![घटता भूजल स्तर : कारण और निवारण, Pc-News18](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/2023-05/%E0%A4%98%E0%A4%9F%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%20.jpg?itok=cPmm3If_)
जल केवल मानव जाति के लिए ही नही बल्कि जीव-जन्तुओं और पेड़ पौधों के लिए भी आवश्यक है. पृथ्वी पर जल के बिना जीने की कल्पना नहीं की जा सकती है. समस्त जीव जगत का आधार ही जल है. हमारे शरीर के अंदर चलने वाली समस्त जैवरासायनिक प्रक्रियाएं तो जल के अभाव में पूर्णरूप से रुक ही जाएंगी. यदि हम जल ग्रहण करना बंद कर दें तो क्या हमने और आपने कभी सोचा था कि पानी एक दिन बोतलों में बिकेगा. आज जल की कमी देशों और महाद्वीपों के दायरे को तोड़कर विश्व व्यापी समस्या बन गयी हैं. भूजल एक अति महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है. यह प्रकृति की ओर से दिया गया एक निःशुल्क उपहार है. धरातल का दो-तिहाई भाग पानी से घिरा है. लेकिन इसका दो से तीन प्रतिशत ही इस्तेमाल के लायक है.
आज भारत सहित विश्व के अनेक देश जल संकट की समस्या से जूझ रहे हैं. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय भारत में विश्व की 17 प्रतिशत आबादी का निवास है. यद्यपि जल केवल चार प्रतिशत ही है. प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है. जल के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूनओ वर्ष 2013 को 'विश्व जल वर्ष ' के रूप में मना चुका है. दूसरी तरफ जल को लेकर विभिन्न राज्यों व देशों के बीच आये दिन विवाद होते रहते हैं. अन्तर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान, कोलम्बो सहित अनेक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसियों का ऐसा अनुमान है कि भविष्य में जल की कमी एक बड़ी समस्या होगी. किसी भी देश, राज्य और क्षेत्र की संपन्नता और सभ्यता के विकास में जल का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. विकास और समृद्धि के पैमाने को तय करते समय वर्तमान समाज के भविष्य की संभावनाओं और आवश्यकताओं पर भी विचार किया जाना चाहिए.
यदि हम ऐसा नहीं कर सकते हैं, तो फिर अविवेकपूर्ण कार्यों और निर्णयों के दुष्परिणाम भुगतने में देर नहीं लगेगी. आज पूरा मानव समाज भूजल के गिरते स्तर की वजह से गंभीरतम संकट की चपेट में है. पीने के पानी की कमी व बढ़ते भूजल प्रदूषण के कारण कई स्वास्थ्य संबंधी घातक बीमारियां और जल संकट जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं. भूजल की कमी के कारण मानव, पेड़ पौधों व जीव जन्तुओं का विकास और वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है. स्वस्थ जीवन के लिए हम सबको स्वच्छ जल की आवश्यकता जरूरी है.
आज हम अपने-अपने भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति के लिए न केवल भूजल का अन्धाधुन्ध दोहन कर रहे है, बल्कि भूजल प्रदूषण को बढ़ावा भी दे रहे हैं. इससे न केवल हमारी अर्थव्यस्था प्रभावित होती है, बल्कि संकमित भूजल पीने से मानव स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्यायें भी सामने आ रही हैं. भारत में पीने के पानी की समस्या एक गम्भीर मुद्दा है, साथ ही कृषि के लिए मुख्य समस्या सिंचाई जल की है. देश में सिर्फ 45 प्रतिशत कृषि भूमि ही सिंचित है जो कि मुख्यतः भूजल पर निर्भर है. हमारे देश की कुल 143 मिलियन हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि का लगभग 55 प्रतिशत वर्षाधारित तथा बरानी खेती के अन्तर्गत आता है. देश में लगभग 95 प्रतिशत ज्वार व बाजरा तथा 90 प्रतिशत मोटे अनाजों का उत्पादन वर्षा आधारित क्षेत्रों से ही आता है. इसके अलावा 91 प्रतिशत दालों और 85 प्रतिशत तिलहनों की पैदावार भी बरानी क्षेत्रों में होती है. इसका प्रमुख कारण वर्षा का असमय अल्पवृष्टि या अतिवृष्टि है. साथ ही इन क्षेत्रों में वर्षा जल का सही प्रबन्ध न होना है.
