गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया-भाग 2

चौका
चौका

गोचरः सम्पूर्ण का एक अंश

आज जब गोचर की तरफ फिर से ध्यान जा रहा है, तब इस बात की भी याद दिलाना चाहिए कि हमारे ग्रामीण समाज ने अपने पशुओं की देखरेख के लिए एक सुविचारित ढांचा खड़ा किया था। गोचर उसका एक हिस्सा था।लापोड़िया का ही इतिहास देखें तो पता चलता है कि यहां लगभग 320 बीघे में गोचर के अलावा इसी से मिलते जुलते काम के लिए एक छोटा बीड़, एक बड़ा बीड़ और चौइली नामक स्थान सुरक्षित रखा गया था। गोचर में गाय और अन्य छोटे पशु चरने के लिए भेजे जाते थे। वहां के चारे का आकार प्रकार और गुण ऐसे ही पशुओं के शरीर की काठी और उनकी भूमिका के हिसाब से तय किये जाते थे। लेकिन बीड़ में ज्यादा बड़ा और पौष्टिक चारा होता था और इन सब स्थानों का वर्ष भर का ऋतु चक्र या कैलेंडर बना रहता था।

बरसात होते ही पूरे गांव के बैल चौइली में भेजे जाते थे। यहां प्राकृतिक चारा उपलब्ध होता था। पचास बीघे की इस चौइली में किसी एक परिवार के नहीं, जमींदार या ठिकानेदार परिवार के नहीं बल्कि गांव के सभी परिवारों के बैल छोड़े जाते थे। बरसात में उठा यह चारा दीपावली तक थोड़ा कमजोर हो जाता था। उसके बाद चौइलो के बैल बीड़ में भेजे जाते और बैलों से खाली हुई चौइली में अब गाय और बकरी की बारी आती। चौइलो में चराई पूरी तरह से निःशुल्क थी, लेकिन बीड़ में प्रतीक रूप में, नाम मात्र का शुल्क लिया जाता था और यह राज में जमा होता था। इस तरह जमा की गयी यह राशि इन्हीं स्थानों की देखरेख के मद में खर्च की जाती थी। होली के बाद गरमी का मौसम आने लगता और तब इन इलाकों से चारा काटकर कटी हुई जगह में भी पशुओं को रखा जाता था। इस दौरान लोग अपने-अपने खेतों में भी कुछ चारा लगाकर रखते थे। उस भंडार का उपयोग होता। फिर जुलाई से दीपावली तक गायें गोचर में आ जातीं।

इस पूरी व्यवस्था में हर स्थान को पूरा आराम देने का विशेष ख्याल रखा जाता था। समय का बंटवारा इस तरह से किया जाता कि खुली चराई से पहले उस स्थान विशेष में लगी घास या चारा ठीक से पनप जाये, उसमें फूल और फल यानि बीज़ आ जायें, नये बीज फिर से गिर जायें जड़ें जम जायें ताकि आज उसके उपयोग के बाद कल उसकी दूसरी फसल अपने आप आ जाये। इन सभी स्थानों में ऋतु चक्र के अनुसार अलग-अलग प्रजाति की घास और चारा सुरक्षित रखा जाता था। गरमी की दोब गरमी में ही फैलती है। लेकिन बरसात में यह नहीं फूटती। सावां घाम नामक चारा बरसात के अच्छे पानी में भी खड़ा रहेगा।

