उत्तराखंड की हेंवलघाटी का एक गांव है पटुड़ी। यहां के सार्वजनिक भवन में गांव की महिलाएं एक दरी पर बैठी हुई हैं। वे अपने साथ एक-एक मुट्ठी राजमा के देशी बीज लेकर आई हैं। इनकी छटा ही आकर्षित थी। रंग-बिरंगे देशी बीज देखने में सुंदर ही नहीं, बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं, पोषक तत्वों से भरपूर हैं।
बीज बचाओ आंदोलन की बैठक गत् 6 नवंबर को पटुड़ी में आयोजित की गई थी। मुझे इस बैठक में बीज बचाओ आंदोलन के सूत्रधार विजय जड़धारी के साथ जाने का मौका मिला। बीज बचाओ आंदोलन के पास राजमा की ही 220 प्रजातियां हैं। इसके अलावा, मंडुआ, झंगोरा, धान, गेहूं, ज्वार, नौरंगी, गहथ, जौ, मसूर की कई प्रजातियां हैं।
इस इलाके में बीज बचाओ आंदोलन गत् तीन दशक से सक्रिय है। इसके कार्यकर्ताओं ने दूर-दूर के गांवों से ढूंढ-ढूंढकर परंपरागत बीजों का संग्रह किया, जानकारी एकत्र की और किसानों में इन बीजों का वितरण किया। सिंचित क्षेत्र के लिए धान और गेहूं की परंपरागत किस्में एकत्र की और असिंचित क्षेत्र के लिए बारहनाजा मिश्रित फसलों के देशी बीजों को बचाने की मुहिम तेज की।
टिहरी-गढ़वाल में ऋषिकेष-टिहरी मार्ग पर पहाड़ और पत्थरों के बीच हेंवल नदी बहती है। यह गंगा की सहायक नदी है। इस नदी के दोनों ऊपरी भाग पहाड़ी हैं और बीच में नीचे तराई मैदानी क्षेत्र है। ऊपरी भागों में बाहरनाजा की मिश्रित खेती होती हैं और नीचे तराई में धान और गेहूं की फसलें होती हैं। बारहनाजा पूरी तरह जैविक तौर-तरीके से होता है और इसमें पारंपरिक बीज बोए जाते हैं जबकि तराई में जो फसलें होती हैं उनमें संकर बीज भी इस्तेमाल किए जाते हैं।
बीज बचाओ आंदोलन 80 के दशक से तब शुरू हुआ जब यहां हरित क्रांति के उच्च पैदावार किस्में किसानों को मुफ्त बांटी जा रही थी। सरकारी व कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने हरित क्रांति की रासायनिक खेती का प्रचार-प्रसार किया। वे यहां की मिश्रित बारहनाजा फसलों के स्थान पर सोयाबीन पर जोर दे रहे थे। कहा जा रहा था सोयाबीन उगाओ और मालामाल बन जाओ।
गांव के लोगों ने जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया है और इसी से इसकी पहचान स्वावलंबी और आदर्श गांव के रूप में की जाती है। इस इलाके के प्रमुख अखबार में इस गांव की कहानी पहले पन्ने पर प्रकाशित हो चुकी है। बारहनाजा की मिश्रित फसलें, गांव में साफ-सफाई व पानी का प्रबंधन, जंगल की रखवाली और खेतों की जंगली जानवरों से सुरक्षा गांव वाले मिलकर करते हैं।परंपरागत बीज लुप्त होने और रासायनिक खेती के दुष्परिणाम के अहसास ने ही बीज बचाओ आंदोलन की शुरूआत हुई। इस आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी हैं, जिनके साथ मैं इस बैठक में गया था। वे बताते हैं कि गढ़वाल की एक कहावत है- खाज खाणु अर बीज धरणु। यानी खाने वाला अनाज खाओ पर बीज सुरक्षित रखो। इसी तरह हर बार बीज रखने और हर अगली फसल बोने के साथ पीढ़ियों से लोगों ने अपने बीज बचाकर रखे हैं। बीज बचाओ आंदोलन का उद्देश्य सिर्फ बीज बचाना नहीं है बल्कि जैव विविधता, खेती और पशुपालन आधारित जीवन पद्धति और संस्कृति बचाना है।
