गंगा की पवित्रता और नदियों की मृत्यु

गंगा की पवित्रता और नदियों की मृत्यु
गंगा की पवित्रता और नदियों की मृत्यु

गंगा किसी एक अकेली नदी का नाम नहीं है। गंगा नाम से कई नदियां मिलेंगी। राम गंगा, बाण गंगा तो हैं ही अन्य नदियों को भी लोग गंगा के नाम से पुकारते हैं, जैसे- गया की फल्गु को गंगा कहा जाता है। जब गंगा की पवित्रता की बात हो रही हो तो समझना चाहिए कि इस अर्थ की व्यापकता समस्त पवित्र जल तक जायेगी, जिसका नेतृत्व हिमालय की गंगा करती है।

पिछले दिनों गंगा की मूल धारा भागीरथी को टिहरी बांध में कैद कर दिया गया। तब से केवल अलकनंदा और मंदाकिनी का जल ही गंगा में प्रवाहित हो रहा है, वह भी हरिद्वार तक। गंगा जी में तो आज ऋषिकेश और हरिद्वार से निकाली जाने वाली नहरों के लिए भी पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं है। हिमालय से आने वाली बची-खुची गंगा का तो हरिद्वार-कनखल में प्रवेश से पहले ही अस्तित्व शून्य हो जाता है। यह कैसी असाधारण घटना है कि 20वीं सदी के पूरा होते-होते गंगा का भागीरथी रूप ही समाप्त हो गया, न कोई प्रतिक्रिया हुई, न कोई चिंता, किसी किस्म की सांस्कृतिक धार्मिक पीड़ा का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि 18वीं सदी तक हिंदुस्तान सोने की चिड़िया क्यों कहलाता था। लोक विद्याओं की विशद परंपरा तो अपनी जगह है ही लेकिन इस देश की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्कृति और कर्मकांड मिट्टी, पानी और वनस्पति से जुड़े हुए हैं। भारत देश में समाज, सभ्यता, संस्कृति और अकूत संपदा का निर्माण जल-जंगल-ज़मीन के वैदिक विज्ञान को विस्तार देकर ही हुआ था। आज भी इससे अतिरिक्त दूसरा रास्ता नहीं। हिंदुस्तान की एक-डेढ अरब जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध कराना स्वच्छन्द नदी की अविरलता के स्थायीकरण से ही संभव होगा। किसी भी अन्य रीति से इतने व्यापक स्तर पर निर्मल जल की व्यवस्था असंभव है। भारतीय धर्म व्यवस्था में सरस, निर्मल, पतित पावन जल की अजस्र धारा को ही सरस्वती कहा गया है। 

सरस्वती की वैदिक स्तुति में यह स्पष्ट है कि निर्मल जल समस्त जीवन, मानव एवं सृष्टि की स्मृति, विद्या, स्वास्थ्य, स्फूर्ति आदि का कारक स्रोत है। सरस्वती का मूल अर्थ ही निर्मल जल की अजस्र धारा है। यही अजस्र धारा समस्त विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती भी है। यह अनुभव जन्य सिद्धांत है कि निर्मल जल के दर्शन/ स्पर्श से स्फूर्ति एवं चेतना स्वतः आ जाती है। जलोपचार की पद्धति न आश्चर्य है, न चमत्कार। यह निर्मल जल की सहज प्रवृत्ति है। जल की किसी भी अजस्र धारा में सरस्वती की अंतरधारा सदैव विद्यमान है, प्रवाहित है।

सरस्वती की सगी बहन लक्ष्मी भी जल, जलचर और उसके शब्द से उत्पन्न माया की पर्याय है, उससे किसी भी स्तर पर भिन्न नहीं। लक्ष्मी रूपी जल भी माया है। महानदी गंगा भी लक्ष्मी का मूर्त रूप है। हिंदू जो विशुद्ध उच्चारण में सिंधु है, वह भी जल की प्रवृत्तियों और चरित्र का पर्याय है। हिंदी, हिंदू, इन्दै, इंडिया, इन्दस ये सभी शब्द सिंधु शब्द के विदेशी पर्याय हैं। सिंधु की वृहद परिभाषा वाल्मीकी रामायण में उपलब्ध है। राम जब सीता की खोज में समुद्र के पार वाली लंका में जाना चाहते हैं तब सिंधु-राम संवाद होता है, जो अपने आप में पर्यावरण शास्त्र का मौलिक आख्यान है।
हमें सर्वदा याद रखना होगा कि हिंदुस्तान की समस्त आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था की संरचना मिट्टी, पानी और वनस्पति की ईश्वर-सदृश पूजा-आराधना में निहित है। जल, मिट्टी और वनस्पति से संबंधित विद्या को तीर्थ विज्ञान भी कह सकते हैं। इसी तीर्थ विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण भौतिक पक्ष यह है कि भारत की सजलता और जलवायु की आर्द्रता अनेक स्थानीय विशिष्टताएं, जिनमें थार मरुस्थल जैसे सूखे पर्यावरण भी सम्मिलित हैं, मिल कर निर्मित करती हैं।