स्वामी भी,सेवक भी 

गांव की परंपरा में निजी सम्पत्ति और सार्वजनिक सम्पत्ति का बहुत बारीक विभाजन किया गया था। सार्वजनिक सम्पत्ति के लिए गांव में चलने वाला शब्द 'शामलात देह' है यह फारसी शब्द शामिल और देहात से मिलकर बना है। अर्थ स्पष्ट है जिसमें पूरा गांव शामिल हो, जिसका स्वामी पूरा गांव हो। शाब्दिक अर्थ के अलावा इसमें यह भावना भी छिपी रहती थी कि इसमें सारा गांव स्वामी तो है ही, लेकिन इसकी रखवाली सारा गांव सेवक की तरह करेगा।स्वामी और सेवक की भूमिका में किसी तरह की चूक न हो, इसलिए बहुत व्यवस्थित नियम बनाए गये थे। लेकिन इन नियमों पर पहरा देती थी श्रद्धा दण्ड का भी विधान जरूर था। लेकिन शामलात देह की रखवाली श्रद्धा पर टिकी थी। इसका बहुत सुन्दर उदाहरण है कुराड नामक गांव।

कुराड गांव में आज भी पुरानी परंपरा के हिसाब से एक बड़े गोचर की रखवाली हो रही है। इसमें न खाई है, न कटीले तार हैं और न किसी विभाग के चौकीदार। लेकिन लम्बे-चौड़े गोचर में एक भी पत्ती, एक भी टहनी की चोरी नहीं होती। समय-समय पर गोचर और ओरण की सीमा पर 'कार' लगाई जाती है। 'कार' मंत्रों और पूजा से पवित्र किये गये दूध, गोमूत्र और गंगाजल का मिश्रण होता है। इसे एक ऐसे धातु के पात्र में, घड़े में डाला जाता है जिसमें नीचे एक छोटा-सा छेद होता है। पात्र का मुंह दो तरफ झूलने वाली रस्सी से बांध कर दो लोग इसे उठाते हैं और तेजी से चलते हैं। इस तरह गोचर की पूरी सीमा पर 'कार' से रेखा खींची जाती है। पीछे पूरा गांव चलता है। मिट्टी में गिरने वाली दूध और गंगाजल की यह बारीक रेखा कुछ ही क्षणों बाद सूख जाती है लेकिन पूरे गांव के मन पर यह अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है। 'कार' लगने के बाद सब लोग जमीन से मिट चुकी लेकिन मन में खिंच गई उस अमिट रेखा का पालन करते हैं। कुराड में आज सूखा और गिरा पड़ा पेड़ भी कोई बाहर नहीं लाता, पेड़ काटने की तो बात ही छोड़िए लेकिन कुराड जैसे उदाहरण आसपास के अन्य गांव में अब नहीं दिखते। एक समय रहा होगा, जब इस तरह के काम कई गांव में रहे होंगे। शायद सभी गांवों में।

कोई भी अच्छा काम सूख चुके समाज में आशा की थोड़ी नमी बिखेरता है और फिर नई जड़ें जमती हैं, नई कोपलें फूटती हैं। ग्राम विकास नवयुवक मंडल लापोड़िया के प्रयासों से गोचर को सुधारने का यह काम अब धीरे-धीरे आसपास के गांवों में भी फैल चला है। गागरडू, डोरिया, सीतापुर, नगर, सहल सागर, महत्त गांव, गणेशपुरा आदि अनेक गांवों में आज चौका पद्धति से गोचर को सुधारने का काम बढ़ रहा है। सब जगह ऐसे काम की जरूरत है, लेकिन ऐसे काम के पीछे जैसा संगठन, जैसा धीरज चाहिए यदि वैसा न हो तो यह काम खड़ा नहीं हो पाता। आज कोई अस्सी गांवों में यह काम बढ़ रहा है। इनमें से कोई पंद्रह गांवों में यह काफी आगे जा सका है।