पिछले दिनों मैं विजय जड़धारी के साथ इस गांव में गया था। जड़धारी चिपको आंदोलन से जुड़े रहे हैं। अदवानी और सलेत के जंगल को बचाने के लिए चिपको आंदोलन सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं था। जंगल काटने आए ठेकेदार और उनके कर्मचारियों को अहिंसक रूप से सत्याग्रह कर लोगों ने जंगल से खदेड़ दिया था। जब वे पेड़ काटने के लिए कुल्हाड़ी लेकर आए तो लोग सचमुच पेड़ों से चिपक गए। और कहा पहले हम पर कुल्हाड़ी चलाओ और बाद में पेड़ पर। उस समय ये नारे घाटी में गूंज उठे- आज हिमालय जागेगा, क्रूर कुल्हाड़ा भागेगा, क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार, मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।
नागणी गांव से हम कुछ दूर गाड़ी से आए लेकिन कच्चे रास्ते में कीचड़ के कारण गाड़ी आगे नहीं जा पाएगी, देखने पर पता चला कि जंगल से जलस्रोत से निर्बाध पानी रिस-रिसकर पानी रास्ते में कीचड़ कर रहा है। मैं सीधे पेड़ों से पानी रिसते देखकर मुग्ध हो गया। इसके बाद हम दो-तीन किलोमीटर पहाड़ पैदल ही चढ़े। मेरे लिए इतने उंचे पहाड़ चढ़ने का पहला मौका था। विजय जड़धारी रास्ते में पेड़ों, लताओं, वनस्पतियों से परिचय कराते जा रहे थे।
इस गांव में 80 परिवार हैं और ये सभी अन्य गांवों की तरह जीविका के लिए खेती और पशुपालन पर आश्रित हैं। यहां के बाशिंदे भी भैंसें पालते हैं। पहले गायें भी पालते थे तब जंगल ज्यादा था। और उस समय बच्चों को पढ़ाने का चलन नहीं था, तब वे पशु चराने का काम करते थे लेकिन अब सब बच्चे पढ़ना चाहते हैं। यह अलहदा बात है कि स्कूल बिल्डिंग अच्छी होने के बावजूद पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है। सरकारी स्कूलों की हालत खराब है।
इस गांव के लोगों ने जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया है और इसी से इसकी पहचान स्वावलंबी और आदर्श गांव के रूप में की जाती है। इस इलाके के प्रमुख अखबार में इस गांव की कहानी पहले पन्ने पर प्रकाशित हो चुकी है। बारहनाजा की मिश्रित फसलें, गांव में साफ-सफाई व पानी का प्रबंधन, जंगल की रखवाली और खेतों की जंगली जानवरों से सुरक्षा गांव वाले मिलकर करते हैं।
ग्रामीणों ने अपना बांज का जंगल बचाया है और उसी जंगल के जलस्रोत से वर्ष भर ठंडा पानी मिलता है। जड़धारी बताते हैं कि बांज का पेड़ न सिर्फ चारा, पत्ती व खाद का काम करता है बल्कि मिट्टी बांधने एवं जलस्रोतों की रक्षा भी अन्य पेड़ों के मुकाबले ज्यादा करता है।
बीज बचाने के इस काम में महिलाओं की प्रमुख भूमिका है क्योंकि खेती का अधिकांश काम महिलाएं ही करती हैं। वे हल चलाने को छोड़कर खेती के हर काम करती हैं। फिर भी महिलाओं के काम की मान्यता नहीं है। बीज भंडारण, बुआई, निंदाई, गुड़ाई, व बीज संकलन आदि का महत्वपूर्ण कार्य महिलाएं ही करती हैं। पटुली की बैठक में शांति देवी, बिशनीदेवी, सोना देवी आदि कई महिलाएं आई थीं, इनमें से कई सीधे खेतों से आई थीं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है यहां की सामूहिकता और भाईचारे ने बीज, खेती, पशुपालन और जंगल बचाने का सराहनीय काम किया है जो यहां गांव में टिके रहने के लिए जरूरी है। इस काम को और फैलाने की जरूरत है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
