सभ्यताएँ नदी किनारे ही विकसित होती हैं। भारतीय उत्सवों का भी नदियों से गहरा रिश्ता है। हिन्दू मान्यता में कुम्भ स्नान का महत्त्व किसी से छुपा नहीं है। यहाँ महाकुम्भ के जिक्र की एक खास वजह है। जैसाकि हम पिछले कई सालों से लगातार देख रहे हैं कि भारतीय मीडिया के लिये कश्मीर घाटी से जुड़ी खबर का अर्थ आतंकी की हत्या, कर्फ्यू, भारतीय जवानों पर हमला, या फिर किसी युवती के बलात्कार से भड़की आवाम की खबर ही होती है।
मानों घाटी में हमला, हत्या और बलात्कार के अलावा कोई घटना ना घटती हो। वहाँ के लोग सख्त दिल हों और वहाँ कभी कोई ठंडी हवा ना बहती हो। कोई फूल ना खिलता हो। कहीं कोई उम्मीद की रोशनी ना दिखाई देती हो। कोई उत्सव ना होता हो।
घाटी में अखबारों और टेलीविजन चैनलों की खबरों के बाहर भी एक दुनिया आबाद है। वरना 75 सालों के बाद एक बार फिर घाटी में दशर महाकुम्भ मेले का आयोजन सम्भव नहीं होता। यहाँ महा आयोजन झेलम, कृष्ण और सिंधु नदी के तट पर श्रीनगर से तीस किलोमीटर दूर उत्तरी कश्मीर के शादीपुरा घाट और नारायण घाट पर हुआ।
यहाँ एक चिनार का पेड़ है और साथ एक शिव लिंग भी। जहाँ ये तीनों नदियाँ मिलती हैं। यही वह स्थान था, जहाँ महाकुम्भ के लिये हजारों की संख्या में कश्मीरी पंडित शामिल हुए। जिस चिनार के वृक्ष का ऊपर जिक्र किया गया है, वह चारों तरफ से पानी से घिरा हुआ है। उसे प्रयाग चिनार कहते हैं। यहाँ तक बोट से पहुँच कर, कुछ दूरी तय करके नदियों का संगम भी आप देख सकते हैं। इसी पेड़ के नीचे शिव लिंग है, जिसकी पूजा की जाती है। कश्मीरी पंडितों की मान्यता है कि नदी में चाहे कितना भी बढ़ जाये लेकिन प्रयाग चिनार को कुछ नहीं होगा।
75 सालों के बाद आयोजित इस महाकुम्भ में श्रद्धालुओं ने नदी में डूबकी लगाई और बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों ने अपने इष्ट देवता से मन्नत माँगी कि घाटी के हालात को उनकी सुरक्षित वापसी के अनुकूल बना दे।
जिस झेलम नदी के किनारे महाकुम्भ का आयोजन हुआ, उसकी बात करें तो यह नदी भारत और पाकिस्तान दोनों में 725 किलोमीटर तक बहती है। यह चेनाब नदी की सहयोगी नदी है। झेलम पंजाब के उन पाँच नदियों में से एक है, जिनसे पंजाब बना है। यह नदी पंजाब के झेलम जिले से होकर बहती है।
इस नदी का जिक्र पौराणिक ग्रंथों में वितस्ता के नाम से आया है। दूसरी नदी है सिंधु। जिसके किनारे महाकुम्भ के श्रद्धालु इकट्ठे हुए। इस नदी को इंडस भी कहते हैं। 3180 किलोमीटर में बहने वाली इस नदी को एशिया की सबसे बड़ी नदी भी कहते हैं। यह जम्मू-कश्मीर, तिब्बत से होती हुई पाकिस्तान में बहती है। झेलम और सिन्धु नदी का जिक्र ऋग वेद में भी आया है।
यह सच है कि कश्मीर घाटी में हुए इस महाकुम्भ की चर्चा मुख्य धारा की मीडिया में नहीं हुई क्योंकि कुम्भ मेला के उत्सव में ना बलात्कार था, ना हत्या थी और ना सुरक्षा बलों पर हमला था।
सन 1941 के 75 सालों बाद घाटी में कुम्भ का आयोजन हुआ है। कुम्भ मेला से कुछ समय पहले की बात है, जब जम्मू कश्मीर की सरकार ने बडगाम में आचार्य अभिनव गुप्त की यात्रा पर रोक लगाई थी। उसके बाद से जम्मू कश्मीर के पंडित समुदाय के बीच जबर्दस्त गुस्सा और आक्रोश था। दूसरी तरफ जो घाटी में पाकिस्तानी इशारे पर काम करने वाला अलगाववादियों का खेमा है, वह पहले से ही सरकार से नाराज चल रहा है।