सफलता का रहस्य 

कुछ गांव लापोड़िया के गोचर विकास के काम को खुद देखने आये तो कुछ जगह लापोड़िया के लोग स्वयं गये, अनुभवों का आदान-प्रदान हुआ और इस तरह यह काम धीरे-धीरे अन्य गांवों में फैल रहा है। लेकिन केवल चौका बनाने भर से गोचर नहीं संभल पाता। इसकी सफलता का रहस्य समाज के संगठन में छिपा हुआ है। स्वार्थ से ऊपर उठे बिना ऐसा संगठन बन नहीं पाता। एक गांव में जब गोचर पर काम शुरू हुआ तो वहां के थोड़े से लोगों ने इसका विरोध किया। इन लोगों ने राजनीति और जाति दोनों का खुलकर उपयोग किया। मंत्री से लेकर नीचे तक के अधिकारियों को फोन करवाया कि कुछ 'गुण्डे' गोचर पर कब्जा करने के लिए गोचर विकास का भ्रामक कार्यक्रम लेकर आये हैं। फिर यह मामला अदालत तक भी गया, लेकिन अंत में लोक संगठन काम आया। उसकी नैतिक ताकत के आगे ये लोग झुक गये। जिनकी जीत हुई, वे हारे हुए लोगों के सामने और अधिक झुक गए। इस विनम्रता ने हार-जीत का अंतर मिटा दिया। ऐसे प्रसंग यह भी बताते हैं कि गांव को सुधारने की योजनाओं में सरकार को बिल्कुल निष्पक्ष रह कर काम करना चाहिए। आरोप सामने आयें तो धीरज के साथ उनकी जांच की जानी चाहिए और गोचर जैसे मामलों में अपनी कानूनी जिम्मेदारी जाति और राजनीति से ऊपर उठकर निभानी चाहिए।

सिर्फ यहां ही नहीं, पूरे देश में गोचर के साथ अच्छी मानी गयी सरकारों ने भी कई तरह की गड़बड़ियां की हैं। वोट की राजनीति गांव के भूमिहीन और दलित का प्रश्न उठाकर गोचर की जमीन खेती के लिए बांटकर वाहवाही लूटती हैं। देश के नेतृत्त्व को भी समझना चाहिए कि कमजोर माने गये वर्ग के पास जो बकरियां हैं, जो पशु हैं आखिर वो कहां चरने जायेंगे? लापोड़िया और उसके आसपास के गांवों का यह पक्का अनुभव है कि गोचर विकास का लाभ ऐसे परिवारों को भी भरपूर मिलता है। इसीलिए धीरे-धीरे अब राजस्व के अधिकारी भी इस क्षेत्र में ग्राम विकास की योजनाओं में गोचर पर भी ध्यान देने लगे हैं।

राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष और ग्रामीण विकास सचिव से लेकर कई जिलों के कलेक्टर, तहसीलदार, बी.डी.ओ. अब लापोड़िया के काम को एक आदर्श काम मानकर यहां सीखने आते हैं और फिर अपने-अपने क्षेत्रों में शासन की विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से इस कार्यक्रम को उठा रहे हैं। लापोड़िया के इस काम का प्रभाव अब उच्च स्तर पर बनने वाली नीतियों पर भी कुछ हद तक पड़ने लगा है। इसे अकाल राहत में भी शामिल किया जा रहा है। अब राज्य सरकार ने इसे गरीबी मिटाने वाले कार्यक्रम से जोड़ा है।

लापोड़िया के इस सफल प्रयोग ने कुछ और बातों की तरफ भी ध्यान खींचा है। सन् 1998 के बाद से देश के कोई आधे हिस्से में अकाल पड़ता रहा है। अनेक हिस्सों में औसत से आधी और कहीं-कहीं उससे भी कम वर्षा हुई है। इस भयानक परिस्थिति से निपटने के लिए अनेक संस्थाओं ने और फिर उनके प्रभाव से सरकारों ने भी वर्षा जल संग्रह के लिए तरह-तरह की योजनाऐं बनायी हैं और उन्हें पूरा करने के लिए कदम उठाये हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने तालाबों को ठीक करने और नये तालाब बनाने की तरफ ध्यान गया है।

