हादसों के पहाड़


केदारनाथउत्तराखण्ड के केदारनाथ में 16-17 जून, 2013 की रात्रि को हुई तबाही को तीन साल से ज्यादा अरसा बीत गया है। इस बीच उत्तराखण्ड सरकार महत्त्वपूर्ण चारधाम यात्रा को सड़कों और भवनों आदि के पुनर्निर्माण कार्य सम्पन्न करवाते हुए शुरू करवा चुकी है। जैसे-तैसे यह यात्रा तो अब जारी है, पर इस बीच बादल फटने की अनेक घटनाओं ने सवाल पैदा किया है कि कहीं एक बार फिर केदारनाथ जैसी कोई त्रासदी तो नहीं आ जाएगी। उत्तराखण्ड जैसे पहाड़ी इलाकों में बादल फटना और भूस्खलन होना नया नहीं है, पर ये घटनाएँ कोई बड़ी विपदा ले आएं तो सवाल खड़ा होता है कि क्या वहाँ ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के इंतजाम पूरे हैं? क्या श्रद्धालुओं समेत वहाँ निवास करने वाली स्थानीय आबादी की जान भी इन प्रबन्धों की बदौलत महफूज है।

पिछले दो महीनों के दौरान इस पहाड़ी राज्य के कुमाऊं और गढ़वाल इलाकों में बादल फटने की कई घटनाएँ हुईं। पहले टिहरी जिले की घनसाली तहसील के चार गाँवों में बादल फटा तो मलबे में दबकर करीब आधा दर्जन लोगों और सौ से ज्यादा पशुओं-मवेशियों की जान चली गई। इस जिले के कौसरगढ़, चमियाला, केमर और गनगढ़ जैसे कई गाँवों में बादल फटने से सौ से ज्यादा घरों के नष्ट होने के समाचार मिले। उत्तरकाशी के अलावा कुमाऊं के पिथौरागढ़ के बालगंगा इलाके में भी बादल फटने से भारी नुकसान हुआ। अब चमोली और एक बार फिर पिथौरागढ़ में बादल फटने, भूस्खलन और मलबे में दबने से 16 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। इस बीच कई अहम सड़कों को भी कई बार बन्द किया गया है। ताजा जानकारी यह है कि इस प्रदेश के 284 मार्गों में से 174 मार्ग अभी बन्द हैं, जिससे यात्रा में विघ्न पड़ा है और यात्रियों को भारी परेशानी हो रही है। समस्या यह है कि आज भी ऐसी घटनाओं के आगे स्थानीय प्रशासन बेबस ही नजर आ रहा है।

इसी बेबसी का आलम है कि प्रशासन भारी बारिश की चेतावनियों के मद्देनजर तीर्थयात्रियों और स्थानीय लोगों को सतर्क रहने नदी व ऊँचाई वाले स्थानों से दूर रहने के निर्देश बार-बार जारी कर रहा है। ऐसा लगता है कि मौसम के आगे सरकार और प्रशासन अभी भी लाचार है। इससे केदारनाथ जैसी त्रासदी के दोबारा घटित होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह आशंका निराधार नहीं कही जा सकती कि मौसम के बदलते रुख से वहाँ किए गए इंतजाम कब बौने पड़ जाएँ और कब कोई विनाश रच जाए। इस मौके पर दो अहम सवाल पैदा होते हैं। एक, क्या अब भी चारधाम यात्रा को लेकर प्रबन्ध इतने पुख्ता नहीं हैं जो हर मौसम में तीर्थयात्रियों व स्थानीय नागरिकों की जानमाल की हिफाजत का दावा किया जा सके। और क्या बादलों के फटने और भूस्खलन आदि की सूचना समय रहते नहीं मिल सकती है जिससे कि यात्रियों व स्थानीय नागरिकों की जान बचाई जा सके?

जहाँ तक पुनर्निर्माण और यात्रा के प्रबन्धों की बात है, तो उत्तराखण्ड सरकार ने इसका दावा बार-बार किया है कि इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर यात्रियों की सहूलियत का हर इंतजाम चारधाम यात्रा परिपथ में कर लिया गया है। मौसम से जुड़े अलर्ट जारी करने की एक व्यवस्था भी वहाँ बनाई गई है, ताकि कोई सूचना मिलने पर यात्रा को बीच में रोका या रवाना किया जा सके। पर इन इंतजामों और सरकार के दावों के बावजूद हाल में बादल फटने के कारण हुए नुकसान की घटनाओं को देखकर लगता है कि जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं को समझकर और उनका निदान किए बगैर ऐसे प्रबन्ध किए जा रहे हैं, जो कुदरत के गुस्से के आगे किसी काम के नहीं ठहरते हैं।

