हौज़ और झरने

आज की नई दिल्ली लिखने का कारण है जब ‘सीरी’ बसाया गया था तो उसे नया शहर का नाम दिया गया था। जब नई दिल्ली का दक्षिण की ओर फैलाव शुरू किया गया तो अब दक्षिणी दिल्ली कही जाने वाली पॉश कॉलोनियां बसती गई। आबादी बढ़ने के साथ यहां पानी की कमी का जो दौर शुरू हुआ, वह आज भी जारी है। सोनिया विहार जल शोधन संयंत्र बनने के बाद इसमें कुछ राहत तो मिली है, लेकिन पानी की कमी की समस्या खत्म नहीं हुई है। इसके बावजूद यह हौज़ पूरा भरता नहीं है। इसका इस्तेमाल बरसाती पानी के संरक्षण और ग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिए किया जा सकता है। दिल्ली में केवल बावड़ियां, बांध, कुंड और कुएँ ही नहीं हैं, जो कि परंपरागत जल संरक्षण के तौर-तरीकों की और आज भी हमारा ध्यान आकर्षित करने में ही सक्षम नहीं हैं। वे आज भी इस स्थिति में हैं कि राष्ट्रीय राजधानी में पीने के पानी की कमी को दूर करने में हमारी मदद कर सकते हैं। इनमें प्रमुख हैं हौज़़ और झरने। ये हौज़़ केवल जल संरक्षण के साधन नहीं थे, बल्कि ये हमारी संस्कृति और सभ्यता के विकास की ओर भी संकेत करते हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता में परंपरा से ही जल को महत्व दिया जाता रहा है। हम नदियों को मां कहकर उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। आज भी हमारे सभी प्रमुख तीर्थ नदियों के किनारों पर ही हैं। शाम को इन नदियों की आरती न केवल जल के प्रति हमारी श्रद्धा का प्रतीक है बल्कि हरिद्वार, बनारस, इलाहाबाद जैसे शहरों में तो आरतियों के समय घाट पर जैसे लघु भारत हो उतर आता है। भले ही उनकी भाषा कोई हो, खान-पान और पहनावा अलग हो, लेकिन आरती के समय भारत एक ही नजर आता है। दिल्ली में देश-विदेश से आए राजा-महाराजों और सुल्तानों द्वारा अलग-अलग समय पर बनवाए गए ये हौज़़ प्यासों को पानी पिलाने की हमारी परंपरा के प्रतीक हैं। ये हौज़ केवल इंसान के लिए ही नहीं थे, बल्कि पशुओं और पक्षियों तक के लिए पानी पीने की व्यवस्था करना हमारी परंपरा का अभिन्न अंग रहा है। विकास के दौर में ये परंपराएं अब शायद पीछे रह जाने लगी हैं। इसलिए भी इस ओर नजर डालना जरूरी हो गया है। दिल्ली के हौज़ न केवल जल संरक्षण के माध्यम रहे हैं, बल्कि वे गुज़रे कल की दिल्ली की दास्तान भी सुनाते लगते हैं। एक बार उनके किनारों पर बैठकर उनसे जुड़कर तो देखिए, वे कल, आज और कल भी आपकी मदद कर पाने की स्थिति में होंगे। इनकी कहानियां तो आपको गुज़रे कल से जोड़ेंगी ही, साथ ही आने वाले समय में पानी जैसी जरूरत की वस्तु के समाधान का रास्ता भी दिखाएंगी।