गोचर और अकाल निवारण 

लेकिन गोचर विकास का यह काम बताता है कि तालाबों में तो पानी रोकना ही चाहिए, साथ-साथ इसी उद्देश्य को और आगे बढ़ाने के लिए गोचर की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। यह काम दो तरह से गांव को अकाल से लड़ने के लिए मजबूत बनाता है। गांव में गोचर का क्षेत्रफल प्रायः तालाब के भराव से कई गुना ज्यादा होता है। यहां वर्षा के एक मौसम में 8-9 इंच पानी एक बड़े भू-भाग में तेजी से बहकर बर्बाद जाने के बदले चौका पद्धति से एक कोने से दूसरे कोने तक धीरे-धीरे भूमि में समाता जाता है। इस तरह यह भूजल को उठाता है, सूखी धरती का पेट भरता है, उसकी प्यास बुझाता है और फिर अच्छी नमी के कारण गोचर में घास की जाजम बिछाता है। इससे गांव के पास अकाल से लड़ने के लिए पानी भी रहता है और पशुओं के लिए पर्याप्त घास भी 1

आज लापोड़िया गांव में कोई 200 घरों के बीच बस्ती और उनके खेतों में 103 कुएं हैं। 6 साल के अकाल के बाद भी आज इनमें से हर कुएं में पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध है। इस छिपे खजाने का उपयोग लापोड़िया गांव फसल उगाने के अलावा अपने पशुओं के लिए हरा चारा पैदा करने के काम में भी लगा रहा है। अकाल के जिन दिनों में आसपास के दूसरे गांव में बाहर से सूखा चारा लाना पड़ा है या अपने पशुओं को राहत शिविरों में भेजना पड़ा है, वहीं लापोड़िया का लगभग हर घर अपने खेत के एक छोटे से टुकड़े पर आधा बीघा, एक बीघा पर अपने पशुओं के लिए हरा चारा उगाता है। खेत के इस टुकड़े की सुरक्षा के लिए कोई चार-पांच फुट ऊंची मिट्टी की एक दीवार भी बनाई जाती है। इस चारे को उगाने के लिए पानी उनके कुएं से आता है। साधारण खेतों में अकाल के बीच खड़ी फसल का हरा रंग देखकर जो अचरज होता है, उसी खेत के साथ मिट्टी के किलेनुमा टुकड़े में दुगने गहरे हरे रंग का चारा देखकर वह अचरज बिल्कुल चौगुना हो जाता है।

अपने गोचर और तालाबों में श्रम का पसीना बहाकर जो पानी रोका गया है, उसने लापोड़िया को बहुत हद तक हरा बना दिया है। अब इस हरियाली का रंग लोगों के मन पर भी दिखने लगा है। अब उन्हें लगता है कि उन्होंने लापोड़िया में इन सब काम को करने के लिए कुछ वर्ष पहले जो संघर्ष किया था, जो आंदोलन चलाया था, वही सब दूसरे गांवों में करना जरूरी है। गांव के मन को हरा बनाने का काम आनन्द और सहयोग की नींव पर खड़ा होना चाहिए। आज लापोड़िया के लोग गोचर की परंपरा के बारे में पुरानी भूल चुकी बातों को तरह-तरह से इकट्ठा कर रहे हैं, पुराने नियम और कायदे समझ रहे हैं। इनमें से क्या दोबारा अपनाने लायक है, इसका परीक्षण कर रहे हैं

