हे सलिले

हे सलिले !
कहाँ सवेग
बही जाती हो
रुको तनिक
क्षण भर तो सोचो
और कहाँ तक
प्रवाहित होंगी

हे तरंगिणी !
नव जीवन
सांसों में
स्पन्दन
पुण्य अमर
अक्षय फल
तुम से ही है

हे सद्नीरे !
क्यों हो विवश
विष वाहक बन
स्वयं घुटन ढो
पग पग पर
मौन उदास
छली जाती हो

हे सरिते !
तज अमृत रस
क्यों मानव के
पाप भार को
कभी चुपके
कभी गरज तरज
कर सहे जा रहीं

हे नदिया !
कोई भागीरथ
सुपथ बताने
काल गाल से
न अब लौटेगा
नूतन पथ लो
बढ़ती जाओ

हे दिव्ये !
पावन रस दो
अप बंधन तोड़ो
नव प्रभात में
नई दिशा ले
निर्मल धारा
अविकल हर्षाओ

हे कल्याणी !
तृषा तृप्ति का
परम ध्येय ले
छंद सरस सम
झंकृत लय से
वेद गान गा
बहती जाओ

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