अंग्रेज सरकार के खिलाफ असहयोग पुकार कर महात्मा जी स्वराज्य की तैयारी कर रहे हैं। अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई है। स्वातंत्र्यवादी नौजवान महाविद्यालय में शरीक हुए हैं। वे अपनी आकांक्षाएं और कल्पना-विलास व्यक्त करने के लिए एक मासिक पत्रिका चाहते हैं। मेरे पास आकर वे पूछते हैं, “मासिक पत्रिका का नाम क्या रखेंगे?” वह जमाना ऐसा था जब चाचा (काका) को ही बुआ का काम करना पड़ता था।
मैंने कहा, “मासिक पत्रिकाएं तो काफी प्रकाशित हो रही हैं। तु दो-दो महीनों में, ऋतु-ऋतु में, नये रूप में प्रकट होने वाली पत्रिका शुरू करो उसका नाम रखो ‘साबरमती’।” द्विमासिक की कल्पना तो पसंद आई। किन्तु ‘साबरमती’ नाम किसी को न भाया। ‘साबरमती’ तो है हमारी हमेशा की परिचित नदी! हम उसमें रोज स्नान करते हैं। उसमें क्या नावीन्य है कि हम यह नाम अपने नवचेतनवाले साहित्य-प्रवाह को दें? मैंने कहा, ‘साबरमती प्रवाह सनातन है-इसीलिए नित्य-नूतन है।’ मिसाल देने की दृष्टि से मैंने दलील पेश की, “सिंध-हैदराबाद के हमारे मित्रों ने अपनी कॉलेज की पत्रिका का ‘फुलेली’ नाम रखा है। ‘फुलेली’ सिंधु की एक नहर है। हमारी यह अनाविला (कीचड़-रहित) साबरमती गांधीयुग की प्रतीक बन सकती है। मेरी बात मान लो और साबरमती नाम अपना लो।”
युवकों ने मेरी आज्ञा का पालन करने के लिए साबरमती नाम को अपनाया, हालांकि वे चाहते थे इससे कोई अधिक जोशिला नाम।
मैंने नरहरिभाई से कहा-“साबरमती गुजरात की विशेष लोकमाता है। आबू के परिसर से जिन नदियों का उद्गम होता है, उनमें यह ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। उसका एक गद्यस्रोत लिख दीजिये।” उन्होंने उत्साहपूर्वक एक छोटा सा, सुन्दर लेख लिख दिया। विद्यार्थियों की भावनाएं जागृत हुई। इस लोकमाता के प्रति उनमें भक्ति पैदा हुई देखकर मैंने मौके से लाभ उठाया और विद्यार्थियों से कहा, “मेरा सुझाया हुआ नाम तुम लोग अनिच्छा से स्वीकार करो, यह मुझे पसन्द नहीं है। चाहों तो मैं दूसरा नाम सुझाता हूं।” सबने एक ही आवाज में जवाब दिया, “नहीं, नहीं, हम दूसरा नाम नहीं चाहते। ‘साबरमती’ ही सबसे सुन्दर है।”
मैने कहा, “इसमे तो कोई संदेह ही नहीं है।”
मेरे नदी-पूजक हृदय ने भारत की अनेक नदियों को समय-समय पर अंजलियां अर्पित की है। सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्रा और इरावती तक और दक्षिण में पिनाकिनी तथा कावेरी तक, अनेक नदियों को मैंने संस्मरणांजलियां दी हैं। किन्तु यह देखकर कि इनमें गुजरात की ही मुख्य नदियां रह गयी है, मेरे कई पाठकों ने इसका कारण पूछा और गुजरात की लोकमातओं के बारे में लिखने की आग्रह पूर्वक सूचना की।
मैने कहा, “नदी के उपस्थान की प्रेरणा मैं दे चुका हूं। अब गुजरात की नदियों-के बारे में गुजराती में कोई गुर्जरी-पुत्र लिखे, इसी में औचित्य है।”