गोहदः बेहद कड़ा अनुशासन

गोचर शब्द गाय को, गोवंश को केन्द्र में रखकर बना है। लेकिन गोचर में गाय, बैल के अलावा ऊंट, भेड़ और बकरी भी चरने आ सकती हैं। प्रतिबंध यदि है तो केवल पड़ौसी गांव के पशुओं के लिए उसका सीधा-सा कारण बस यही है कि पड़ौसी गांव को भी मेहनत कर अपना गोचर इतना अच्छा बना लेना चाहिए कि उनके पशुओं को दूसरे गोचर में जाने की जरूरत न पड़े। एक गांव के पशु अपने गोचर की हद से बाहर चरने के लिए दूसरे गोचर में नहीं जा सकते इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजस्थान के भरतपुर क्षेत्र में मिलता है। इस क्षेत्र में एक स्थान का नाम 'गोहद' है। ऐसा कहा जाता है कि यहां तक श्रीकृष्ण अपनी गायें चराने आ सकते थे। लेकिन इसके बाद उनकी हद, सीमा समाप्त हो जाती थी। हमारे गांवों ने पशुपालन का जो व्यवस्थित ढांचा खड़ा किया था, उसमें तीन लोकों के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण के लिए भी उतने ही कड़े नियम लागू किये थे, जितने कि साधारण पशुपालकों के लिए होते थे।

गोचर के उपयोग का यह व्यवस्थित ढांचा अपने गांव, पड़ोसी गांव और दूर के गांव की भी जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। बाहर के पशुओं का झुंड गांव के गोचर से गुजर सकता था, उन पर रोक नहीं थी। लेकिन वे छोटे से गांव को, छोटे से गोचर को पूरी तरह से न उजाड़ें इसकी सावधानी रखी जाती थी। वे गोचर से गुजर सकते थे, चर सकते थे। खेली में पानी पी सकते थे, लेकिन लम्बे समय तक चरने के लिए उसी गांव के खेतों में किसान के साथ सहमति के आधार पर बैठाये जाते थे। इस बिठाई का मतलब था कि खेतों में फसल कटाई के बाद बचे डंठल ये पशु चर सकते हैं। खेतों में इनकी उपस्थिति से भूमि को मैंगनी, गोबर और मूत्र से कीमती खाद मिलती थी।

देश के बहुत बड़े हिस्से में पशुपालक, खासकर भेड़ पालक अपने बड़े-बड़े झुंडों को लेकर अलग मौसम में अलग-अलग रास्तों से घूमते रहते हैं। भेड़ों के इन बड़े रेवड़ों की आवक-जावक का पूरा नक्शा फसलों की कटाई के कैलेंडर से जोड़कर रखा गया था। सैकड़ों हजारों भेड़ों के झुंड एक जगह का चारा समाप्त होने पर इस तरह दूसरे क्षेत्रों में पहुंचते थे और उन खाली खेतों में बैठकर उन्हें अपने मल-मूत्र से सुन्दर खाद देते थे।किसान और भेड़ पालक के बीच का यह संतुलित रिश्ता अब नई फसलों और नये कैलेंडर के कारण टूट चुका है और उसी अनुपात में इन दोनों समुदायों के बीच भयंकर तनाव भी देखने में आ रहा है। मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा पर हर वर्ष इनमें संघर्ष भी होने लगा है। अब यह दुखद परिस्थिति धीरे-धीरे राजस्थान के क्षेत्रों में भी आने लगी है।

लापोड़िया का गोचर संरक्षण आंदोलन और अब उसका दूसरे गांवों में विस्तार हमें यह भी बताता है कि बाहरी शत्रु से लड़ना अपेक्षाकृत कम कठिन काम है। लेकिन जब लड़ाई अपनों से, अपने ही गांव के लोगों से हो, अपने रिश्तेदारों से हो तो कुछ दूसरे ही तरह की परीक्षा सामने होती है। इसमें संघर्ष के स्वरूप को, विरोध को नारे, धरना, जुलूस से ऊपर उठना पड़ता है। अपने को सुधारते हुए गांव को सुधारना होता है। सबको मालिक बनाते हुए उनमें सेवक की भावना भी आ सके यदि ऐसा करना हो तो संघर्ष करने वालों को भी सेवक की भूमिका में आना होता है।