बीज बचाओ आंदोलन की बैठक गत् 6 नवंबर को पटुड़ी में आयोजित की गई थी। मुझे इस बैठक में बीज बचाओ आंदोलन के सूत्रधार विजय जड़धारी के साथ जाने का मौका मिला। बीज बचाओ आंदोलन के पास राजमा की ही 220 प्रजातियां हैं। इसके अलावा, मंडुआ, झंगोरा, धान, गेहूं, ज्वार, नौरंगी, गहथ, जौ, मसूर की कई प्रजातियां हैं।
इस इलाके में बीज बचाओ आंदोलन गत् तीन दशक से सक्रिय है। इसके कार्यकर्ताओं ने दूर-दूर के गांवों से ढूंढ-ढूंढकर परंपरागत बीजों का संग्रह किया, जानकारी एकत्र की और किसानों में इन बीजों का वितरण किया। सिंचित क्षेत्र के लिए धान और गेहूं की परंपरागत किस्में एकत्र की और असिंचित क्षेत्र के लिए बारहनाजा मिश्रित फसलों के देशी बीजों को बचाने की मुहिम तेज की।
टिहरी-गढ़वाल में ऋषिकेष-टिहरी मार्ग पर पहाड़ और पत्थरों के बीच हेंवल नदी बहती है। यह गंगा की सहायक नदी है। इस नदी के दोनों ऊपरी भाग पहाड़ी हैं और बीच में नीचे तराई मैदानी क्षेत्र है। ऊपरी भागों में बाहरनाजा की मिश्रित खेती होती हैं और नीचे तराई में धान और गेहूं की फसलें होती हैं। बारहनाजा पूरी तरह जैविक तौर-तरीके से होता है और इसमें पारंपरिक बीज बोए जाते हैं जबकि तराई में जो फसलें होती हैं उनमें संकर बीज भी इस्तेमाल किए जाते हैं।
बीज बचाओ आंदोलन 80 के दशक से तब शुरू हुआ जब यहां हरित क्रांति के उच्च पैदावार किस्में किसानों को मुफ्त बांटी जा रही थी। सरकारी व कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने हरित क्रांति की रासायनिक खेती का प्रचार-प्रसार किया। वे यहां की मिश्रित बारहनाजा फसलों के स्थान पर सोयाबीन पर जोर दे रहे थे। कहा जा रहा था सोयाबीन उगाओ और मालामाल बन जाओ।
गांव के लोगों ने जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया है और इसी से इसकी पहचान स्वावलंबी और आदर्श गांव के रूप में की जाती है। इस इलाके के प्रमुख अखबार में इस गांव की कहानी पहले पन्ने पर प्रकाशित हो चुकी है। बारहनाजा की मिश्रित फसलें, गांव में साफ-सफाई व पानी का प्रबंधन, जंगल की रखवाली और खेतों की जंगली जानवरों से सुरक्षा गांव वाले मिलकर करते हैं।परंपरागत बीज लुप्त होने और रासायनिक खेती के दुष्परिणाम के अहसास ने ही बीज बचाओ आंदोलन की शुरूआत हुई। इस आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी हैं, जिनके साथ मैं इस बैठक में गया था। वे बताते हैं कि गढ़वाल की एक कहावत है- खाज खाणु अर बीज धरणु। यानी खाने वाला अनाज खाओ पर बीज सुरक्षित रखो। इसी तरह हर बार बीज रखने और हर अगली फसल बोने के साथ पीढ़ियों से लोगों ने अपने बीज बचाकर रखे हैं। बीज बचाओ आंदोलन का उद्देश्य सिर्फ बीज बचाना नहीं है बल्कि जैव विविधता, खेती और पशुपालन आधारित जीवन पद्धति और संस्कृति बचाना है।