वजह सरकार की वह योजना है, जिसके अन्तर्गत वह विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से घाटी में बसाने की योजना पर काम कर रही है। इसके लिये घाटी में पुनर्वास काॅलोनियों का निर्माण जम्मू कश्मीर सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है। इन घटनाओं के बीच कुम्भ मेला को लेकर भी आयोजकों के मन में अन्तिम समय तक यह आशंका थी कि इसे कहीं प्रशासन द्वारा रोक ना दिया जाये। वैसे भी आयोजन स्थल के संवेदनशील होने की वजह से किसी प्रकार के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता था।
इन तमाम खतरों की आशंकाओं के बावजूद बड़ी संख्या में मेले में कश्मीरी पंडित शामिल हुए। इनमें अधिक संख्या उन लोगों की थी, जिन्होंने कश्मीर के बाहर अपना घर बना लिया है लेकिन खुद को कश्मीर की मिट्टी से अलग नहीं कर पाये हैं। ऐसे कश्मीरी पंडित भी आये थे, जिन्होंने चाहे अपना घर कश्मीर से बाहर बना लिया हो लेकिन अपनी पुश्तैनी जमीन कश्मीर घाटी में बेची नहीं। इस उम्मीद में कि एक दिन सब सामान्य हो जाएगा। जब एक दिन घाटी का वातावरण सबके अनुकूल होगा, तो लौटकर आने के लिये एक घर तो यहाँ चाहिए। इसी सोच ने उन्हें अपना घर नहीं बेचने दिया।
जम्मू कश्मीर की सरकार ने कुम्भ मेला में शामिल होने आये कश्मीरी पंडितों के लिये यातायात और सुरक्षा का विशेष ख्याल रखा था। कुम्भ मेला के स्थान पर स्वच्छता और साफ-सफाई का खास इन्तजाम देखने को मिला। किसी तरफ गन्दगी नहीं थी। सफाई बनाए रखने में कुम्भ मेला में शामिल होने आये श्रद्धालुओं ने भी सहयोग किया। झेलम नदी के घाट पर श्रद्धालुओं के लिये सहायता डेस्क बनाया गया था। जहाँ से श्रद्धालु अपने लिये उपयोगी कुम्भ से जुड़ी जानकारी हासिल कर सकते थे।
यह जानना उस मेले में ना शामिल हुए लोगों के लिये दिलचस्प होगा कि कुम्भ में पूजा से जुड़ी या अन्य आवश्यक सामग्री जो श्रद्धालुओं को उपलब्ध कराया जा रहा था, इसे उपलब्ध कराने वाले अधिकांश दुकानदार स्थानीय मुसलमान थे। मेले में फूल, फल, सब्जी, जूस, चाय और भी जरूरी सामग्रियों की दूकानें मुसलमान ही चला रहे थे और सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि यह सामग्री बेचने वाले मुस्लिम दुकानदारों ने भी व्रत रखा हुआ था।
स्थानीय मुस्लिम समाज ने श्रद्धालुओं को नदी पार कराने के लिये वोट का मेले में खास इन्तजाम किया था। जब कश्मीर की राजनीति उफान पर है, घाटी जल रही है, ऐसे समय में 75 साल पुरानी परम्परा का एक बार फिर से कुम्भ मेले के तौर पर शान्तिपूर्वक आयोजन जम्मू कश्मीर सरकार और स्थानीय प्रशासन की बड़ी सफलता है।
आज घाटी में अलगाववादियों से अलग राय रखने वाली अधिसंख्य मुस्लिम आबादी और कश्मीर का पंडित ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा है कि कश्मीर घाटी में अमन फिर से लौट आये। कश्मीर घाटी फिर से जन्नते फिरदौस बने और कश्मीरी पंडितों की एक बार फिर से घाटी में घर वापसी हो पाये।
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