आज लापोड़िया में अनेक किसान गांव के उठे हुए जलस्तर के कारण एक बीघा दो बीघा में हरा चारा ले रहे हैं। यह कोई छोटी अवधि की फसल नहीं है। वर्ष भर, बारह मास यानि तीन सौ पैंसठ दिन लगभग एक मन चारा रोज निकालना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। वह भी उस गांव में जहां अकाल का छठवां साल बैठा हो ।

तरकश के कई तीर

किसान पशु पालन में कई बातों का ध्यान रखते हैं। जिस तरह से हम लोग एक-सा भोजन खाते-खाते तंग आ सकते हैं, उसी तरह पशु भी हैं। इन्हें वर्ष भर अलग-अलग ढंग से चारा देने का पूरा कैलेण्डर गांव समाज ने व्यवस्थित रूप से बनाया था। गोचर और चौइली तथा बीड़ के अलावा किसानों के अपने घरों में, बाड़ों में 'भुखारा' और 'भुरियां' बनाया जाता रहा है। भुखारा कोई सात-आठ हाथ चौड़ा इतना ही ऊंचा और 50-70 हाथ लम्बा एक कच्चा ढांचा होता है। इसमें तीस चालीस ट्राली चारा वर्ष भर के लिए जमा रखा जाता है। एक ट्राली में कोई 40 मन आता है। भुखारा में कटा हुआ चारा जमा किया जाता है। यह गुवार, बाजरा, ज्वार और गेहूँ की फसलों के डंठल और भूसे से बनता है। इस ढांचे में लम्बाई वाले हिस्से में खिड़कीनुमा दो झरोखे होते हैं, जिन्हें खोलकर जरूरत के अनुसार चारा निकाला जाता है। शेष चारा पूरे वर्ष भर सुरक्षित रखा रहता है। भुरियां में साबुत चारा एकत्र किया जाता है। इसका आकार कोई 25 फुट ऊंचा और 15 फुट चौड़ा भरिनुमा होता है। इसमें कटी फसल के डंठल इस विशेष ढंग से जमाए जाते हैं कि बिलकुल खुले आकाश के नीचे रखे रहने के बाद भी यह चारा भींगता नहीं, सड़ता नहीं। ऊपर से लेकर नीचे तक की चिनाई उसी चारे से होती है। फिर भी एक बूंद पानी भीतर नहीं जाता है। इस व्यवस्था के माध्यम से पशुओं को पूरे साल भर तक सार्वजनिक स्थानों के अलावा घर से भी पौष्टिक खुराक मिलती रहती थी।ऊपर बताए गये ढांचों के अलावा एक और ढांचा बनाया जाता था। उसका नाम था 'बागर'। यह ढांचा आजादी से पहले तक चलन में था। फिर ठिकानेदारी, रियासतों के राज जाने के बाद यह भी चलन से हट गया।

वर्षा में चौके का शृंगार

बागर की सुरक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती थी। इसमें कोई पच्चीस हाथ चौड़ा चालीस हाथ लम्बा और 15 हाथ ऊंचा घास का ढेर होता था। इसलिए इसे गांव की मुख्य आबादी से थोड़ा हटकर बनाया जाता था कभी आग आदि की दुर्घटना हो ही जाय तो बस्ती पर उसका बुरा असर न पड़े। इस व्यवस्था में भी कोई रखवाला नहीं होता था और यह भी किसी की निजी सम्पत्ति नहीं मानी जाती थी। पूरा गांव चलते-फिरते इसकी रखवाली करता था ।