तीर्थ विज्ञान की मान्यतानुसार जैसे भूलोक समुद्रवसना है ठीक वैसे ही ब्रह्मांड भी जलयुक्त है। इसीलिए हिंदू शास्त्र में ब्रह्मांड को आकाश गंगा कहा गया है। समस्त जल अंतरिक्ष में निर्मित जीवन तत्त्व है, इसीलिए ईश्वर रूप है। जल की पवित्रता का यही आधार है कि उसकी नियमित आपूर्ति द्युलोक से होती है। इसीलिए समस्त जल पूजनीय है और समस्त नदियां गंगा रूप हैं। वैदिक संस्कृति का पालन करने वाले भारत देश में जलयुक्त प्रत्येक स्थान घर परिवार में घड़ा/कलश रखने के स्थान से लेकर कुंड, कुएं, जोहड़, बावड़ी, तालाब, नदी, नालों और समुद्र के किनारों तक पवित्र तीर्थ हैं। अपने देश में एक नहीं सैकड़ों गंगा हैं

। समस्त पवित्र जल देव लोक से आता है और देवलोक को जाता है लेकिन जहां साइंटिस्ट जल-संवाद की शुरुआत इस तथ्य से करते हैं कि कितना पानी समुद्र में व्यर्थ जा रहा है, प्यासी धरती को सजल बनाने के लिए इसका उपयोग तो होना ही चाहिए वहां के साईंटिफिक टेम्पर को तो ठीक से समझना पड़ेगा। साईंसनिष्ठ सुधारवादियों का भी इन विषयों पर कोई ध्यान नहीं जाता। जल संरक्षण का नारा सहज भाव से लगाया जाता है लेकिन भारत जैसे देश में डेल्टा और ड्रेनेज की आवश्यकता पर कहीं बहस ही नहीं होती। समुद्र के हक की चर्चा न तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (जो बनारस से लोक सभा सदस्य हैं) करते हैं; न उमा भारती, जो बुन्देलखंड की प्रतिनिधि हैं और न ही जयललिता, जो माँ कावेरी की बेटी हैं।

समस्त संस्कारों और शुभ कार्यों में जल यानी वरुण देव की साक्षी अनिवार्य है। आधुनिक साईंटिस्ट यदि गणितज्ञ प्रतिमान (Mathematical Model) के आधार पर पृथ्वी पर उपलब्ध पवित्र शुद्ध जल की गणना का प्रयास करेंगे तो बड़ी आसानी से यह बात समझ जाएंगे कि निर्मल जल का स्रोत अंतरिक्ष में स्थित है। पृथ्वी के जलवायु का स्रोत अंतरिक्ष-स्थित न होता तो 20वीं सदी में प्रदूषण का स्तर कहां तक गिर जाता, इसका अनुमान भी संभव नहीं। यह सहज स्वाभाविक है कि जल को ईश्वर मानने वाले देश में समस्त नदियां गंगा का प्रतिरूप हैं और महानदी गंगा की तरह आराध्य मातृ-देव रूप में प्रतिष्ठित हैं।

मानव शरीर में जिस तरह रक्तवाहिनी शिराओं का जाल बिछा है, ठीक उसी तरह धरती सतह से लेकर पाताल तक विविध आकार-प्रकार की जलधाराओं से प्लावित है। प्रकृति ने जल निर्गम को व्यापक और विस्तृत बनाने के लिए नाली से नाले और उनसे नदी-नद बनाने का विधान रचा। नदियों की गति और प्रवाह मार्ग की सुरक्षा के लिए बाढ़ और रजवाहों की व्यवस्था की है ताकि पहाड़ों से लाई गाद, मिट्टी और रज नदी के पेट को भरने के बजाय मैदानों में फैल जाए और नदियां अविरल बनी रहें। जिसे भी मृदा विज्ञान (सोयल साईस) का थोड़ा ज्ञान है, वह जानता है कि बाढ़ नियंत्रण औपनिवेशिक मुहावरा है। उस युग का वैष्णव जन इस बाढ़ नियंत्रण की हिंसा से अवगत था। यह समस्त सांईंस भारतीय पुरुषार्थ के धर्म, अर्थ, काम (कामना) और मोक्ष सबको नष्ट करने वाली है।

नदियां मर चुकीं


आज दिल्ली वासियों को यह याद दिलाना लगभग असंभव है कि दो तीन-चार पीढ़ी पूर्व तक दिल्ली वासी अपनी रोजमर्रा की आवश्यकता का पानी नियमित रूप से यमुना जी से भर कर लाते थे या इन्ही नालों में प्रवाहित निर्मल जल का प्रयोग करते थे जो आज गंदे हो गये हैं। दिल्ली शहर में कुंओं-बावड़ियों का पानी दोयम माना जाता था। 1950 के आसपास तक दिल्ली शहर की खत्रानियां, बनैनियां, बामनी आदि नियमित रूप से टोलियों में इकट्ठी होकर रामजस गाती यमुना जी नहाने जातीं और रसोई के लिए आवश्यक एक-दो मटकी पानी लेकर सूर्योदय से पूर्व ही 'हरिजस' गातीं वापिस लौटतीं देखी जा सकती थीं।