इसकी भी काफी राह देखी गयी और बार-बार मुझे सूचना की गयी। किन्तु अंत में मेरी श्रद्धा सच्ची साबित हुई और गुजरात विद्यापीठ के एक विद्यार्थी वनस्पति-उपासक श्री शिवशंकर ने गुजरात की लोकमाताओं के बारे में लिखना शुरू किया। यह काम किसी समय अवश्य पूरा होगा। मुझे संतोष है कि साबरमती के प्रवाह-कुटुंब के बारे में उन्होंने पर्याप्त लिखा है। इसलिए मुझे विस्तारपूर्वक लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु जिस नदी के किनारे मैंने महात्माजी के और सब साथियों के संपर्क में 25-30 साल बिताये, उस नदी को श्रद्धांजली अर्पण करने का कर्तव्य तो रही ही जाता था। उसे आह्लादपूर्वक पूरा करने के लिए थोड़ा सा लिखता हूं।
हमारे कवि हरेक नाम को संस्कृत रूप देने का प्रयत्न तो करेंगे ही। साबरमती का संस्कृति शब्द बनाते समय उन्होंने ‘साभ्रमति’ शब्द खोज निकाला और फिर उसका दो तरह से पदच्छेद किया। एक दल ने बताया ‘सा भ्रमति’ भ्रमण करती है, टेढ़े-मेढ़े मोड़ लेती है। दूसरे ने कहा कि इन नदी के प्रवाह के ऊपर के आकाश में अभ्र-बादल दिखाई देते हैं; इसलिए वह अभ्रमति या ‘साभ्र-मति’ है। मेरा खयाल है कि यह सारा प्रयास मिथ्या है।
जिस नदी के किनारे गायों के झुंड घूमते हैं, चरते औह पुष्ट होते हैं, वह जिस प्रकार या तो गो-दा (गोदावरी) या गो-मती होती है; जिस नदी के किनारे और प्रवाह में बहुत पत्थर होते हैं, वह जिस प्रकार दृषद्-वती होती है, उसी प्रकार अने सरोवरों को जोड़ने वाली या सारस पक्षियों से शोभने वाली नदी सरस्-वती या सारस-वती कही जाती है। इसी न्याय से भारत की नदियों को बाघ-मती, हाथ-मती, ऐरावती आदि अनेक नाम हमारे पूर्वजों ने दिए हैं। इनमें हाथमती तो साबरमती से ही मिलने वाली नदी है। हिरन या साबर जिसके किनारे बसते हैं, लड़ते हैं और आजादी से विहार करते हैं, वह है साबर-मती। उसका सम्बन्ध ‘श्वभ्र’ के साथ जोड़ देने की कोई आवश्यकता नहीं है।’
गुजरात की नदियों में तीन-चार बड़ी नदियां आंतरप्रांतीय है। नर्मदा, तापी मही- तीनों दूर-दूर से निकलकर पूर्व की ओर से आकर गुजरात में घुसती हैं और समुद्र में विलीन हो जाती हैं। साबरमती इनसे अलग है। आरवल्ली पहाड़ में जन्म पाकर तथा अनेक नदियों को साथ में लेकर दक्षिण की ओर बहती हुई अंत में वह सागर से जा मिलती है। साबरमती के जैसी कुटुंब-वत्सल नदियां हमारे देश में भी अधिक नहीं है। साबरमती को विशेष रूप से गुर्जरी माता कह सकते हैं। उसके किनारे गुजरात के आदिम निवासी सनातन काल से बसते आये हैं। उसके किनारे ब्राह्मणों ने तप किया है। राजपूतों ने कभी धर्म के लिए, तो बहुत बार अपनी बेवकूफी से भरी हुई जिद के लिए, वीर पुरषार्थ कर दिखाया है। वैश्यों ने इसके किनारे गांव और और शहर बसाकर गुजरात की समृद्धि बढ़ायी है और अब आधुनिक युग का अनुकरण करके शूद्रों ने भी साबरमती के किनारे मिलें चलाई हैं।
