोतों और जल अभाव वाले क्षेत्रों को जोड़ने के लिये कर सकते हैं। भारतीय उपखंड की स्वाभाविक रचना इस प्रावधान के लिये बड़ी उपयोग सिद्ध हो सकती है। जहाँ उत्तर में 8000 मी. की अधिकतम ऊँचाई पर हिमालय पर हिम का सागर फैला हुआ है और धीरे-धीरे पिघलकर वह जल का भंडार भारत भूमि में उतरता है। वहीं दूसरी ओर भारत भूमि का दक्षिणी छोर तक उतार है जहाँ साल के अधिकतम महीने पानी की कमी रहती है। क्या हम किसी भी तरह इन क्षेत्रों को जोड़ नहीं सकते? ये हिम सागर हमारे लिये कभी खत्म न होने वाला ब्रह्मसागर नहीं बन सकता? अगर ऐसा हुआ तो हम बड़े भाग्यशाली साबित हो सकते हैं और बड़े से बड़े किसी भी उपखंड के लिये इस तरह जल नियोजन के लिये यह संकल्पना एक आदर्श उदाहरण बन सकती है।
Abstract
About 4000 M3 of rain water is received in a year through water cycle on Indian sub-continent. It means, due to the various natural process such as heating of sea water, formation of vapours of that water, conveyance of those vapours in the form of clouds through wind energy, in the every corner of India. And the rainfall of pure water on Indian sub-continent through the condensation from the peaks of Himalaya to the sea shores; obviously nature utilizes its energy in all these processes. Can we not recycle this energy of the growth of mankind through water management ? A special energy is available in the rainwater available at different elevations, even if it is in the form of glaciers, due to its elevation; which is due to the mathematical facts of physical science (PE=mgh). We can utilize that energy for connection regions having abundant water resources with those having acute shortage of water. Favourable elevation existing naturally on the India subcontinent can prove to be very useful for this scheme where the everlasting source of water is extensively available at the elevations of 8000 m over the highest peaks of Himalaya and this source of water flows over the Indian land after its melting at slow speed. On the other hand, there is a falling gradient towards the southern part of India. Can we not interlink these regions by any means? This Himsagar (Everlasting source of water) can prove to be an unending Brahmasager (perennial source of water) If it happens, we would be the most fortunate, and this concept for the management of water could become an ideal example for any of the biggest continent.
प्रस्तावना
पानी का महत्व प्रत्येक जीव के लिये अत्यंत आवश्यक है। जल के कारण ही पृथ्वी पर जीवों का निर्माण हुआ है। हमारा शरीर अन्य आवश्यक घटक तत्वों की तुलना में लगभग 90 प्रतिशत जल का उपयोग करता है। समूचे पृथ्वी ग्रह पर पानी की उपलब्धता अगर देखें तो तुलना में पीने योग्य पानी 2.8 प्रतिशत ही है और उसमें भी मानव जाति उसका अंशात्मक भाग ही उपयोग में ला सकती है क्योंकि बहुत सारा पानी बर्फ के रूप में है या फिर जमीन की सतह के भीतर है। नीचे दिए गए आँकड़ों और आकृतियों से ये तथ्य उजागर होते हैं (चित्र 1)।