हौज़-ए-शम्शी


चौहानों की पराजय के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली की गद्दी संभाली तो उसने किला राय पिथौरा और लाल कोट में ही पना डेरा जमाया। इस वंश के शम्शुद्दीन इल्तुतमिश के शासन 1211-1236 ई. के दौरान महरौली के दक्षिणी हिस्से में एक हौज़ बनाया गया। इसे ‘हौज़-ऐ-शम्शी’ का नाम दिया गया। इल्तुतमिश का शम्शी परिवार का होने के कारण इस हौज़ को यह नाम मिला। उस समय के इतिहासकारों के अनुसार इल्तुतमिश के माता-पिता मध्य एशिया के इबारी कबीले के शम्शी परिवार के थे। इल्तुतमिश दिल्ली को गद्दी पर बैठने वाला पहला तुर्की सुल्तान था। इल्तुतमिश के साथ दिल्ली में एक नए वंश के शासन की शुरुआत हुई। इतिहास की किताबों में इसे ‘गुलाम वंश’ के शासन के नाम से जाना जाता है। दिल्ली की गद्दी संभालने के पहले इल्तुतमिश मुहम्मद गोरी का गुलाम था। शम्शी तालाब के बनाए जाने के बारे में एक रोचक कहानी बताई जाती है। यह कहानी कुछ इस प्रकार है- उस समय की दिल्ली की पानी की कमी की समस्या से निपटने के लिए इल्तुतमिश एक तालाब बनवाने पर विचार कर रहा था। वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि यह तालाब कहां पर बनाया जाए। एक रात उसे सपने में हजरत मोहम्मद दिखाई दिए। उन्होंने एक खास जगह की ओर इशारा करके उसे वहां पर हौज़ बनवाने को कहा। सुबह उठने पर इल्तुतमिश बताई गई जगह पर गया। उसे वहां पर घोड़े के हूफ यानी खुर का निशान दिखाई दिया। इल्तुतमश ने जहां पर यह निशान दिखाई दिया था, वहां पर एक छतरी बनवाई तथा उसके चारों ओर इस हौज़ का निर्माण करवाया। यह कहानी कितनी ठीक है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह हौज़ आज भी है।

इब्नबतूता और शम्शी का तालाब


इस प्रकार रेनवाटर हार्वेस्टिंग करके अब से करीब 900 पहले तब की दिल्ली वालों के लिए पानी की व्यवस्था किए जाने का एक बड़ा प्रमाण आज भी देखा जा सकता है। हौज़ में पानी कभी हो होता है और वह कितना साफ रहता है, इसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। हां, सन् 1324 और 1354 के बीच अफ्रीका से चीन की करीब 75 हजार मील का यात्रा करने वाले बहुचर्चित यात्री इब्नबतूता ने अपनी दिल्ली-यात्रा के विवरण में ‘हौज़-ए-शम्शी’ का उल्लेख किया है। इब्नबतूता ने लिखा है कि हौज़ इतना बड़ा था उसके आकार ने ही मुझे बहुत प्रभावित किया। इस हौज़ के बीच में एक दुमंजिला इमारत थी। उस इमारत में आने जाने के लिए नाव इस्तेमाल किया जाता था। संभवतः यह वही इमारत रही होगी, जिसे इल्तुतमिश ने बनवाया था। अब इस इमारत के आस-पास बड़े पैमाने पर अनधिकृत निर्माण किए जा चुके हैं। यह हौज़ अब अपनी पहचान खोता जा रहा है। दिल्ली सरकार और उसकी एजेंसियों के बीच इस बात पर विवाद चल रहा है कि इन अवैध निर्माणों को रोकने और हटाने की ज़िम्मेदारी किसकी है। इससे करीब 2000 वर्गमीटर में फैले रेन वाटर हार्वेस्टिंग के इस अनोखे तरीके के ऐतिहासिक हौज़ के हमेशा के लिए खो जाने की स्थिति उत्पन्न हो गई है। हां, मानसून की बारिश के बाद यह अभी भी एक हौज़ लगता है।

हौज़ खास


सन् 1300 के आस-पास खिलजी शासकों ने ‘सीरी’ के नाम से एक नया शहर बसाया। सही मामलों में यह पहला मौका था, जबकि शहर को अरावली की पहाड़ियों से हटाकर समतल इलाके में लाने का प्रयास किया गया। इसका एक कारण उस समय के पुराने शहर में आबादी के बढ़ते जाने के कारण पानी की कमी रही। ‘सीरी’ बसाए जाते समय जिस ज़मीन का चुनाव किया गया था, उसके आस-पास पानी के अनेक स्रोत थे। इसमें से कुछ तो पानी की धाराएं थीं, जो इस शहर से होकर यमुना की ओर बहा करती थीं। इस शहर के बसाए जाते समय बनाया गया हौज़ खास आज भी रेनवाटर हार्वेस्टिंग करने के काम में लाए जा सकने की स्थिति में है। इस पर कुछ काम भी किया गया है। रख-रखाव के अभाव में उसकी पूरी क्षमता के एक हिस्से का भी वास्तविक इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। इस हौज़ का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल के दौरान सन् 1296-1316 के बीच किया गया था। अलाउद्दीन के शासन के बाद यह हौज़ सूख गया था। फिरोजशाह तुगलक के शासन काल 1351-1388 के दौरान इसको फिर से साफ और मरम्मत करके इस्तेमाल के लायक बनाया गया। फिरोजशाह तुगलक के कार्यकाल में अनेक स्थानों पर बरसाती पानी के बहाव को बांध बनाकर रोकने की व्यवस्था की गई। इसके बाद के 700 सालों में जल संरक्षण के इस परंपरागत स्रोत हौज़ खास की ओर किसी की खास नजर नहीं पड़ी। रख-रखाव के अभाव में यह अपना महत्व खोता गया। आज की नई दिल्ली बसने के बाद दिल्ली का दक्षिण की ओर फिर एक बार प्रसार शुरू हुआ।