सच पूछा जाय तो इन नदियों के साथ घनिष्ठ संपर्क तो पशुपक्षियों की तरह आदिम निवासियों का ही होता है। इसलिए साबरमती के कुटुंब-विस्तार का काव्य यदि इकट्ठा करना हो तो पुराणों की ओर मुड़ने के बदले आदिम निवासियों की लोक-कथाओं और लोक-गीतों की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए डर यह है कि आज के संशोधक नवयुवकों में इस काम के लिए उत्साह पैदा हो और आदिम निवासी गिरिजनों के साथ मिल-जुल जाने के लिए वे समय निकाल सकें, उसके पहले ही आदिम निवासियों की नदी-कथाएं कहीं लुप्त न हो जायं।
केवल नदी-भक्ति से प्रेरित होकर आदिम निवासियों का ‘वौठा’ का मेला जब तक होता है, तब तक बिलकुल निराश होने का कोई कारण नहीं है। सात नदियों का पानी क्रमशः एक-दूसरे में मिलकर जिस जगह एकत्र होता है, उसके काव्य का आनंद भोगने या नहाने के लिए जहां आदिम निवासी तथा दूसरे लोग इकट्ठे होते हैं, वहां ‘वौठा’ में साबरमती के बारे में आदि-कथाएं हमें मिलनी ही चाहिये।
साबरमती के पुराने नामों की खोज करते हुए कश्यपगंगा या ऐसा ही दूसरा एकाध नाम अवश्य मिल जायेगा। नदी को किसी न किसी प्रकार गंगा का अवतार जब तक न बनायें तब तक आर्यों को संतोष नहीं होता। किन्तु मुझे को साबरमती का पुराना नाम ‘चंदना’ सबसे अधिक आकर्षित करता है। क्योंकि-जैसा मैंने सुना है-कहीं-कहीं पीली मिट्टी के बीच से बहने के कारण वह गोरोचन का रंग धारण करती है। किन्तु साबरमती के जिस किनारे पर मैंने तीस साल बिताये वहां उसका पानी सज्जनों और महात्माओं के मन की तरह बिलकुल निर्मल है।
जहां नदी का पानी छिछला होने से उस पार तक आसानी से जाया जा सकता है; ऐसे स्थान को संस्कृत में तीर्थ कहते हैं। अनेक स्थानों पर प्रयत्न कर देखने के बाद यात्री लोग तय करते हैं कि अमुक-अमुक जगह ऐसे घाट हैं। अतः थोड़ा बहुत चलकर वे ऐसे घाट के पास आते हैं, वहीं इकट्ठे होते हैं, बैठकर विश्रांति लेते हैं, बातचीत करते हैं और नदी का पानी यकायक बढ़ गया हो तो जब तक वह कम न हो जाय तब तक कुछ घंटों या कुछ दिनों तक वहां ठहरते भी हैं। इस प्रकार जहां स्वाभाविक रूप में लोग इकट्ठे होते हैं, वहां धर्मसेवा और लोकसेवा के लिए परम कारुणिक संत आकर बस जाते हैं। इसीलिए तीर्थ शब्द को उसका नया अर्थ प्राप्त हुआ। मूल में तीर्थ शब्द का अर्थ होता था केवल ऐसा घाट जहां से नदी को आसानी से पार किया जा सके। इससे अधिक अर्थ कुछ नहीं। किन्तु जहां साधु-संत लोगों को भवनदी पार करने की नसीहत देते हैं और उसकी कला भी सिखाते हैं, उस तीर्थ स्थान को विशेष पवित्रता अपने आप प्राप्त होती है।