हमारे लिये यह तथ्य जानना इसलिये बहुत जरूरी है कि हमारे द्वार तक जो शुद्ध पानी की एक-एक बूूँद आती है, उसके लिये निसर्ग कितना योगदान देता है। निसर्ग अपनी कितनी ऊर्जा का उपयोग करता है। क्या हम ये नहीं देख सकते या फिर गणितीय आँकड़ों के आधार पर हम ये तथ्य नहीं जान सकते हैं कि कितनी किलोवाट ऊर्जा जलचक्र में खर्च होती है। इसी ऊर्जा की कीमत अगर हम गणितीय सूत्रों से अपनी या जागतिक धनराशि मूल्यों (करन्सी के रूप) में बदलकर देखें तो नीचे दिये गये आँकड़ों से ये पता चलता है कि निसर्ग की प्रचंड ऊर्जा अरबों-खरबों की मूल्यों के बराबर होती है।
उदाहरण के तौर पर अगर हम 1 घन कि.मी. समुद्री खारे पानी का जलचक्र शुद्ध पाने योग्य पानी में परिवर्तित करें तो उसमें होने वाली पक्रिया, जैसे वाष्पीभवन, वाष्प को उपखंड के हजारों कि.मी. दूर तक ले जाना उस वाष्प को हजारों मीटर की ऊँचाई से लेकर अलग-अलग ऊँचाइयों पर बरसाना और तो और उस शुद्ध जल को महीनों तक बर्फ के रूप में जतन करके रखना, इस सब प्रक्रिया में लगने वाली ऊर्जा और उस ऊर्जा के लिये लगने वाली धनराशि इन सबके आँकड़े चौका देने वाले हैं (सारणी 1)।
सारणी 1- जल चक्र में ऊर्जा के लिये लगने वाली धनराशि | |||
वाष्पीभवन | स्थानांतरण | उद्वहन | सांद्रीभवन |
8.7x107 कि.वॉट | 2.6 x107 कि.वॉट | 2.6 x107 कि.वॉट | 8.7x107 कि.वॉट |
2500 बिलियन डॉलर | 5000 बिलियन डॉलर | 5000 बिलियन डॉलर | 2500 बिलियन डॉलर |
अगर 1 घन किमी. के आँकड़े इतने चौंका देने वाले हैं, तो भारतीय उपखंड पर बरसने वाले 4000 घन किमी. जल के लिये कितनी ऊर्जा खर्च होती होगी, यह अंदाजा हम अच्छी तरह लगा सकते हैं। क्या हम इस जल से इस छिपी हुई ऊर्जा को अपने उपयोग के लिये वापस परिवर्तित नहीं कर सकते? क्या 4000 घन किमी. जल की मात्रा भारत के लिये कम है?
हिम ब्रह्मसागर योजना
भारत देश, भू-रचना और जल संपन्नता के बारे में सारे जहाँ से भाग्यशाली है।
भारतीय उपखण्ड की स्वाभाविक भू-रचना और जल स्रोतों का भंडार एक अपूर्व वरदान है। भारत देश उत्तर में कश्मीर से दक्षिणी छोर कन्याकुमारी तक और पूर्व में नागालैंड से पश्चिमी छोर गुजरात राज्य तक फैला हुआ है। हमारे उपखंड के उत्तर और दक्षिण दिशा में दोनों तरफ जल के सागर हैं। दक्षिण में हिंद महासागर है जिसका पानी हम उपयोग में नहीं ला सकते। इसके विपरीत उत्तर में अधिकतम ऊँचाइयों पर हिम का प्रचंड सागर है, जो अति शुद्ध जल के रूप में उपलब्ध है। जिसे हम भारत का कभी खत्म न होने वाला हिम ब्रह्मसागर कह सकते हैं। इस विस्तीर्ण भारतीय उपखंड को हम, जलस्रोतों को और जल विभाजकों को लेकर चार भाग में विभाजित करेंगे। (चित्र 2)
उत्तरी भाग-अ (हिम ब्रह्मसागर-1)