भारत में वार्षिक औसत वर्षा 1160 मिलीमीटर है. देश में बहुत बड़ा क्षेत्र सूखाग्रस्त है, जो वर्षा पर निर्भर है. जो कुल खाद्यान्न उत्पादन में लगभग 44 प्रतिशत का योगदान करता हैं इसके साथ-साथ 40 प्रतिशत मानव एवं 60 प्रतिशत पशुपालन में सहयोग करता है. पूरे देश में 80-85 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति भूमिगत जल से होती है. जबकि सिंचाई में 60-65 प्रतिशत भूमिगत जल का प्रयोग किया जाता है. भूजल संरक्षण के लिए हमें इस परम्परा को रोकना होगा.
भूजल स्तर घटने के कारण
घटता भूजल स्तर आज हम सब के लिए अत्यन्त चिन्ता का विषय है, क्योंकि यह किसी स्थान विशेष की समस्या न होकर पूरे देश की ज्वलंत समस्या है. पिछले कई दशकों से उद्योगों, खेती-बाड़ी, विकास कार्यों व अन्य उपयोगों में भूगर्भीय जल पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है. इस कारण भूमिगत जल के अन्धाधुंध दोहन से भू-जल स्तर निरन्तर तेजी से घटता जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी वार्षिक वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट में कहा है कि पानी के उपयोग के तरीकों और प्रबन्धन में कमियों के कारण 2030 तक दुनिया को जल संकट का सामना करना पड़ सकता है. हमारे देश में अधिकांश फसलें भूजल के भरोसे होती हैं. वर्तमान परिवेश में बढ़ते शहरीकरण आधुनिकीकरण, औद्योगिकीकरण, कृषि मशीनीकरण और वैज्ञानिक प्रगति की वजह से भूजल पर दबाव बढ़ता जा रहा है, दूसरी तरफ ग्लोबल तापक्रम बढ़ने से मृदा सतह से वाष्पन व पौधों में वाष्पोत्सर्जन दर में वृद्धि होती है. जिसके परिणामस्वरूप भूमि में नमी की कमी होने से भूजल स्तर भी प्रभावित होता है. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की कमी व उसके बदलते पैटर्न का भी भूजल स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. भूजल स्तर में कमी का एक प्रमुख कारण कम वर्षा और बर्फबारी में लगातार आ रही गिरावट है. एक और बड़ा कारण देश के अनेक भागो में बढ़ते शहरीकरण की वजह से कंकीट सतह वाली होती जा रही जमीन बरसात के पानी को नहीं सोख पाती है. जिस कारण वर्षा का अधिकांश भाग इधर उधर बहकर नष्ट हो जाता है. वास्तव में आम नागरिक, सरकार, किसान, उद्योग जगत और भूजल माफिया भूजल से अपनी आमदनी तो बढ़ाना चहाते है, पर भूजल बचा रहे इसके लिए कोई प्रयास नहीं करते हैं. देश में पानी के परम्परागत स्रोत कम वर्षा व बेतरतीब दोहन के चलते खत्म होते जा रहे हैं इस कारण भूजल स्तर घटता जा रहा है।
घटते भूजल स्तर के दुष्परिणाम
भूमिगत जल का अन्धाधुन्ध दोहन होने के कारण जलस्तर तेजी से गिरता जा रहा है जिसके कारण कुँआँ का पानी सूखना, जलापूर्ति की समस्या, सिंचाई की समस्या, जल की विषाक्तता, लवणीकरण और पम्पिंग सैट लगवाने की लागत बढ़ना जैसे गम्भीर समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं. आज भी देश के लगभग 6 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है. आजादी के 70 साल बाद यदि इतनी बड़ी आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है तो यह चिन्ता का विषय है. अतः भूजल का सोच समझकर प्रयोग करने