अहमदाबाद के पास साबरमती ने रेलवे-पुल से लेकर सरदार-पुल तक और उससे भी अधिक दक्षिण की ओर कई तीर्थ हैं। उनमें भी जहां चंद्रभागा नदी साबरमती से मिलती है वहां दधीचि ने तप किया था, इसलिए वह स्थान अधिक पवित्र माना जाता है। और आस-पास के लोगों ने इहलोक को छोड़कर परलोक जानेवाले वाले यात्रियों को अग्निदाह देकर विदा करने की जगह वही पसंद की है। इससे वह श्मशान घाट भी है। श्मशान के अधिपति दूधेश्वर महादेव वहां विराजमान हैं और इस महायात्रा की निगरानी करते हैं।
मुझे वह दिन याद है जब पूज्य गांधी जी अपने स्नेही रंगूनवाले डा. प्राणजीवन मेहता तथा रणोली के मेरे स्नेही नाथाभाई पटेल को साथ में लेकर आश्रम की भूमि पसन्द करने के लिए निकले थे। मैं भी साथ था। उस दिन से इस भूमि के साथ मेरा सम्बन्ध बंध गया। इस स्थान पर पहली कुदाली मैंने ही चलाई पहला खेमा भी मैंने ही खड़ा किया और उसके बाद अनेक तंबू भी खड़े किए। झोपड़ियां बनाई मकान बंधवाये। खादी की प्रवृत्ति, खेती और गोशाला की प्रवृत्ति, राष्ट्रीय शाला, राष्ट्रीय त्यौहार, रास-नृत्य, लोक-संगीत तथा शास्त्रीय संगीत, ‘नवजीवन’ तथा ‘यंग इंडिया’, साहित्य-निर्माण, सत्याग्रह, मिल-मालिकों के साथ का मजदूरों का झगड़ा और अंत में ब्रिटीश साम्राज्य को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए शुरू किया गया दांडी-कूच- इन सब प्रवृत्तियों का इस आश्रम में ही उद्भव हुआ और यही वे विकसित भी हुई। रौलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन, उसमें से उत्पन्न हुए पंजाब के दंगे, जलियावाला बाग, खेड़ा-सत्याग्रह, बारडोली की लड़ाई, गुजरात विद्यापीठ की स्थापना, कांग्रेस के अधिवेशन, देश के हरेक राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक आंदोलन का केंद्र साबरमती का यह किनारा था। साबरमती की रेत में जब सभाएं होती थी तब लाख-लाख लोगों की भीड़ जम जाती थी। इस साबरमती की जीवनलीला ने केवल गुजरात का ही नहीं बल्कि सारे हिन्दुस्तान का जीवन बदल दिया। उस समय का वायुमंडल आज सारी दुनिया की राजनीति में एक नया सिलसिला शुरू कर रहा है और नये युग की नींव डाल रहा है।
इस साबरमती के नीर में हमने क्या-क्या आनन्द नहीं मनाया है? आश्रम के कई लड़के-लड़कियों को, और शिक्षकों को भी, मैंने वहां तैरने की कला सिखाई है। उसकी रेत में गीता और उपनिषदों का चिंतन-मनन किया है। गीता-पारायण के अनेक सप्ताह चलायें हैं। इस आश्रमभूमि पर खड़े करीब करीब सभी पेड़ हमारे हाथों ही बोये गये हैं।
वह रचनाकाल था ही अद्भुत। हरेक हृदय में एक नई शक्तिशाली आत्मा आकर बसी थी। वह सबों से तरह-तरह के काम ले सकी। केवल आहार के प्रयोग भी हमने वहां कम नहीं किए। कौटुंबिक जीवन के अनेक प्रकार आजमाये। शिक्षा का तंत्र और अनेक बार बदला और उसमें भी कई दफा क्रांति की। और जीवन के हरेक पहलू के लिए हम नई-नई स्मृतियां तैयार करते गये। इस सारे पुरुषार्थ की साक्षी साबरमती नदी है।