पिछले दिनों मैं विजय जड़धारी के साथ इस गांव में गया था। जड़धारी चिपको आंदोलन से जुड़े रहे हैं। अदवानी और सलेत के जंगल को बचाने के लिए चिपको आंदोलन सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं था। जंगल काटने आए ठेकेदार और उनके कर्मचारियों को अहिंसक रूप से सत्याग्रह कर लोगों ने जंगल से खदेड़ दिया था। जब वे पेड़ काटने के लिए कुल्हाड़ी लेकर आए तो लोग सचमुच पेड़ों से चिपक गए। और कहा पहले हम पर कुल्हाड़ी चलाओ और बाद में पेड़ पर। उस समय ये नारे घाटी में गूंज उठे- आज हिमालय जागेगा, क्रूर कुल्हाड़ा भागेगा, क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार, मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।
नागणी गांव से हम कुछ दूर गाड़ी से आए लेकिन कच्चे रास्ते में कीचड़ के कारण गाड़ी आगे नहीं जा पाएगी, देखने पर पता चला कि जंगल से जलस्रोत से निर्बाध पानी रिस-रिसकर पानी रास्ते में कीचड़ कर रहा है। मैं सीधे पेड़ों से पानी रिसते देखकर मुग्ध हो गया। इसके बाद हम दो-तीन किलोमीटर पहाड़ पैदल ही चढ़े। मेरे लिए इतने उंचे पहाड़ चढ़ने का पहला मौका था। विजय जड़धारी रास्ते में पेड़ों, लताओं, वनस्पतियों से परिचय कराते जा रहे थे।
इस गांव में 80 परिवार हैं और ये सभी अन्य गांवों की तरह जीविका के लिए खेती और पशुपालन पर आश्रित हैं। यहां के बाशिंदे भी भैंसें पालते हैं। पहले गायें भी पालते थे तब जंगल ज्यादा था। और उस समय बच्चों को पढ़ाने का चलन नहीं था, तब वे पशु चराने का काम करते थे लेकिन अब सब बच्चे पढ़ना चाहते हैं। यह अलहदा बात है कि स्कूल बिल्डिंग अच्छी होने के बावजूद पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है। सरकारी स्कूलों की हालत खराब है।
इस गांव के लोगों ने जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया है और इसी से इसकी पहचान स्वावलंबी और आदर्श गांव के रूप में की जाती है। इस इलाके के प्रमुख अखबार में इस गांव की कहानी पहले पन्ने पर प्रकाशित हो चुकी है। बारहनाजा की मिश्रित फसलें, गांव में साफ-सफाई व पानी का प्रबंधन, जंगल की रखवाली और खेतों की जंगली जानवरों से सुरक्षा गांव वाले मिलकर करते हैं।
ग्रामीणों ने अपना बांज का जंगल बचाया है और उसी जंगल के जलस्रोत से वर्ष भर ठंडा पानी मिलता है। जड़धारी बताते हैं कि बांज का पेड़ न सिर्फ चारा, पत्ती व खाद का काम करता है बल्कि मिट्टी बांधने एवं जलस्रोतों की रक्षा भी अन्य पेड़ों के मुकाबले ज्यादा करता है।
बीज बचाने के इस काम में महिलाओं की प्रमुख भूमिका है क्योंकि खेती का अधिकांश काम महिलाएं ही करती हैं। वे हल चलाने को छोड़कर खेती के हर काम करती हैं। फिर भी महिलाओं के काम की मान्यता नहीं है। बीज भंडारण, बुआई, निंदाई, गुड़ाई, व बीज संकलन आदि का महत्वपूर्ण कार्य महिलाएं ही करती हैं। पटुली की बैठक में शांति देवी, बिशनीदेवी, सोना देवी आदि कई महिलाएं आई थीं, इनमें से कई सीधे खेतों से आई थीं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है यहां की सामूहिकता और भाईचारे ने बीज, खेती, पशुपालन और जंगल बचाने का सराहनीय काम किया है जो यहां गांव में टिके रहने के लिए जरूरी है। इस काम को और फैलाने की जरूरत है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
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Post By: Shivendra