इस भाग में हिमालय की पर्वत श्रृंखला आती है, जो कहीं-कहीं 7000 से 8000 मीटर की ऊँचाई तक है। भले ही इसका कुछ भाग नेपाल और तिब्बत देश की सीमा में है। मगर वह क्षेत्र भारत के लिये जल स्रोत जरूर है। यह हमारे लिये हजारों वर्ग किमी. में फैला हुआ हिमसागर ही है, जो धीरे-धीरे पिघलकर हमारी नदियों को पानी की मात्रा देकर बारहमास जीवित रखता है। हमारी नदियों का वह ब्रह्मसागर है। भारत की सीमा रेखा के अंदर ही 1400 मी. 1800 मी. की ऊँचाई पर गंगोत्री, यमुनोत्री जैसी अनेक जलस्रोत हैं। उत्तर-पूर्व में तो ब्रह्मपुत्र नदी जैसा प्रचंड जल संपन्न स्रोत है। ये सभी जलस्रोत बारहमासी हैं, क्योंकि गर्मी में बर्फ पिघलने से इन नदियों में बाढ़ जैसी स्थिति बनी रहती है। अर्थात बारहमास यह भू-भाग जल संपन्न रहता है।
मध्यभाग-ब (गंगा खोरे)
इस भाग में गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र इन नदियों के खोरे आते है। मगर यह जल पूरी तरह दक्षिण की ओर नहीं आ सकता क्योंकि गंगा यमुना के खोरे जो कि 240 मीटर पर हैं, आगे दक्षिण के पठार का चढाव है और उसकी ऊँचाई 1200 मीटर पहुँच जाती है। इसके कारण ही सभी दक्षिण वाहिनी नदियाँ पूर्व वाहिनी बनकर बंगाल की खाड़ी में विसर्जित हो जाती है। इन नदियों में बारहमास जल रहता है मगर यह भू-भाग शेष भू-भागों से नीचे के स्तर पर है। यहाँ से पानी दक्षिण के पठार पर प्रचंड ऊर्जा खर्च किये बिना नहीं ला सकते।
मध्यभाग-क (विंध्य, सतपुड़ा) ब्रह्मसागर - 2 क्षेत्र
इस क्षेत्र में विंध्य, सतपुड़ा और दक्षिण का पठार आता है, जिसमें 1200 मीटर ऊँचाई वाली सतपुड़ा और विंध्य पूर्व पश्चिम नैसर्गिक जैसी बाँध फैली हुई पर्वतीय श्रृंखला हैं। इन्हीं पर्वतीय चोटियों से वर्षा का जल दक्षिण पूर्व और उत्तर दिशा में विभाजित होकर समुद्र में मिलता है। यहाँ हम नियोजित ब्रह्मसागर योजना के लिये ब्रह्मसागर-2 जलाशय बना सकते है। इस शोध प्रबंध का यही उद्देश्य है।
दक्षिण भाग-ड पानी अभाव क्षेत्र
भारत के इस क्षेत्र में 300 मीटर से लेकर सभी ओर समुद्र तट तक ढलान है। जहाँ से सिर्फ गुरुत्वीय बल से ही जल प्रवाहित होकर पूर्व की ओर और पश्चिम की ओर जाकर समुद्र में मिलता है।
क्या हम इन नदियों के जलस्रोतों को भाग-अ हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में करीब 1200 मीटर की ऊँचाइयों पर संकलित करके बंद दाब नलिका की पाइप लाइन के जरिये भाग-2 (ब) गंगा खोरे को लांघकर विंध्य, सतपुड़ा के 750 ऊँचाई वाली चोटियों पर कोई भी उपाय करके नहीं पहुँचा सकते और फिर यहाँ से समूचे देश में क्या जल को वितरीत नहीं किया जा सकता? भारत का उत्तर, दक्षिण भू-रचना का आलेख (चित्र 3) बताता है कि उत्तर में जलस्रोतों का अपूर्व भंडार है और जो करीब 1500मी. से 1800 मी. ऊँचाई पर है। यह पानी हम अगर आधुनिक से आधुनिक तकनीकी से गंगा के खोरे की निचाई के ऊपर सतपुड़ा और विंध्य के 750 मीटर की ऊँचाई पर ला सकें, तो पूरे भारत को सुजलाम सुफलाम होने में देर नहीं लगेगी। इससे पूर्व विख्यात इंजि, विश्वेश्वरैयाजी, जल दिनशॉजी दस्तूर द्वारा और राष्ट्रीय नदीजोड़ प्रकल्प में ऐसी संकल्पनाएं रखी गई हैं।