जब सीरी नई दिल्ली था


आज की नई दिल्ली लिखने का कारण है जब ‘सीरी’ बसाया गया था तो उसे नया शहर का नाम दिया गया था। जब नई दिल्ली का दक्षिण की ओर फैलाव शुरू किया गया तो अब दक्षिणी दिल्ली कही जाने वाली पॉश कॉलोनियां बसती गई। आबादी बढ़ने के साथ यहां पानी की कमी का जो दौर शुरू हुआ, वह आज भी जारी है। सोनिया विहार जल शोधन संयंत्र बनने के बाद इसमें कुछ राहत तो मिली है, लेकिन पानी की कमी की समस्या खत्म नहीं हुई है। इसके बावजूद यह हौज़ पूरा भरता नहीं है। इसका इस्तेमाल बरसाती पानी के संरक्षण और ग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिए किया जा सकता है। इसे एक प्रमुख पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। इस हौज़ के साथ अपने समय में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटीज में से एक माने जाने वाले मदरसे के अवशेष आज भी दिखाई देते हैं। हौज़ खास को अब पानी की बजाय एक रिहायशी बस्ती और एथनिक शॉपिंग डेस्टिनेसन के रूप में जाना जाता है। यह शॉपिंग डेस्टिनेशन घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों में बेहद लोकप्रिय हो चुका है तो इसे हौज़ के साथ भला क्यों नहीं जोड़ा जा सकता।

हौज़ काजी


शाहजहां द्वारा बसाई गई दिल्ली में एक इलाके को ‘हौज़ काजी’ के नाम से जाना जाता है। आज के भीड़-भाड़ वाले इस इलाके में कभी रहा काजी का हौज़ यहां के निवासियों की पानी की जरूरतें पूरी करता रहा। अब कहां खो गया, इसका पता लगा पाना एक अच्छा प्रयास होगा लेकिन अब इसकी ज्यादा संभावनाएं नहीं रह गई हैं। इसी प्रकार सुईवालान मुहल्ले में सुईवालों का हौज़ और उसके पास ही हौज़वाली मस्जिद होने का उल्लेख मिलता है। यह हौज़ कहां गया, पता नहीं। इस मुहल्ले के पास नवाब आजम खान द्वारा बारादरी और हौज़ बनाए जाने की भी चर्चा मिलती है। इस हौज़ को ‘नवाब आजम खान हौज़’ के नाम से पुकारा जाता है। अब इस हौज़ का भी पता नहीं चलता। मेट्रो रेल की केंद्रीय सचिवालय-दिल्ली विश्वविद्यालय अंडरग्राउंड लाइन बनाए जाते समय पानी के इन परंपरागत स्रोतों का पता लगाए जाने की संभावना पर विचार किया जा सकता था। वह मौका अब हाथ से निकल चुका है। अब सांप निकल जाने के बाद लाठी पटकने का क्या फायदा। इस गलती को सुधारा जा सकता है। इस समय मेट्रो रेल दक्षिणी दिल्ली के उन हिस्सों में काम कर रही है, जहां कभी दिल्ली के तीन ऐतिहासिक शहर बसाए गए थे।