जब तक भारत का इतिहास दुनिया के लिए बोध-दायक रहेगा और भारत के इतिहास में महात्मा गांधी का स्थान कायम रहेगा, तब तक साबरमती का नाम दुनिया की जुबान पर अवश्य रहेगा।
मई 1955
मैंने कहा, “मासिक पत्रिकाएं तो काफी प्रकाशित हो रही हैं। तु दो-दो महीनों में, ऋतु-ऋतु में, नये रूप में प्रकट होने वाली पत्रिका शुरू करो उसका नाम रखो ‘साबरमती’।” द्विमासिक की कल्पना तो पसंद आई। किन्तु ‘साबरमती’ नाम किसी को न भाया। ‘साबरमती’ तो है हमारी हमेशा की परिचित नदी! हम उसमें रोज स्नान करते हैं। उसमें क्या नावीन्य है कि हम यह नाम अपने नवचेतनवाले साहित्य-प्रवाह को दें? मैंने कहा, ‘साबरमती प्रवाह सनातन है-इसीलिए नित्य-नूतन है।’ मिसाल देने की दृष्टि से मैंने दलील पेश की, “सिंध-हैदराबाद के हमारे मित्रों ने अपनी कॉलेज की पत्रिका का ‘फुलेली’ नाम रखा है। ‘फुलेली’ सिंधु की एक नहर है। हमारी यह अनाविला (कीचड़-रहित) साबरमती गांधीयुग की प्रतीक बन सकती है। मेरी बात मान लो और साबरमती नाम अपना लो।”
युवकों ने मेरी आज्ञा का पालन करने के लिए साबरमती नाम को अपनाया, हालांकि वे चाहते थे इससे कोई अधिक जोशिला नाम।
मैंने नरहरिभाई से कहा-“साबरमती गुजरात की विशेष लोकमाता है। आबू के परिसर से जिन नदियों का उद्गम होता है, उनमें यह ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। उसका एक गद्यस्रोत लिख दीजिये।” उन्होंने उत्साहपूर्वक एक छोटा सा, सुन्दर लेख लिख दिया। विद्यार्थियों की भावनाएं जागृत हुई। इस लोकमाता के प्रति उनमें भक्ति पैदा हुई देखकर मैंने मौके से लाभ उठाया और विद्यार्थियों से कहा, “मेरा सुझाया हुआ नाम तुम लोग अनिच्छा से स्वीकार करो, यह मुझे पसन्द नहीं है। चाहों तो मैं दूसरा नाम सुझाता हूं।” सबने एक ही आवाज में जवाब दिया, “नहीं, नहीं, हम दूसरा नाम नहीं चाहते। ‘साबरमती’ ही सबसे सुन्दर है।”
मैने कहा, “इसमे तो कोई संदेह ही नहीं है।”
मेरे नदी-पूजक हृदय ने भारत की अनेक नदियों को समय-समय पर अंजलियां अर्पित की है। सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्रा और इरावती तक और दक्षिण में पिनाकिनी तथा कावेरी तक, अनेक नदियों को मैंने संस्मरणांजलियां दी हैं। किन्तु यह देखकर कि इनमें गुजरात की ही मुख्य नदियां रह गयी है, मेरे कई पाठकों ने इसका कारण पूछा और गुजरात की लोकमातओं के बारे में लिखने की आग्रह पूर्वक सूचना की।
मैने कहा, “नदी के उपस्थान की प्रेरणा मैं दे चुका हूं। अब गुजरात की नदियों-के बारे में गुजराती में कोई गुर्जरी-पुत्र लिखे, इसी में औचित्य है।”