मगर ऊर्जा का अपव्यय करने वाले या फिर सिर्फ सैद्धान्तिक और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले लगते हैं। यही नहीं तज्ञ लोगों के ऊपर जोरदार आक्षेप भी हैं। जहाँ ग्रीष्म ऋतु में जल की अत्यधिक आवश्यकता होती है, वहाँ दक्षिण पठार पर जल की एक बूँद भी नहीं पहुँचती है। इंजि. विश्वेश्वरैयाजी जी ने गंगा का पानी (240 मी.) विद्युत पम्प के जरिये उद्वहन करके सतपुड़ा और विंध्य तथा दक्षिण के पठार पर (750मी.) लाना ऊर्जा का अपव्यय है और ऊर्जा की आपूर्ति में बाधा डाल सकती है। राष्ट्रीय नदियों को जोड़ने वाला प्रकल्प पर्यावरणवादियों ने नकारा भी है और सरकार ने इसे बहुत खर्चीला बताया है मगर सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर टिप्पणी की कि ऐसे प्रकल्प में लगने वाली धनराशि को धन का अपव्यय नहीं समझना चाहिये।
हमें इस शोधपत्र के माध्यम से हिमालय के स्रोतों का जल (हिमब्रह्मसागर-1) सभी ऋतुओं में विंध्य सतपुड़ा और दक्खन के पठार पर (ब्रह्मसागर-2) ऊर्जा के खपत बिना, पर्यावरण को क्षति पहुँचाये बिना और कम से कम खर्च से लाने वाले तथ्यों को उजागर करना है हिमालय पर्वतीय श्रृंखला में ऐसे बहुत सारे स्रोत हैं जहाँ बरसात में बरसात के कारण और ग्रीष्म काल में बर्फ पिघलने के कारण जल के स्रोत संपन्न रहते हैं। उन स्रोतों का जल संचय ही हमारे लिये प्रस्तावित योजना का हिमब्रह्मसागर बन सकता है। उदाहरण के तौर पर नक्शे में दर्शित भाग-अ में 1200 मी. की ऊँचाई पर स्थित जलस्रोत है, जैसे कि हिमालय के गंगोत्री यमुनोत्री या फिर तत्सम जलस्रोत जोकि 1200 मी. या 1800 मी. की ऊँचाई पर हों या उत्तर पूर्व की ब्रह्मपुत्र का जलस्रोत हों, इन स्रोतों का जल संचय करके हिम ब्रह्मसागर-1 नाम का जलाशय बना सकते हैं और उसे हम बंद पाइप लाइन से दक्खन के पठार वाले ब्रह्मसागर-2 को जोड़ सकते हैं।
ब्रह्मपुत्र अरूणाचल प्रदेश में मानसरोवर से निकलकर लंबी यात्रा करके पहुँचती है और करीब 586 बीसएम मात्रा पानी लाती है। अगर पासी घाट और रिगा घाट के उत्तर में आने वाले अंग्रेजी अक्षर एस आकार जैसे मोड़ के पास करीब 1100मी. की ऊँचाई पर हम अगर उस जलस्रोत को संकलित करके (हिम- ब्रह्मसागर 1 से) बंद पाइप लाइन में प्रवाहित करें और वह पाइप लाइन (कंड्यूट) ब्रह्मपुत्र और गंगा नदियों के खोरे भाग-ब से गुजरकर नक्शे में दर्शाया हुआ भाग-क यानि सीधा विंध्य और सतपुड़ा के 750 मीटर ऊँचाई पर लाया जाये तो सिर्फ गुरुत्वीय बल से निश्चित रूप से जल पहुँच जायेगा और वहीं बनेगा हमारे योजना का ब्रह्मसागर-2 जलाशय। इस तरह के अनेक जलाशय विंध्य पर (मांडला) मध्यप्रदेश, सतपुड़ा पर (घटांग) के उच्चतम सतह पर हम निर्माण कर सकते हैं। इस योजना को हम अगर मूर्त रूप दें तो दुनिया में भारत जैसा भाग्यशाली देश और कोई न होगा। इसका अनुमान निम्नलिखित कुछ मुद्दों से और गणितीय आँकड़ों से लगा सकते हैं। एक बार अगर पानी ब्रह्मसागर-2 में आ जाये तो यहाँ से भारत के सभी ओर हम सिर्फ गुरुत्वीय बल से ही जल को इच्छित जगह पर प्रवाहित कर सकते हैं, क्योंकि भारत का संपूर्ण भू-भाग इस ऊँचाई से नीचे की सतह पर है।