इन शहरों में पानी के अनेक परंपरागत स्रोत काम कर रहे थे, जिनका कि इतिहासकारों ने हवाला दिया है। मेट्रो रेल के फेज 3 में भी बड़ा हिस्सा भूमिगत होगा। इस निर्माण के दौरान जल संरक्षण संवर्धन को प्राथमिकता दिए जाने की संभावननाएं तलाशी जानी चाहिए। एनवायरमेंट इम्पैक्ट एसेसमेंट तो होता है, लेकिन एक पेड़ के बदले इस पेड़ लगाने के लिए दूसरी एजेंसियों का भुगतान ही केवल कॉरपोटसोशल रिसपांस्बलिटी नहीं मानी जा सकती। इसलिए यह एक अवसर है, जब हम अपने अतीत पर आधुनिक तकनीक के जरिए एक और नजर डाल सकते हैं। क्या हम इस अवसर का उपयोग कर पाएंगे? शहर की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास योजनाओं को समयबद्ध तरीके से लागू किया जाना आवश्यक है। लेकिन इसके साथ ही अतीत और उसमें से जो आज भी सामयिक और उपयोगी हो, उसके संरक्षण के पहलुओं पर एक नजर डाल लेना भी अनावश्यक नहीं कहा जा सकता।

लाल डिग्गी


अंग्रेजी राज के दौरान लाल किले के सामने क हौज़ बनाया गया था। यह वह समय था, जबकि मुगल बादशाह के नाम पर दिल्ली पर अंग्रेजों का शासन चलता था। उस समय के दिल्ली के लोग इसे ‘लाल डिग्गी’ के नाम से पुकारते थे। तालाब और हौज़ को ‘डिग्गी’ कहे जाने की परंपरा हरियाणा और राजस्थान में आज भी कई बार सुनाई पड़ जाती है। यह हौज़ कितना बड़ा रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके पानी का इस्तेमाल हाथियों को नहलाने और पानी पिलाने के लिए किया जाता था। यह तालाब वर्ष 1846 के आस-पास बनवाया गया था। इस तालाब का निर्माण एक अंग्रेज अधिकारी सर एलेनबरो ने कराया था। सरकारी दस्तावेज़ इस तालाब को ‘एलेनबरो टैंक’ के नाम से जानते हैं। यह तालाब 500 फीट लंबा और 150 पीट चौड़ा था। इसे लाल किले को बनाने के लिए इस्तेमाल किए गए पत्थरों की तर्ज पर लाल पत्थरों से बनाया गया था। इस तालाब में पानी चांदनी चौक से होकर गुजरने वाली नहर से लाया जाता था। इस तालाब के चारों कोनों पर पत्थर के खंभे बने हुए थे। इस तालाब में पानी तक पहुंचने के लिए दो किनारों पर सीढ़ियां बनाई गई थीं। यह तालाब लाल किले के लाहौरी गेट के दक्षिण में और दिल्ली गेट के बीच बनाया गया था।

एलेनबरों टैंक को रिवाइव किया जा सकता है


दिल्ली के शहरों के इतिहास के बारे में जानकारी देने वाली पुस्तक ‘द सेवेन सिटीज आफ डेल्ही’ में गार्डन रिजले हर्न ने इस तालाब का उल्लेख किया है। सन् 1857 में हुए भारत की आज़ादी के पहले संग्राम के बाद जब अंग्रेजों ने फिर से दिल्ली पर कब्ज़ा किया। इस बार वे नाममात्र के नहीं बल्कि असली शासक और विजेता बनकर आए थे। क्रांति क दौरान दिल्ली से निकाल बाहर किए जाने से क्षुब्ध अंग्रेज जब वापस आए तो उन्होंने दिल्लीवालों को उनके अपने ही शहर से निकालकर बाहर कर दिया था। वे महीनों तक पुराने शहरों के खंडहरों और जंगलों में छिपकर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिए गए थे। बदले की भावना से काम कर रहे अंग्रेजी शासकों ने लाल किले के आस-पास बने महलों व हवेलियों को ढहा दिया गया। इस अभियान के बाद धीरे-धीरे मिट्टी आदि भर जाने के कारण एलेनबरों द्वारा बनाया गया यह तालाब बंद हो गया। चांदनी चौक की नहर पाट दिए जाने के कारण इस तालाब को नहर से मिलने वाला पानी भी नहीं मिल सका। धीरे-धीरे यह ‘लाल डिग्गी’ समाप्त कर दी गई। ‘एलेनबरो टैंक’ को रिवाइव किया जाए तो इस वर्ल्ड हैरिटेज साइट की खूबसूरती में चार चांद लग सकते हैं। शाहजहां के किले और शहर के उस समय के नियोजकों ने इसे हरा-भरा और ठंडा बनाए रखने के लिए जिस प्रकार से पानी का इस्तेमाल किया था, उसका उदाहरण दुनिया के बहुत कम शहरों और महलों में देखने को मिलता है।