की आवश्यकता है. साथ ही वर्षा जल का अधिकतम संरक्षण और बहते जल का जलागम में इकट्ठा करके पुनः प्रयोग करने की जरूरत है. फसल उत्पादन के महत्वपूर्ण घटक पानी का आज अत्यधिक दोहन हो रहा है. सिंचित क्षेत्रों में सतही व भूमिगत जल के अनुचित व अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर में गिरावट, भूमि के उपजाऊपन व फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. फसलों में अन्धाधुन्ध सिंचाई व सिंचाई संख्या बढ़ाने से न केवल जल का अपव्यय होता है, बल्कि मृदा स्वास्थ्य भी खराब होता है. वर्तमान परिवेश में सघन फसल प्रणाली व कृषि मशीनीकरण की वजह से भू-जल पर दबाव इतना बढ़ गया है कि भूमिगत जल स्तर दिनों-दिन नीचे गिरता जा रहा है. यह समस्या स्वतः ही विभिन्न समस्याओं को जन्म देती है. खेती में पारम्परिक सिंचाई प्रणाली उपयोग में लायी जा रही है. जिससे खेतों में सिंचाई जल लबालब भर दिया जाता है. इससे काफी सारा पानी इधर-उधर बहकर या जमीन में रिसकर नष्ट हो जाता है. जिसके फलस्वरूप कृषि उत्पादन में जोखिम व अनिश्चितता का वातावरण बना रहता है, आज किसान पृथ्वी पर घटते जल स्तर से खासे परेशान हैं. गहरे भूमिगत जल को भूतल पर उठाने के लिए और इसका पेयजल व सिंचाई के लिए उपयोग करने हेतु अत्यधिक ऊर्जा और ईंधन की जरूरत पड़ती है. अतः देश की बढ़ती आबादी हेतु पीने के पानी व खाद्यान्न आपूर्ति के लिए भूजल स्तर में सुधार करने व जल उत्पादकता बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. भूजल स्तर कम होने के कारण अनेक क्षेत्रों में हानिकारक तत्वों जैसे आर्सेनिक, कैडमियम, फुलोराइड, निकिल व कोमियम की सान्द्रता भी बढ़ती जा रही है.
उद्योगों व खेती में अपशिष्ट जल का प्रयोग
इजराइल जैसे छोटे से देश में उपयोग किये जाने वाले कुल पानी का 62 प्रतिशत हिस्सा संशोधित जल होता है. विकास कार्यों, बुनयादी ढांचे और औद्योगिक गतिविधियों में उपचारित संशोधित जल के उपयोग परं जोर दिया जाना चाहिए. अखाद्य फसलों व सजावटी पौधों की सिंचाई के लिए भी संशोधित जल का उपयोग किया जाना चाहिए. चीन जैसा देश हम से कम भूमिगत जल का उपयोग करता है. देश मे बढते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण भूमिगत जल का अधिक दोहन किया जा रहा हैं जिसके परिणाम स्वरूप अपशिष्ट जल की मात्रा भी बढ़ती जा रही है. पानी की कमी की दशाओं में खेती मे अपशिष्ट जल का प्रयोग किया जा सकता है, यह पानी पोषक तत्वों व सिंचाई का सुनिश्चित और सस्ता स्रोत है. अतः इस अपशिष्ट जल को संशोधित कर विकास कार्यों व खेती में प्रयोग किया जा सकता है, ताकि बर्बाद चले जाने वाले पानी का सदुपयोग किया जा सके. इसके अतिरिक्त दूषित पानी की उपलब्धता शहरों में अधिक है, सिंचाई के पानी की उपलब्धता दिन प्रतिदिन तेजी से कम होती जा रही है. ऐसी परिस्थितियों में सिंचाई हेतु संशोधित जल को पुनः उपयोग करना अनिवार्य हो गया है, परन्तु साथ ही हमें इस बात का भी ध्यान रखना अति आवश्यक है भारत में खेती के कामो में 90 प्रतिशत साफ पानी का प्रयोग किया जाता है. जबकि इजराइल खारे अथवा अपशिष्ट पानी को साफ करके खेती के काम में प्रयोग करता है.
