गुणवत्तायुक्त लीची का जैविक उत्पादन

केंचुए गोबर को खाद के रूप में परिवर्तित करते
केंचुए गोबर को खाद के रूप में परिवर्तित करते

पर्यावरण के प्रति जागरुकता में उत्तरोत्तर वृद्धि, घरेलू उपभोक्ता के स्वास्थ्य का ध्यान एवं विश्व बाजार में जैविक खाद्य पदार्थों की बढ़ती माँग के मद्देनजर जैविक (कार्बनिक) खेती वर्तमान में काफी प्रासंगिक हो गयी है। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग से उत्पादन तो बढ़ता है, परन्तु इससे पर्यावरण, मिट्टी, जल एवं जलवायु प्रदूषित होती है तथा कृषि जन्य जैव विविधता पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। जैविक खेती के फायदे एवं संभावनाओं के मद्देनजर लीची की जैविक खेती की सिफारिश की जाती है। यहाँ हम बागवानों की जानकारी के लिये लीची की खेती की जैविक पद्धति से संबंधित कार्बनिक एवं जैव संसाधनों की चर्चा कर रहे हैं।

लीची एक उपोष्ण कटिबंधीय, सदाबहार फल वृक्ष है, जो एक विशेष जलवायु में ही अच्छी पैदावार देता है, जिसके कारण यह विश्व के कुछ राष्ट्रों में ही व्यावसायिक रूप से उगायी जाती है। भारत एक प्रमुख लीची उत्पादक देश है जहाँ पर लगभग 0.83 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल से 5.21 लाख टन (वर्ष 2012-13) लीची फल पैदा होती है। लीची उत्पादन में चीन पहले स्थान पर आता है, परन्तु उत्पादकता की दृष्टि से भारत का सर्वोच्च स्थान है। हमारे देश में लीची की बागवानी बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और झारखंड में प्रमुखता से की जाती है, जहाँ यह उत्पादकों के जीविका का एक प्रमुख स्रोत है। भारत में कुल लीची उत्पादन का 45 प्रतिशत भाग एवं 40 प्रतिशत क्षेत्र बिहार में है। देश एवं विदेशों में जैविक पद्धति द्वारा उत्पादित लीची की तेजी से बढ़ती माँग के कारण गुणवत्तायुक्त फलों के उत्पादन वृद्धि के साथ पोषक तत्वों के लिये कार्बनिक स्रोतों के प्रयोग में बढ़ावा देने की आवश्यकता बढ़ गई है। अधिकाधिक रसायनों के उपयोग से मृदा में उपयोगी सूक्ष्म जीवों की संख्या असंतुलित हो रही है।

हाल के दिनों में फलों एवं सब्जियों में रासायनिक दवाओं के अवशेष अधिकतम स्वीकार्य सीमा (एम.आर.एल.) से अधिक पाए गये हैं, जो न केवल उपभोक्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं, बल्कि इससे निर्यात भी प्रभावित हुआ है। जैविक लीची के फल बेहतर गुणवत्ता के साथ रासायनिक अवशेषों से रहित होते हैं, इसलिये जैविक खेती की सिफारिश की जाती है। विभिन्न राज्य सरकारें, कृषि मंत्रालय, भारत और कई गैर सरकारी संगठन हाल के दिनों में जैविक खेती को बढ़ावा देने की प्रयास कर रही हैं। वर्ष 2010 में न्युरमवर्ग की बैठक में यह पाया गया कि विश्व में जैविक कृषि का तेजी से विस्तार हो रहा है। जैविक कृषि का कुल क्षेत्र 35 मिलियन हेक्टेयर है जो 154 देशों में फैला हुआ है। भारत में भी जैविक खेती की तरफ तेजी से विकास हो रहा है। फलों के क्षेत्र में जैविक उर्वरक का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है।