इसकी भी काफी राह देखी गयी और बार-बार मुझे सूचना की गयी। किन्तु अंत में मेरी श्रद्धा सच्ची साबित हुई और गुजरात विद्यापीठ के एक विद्यार्थी वनस्पति-उपासक श्री शिवशंकर ने गुजरात की लोकमाताओं के बारे में लिखना शुरू किया। यह काम किसी समय अवश्य पूरा होगा। मुझे संतोष है कि साबरमती के प्रवाह-कुटुंब के बारे में उन्होंने पर्याप्त लिखा है। इसलिए मुझे विस्तारपूर्वक लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु जिस नदी के किनारे मैंने महात्माजी के और सब साथियों के संपर्क में 25-30 साल बिताये, उस नदी को श्रद्धांजली अर्पण करने का कर्तव्य तो रही ही जाता था। उसे आह्लादपूर्वक पूरा करने के लिए थोड़ा सा लिखता हूं।
हमारे कवि हरेक नाम को संस्कृत रूप देने का प्रयत्न तो करेंगे ही। साबरमती का संस्कृति शब्द बनाते समय उन्होंने ‘साभ्रमति’ शब्द खोज निकाला और फिर उसका दो तरह से पदच्छेद किया। एक दल ने बताया ‘सा भ्रमति’ भ्रमण करती है, टेढ़े-मेढ़े मोड़ लेती है। दूसरे ने कहा कि इन नदी के प्रवाह के ऊपर के आकाश में अभ्र-बादल दिखाई देते हैं; इसलिए वह अभ्रमति या ‘साभ्र-मति’ है। मेरा खयाल है कि यह सारा प्रयास मिथ्या है।
जिस नदी के किनारे गायों के झुंड घूमते हैं, चरते औह पुष्ट होते हैं, वह जिस प्रकार या तो गो-दा (गोदावरी) या गो-मती होती है; जिस नदी के किनारे और प्रवाह में बहुत पत्थर होते हैं, वह जिस प्रकार दृषद्-वती होती है, उसी प्रकार अने सरोवरों को जोड़ने वाली या सारस पक्षियों से शोभने वाली नदी सरस्-वती या सारस-वती कही जाती है। इसी न्याय से भारत की नदियों को बाघ-मती, हाथ-मती, ऐरावती आदि अनेक नाम हमारे पूर्वजों ने दिए हैं। इनमें हाथमती तो साबरमती से ही मिलने वाली नदी है। हिरन या साबर जिसके किनारे बसते हैं, लड़ते हैं और आजादी से विहार करते हैं, वह है साबर-मती। उसका सम्बन्ध ‘श्वभ्र’ के साथ जोड़ देने की कोई आवश्यकता नहीं है।’
गुजरात की नदियों में तीन-चार बड़ी नदियां आंतरप्रांतीय है। नर्मदा, तापी मही- तीनों दूर-दूर से निकलकर पूर्व की ओर से आकर गुजरात में घुसती हैं और समुद्र में विलीन हो जाती हैं। साबरमती इनसे अलग है। आरवल्ली पहाड़ में जन्म पाकर तथा अनेक नदियों को साथ में लेकर दक्षिण की ओर बहती हुई अंत में वह सागर से जा मिलती है। साबरमती के जैसी कुटुंब-वत्सल नदियां हमारे देश में भी अधिक नहीं है। साबरमती को विशेष रूप से गुर्जरी माता कह सकते हैं। उसके किनारे गुजरात के आदिम निवासी सनातन काल से बसते आये हैं। उसके किनारे ब्राह्मणों ने तप किया है। राजपूतों ने कभी धर्म के लिए, तो बहुत बार अपनी बेवकूफी से भरी हुई जिद के लिए, वीर पुरषार्थ कर दिखाया है। वैश्यों ने इसके किनारे गांव और और शहर बसाकर गुजरात की समृद्धि बढ़ायी है और अब आधुनिक युग का अनुकरण करके शूद्रों ने भी साबरमती के किनारे मिलें चलाई हैं।