सारणी 2 में बताये हुए आँकड़ों के अनुसार ब्रह्मपुत्र या गंगोत्री हिम ब्रह्मसागर-1 जलाशय से अगर 3 मीटर व्यास के एक ही बंद दाब नलिका से पानी ब्रह्मसागर-2 क्षेत्र पर लाया जाये तो औसत 0.223 बीसीएम प्रतिवर्ष इतना पानी या फिर 600 मिलीयन लीटर प्रतिदिन पानी हम किसी ऊर्जा के बिना ला सकते हैं महाराष्ट्र के सात से आठ लाख आबादी वाले अमरावती शहर को सिर्फ 90 मिलियन लीटर पतिदिन पानी की आपूर्ति 60 किमी दूरी पर स्थित नल दमयंती जलाशय से होती है। इस प्रक्रिया में कुछ विद्युत ऊर्जा की भी खपत होती है। इसका मतलब साफ है, कि हिम ब्रह्मसागर योजना के तहत एक ही पाइप लाइन से पाँच गुना पानी प्रतिदिन भारत के मध्य में वह भी ऊँची पर्वत की सतह पर मिलने लगेगा। इस तरह पाइप लाइन के नंबर आपूर्तिनुसार और उपलब्धता के अनुसार बढ़ा सकते हैं। एक पाइप लाइन से पानी लाना एक उदाहरण है जोकि योजना की शुरुआत कर इस योजना के यशस्वी होने का परिणाम देख सकते हैं। इस तरह अनेक पाइप लाइन के जरिये हम पानी ला सकते हैं। भारतवासियों को बर्फ के पिघले हुए अतिशुद्ध पानी की आपूर्ति करने की क्षमता यह योजना रखती है और इस शोधपत्र का मूल उद्देश्य यही है।
विंध्य सतपुड़ा और दक्खन के पठार पर वर्षा ऋतु खत्म होते ही पानी का अभाव, दुर्भिक्ष वर्ष के 8-10 महीने रहता है। दूर-दराज के पहाड़ी इलाकों में पीने के पानी तक की नौबत आती है। जगह-जगह टैंकर से पानी का वितरण करना पड़ता है। गणितीय आँकड़े (सारणी 2) बताते हैं, कि अगर हम इस प्रोजेक्ट के जरिये पानी का वहन करें तो समूचे भारत में पानी और ऊर्जा की कमी नहीं होगी क्योंकि जगह-जगह जल ऊर्जा के जनित्र भी लगाये जा सकते हैं। आजकल ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा जोरों पर है। और हिमालय क्षेत्र का बर्फ अधिक गति से पिघल रहा है। इसका मतलब यही है कि हिमालय से ज्यादा पानी मिलने वाला है तो क्यों न हम इसका भी फायदा उठा लें? ज्यादा पानी मतलब ज्यादा विद्युत ऊर्जा और जल से ऊर्जा का मतलब इको फ्रेंडली ऊर्जा ऐसे प्रकल्प को बढ़ावा देकर हम औशिणक ऊर्जा प्रकल्प को बंद कर ग्लोबल वार्मिंग बढने का खतरा कम कर सकते हैं जो पर्यावरण प्रदूषित करके हमें ऊर्जा देता है सामान्य तौर पर दाब नलिका के लगने वाले व्यास को ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित हेजन-विलियम्स (1902) सूत्र का उपयोग कर सकते हैं।
V = 0.85 . CH. R 0.63 . S0.54
V- वेलॉसिटी
CH - हैजन विलियम्स स्थिरांक
R - हायड्रॉलिक रेडियस
S - स्लोप ऑफ एनर्जी लाइन
इस सूत्र में CH का मान 100 रखकर दाब नलिका का व्यास व उपलब्ध होने वाली जल की मात्रा सारणी 2 में दी हुई है।
इस योजना के माध्यम से भारतीय उपखंड के भू-भागों की रचना का सदुपयोग करके सम्पन्न जलस्रोत और जल अभाव वाले क्षेत्रों को बखूबी जोड़कर संपूर्ण भारत को सुजलाम सुफलाम बनाकर जल विद्युत ऊर्जा का प्रचंड स्रोत निर्माण कर सकते हैं।
संदर्भ
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9. घोरपड़े अभिजीत, लोकसत्ता 28 फेबू. (2007)
पी एन विधले एवं आर के राय (PN Vidhale & RK Rai),
रसायन विभाग, विद्याभारती महाविद्यालय, अमरावती महाराष्ट्र, सिविल इंजीनियरिंग विभाग, शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय अमरावती अमरावती महाराष्ट्र (Chemistry Deptt. Vidya Bharti College, Amravati, MaharashtraCivil Engineering Deptt, Govt. College of Engg, Amravati Maharashtra)
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