अपशिष्ट जल को उपयोग करने के कारण
हमारे देश में प्रदूषित जल का उत्पादन इसके संशोधन की तुलना में बहुत अधिक है. देश में प्रदूषित पानी को संशोधित करने के संयन्त्र एवं उनकी क्षमता की अपेक्षा प्रदूषित जल की उत्पादन दर बहुत ही अधिक है, इसलिए प्रदूषित जल का सही संशोधन करके खेती में सिंचाई हेतु सही उपयोग अनिवार्य हो गया है. अन्यथा प्रदूषित जल हमारे स्वच्छ व अच्छे जल के स्रोतों को भी प्रदूषित कर सकता है. साथ ही बहुत सी बीमारियाँ एवं अन्य समस्याएं भी उत्पन्न कर सकता है.
प्रदूषित जल की गुणवत्ता
प्रदूषित जल की गुणवत्ता इसके उत्पत्ति स्रोत पर निर्भर करती है, परन्तु आम तौर पर प्रदूषित जल में पौधों के लिए पोषक तत्वों की प्रचुर मात्रा होती है. इसमें नाइट्रोजन, फासफोरस एवं पोटाश के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्व भूजल एवं नहरी जल की अपेक्षा काफी अधिक मात्रा मे पाये जाते है.
भूजल का बढता संक्रमण
वर्तमान में भूजल भयंकर रूप से प्रदूषित हो रहा है. भूजल के अन्धाधुंध दोहन और इसमें मिलने वाले प्रदूषण ने इसकी हालत बिगाड़ दी है. इसके प्रमुख कारको मे घरेलू व्यर्थ पदार्थ, वाहित मल-मूत्र, औद्योगिक अपशिष्ट, रेडियोधर्मी पदार्थ, पेट्रोलियम तत्व और भारी धातुएं प्रमुख हैं. नगरों के सीवेज में मौजूद हानिकारक जीवाणुओं, फंफूदी, विषाणु और भारी धातुओं जैसे कोमियम, मरकरी और लैंड का भूजल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. जिस भूजल के सहारे हम जीवित हैं. वही आज प्रदूषित हो जाने पर अनेक बीमारियों का कारण बनता जा रहा है. प्रदूषित पानी को पीने के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों के कारण अनेक लोग अपनी जान गवां बैठते हैं. दोषपूर्ण सिंचाई प्रणाली व खेती में बढ़ते कृषि रसायनों के प्रयोग से भूजल की गुणवत्ता, भूमि के उपजाऊपन एवं फसल उत्पादों की गुणवत्ता में कमी और उत्पादकता में कमी जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं, जिसका अन्ततः मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी ओ) और दूसरी एजेन्सियां भी सुरक्षित जल की कमी को लेकर चिन्तित हैं. आज जहाँ विषाक्त जल के कारण विभिन्न प्रकार की बीमारियां लोगों में पनप रही हैं, वहीं कृषि रसायनों के गलत और अत्यधिक प्रयोग से भूजल संकमण और मृदा स्वास्थ्य भी बिगड़ता जा रहा है. रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित और अनुचित प्रयोग से पीने के पानी की समस्या भी गंभीर होती जा रही हैं, क्योंकि प्रयोग किए गए रासायनिक उर्वरकों का अधिकांश भाग भूमि में रिस कर या अन्य तरीकों से भूमिगत जल, नदियों, तालाबों और झरनों में मिल जाता है. जिसके फलस्वरूप पानी के स्रोत प्रदूषित होते जा रहे हैं, साथ ही फसल उत्पादों में इन रसायनों की विषाक्तता भी बढ़ती जा रही है. अधिकांश रासायनिक उर्वरकों का अवशेष प्रभाव श्वसन तन्त्र व आहार तन्त्र को प्रभावित करता है, फसल उत्पादों में नाइट्रोजन मुख्यतः नाइट्रेट के अत्यधिक संचय के कारण बच्चों में ब्ल्यू बेबी सिन्ड्रोम नामक बीमारी हो जाती है. यह बीमारी धान उगाने वाले क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है. जहां पर धान की फसल में दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का अधिकांश भाग नाइट्रेट के रूप में भूमिगत जल में मिल जाता है, जब हम इस भूजल का उपयोग पेय जल के रूप में करते हैं तो भूजल में उपस्थित नाइट्रेट हमारे शरीर में पहुंच जाता है. प्रदूषित पानी को पीने से टाइफायड, पेचिश, हैजा, पीलिया और पेट में कीड़े इत्यादि भी हो जाते हैं.