बागर एक तरह का चारा बैंक, कोष होता था जो संकट के समय में खुल जाता था। तब इसमें से जो जितना चारा लेता, उतना ही चारा अच्छी फसल आने पर इस कोष में वापस भर देता था। बागर के कोष से चारा देते समय तराजू का उपयोग नहीं होता था। यह गांव की अपनी व्यवस्था थी और अपने लोगों के लिए थी। फिर भी चारा लेते और देते समय एक मोटा हिसाब रखा जाता था। इसके लिए पगड़ी का उपयोग होता था। प्रति परिवार सात हाथ का बंडल पगड़ी में बंध जाय- इतना चारा दिया जाता था और ऐसे ही सात हाथ की पगड़ी में जितना बंडल बंधता है, उतना वापस हो जाता था। अकाल से लड़ने के लिए गांव की इस व्यवस्था में, तरकश में कई तीर होते थे। जैसे चारे की व्यवस्था थी, उसी तरह संकट के दौर को पार करने के लिए अनाज का भंडार भी जमा किया जाता था। इसके लिए खाई नामक एक ढांचा बनाया जाता था। यह व्यवस्था भी रियासत के बाद पूरी तरह से टूट चुकी है।

अकाल पाटती थी खाई

खाई एक तरह का सूखा कुआं होता था । इसमें अनाज का भंडार सुरक्षित रखा जाता था । हरेक खाई कोई 10 से 15 हाथ गहरी और 7 हाथ के व्यास की गोलाई लिए हुए होती थी। यह गोलाई नीचे से ऊपर आते समय थोड़ी कम हो जाती थी। पूरा अनाज भर जाने पर इसे मिट्टी के घोल से ढक्कन बनाकर बन्द कर दिया जाता था। सभी खाईयां थोड़े ऊंचे स्थानों पर बनाई जाती थीं, ताकि बरसात की नमी और पानी इनमें न जा पाये। खाई के भीतर बहुत सावधानी से गोबर और मिट्टी से लिपाई की जाती थी। इसमें कुछ भाग राख का भी होता था ताकि अनाज में कीड़े न लगें ।

लापोड़िया गांव में आजादी से पहले तक बीस खाईयां थीं। अच्छी फसल आने पर हर घर से इसमें एक निश्चित मात्रा में अनाज डालकर बन्द कर दिया जाता था। जब तक गांव की सभी खाईयां भर नहीं जाती थीं, तब तक गांव से एक दाना भी बाहर बेचा नहीं जा सकता था। इन खाईयों में तीन वर्ष तक अनाज सुरक्षित रखा जाता था। यदि इस अवधि में अकाल नहीं पड़े तो खाई खोलकर उसका अनाज वापस किसानों में वितरित हो जाता था। यदि अकाल आ ही गया तो ये खाईयां उस संकट को सहने के लिए खोल दी जाती थीं। अकाल का संकट आने पर खाई खोलने का निर्णय गांव के दो पटेल और ठिकानेदार की एक छोटी सी बैठक में तुरन्त लिया जाता था। उसके बाद गांव के घरों की जरूरत देखते हुए एक के बाद एक खाई खुलती जाती थी और अनाज का वितरण होता जाता था। एक मोटे हिसाब से प्रति परिवार प्रति माह कोई एक मन अनाज बांटा जाता था। अकाल समाप्त होने पर अच्छी पैदावार आने पर इन्हीं परिवारों से चालीस किलो के बदले 50 किलो अनाज वापस लेकर फिर से खाई में सुरक्षित रख दिया जाता था।

गांव की बीस खाईयों में से केवल चार खाई ठिकानेदार के गढ़ के भीतर थीं। शेष 16 गांव के सार्वजनिक स्थानों पर बनी थीं। इन सोलह खाईयों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके सामने पड़ने वाले घरों की होती थी। ये परिवार भी सभी जातियों के और सभी तरह की आर्थिक स्थिति के होते थे। एक खाई मंदिर के सामने थी और उसकी रखवाली पुरोहित खुद करते थे। भगवान की पूजा में भक्तों की पूजा, गांव की पूजा भी शामिल रहती थी। गढ़ के भीतर चार खाई इसलिए रखी जाती थीं कि कहीं किसी हमले में गांव की खाईयों में आग लगा दी जाय तो कम से कम गढ़ की चार खाई सुरक्षित रह सकेंगी। आज भारतीय खाद्य निगम जैसी व्यवस्था गांव का अनाज गांव से बाहर निकालकर कहीं दूर शहरों में जमा करता है और संकट के समय उसे ठीक समय पर गांवों में वापस नहीं कर पाता। खाई खाद्य सुरक्षा का बेहतर प्रबंध था।