सच पूछा जाय तो इन नदियों के साथ घनिष्ठ संपर्क तो पशुपक्षियों की तरह आदिम निवासियों का ही होता है। इसलिए साबरमती के कुटुंब-विस्तार का काव्य यदि इकट्ठा करना हो तो पुराणों की ओर मुड़ने के बदले आदिम निवासियों की लोक-कथाओं और लोक-गीतों की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए डर यह है कि आज के संशोधक नवयुवकों में इस काम के लिए उत्साह पैदा हो और आदिम निवासी गिरिजनों के साथ मिल-जुल जाने के लिए वे समय निकाल सकें, उसके पहले ही आदिम निवासियों की नदी-कथाएं कहीं लुप्त न हो जायं।
केवल नदी-भक्ति से प्रेरित होकर आदिम निवासियों का ‘वौठा’ का मेला जब तक होता है, तब तक बिलकुल निराश होने का कोई कारण नहीं है। सात नदियों का पानी क्रमशः एक-दूसरे में मिलकर जिस जगह एकत्र होता है, उसके काव्य का आनंद भोगने या नहाने के लिए जहां आदिम निवासी तथा दूसरे लोग इकट्ठे होते हैं, वहां ‘वौठा’ में साबरमती के बारे में आदि-कथाएं हमें मिलनी ही चाहिये।
साबरमती के पुराने नामों की खोज करते हुए कश्यपगंगा या ऐसा ही दूसरा एकाध नाम अवश्य मिल जायेगा। नदी को किसी न किसी प्रकार गंगा का अवतार जब तक न बनायें तब तक आर्यों को संतोष नहीं होता। किन्तु मुझे को साबरमती का पुराना नाम ‘चंदना’ सबसे अधिक आकर्षित करता है। क्योंकि-जैसा मैंने सुना है-कहीं-कहीं पीली मिट्टी के बीच से बहने के कारण वह गोरोचन का रंग धारण करती है। किन्तु साबरमती के जिस किनारे पर मैंने तीस साल बिताये वहां उसका पानी सज्जनों और महात्माओं के मन की तरह बिलकुल निर्मल है।
जहां नदी का पानी छिछला होने से उस पार तक आसानी से जाया जा सकता है; ऐसे स्थान को संस्कृत में तीर्थ कहते हैं। अनेक स्थानों पर प्रयत्न कर देखने के बाद यात्री लोग तय करते हैं कि अमुक-अमुक जगह ऐसे घाट हैं। अतः थोड़ा बहुत चलकर वे ऐसे घाट के पास आते हैं, वहीं इकट्ठे होते हैं, बैठकर विश्रांति लेते हैं, बातचीत करते हैं और नदी का पानी यकायक बढ़ गया हो तो जब तक वह कम न हो जाय तब तक कुछ घंटों या कुछ दिनों तक वहां ठहरते भी हैं। इस प्रकार जहां स्वाभाविक रूप में लोग इकट्ठे होते हैं, वहां धर्मसेवा और लोकसेवा के लिए परम कारुणिक संत आकर बस जाते हैं। इसीलिए तीर्थ शब्द को उसका नया अर्थ प्राप्त हुआ। मूल में तीर्थ शब्द का अर्थ होता था केवल ऐसा घाट जहां से नदी को आसानी से पार किया जा सके। इससे अधिक अर्थ कुछ नहीं। किन्तु जहां साधु-संत लोगों को भवनदी पार करने की नसीहत देते हैं और उसकी कला भी सिखाते हैं, उस तीर्थ स्थान को विशेष पवित्रता अपने आप प्राप्त होती है।
अहमदाबाद के पास साबरमती ने रेलवे-पुल से लेकर सरदार-पुल तक और उससे भी अधिक दक्षिण की ओर कई तीर्थ हैं। उनमें भी जहां चंद्रभागा नदी साबरमती से मिलती है वहां दधीचि ने तप किया था, इसलिए वह स्थान अधिक पवित्र माना जाता है। और आस-पास के लोगों ने इहलोक को छोड़कर परलोक जानेवाले वाले यात्रियों को अग्निदाह देकर विदा करने की जगह वही पसंद की है। इससे वह श्मशान घाट भी है। श्मशान के अधिपति दूधेश्वर महादेव वहां विराजमान हैं और इस महायात्रा की निगरानी करते हैं।