भूजल संरक्षण के उपाय
आज पूरा देश स्वच्छ पीने के पानी की समस्या से जूझ रहा है. उत्तर पश्चिम भारत के बहुत सारे इलाके डार्क जोन की श्रेणी में पहुंच गये हैं. वहां भूजल का भंडार या तो समाप्त हो गया है. या इतने नीचे चला गया है कि वहां से पानी निकाला नही जा सकता. इसके लिए हमें परम्परागत जल स्रोतों के संरक्षण पर जोर देना होगा. तालाब पानी के संरक्षण के लिए बेहद जरूरी हैं, तालाबों के जरिए ही हम भूजल स्तर को उपर उठा सकते हैं. दूसरा तालाबों के द्वारा ही बरसात के पानी को संरक्षित किया जा सकता है. आज देश के अनेक भागों में तालाबों की स्थिति बदतर होती जा रही है. तालाबों की जमीन पर अवैध कब्जे किये जा रहे हैं। जिससे उनके आकार और जल संग्रह की क्षमता कम होती जा रही है. आज इन तालाबों को पुनः जीवित करने और आम लोगो को तालाबो के महत्व के प्रति जागरूक करने की नितान्त आवश्यकता है. अनेक पर्यावरणविदों और जल विशेषज्ञों के प्रयासो के बावजूद देश के तालाबों और जलाशयों की हालत में कोई सुधार नजर नही आ रहा है. अगर आंकडों की बात की जाये तो देश में सबसे ज्यादा तालाब दक्षिण भारत में है. तालाब बिना किसी रखरखाव व देखरेख के अभाव में सूखते जा रहे है. यदि इन तालाबों के रखरखाव पर उचित ध्यान दिया जाये तो देश में भूजल के गिरते स्तर की समस्या को काफी हद तक ठीक किया जा सकता है. देश में भूमिगत जल का स्तर लगातार कम हो रहा है. साथ ही जमीन की सतह पर मौजूद पानी प्रदूषित हो रहा है, जो अन्ततः रिस कर भूमिगत जल में मिल जाता है. साथ ही वर्षा के पानी का उचित तरीके से संरक्षण नही हो पा रहा है. इन सब समस्याओं के समाधान के लिए सरकार को वन संरक्षण कानून की तर्ज पर भूमिगत जल, सतही जल और वर्षा जल को संरक्षित करने के लिए भी कानून बनाना चाहिए. साथ ही कोयला, बॉक्साइट, लोहा, प्राकृतिक गैस व अन्य खनिजों की तर्ज पर भूमिगत जल के उपयोग पर भी शुल्क लगाया जाना चाहिए ताकि इसके दुरूपयोग को रोका जा सके. भूजल का सोच-समझकर प्रयोग करने के लिए समेकित जल प्रबंधन धारणा विकसित की जानी चाहिए.