ताजे बहते पानी के प्रयोग की विधि और परंपरा कब, क्यों और कैसे समाप्त हो गयी इसका न तो हमारे समाजशास्त्रियों को एहसास है, ना ही स्वास्थ्य शास्त्रियों ने यह जानने का प्रयास किया कि दिल्ली शहर के जन स्वास्थ्य पर इस बुनियादी परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ा है। नदियों का प्रदूषण हिन्दुस्तानी विकास और आधुनिकीकरण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। नदियों के निर्मलीकरण का आंदोलन चलेगा तो स्वदेशी भी चलेगा। स्वदेशी के लिए पवित्र जल और निर्मल मानस आवश्यक है।
विकासवादी आधुनिक हिन्दू 'विकास' के लिए परम पावन गंगा को इस कदर दूषित कर सकता है कि उसके दर्शन मात्र से घिन की सिहरन मन और शरीर में दौड़ जाती है। दिल्ली, वृन्दावन की यमुना और काशी की गंगा आज किसी गटर से भी ज्यादा गंदी और प्रदूषित हैं।

गंदे नाले

नदी नालों की गंदगी का सिलसिला बस उतना ही पुराना है जितना हिन्दू की आधुनिकता और ब्रिटिश गुलामी का इतिहास। दिल्ली के प्राकृतिक जल बहाव को गंदे नालों में परिवर्तित करने का काम 1857 के बाद ही शुरू हुआ। उत्तर भारत में स्वच्छ जल के प्राकृतिक / कृत्रिम एवं स्थायी अथवा अस्थायी बहाव के स्थायी मार्ग / प्रवाह का अनेक में से एक नामकरण नला/नाला था। 1857 के आसपास तक दिल्ली में लगभग एक दर्जन नाले थे जो अरावली की पहाड़ियों से बरसात का पानी यमुना तक पहुंचाते थे और समस्त दिल्ली को भूजल से प्लावित रखते; असंख्य कुओं, बावड़ियों और तालाबों को जलापूर्ति करते। आज ये सभी नाले गंदगी और शहरी प्रदूषण के प्रतीक हैं और कहलाते भी गंदे नाले हैं। समूचे देश का कोई छोटा-बड़ा शहर ऐसा नहीं, जहां पाखाने और गटर का पानी सड़क, आम रास्तों पर न फैल रहा हो। गांव की हालत तो और भी बदतर है।
पवित्र-पावन नदियों के प्रदूषण के सामने नालों की विकृति तो मामूली बात है। आज तो देश की समस्त नदियां सिर्फ गंदगी का वाहक बन कर रह गयी हैं। पवित्र-पावन गंगा भी हमारी गंदगी का प्रतीक बन गयी है। देश में छोटी-बड़ी बस्तियों की समस्त गंदगी को नदियों में ही प्रवाहित किया जा रहा है। देश भर के शहरों में सड़कों पर फैली संडास, रेल पटरी के सहारे खुले दिशा मैदान (ओपन शहरा में सड़को पर फली सडास, रेल पटरी के सहार खुले दिशा मैदान (ओपन एयर लैटरीन) और मूत्रालयों की दुर्गंध ही हमारी आधुनिकता का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीक है।

वायु प्रदूषण

बड़े शहरों में वायु प्रदूषण का भी अंत नहीं। दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई में तो एक झोंका स्वच्छ हवा पाने के लिए शहर से पचासों मील दूर जाना पड़ता है। भारतीय मानस किस कदर सड़ चुका है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुर्गंध की समस्या के निराकरण के लिए विचार तक न होने पर कहीं कोई चिंता नहीं है। । स्थानीय म्यूनिसिपल कमेटियों से लेकर राष्ट्रीय संसद तक इस विषय पर कोई बहस नहीं है, कोई आधा-अधूरा प्रस्ताव भी नहीं है। बच्चों की स्कूली किताबों में सही समझ विकसित करता कोई अध्याय नहीं है। आधुनिक भारतीय मानस की कंगाली का यह असाधारण उदाहरण है। नदियों के प्रदूषण का सीधा रिश्ता भूजल की उपलब्धता और कृषि योग्य भूमि की सजलता से है। डेल्टा क्षेत्रों के सर्वनाश की गाथा इस कड़ी का अंतिम छोर नहीं, समुद्री संसाधनों का सर्वनाश भी इसमें शामिल है।

स्रोत-दक्षिण एशियाई हरित स्वराज संवाद (साउथ एशियन डॉयलॉग्स ऑन इकोलोजिकल डेमोक्रेसी) सीमेनपू फाउंडेशन,फिनलैंड का वित्तीय सहयोग एवं वसुधैव कुटुम्बकम् प्रा. लि. का प्रबंधकीय सहयोग

 

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Post By: Shivendra
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