जैविक खेती ऐसी उत्पादन प्रबंधन पद्धति है जो जैव विविधता, जैविक चक्र, मिट्टी की जैविक गतिविधि सहित कृषि पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को बेहतर रखती है। यह लम्बे समय में टिकाऊ एवं पर्यावरण के अनुकूल तरीकों से उच्चतम पैदावार लेने की ऐसी पद्धति है जो परम्परा, नवोन्मेष एवं विज्ञान को परस्पर जोड़ती है। जैविक खेती में मृदा को एक जीवित माध्यम मानते हुए एवं मृदा उर्वरता को बढ़ाने के लिये उत्तरदायी सूक्ष्म जीवों की खुराक को विभिन्न कार्बनिक पदार्थों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट तथा अन्य कार्बनिक अपशिष्टों द्वारा पूरी करते हैं। खेती की यह पद्धति अधिक गुणवत्ता वाले उपज प्राप्त करने के लिये मूलत: जैविक प्रक्रिया पर आधारित रहती है। देखा जाए तो जैविक पद्धति को बढ़ावा देने के लिये जैव एवं कार्बनिक संसाधनों की उपलब्धता के साथ निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है :

1. जैविक पद्धति को अपनाने के लिये किसानों के कौशल में सुधार
2. खेत की जैविक प्रमाणीकरण
3. जैविक उत्पाद से बेहतर आय के लिये विपणन चैनल
पारम्परिक उत्पादन प्रणाली से जैविक फल उत्पादन में रूपान्तरण होने में औसतन 3-4 साल (कम से कम 36 महीने) समय की आवश्यकता होती है। इस दौरान उपज और आमदनी में ह्रास की उम्मीद की जा सकती है। बागवानों की जानकारी के लिये यहाँ हम लीची की जैविक पद्धति से सम्बन्धित कार्बनिक एवं जैव संसाधनों की चर्चा कर रहे हैं।

पोषक तत्व प्रबंधन


जैविक खाद


जैविक खाद को निकालता किसान पोषक तत्व उपलब्ध कराने वाले जैविक खाद में मुख्य तौर पर गोबर की खाद, कम्पोस्ट, खलियों की खाद, अस्थिचूर्ण (बोनमिल), केंचुए की खाद और वर्मीवाश का प्रयोग किया जा सकता है। इन्हें तैयार करना आसान है और बागवान अपने घरों के पास इसे कम खर्च में बना सकते हैं।

गोबर की खाद


गोबर की खाद कार्बनिक या जैविक खेती के लिये एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। गोबर की खाद में 0.5 प्रतिशत नाइट्रोजन, 0.25 प्रतिशत फाॅस्फोरस एवं 0.5 प्रतिशत पोटाश होता है। गोबर की खाद बनाने के लिये आवश्यकतानुसार गड्ढे किसी ऊँचे स्थान पर खोद लें जहाँ पानी नहीं भरता हो। गड्ढे की गहराई 1.25 मीटर से अधिक नहीं रखें, क्योंकि विघटन करने वाले जीवाणुओं को अधिक गहराई पर ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है और सड़न प्रक्रिया सुचारू रूप से नहीं चलती है। गड्ढे की लम्बाई-चौड़ाई आवश्यकतानुसार 3-4 मीटर रखें। गड्ढे का फर्श पक्का हो तो अच्छा रहता है। इससे पोषक तत्व रिसकर नीचे नहीं जा पाते। गड्ढा तैयार हो जाने पर उसमें मल-मूत्र, गोबर और बिछावन प्रति दिन डालते रहें। जब गड्ढा भरकर भूमि से आधा मीटर ऊँचा हो जाए तो 15 सेंमी. मिट्टी की मोटी तह से ढक दें। इस प्रकार 6 महीनें में गोबर की खाद बनकर तैयार हो जाएगी। गोबर की खाद में 50 प्रतिशत अंश पशुमूत्र से प्राप्त होता है, लेकिन अक्सर किसान पशुमूत्र को इकट्ठा कर खाद को गड्ढे तक नहीं डालते। पशुओं के नीचे मिट्टी, भूसा गन्ने की पत्ती व धान के पुआल का बिछावन करना चाहिये और बिछावन हर दूसरे तथा तीसरे दिन खाद के गड्ढे में पहुँचाना चाहिये। गोबर की खाद की मात्रा लीची के पौधों में लगाते समय 20 किग्रा./वृक्ष एवं उसके बाद प्रतिवर्ष 5 किग्रा. की दर से बढ़ाते हुए पूर्ण विकसित वृक्ष में 60 किग्रा./वृक्ष डालने की संस्तुति की जाती है।