गोचर का प्रसाद

आज 200 घरों का छोटा-सा लापोड़िया गांव पशुपालन और किसानी के बीच टूट चुके इन संबंध को जोड़ने का एक बड़ा काम कर रहा है। 6 साल के अकाल के बाद आज इस गांव में दूध का खूब उत्पादन हो रहा है। इसमें भी संतुलन बनाकर रखा गया है। अपने घर की जरूरत का दूध बचा लिया जाता है। शेष मात्रा जयपुर की डेयरी को दी जाती है। अकाल के बाद भी लापोड़िया में जमा होने वाला दूध डेयरी के अन्य केन्द्रों से मात्रा में भी ज्यादा है और गुणवत्ता में भी। लापोड़िया के पास शुद्ध चारा है। यहां ज्वार, बाजरा, ग्वार और हरे चारे के उत्पादन में किसी भी प्रकार की रासायनिक खाद और कीटनाशक बिलकुल नहीं डाला जाता। इसलिए आज शुद्ध दूध है, अच्छी फसल है और इस वर्ष 2004 में लगभग हर घर के पास भुरियां हैं। कुछ के पास एक से भी ज्यादा। इन भुरियों में फसल कटाई के बाद बचे डंठल चारे की तरह संग्रह किये जाते हैं और इनका उपयोग अगले किसी संकट के दौर में होता है।

लापोड़िया ने तालाबों के साथ-साथ अपना गोचर भी बचाया है और इन दोनों ने मिलकर - यानि तालाब और गोचर ने लापोड़िया को बचा लिया है। आज गांव की प्यास बुझ चुकी है। छः साल के अकाल के बाद भी यहां सन्तुष्ट धरती में चारों तरफ हरियाली है। कोयल की गूंज है तो साधारण सी मानी जाने वाली चिड़ियों की असाधारण चहचाहट है।

लापोड़िया गांव में किसी भी सड़क, गली या चौराहे का नाम किसी जन नायक के नाम पर नहीं मिलेगा। गांव में कहीं भी गांधीजी की मूर्ति नहीं है। लेकिन आज पूरा गांव गांधीजी के आदर्शों का मूर्तरूप बनने का प्रयत्न कर रहा है। गांव के पुराने झगड़े आपसी बातचीत से समाप्त हो चुके हैं पुलिस और कचहरी के चक्कर लगाने के बदले अब लापोड़िया के लोग साल भर आने वाले त्योहारों में मिलकर नाचते-गाते हैं, गुलाल उड़ाते हैं शहनाई और ढोल-नगाड़ों की आवाज सुनाई देती है। आनन्द की इस वर्षा के बीच में आप किसी भी दिन पायेंगे कि गांव के बुजुर्ग- रामकरण दादा, कालू दादा, रामकरण मामा और उनके साथ अगली पीढ़ी के युवक-युवतियां आसपास और दूर के गांवों में निकल गये हैं, ताकि वहां भी प्रकृति के इस पूजन का काम प्रारंभ हो सके और वहां भी लापोड़िया की तरह तालाब, गोचर का प्रसाद आनन्द से बंट सके। लापोड़िया में अच्छे विचारों से अच्छे कामों का श्रीगणेश हो चुका है।

लापोड़िया ने तालाबों के साथ-साथ अपना गोचर भी बचाया है और इन दोनों ने मिलकर यानि तालाब और गोचर ने लापोड़िया को बचा लिया । आज गांव की प्यास बुझ चुकी है। छः साल के अकाल के बाद भी यहां सन्तुष्ट धरती में चारों तरफ हरियाली है। 

आलेख - अनुपम मिश्र,वर्ष 2004

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