मुझे वह दिन याद है जब पूज्य गांधी जी अपने स्नेही रंगूनवाले डा. प्राणजीवन मेहता तथा रणोली के मेरे स्नेही नाथाभाई पटेल को साथ में लेकर आश्रम की भूमि पसन्द करने के लिए निकले थे। मैं भी साथ था। उस दिन से इस भूमि के साथ मेरा सम्बन्ध बंध गया। इस स्थान पर पहली कुदाली मैंने ही चलाई पहला खेमा भी मैंने ही खड़ा किया और उसके बाद अनेक तंबू भी खड़े किए। झोपड़ियां बनाई मकान बंधवाये। खादी की प्रवृत्ति, खेती और गोशाला की प्रवृत्ति, राष्ट्रीय शाला, राष्ट्रीय त्यौहार, रास-नृत्य, लोक-संगीत तथा शास्त्रीय संगीत, ‘नवजीवन’ तथा ‘यंग इंडिया’, साहित्य-निर्माण, सत्याग्रह, मिल-मालिकों के साथ का मजदूरों का झगड़ा और अंत में ब्रिटीश साम्राज्य को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए शुरू किया गया दांडी-कूच- इन सब प्रवृत्तियों का इस आश्रम में ही उद्भव हुआ और यही वे विकसित भी हुई। रौलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन, उसमें से उत्पन्न हुए पंजाब के दंगे, जलियावाला बाग, खेड़ा-सत्याग्रह, बारडोली की लड़ाई, गुजरात विद्यापीठ की स्थापना, कांग्रेस के अधिवेशन, देश के हरेक राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक आंदोलन का केंद्र साबरमती का यह किनारा था। साबरमती की रेत में जब सभाएं होती थी तब लाख-लाख लोगों की भीड़ जम जाती थी। इस साबरमती की जीवनलीला ने केवल गुजरात का ही नहीं बल्कि सारे हिन्दुस्तान का जीवन बदल दिया। उस समय का वायुमंडल आज सारी दुनिया की राजनीति में एक नया सिलसिला शुरू कर रहा है और नये युग की नींव डाल रहा है।
इस साबरमती के नीर में हमने क्या-क्या आनन्द नहीं मनाया है? आश्रम के कई लड़के-लड़कियों को, और शिक्षकों को भी, मैंने वहां तैरने की कला सिखाई है। उसकी रेत में गीता और उपनिषदों का चिंतन-मनन किया है। गीता-पारायण के अनेक सप्ताह चलायें हैं। इस आश्रमभूमि पर खड़े करीब करीब सभी पेड़ हमारे हाथों ही बोये गये हैं।
वह रचनाकाल था ही अद्भुत। हरेक हृदय में एक नई शक्तिशाली आत्मा आकर बसी थी। वह सबों से तरह-तरह के काम ले सकी। केवल आहार के प्रयोग भी हमने वहां कम नहीं किए। कौटुंबिक जीवन के अनेक प्रकार आजमाये। शिक्षा का तंत्र और अनेक बार बदला और उसमें भी कई दफा क्रांति की। और जीवन के हरेक पहलू के लिए हम नई-नई स्मृतियां तैयार करते गये। इस सारे पुरुषार्थ की साक्षी साबरमती नदी है।
जब तक भारत का इतिहास दुनिया के लिए बोध-दायक रहेगा और भारत के इतिहास में महात्मा गांधी का स्थान कायम रहेगा, तब तक साबरमती का नाम दुनिया की जुबान पर अवश्य रहेगा।
मई 1955
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