कम्पोस्ट


विभिन्न प्रकार के कम्पोस्ट बनाने की विधियाँ उपलब्ध हैं। इनमें से सबसे सामान्य विधि इस प्रकार है : इसके लिये लगभग 3 मीटर X 4.5 मीटर X 1 मीटर आकार का एक गड्ढा बनाएँ। सामग्री के तौर पर खरपतवार कूड़ा-कचरा, फसल अवशेष, पशु मल-मूत्र, जलकुंभी, सब्जियों के अवशेष का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक गड्ढे को 3 भागों में बाँटकर कुड़े-कचरे, पुआल आदि की एक पतली परत (1.5 सेमी.) बिछाएं। गोबर का पतला घोल बनाकर डालें। इसके बाद लगभग 200 ग्राम लकड़ी की राख डालें। प्रत्येक तह पर 25 ग्राम यूरिया छिड़क दें। गड्ढे को इस तरह तब तक भरते रहें जब तक उसकी ऊँचाई जमीन से 30 सेंमी. न हो जाए। बारीक मिट्टी की पतली परत (5 से.मी.) से गड्ढे को बंद कर दें। लगभग 5 महीने में कम्पोस्ट तैयार हो जाएगी। तैयार होने पर कम्पोस्ट काला भुरभुरा एवं बदबू रहित होता है। कम्पोस्ट का प्रयोग फलदार लीची वृक्षों में फलों की तुड़ाई उपरान्त (जून-जुलाई में) करें एवं नर्सरी में पौध-प्रजनन के लिये करें। कम्पोस्ट में नाइट्रोजन 0.5-1.0 प्रतिशत, फॉस्फोरस 0.4-0.8 प्रतिशत एवं पोटाश 0.8-1.2 प्रतिशत होती है।

खलियों की खाद


विभिन्न प्रकार की अखाद्य खलियाँ जैसे-अरंडी, नीम, करंज और महुआ की खली जो कि विषाक्त पदार्थों की उपस्थिति के कारण पशु आहार के लिये उपयुक्त नहीं होती उनका खाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है। खलियाँ एक सान्द्रित कार्बनिक खाद है जिसमें नाइट्रोजन (अरंडी- 5.5-5.8 प्रतिशत, नीम- 5.2-5.3 प्रतिशत, करंज- 3.8-4.0 प्रतिशत), फास्फोरस (अरंडी- 1.8-1.9 प्रतिशत, नीम- 1.0-1.1 प्रतिशत, करंज- 0.9 से 1.0 प्रतिशत) एवं पोटाश (अरंडी- 1.0-1.1 प्रतिशत, नीम- 1.4-1.5 प्रतिशत, करंज- 1.3-1.4 प्रतिशत) प्रचुर मात्रा में होती है। पौधा लगाने के चौथे साल से लेकर पूर्ण वयस्क वृक्ष में खली की खाद 2.5-4.0 किग्रा./वृक्ष का प्रयोग करें। नीम और अरंडी की खली 1:1 के अनुपात में प्रयोग करना बेहतर होता है।

अस्थिचूर्ण (बोनमिल)


विभिन्न प्रकार के अस्थिचूर्ण सांद्रित कार्बनिक खाद के रूप में बाजार में उपलब्ध हैं, जिनका इस्तेमाल कार्बनिक/जैविक खेती में किया जा सकता है। स्टीम्ड बोनमिल, फिश मिल इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसमें फॉस्फोरस प्रचुरता से (20-30 प्रतिशत) पाई जाती है।

मुर्गी की खाद


मुर्गी की खाद में 1/3 भाग बीट, 1/3 बाग दाना, भूसा एवं पेशाब आदि का मिश्रण होता है, जिसमें 1.1 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.5 प्रतिशत फास्फोरस और 1.6 प्रतिशत पोटाश के अतिरिक्त अन्य आवश्यक तत्व जैसे कैल्शियम, मैग्नीशियम, लोहा एवं सोडियम भी पाये जाते हैं। इस खाद से पौधों में रोगरोधी क्षमता में वृद्धि होती है। अन्य जीवांश खादों के साथ मिलाकर 1.5 टन/हेक्टेयर की दर से इसका प्रयोग किया जा सकता है।