भूजल संक्रमण की समस्या के समाधान के लिए जल प्रदूषण को उसके स्रोत पर ही रोकना सबसे अच्छा उपाय होगा. पानी की निकासी वाली सभी औद्योगिक इकाइयों के लिए प्राइमरी एफ्ल्यूएंट ट्रीटमेंट प्लांट (पीईटीपी) लगाना और सक्रिय रखना अनिवार्य होना चाहिए। इसके साथ ही जल प्रौद्योगिकियों में हमें ऐसे सुधार करने होंगे, जो हमारे भूजल को न केवल स्वस्थ व सुरिक्षत बनाये रखें, बल्कि भूजल स्तर में उत्तरोतर वृद्धि भी करें.
हमें धान की खेती में सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा. इस संबध में वर्षा जल संग्रहण तकनीक, धान उगाने की ऍरोबिक विधि, मूल्य सवंर्धित नाइट्रोजन उर्वरकों, एकीकृत पोषण प्रबन्धन व जैविक उर्वरकों के प्रयोग की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. अतः इन तकनीकों को आम जनता, किसानों व प्रसार कर्मियों में और अधिक लोकप्रिय बनाने की जरूरत है. ताकि संरक्षणपूर्ण प्रौद्योगिकियों के प्रयोग से बेहतर भूजल प्रबन्धन एवं जल उपयोग दक्षता को अधिक लाभप्रद बनाया जा सके, जिसे भावी पीढ़ी को पर्याप्त शुद्ध जल के साथ सुरक्षित भूजल भंडार भी प्राप्त हो सके.
वर्षा के पानी को एकत्र करके बाद में कृषि उत्पादन में इस्तेमाल करने को वर्षा जल संग्रहण कहा जाता है. आज अच्छी गुणवत्ता वाले पानी की कमी एक गम्भीर समस्या हैं क्योंकि किसानों की लापरवाही से अच्छी गुणवत्ता वाला वर्षा जल शीघ्र ही बहकर नष्ट हो जाता है. जिन क्षेत्रों में पानी का अन्य कोई स्रोत न हो, वहाँ पर वर्षा जल को एकत्रित कर खेती के कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है. फसलोत्पादन बढ़ाने हेतु शुष्क क्षेत्रों में वर्षा जल के संग्रहण पर अधिक ध्यान देना चाहिए, मेंड़ बन्दी करने से मृदा में पानी का अवशोषण तो बढ़ता ही है साथ ही मृदा क्षरण व जल के अपव्यय को रोकने में भी मदद मिलती है. मेंड़ बन्दी का कार्य वर्षा ऋतु से पूर्व कर लेना चाहिए. शुष्क क्षेत्रों में फालतू पानी को खेतों के आस-पास तालाब बनाकर एकत्र कर लेना चाहिए. इससे फसल में पानी की कमी के दौरान उपयोग में लाया जा सकता है. साथ ही आस-पास के क्षेत्रों में भू-जल स्तर भी बढ़ जाता है. बाढ़ द्वारा होने वाले मिट्टी के कटाव के नुकसान से भी बचा जा सकता है. जिसके परिणामस्वरूप फसल की उपज में वृद्धि और पैदावार में स्थायित्व आता है.
कम पानी वाले क्षेत्रों में ड्रिप सिंचाई प्रणाली अपनाई जाए. इससे पानी के अपव्यय पर रोक लगेगी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि रेतीली, पथरीली मिट्टी 45 डिग्री सेल्सियस के तापमान और नगण्य वर्षा के बावजूद रेगिस्तान में ड्रिप सिंचाई के द्वारा इजराइल ने हरित क्रांति की है. ड्रिप सिंचाई तकनीक के सहारे इजराइल रोजाना हजारो टन फूल और सब्जियां यूरोप को निर्यात कर रहा है. ठंडे वातावरण और समुन्द्र तल से दूर उगने वाले अंगूर को रेगिस्तान के भीतर 45 डिग्री सेल्सियस के तापमान में ड्रिप सिंचाई से उगाकर आज इजराइल अंगूर का बड़ा निर्यातक देश बन गया है.