हैरिटेज संरक्षण के लिए सरकारी कंपनी


अब पुराने शहर को हैरिटेज सिटी और इसके पुरानी शान-शौकत को बहाल करने के लिए चर्चा की जा रही है। इस काम के लिए एक अलग कॉरपोरेशन बनाया गया है। इस कॉरपोरेशन में सरकारी अधिकारियों की भरमार है। इनमें से अनेक तो ऐसे हैं, जिन्होंने दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था में लंबी पारियां खेली हैं और उनके कार्यकाल के दौरान हैरिटेज का बहुत सा हिस्सा दिल्ली से हमेशा के लिए समाप्त हो गया। अब यह कॉरपोरेशन पुराने शहर के विकास की अनेक योजनाएं बना रहा है। ये योजनाएं कब बनेंगी और कब लागू होंगी, यह तो अभी बता पाना मुश्किल है; लेकिन आशा की जानी चाहिए कि इन योजनाओं में पानी के इस्तेमाल को महत्व दिए जाने की नितांत आवश्यकता होगी। नहरों और फव्वारों के बिना शाहजहांनाबाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस शहर के बसने के कुछ समय बाद आए पर्यटकों ने अपनी रिपोर्टों में इस शहर के हरा-भरा और खुश्बू से गमकता हुआ होने के रोचक ब्योरे दिए हैं। इसे ‘खुश्बू और फाख्ताओं का शहर’ कहा जाता था। सन् 1909 में दिल्ली पर लिखी अपनी पुस्तक ‘वाइस ऑफ ओरिएंट’ में श्रीमती वाल्टर टिब्बटिस ने लिखा है कि गर्मियों में पुराने शहर में नीम ओलिएंडर और दूसरे पेड़ों से तथा फूलों से ऐसी खुश्बू आती थी कि लगता था कि सारा इलाक़ा ही एक परफ्यूम शॉप है। दुनिया के किसी शहर में मैंने ऐसा महसूस नहीं किया जहां कि शहर का माहौल ऐसा हो कि वह परफ्यूम की दुकान की तरह महकता हो। इस शहर में हजारों परिंदे इस तरह से चहकते और खुशी से उड़ान भरते दिखे, जैसे कि उन्हें दुनिया की हर खुशी मिली हो! आज की दिल्ली के बादशाहों ने इस शहर को स्लम करार दे दिया है। अब आशा की जानी चाहिए कि आज के निर्माता गुज़रे कल के निर्माताओं से कुछ सीखेंगे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर शहर छोड़ने की कोशिश करेंगे।