सुप्रीम कोर्ट की ओर से पर्यावरण से जुड़े दो एनजीओ की अगुवाई में गठित कमेटी ने वर्ष 2014 में अपनी जो रिपोर्ट दी थी, उसमें यह सिफारिश की गई थी कि उत्तराखण्ड में नए बनाए जा रहे 24 में से 23 हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों को बंद कर दिया जाए क्योंकि इनसे इस राज्य की प्राकृतिक और भौगोलिक संरचना प्रभावित हो रही है। इन्हीं वजहों से वहाँ भविष्य में भी किसी बड़ी अनहोनी की आशंका पैदा हो सकती है।

ध्यान रहे कि भौगोलिक नजरिये से उत्तराखण्ड देश के एक बेहद नाजुक इलाका है। इसके पहाड़ उतने मजबूत नहीं हैं कि बादल फटने, ग्लेशियर के पिघलने और सामान्य भूकम्प को सह सकें और यहाँ का इंफ्रास्ट्रक्चर ऐसी घटनाओं से बेअसर रह सके। समस्या यह है कि इन बातों को जानते-बूझते हुए भी पूरे उत्तराखण्ड में विकास के नाम पर अंधाधुंध ढंग से सड़कें, होटल और बाँध तक बनाए गए और किसी ने उफ तक नहीं की। इन्हीं वजहों से केदारनाथ जैसी त्रासदी हुई थी। उल्लेखनीय है कि केदारनाथ की घटना के लिये भी बादल फटने और ग्लेशियर पिघलने की घटना को जिम्मेदार माना गया था। अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा ने 25 मई, 2013 को अपने उपग्रह-लैंडसेट- से प्राप्त चित्रों के आधार पर दावा किया था कि केदारनाथ घाटी के ऊपर मौजूद चूराबारी और कम्पेनियन हिमनदों (ग्लेशियरों) की कच्ची बर्फ सामान्य से अधिक मात्रा में पानी बनकर रिसने लगी थी। यह घटना केदार घाटी में प्रलय लाने का मुख्य कारण बनी, लेकिन भारतीय वैज्ञानिक यह भांपने में नाकाम रहे कि तेजी से पिघल रहे हिमनदों और बादलों के फटने से इतनी भीषण तबाही आ सकती है।

इस साल उत्तराखण्ड में पिछले वर्षों के मुकाबले बादल फटने की कहीं ज्यादा घटनाएँ हो चुकी हैं। मौसम विज्ञानी कह रहे हैं कि इस साल सर्दियों से लेकर वसन्त तक उत्तराखण्ड में बारिश और बर्फबारी नहीं के बराबर हुई, जिसका नतीजा यह निकला कि इलाके में नमी की कमी हो गई। इस वजह से बने वायुमंडलीय दबाव ने अब अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। इसी के कारण कहीं भारी बारिश हो रही है, तो कहीं तेज आँधी के साथ बादल फटने की घटनाएँ हो रही हैं।

बादल फटना भी असल में एक स्थान पर अचानक भारी मात्रा में वर्षा होना ही है, जिसके पीछे जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार माना जा रहा है। यह बदलाव इस इलाके में वायुमंडलीय दबाव के कारक के रूप में काम कर रहा है, जिसकी वजह से निचले और मध्य हिमालयी क्षेत्रों में बादल फंस गए हैं। दावा किया गया है कि हाल में पिथौरागढ़, टिहरी और चमोली आदि जिलों के जिन इलाकों में बादल फटे हैं, वे हिमालय के ऐसे ही क्षेत्रों में आते हैं। हिमालय के ऊँचाई वाले इलाकों में सीधी बारिश पड़ने से ग्लेशियरों के गलने की रफ्तार बढ़ रही है। इससे पहाड़ों का मलबा निचले इलाकों की ओर तेजी से बह रहा है, जिससे भूस्खलन का खतरा भी बढ़ गया है और नदियों में बाढ़ आ रही है। प्रश्न यह है कि जलवायु परिवर्तन का यह संकट उत्तराखण्ड में क्यों पैदा हुआ है?

इन समस्याओं के पीछे इस पर्वतीय राज्य में किया गया अनियंत्रित और अनियोजित विकास जड़ के रूप में नजर आता है। ऐसे तथ्यों की तरफ केदारनाथ त्रासदी के बाद गठित एक कमेटी ने भी इशारा किया था। सुप्रीम कोर्ट की ओर से पर्यावरण से जुड़े दो एनजीओ की अगुवाई में गठित कमेटी ने वर्ष 2014 में अपनी जो रिपोर्ट दी थी, उसमें यह सिफारिश की गई थी कि उत्तराखण्ड में नए बनाए जा रहे 24 में से 23 हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों को बंद कर दिया जाए क्योंकि इनसे इस राज्य की प्राकृतिक और भौगोलिक संरचना प्रभावित हो रही है। इन्हीं वजहों से वहाँ भविष्य में भी किसी बड़ी अनहोनी की आशंका पैदा हो सकती है।

उत्तराखण्ड में प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने वाला विकास नहीं किया गया, तो प्रकृति के कहर को आसानी से थामा नहीं जा सकेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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