फसलों के आनुवंशिक रूप से सुधार के बारे में बौद्धिक स्तर पर ध्यान देना होगा. ऐसे पौधे विकसित किए जाएं, जिसमें रेगिस्तानी पौधों के जीन्स हों और वह कम से कम पानी पर अपना जीवन चक्र पूरा कर सकें. जिससे भूजल पर बढ़ते दबाव को रोकने में मदद मिलेगी. आधुनिक कृषि यन्त्र लेजर लेवलर के उपयोग से खेत को पूर्णतया समतल किया जा सकता है. पूर्ण समतल खेत की सिंचाई में पानी कम लगता है क्योंकि खेत समतल होने के कारण पानी जल्दी ही सम्पूर्ण सतह पर फैल जाता है जिससे सिंचाई जल की बचत होती हैं.
हाल ही में पंजाब सरकार ने फसल विविधीकरण पर एक योजना तैयार की है, जिसके अन्तर्गत अगले पांच वर्षों में धान के क्षेत्रफल को वर्तमान 2.8 मिलियन से घटाकर 1.6 मिलियन हैक्टेयर कर दिया जायेगा. शेष क्षेत्र में दलहन, तिलहन, मोटे अनाज व साग-सब्जी की खेती की जायेगी इससे न केवल भूजल व ऊर्जा की खपत में कमी आयेगी, बल्कि धान-गेहूं की प्रति हैक्टेयर उपज में आ रही गिरावट या स्थिरता को दूर करने में भी मदद मिलेगी.
देश में तेजी से बढ़ रहे औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने खाद्यान्न पैदा करने के लिए जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता को कम कर दिया है. अतः देश की लगातार बढ़ती आबादी हेतु खाद्यान्न व जल की सतत आपूर्ति के लिए उपलब्ध सीमित संसाधनों का कुशलता पूर्वक उपयोग करना अनिवार्य है, जिससे पानी की प्रत्येक बूंद से अधिकाधिक कृषि उत्पादन लिया जा सके. अतः देश के कल्याण और प्रगति के लिए भूजल संरक्षण और उसके सही इस्तेमाल के लिए माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 'हर बूंद ज्यादा फसल के नारे के महत्व को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण और उसके सही इस्तेमाल के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए.
जीरो टिलेज तकनीक का प्राकृतिक संसाधनों मुख्यतः जल के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान है. आधुनिक खेती में संरक्षित टिलेज पर जोर दिया जा रहा है. जिसमें फसल अवशेषों का अधिकांश भाग मृदा सतह पर छोड़ दिया जाता है. जिससे न केवल फसल उत्पादकता में सुधार होता है बल्कि मृदा जल के हास को भी रोका जा सकता है. धान के पश्चात गेहूँ की सीधी बुवाई के लिए जीरो टिलेज ड्रिल का प्रयोग लाभदायक पाया गया है. क्योंकि पारम्परिक बुवाई की अपेक्षा इसमें 30 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत होती है. इसके अलावा धान गेंहू फसल चक्र की खेती में भूजल स्तर में गिरावट, मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी, फसल अवशेषों में आग लगाने की समस्या व उर्वरकों की बहुतायत जैसे समस्याएं पैदा हो गयीं हैं, अतः धान-गेहूं फसल चक्र का विकल्प खोजा जाना चाहिए. उत्तर पश्चिम भारत में धान व गेंहू के स्थान पर कुछ क्षेत्र में दलहन, तिलहन, मोटे अनाज व साग-सब्जी की खेती की जानी चाहिए. इससे न केवल भूजल व ऊर्जा की खपत में कमी आयेगी बल्कि धान गेहूं की प्रति हैक्टेयर उपज में आ रही गिरावट या स्थिरता को दूर करने में भी मदद मिलेगी. जैसा कि हम जानते है कि एक किलोग्राम धान पैदा करने में 5000 लीटर पानी की खपत होती है. इसी प्रकार सामान्यतः एक किलोग्राम आलू पैदा करने के लिए 500 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है, जबकि मोटे अनाज कुछ सौ लीटर पानी में ही तैयार हो जाते है.