महरौली का झरना


मध्य एशिया से सैकड़ों मील की दूरी तय करके लड़ते-झगड़ते दिल्ली पहुंचने और उस पर कब्ज़ा करने वालों ने संभवतः शुरू में अपनी पानी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए यहां पहले से उपलब्ध तौर-तरीकों को आज़माना बेहतर समझा होगा। इसलिए उन्होंने पहले तालाब बनवाने का फैसला किया। उस हौज़ का नाम ‘हौज़ शम्शी’ रखा। उसका निर्माण 1230 के आस-पास किया गया माना जाता है। इस हौज़ के पानी को तब खासा पवित्र माना जाता था। इस हौज़ के चारों ओर अनेक प्रमुख संतों की दरगाहें थीं। उनमें से कुछ तो आज भी उतनी ही पवित्र और लोकप्रिय मानी जाती हैं। अमीर खुसरो ने ‘तारीख – ए - अलाई’ में लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल के दौरान इस हौज़ की सफाई और मरम्मत की गई थी। अलाउद्दीन खिलजी ने अब से करीब 700 साल पहले दिल्ली पर शासन किया था। उस समय में भी इस हौज़ का पानी अक्सर सूख जाया करता था, इसलिए इसमें फिर से पानी भरे जाने की व्यवस्था की गई थी। आज भी ‘फूल वालों की सैर’ के नाम से विख्यात दिल्ली के सबसे पुराने मेलों में से एक ‘सैर ए गुलफिरोशां’ की शुरुआत इसी हौज़ के पास ही होती है। इस मेले की शुरुआत तालाब के उस हिस्से के पास से होती है, जहां शम्शी तालाब का पानी एक झरने के रूप में नीचे गिरा करता था। इस स्थान को अब भी झरने के नाम से ही पहचाना जाता है। पानी नहीं होने के कारण ‘झरने’ का अब तो केवल नाम ही रह गया है। यह मेला सांप्रदायिक एकता और सद्भाव का प्रतीक है। इस मेले के दौरान बख्तियार काकी की दरगाह और योगमाया के मंदिर में फलों के पंखे चढ़ाए जाने की परंपरा है। मेले के दौरान दिल्ली के उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री को उनके निवास पर पंखे भेंट किए जाने की परंपरा है। इस मेले तथा पानी और उसके संरक्षण के बीच के संबंध को हमने भुला दिया है। यह मेला सिर्फ रस्म-अदायगी और गीत-संगीत तक सीमित रह गया है। इसे बदला जा सकता है और बदला जाना चाहिए। यह दिल्ली की गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक है और दिल्ली की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है। इसे मेले को बड़े पैमाने पर प्रचारित-प्रसारित करके और उसके साथ ही जल संरक्षण के इन परंपरागत संसाधनों का पुनर्विकास करके दिल्ली का एक और रूप देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है।

दिल्ली के शहर पहाड़ियों से हटकर यमुना के किनारे फिर पहाड़ियों पर


इन हौज़ों और तालाबों के बीच बावड़ी बनाने का सिलसिला कब और कैसे शुरू हुआ, इसके बारे में अब कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल पाते हैं। तालाब से बावड़ी बनाने के बीच के रास्ते का पता लगाना एक रोचक अध्ययन हो सकता है। इस पर काम किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि इससे हमारे शहर में पानी के संरक्षण और इस्तेमाल के तरीके में एक बड़े अंतर के आने का पता लग सकता है। ऐसा क्यों हुआ। क्योंकि हौज़ और तालाब जैसे हमेशा खुले रहने वाले जल स्रोतों की जगह पानी को बंद और संरक्षित रखने का तरीका अपनाया जाने लगा। क्या उस दौरान पानी की कमी शुरू हो गई थी। इसके दौरान ही दिल्ली के दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ था। उसका दिल्ली के वातावरण पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा था। ऐसा क्यों हुआ था? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब मिलने चाहिए। लाल कोट और किला राय पिथौरा के बाद सीरी, तुगलकाबाद और आदिलाबाद तथा फिर फिरोजाबाद व शाहजहांबाद यमुना के किनारे की ओर बसाए जाने लगे थे। सीरी, फिरोजाबाद, शाहजहांनाबाद के शहर यमुना के बिल्कुल किनारे पर बसाए गए। आदिलाबाद का किला तो इस तरह से बनाया गया कि वह तो पानी के बीच बना हुआ दिखाई देता था। तुगलकाबाद और आदिलाबाद के किलों के बीच आने-जाने के लिए पानी पर बने पुल से होकर जाना होता था। ‘हौज़े-ए-शम्शी’ से इन किलों तक पानी लाने के लिए नहर बनाई गई थी। इन दोनों किलों के अवशेष आज भी दिखाई देते हैं। उन तक पानी पहुंचाने के लिए बनाई गई नहर अब महरौली- बदरपुर रोड हो गई है। इन शहरों के दक्षिण से उत्तर की ओर पहाड़ियों से दूर और नदी के किनारे बसाए जाने में यमुना के पानी की कितनी भूमिका रही, उसपर गहराई से नजर डालने की जरूरत है। अब जबकि शहर को पहाड़ी इलाकों में विकसित किए जाने की तैयारी है तो देखना यह होगा कि उसके लिए पानी की आवश्यकता कहां से और कैसे पूरी की जाएगी?

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