जन जागरूकता अभियान
वैज्ञानिको को भूजल संरक्षण व अनुसंधान में नयेपन पर जोर देने व विकसित तकनीक को लैब टू लैंड प्रोग्राम के तहत आम जनता व किसानों तक पहुंचाने के लिए जोर देना चाहिए विभिन्न प्रशिक्षण और सूचना साहित्य के वितरण द्वारा उपरोक्त तकनीकों को किसानों के बीच लोकप्रिय बनाने की नितान्त आवश्यकता है. जिससे इन तकनीकों का प्रयोग कर भूजल का बेहतर प्रबन्धन किया जा सके.
किसानों को समय-समय पर कृषि रसायनों व रासायनिक उर्वरकों के संतुलित प्रयोग के लिए उचित परामर्श देकर भी भूजल पर इनके दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है. इसके लिए किसानों को उर्वरकों की उपयुक्त प्रयोग विधि व उनके प्रयोग करने के उचित समय की जानकारी देना अति आवश्यक है. इस प्रकार प्रयोग किये गये उर्वरकों का पूरा-पूरा फायदा फसल को मिलेगा, साथ ही भूजल की गुणवत्ता में भी सुधार होगा
किसानों को घटते भूजल स्तर के दुष्परिणामों से अवगत कराया जाना चाहिए. इसके लिए किसान सम्मेलन, किसान संगोष्ठी एवं किसान मेलों का आयोजन किया जा सकता है. सरकार कृषि वैज्ञानिकों और किसानों को मिल-बैठकर, यह विचार करना होगा कि किस तरह ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाएं जिससे किसान खेती से अधिक उत्पादन लेने हेतु भूजल व अन्य सिंचाई साधनों का सोच समझकर प्रयोग करें. इसके लिए पूर्ण प्रचार एवं प्रसार की आवश्यकता है. ताकि किसानों का ध्यान घटते भूजल जैसी गम्भीर समस्या की ओर आकर्षित किया जा सके.
यदि समय रहते हमने भूजल के संरक्षण पर विशेष जोर नहीं दिया तो भविष्य में गम्भीर खाद्य समस्या, पेय जल संकट व विभिन्न आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है. जल संकट एक विश्वव्यापी समस्या है, अतः जल संकट की समस्या से निपटने के लिए असरदार कार्य व्यापक तौर पर करने की आवश्यकता है भविष्य में भूजल संरक्षण के लिए हमें खेती में सिंचाई जल का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा, जिससे जल संकट जैसी गम्भीर समस्याओं से मुक्ति मिल सके. भूजल की बर्बादी को लेकर सख्त कायदे कानून बनाये जाने चाहिए इस सम्बन्ध में जन जागरूकता बहुत जरूरी है. लोगो को बताना होगा कि भूजल की एक बूंद को मृदा सतह पर पहुंचाने में वैज्ञानिकों व किसानों को कितना पसीना बहाना पड़ता है. साथ ही इसे आपके घर व किसानों के खेतों तक पहुंचाने में कितना श्रम व पूंजी खर्च होती है. जल संरक्षण और जल की समस्या को दूर करने के लिए हम प्रति वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाते हैं. इस अवसर पर पानी बचाने से लेकर सबको पानी पहुंचाने की बात होनी चाहिए. अतः हम सबको संरक्षणपूर्ण प्रौद्योगिकियों का प्रयोग कर बेहतर भूजल प्रबन्धन पर जोर देना होगा अन्त में हम कह सकते हैं कि बचाव उपचार से कहीं ज्यादा अच्छा है. अगर भूजल बचा रहा तो इससे सभी बचे रहेगें.
जल प्रौद्योगिकी केन्द्र, भरतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नयी दिल्ली- 110 012
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