केंचुआ खाद


केंचुए गोबर को खाद के रूप में परिवर्तित करतेकेंचुए गोबर को खाद के रूप में परिवर्तित करते यह केंचुए के द्वारा तैयार की गई खाद है। केंचुए अपने आहार के रूप में मिट्टी तथा कच्चे जीवांश को निगलकर अपनी पाचन नलिका से गुजारते हैं जिससे वह महीन कम्पोस्ट में परिवर्तित हो जाता है। इसी कम्पोस्ट को केंचुआ खाद या केंचुए की खाद कहा जाता है। यह खाद एक उच्च पौष्टिक तत्वों वाली खाद है। इसमें नाइट्रोजन 1.0-2.25 प्रतिशत, फास्फोरस 1.0-1.5 प्रतिशत तथा पोटाश 2.0-3.0 प्रतिशत होता है एवं सूक्ष्म पोषक तत्व (सल्फर 2.5-3.0 प्रतिशत) भी उपलब्ध होते हैं। केंचुए की गतिविधियाँ से निकलने वाला अपशिष्ट पदार्थ प्राकृतिक तत्वों के मिश्रित होने के कारण यह खाद देने से मिट्टी अधिक उपजाऊ बन जाती है। केंचुए की खाद का प्रयोग लीची वृक्षों में फलों की तुड़ाई उपरांत (जून-जुलाई में) 50 किग्रा./वृक्ष 5-10 साल से अधिक के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है। लीची नर्सरी में पौध प्रवर्धन के लिये भी इसका इस्तेमाल करें।

बनाने की विधि


इसके लिये सामग्री के रूप में सूखा चारा, गोबर की खाद (3-4 क्विंटल), कूड़ा एवं कचरा (7-8 क्विंटल), केंचुए (लगभग 10000) की आवश्यकता होती है। केले की फसल लेने के बाद बचे हुए तने के अवशेष के प्रयोग से भी अच्छी केंचुए की खाद तैयार होती है। केंचुए की खाद बनाने के लिये एक शेड का निर्माण करें। इस शेड के नीचे सूखे चारे की 6 इंच मोटी परत बिछाएँ। उसके ऊपर 6 इंच गोबर की खाद बिछाएं और पानी से भिगोकर 2 दिन के लिये छोड़ दें। 100 केंचुए प्रति वर्ग फीट की दर से इस पर समान रूप से बिछा दें। उसके ऊपर 9 इंच मोटी कूड़े-कचरे की तह बिछा दें। इसे बोरे से ढक दें। बोरे पर पानी की छिड़काव समय-समय पर करते रहें। एक माह बाद पूरे ढाँचे को ऊपर से नीचे मिला दें फिर बोरे से ढककर पानी छिड़क कर नमी बनाए रखें। 60-65 दिन में 3-6 क्विंटल केंचुए की खाद तैयार हो जाएगी। इसमें 20-25 हजार केंचुए बढ़ जाते हैं। जिन्हें फिर से उपयोग किया जा सकता है। इस तरह एक वर्ष में 4-5 बार केंचुए की खाद बनाई जा सकती है। इसके साथ ही वर्मीवाश भी तैयार किया जा सकता है।

सावधानियाँ


केंचुए धूप सहन नहीं कर सकते हैं। अत: खाद बनाने में छायादार स्थान का ही प्रयोग करें। ताजे गोबर का प्रयोग न करें। लगभग 60 प्रतिशत नमी बनाए रखें। कूड़े-करकट में अपघटन न होने वाली चीजें, (शीशा, पत्थर, लोहा) हटाकर प्रयोग करें। तैयार केंचुआ खाद दानेदार भूरे रंग का होता है। जिसे तैयार होने के बाद केंचुए को अलग करके फिर से खाद बनाने में उपयोग कर सकते हैं।

वर्मीवाश


वर्मीवाश एक तरल जैव उर्वरक है, जो केंचुए की खाद इकाई में सक्रिय केंचुए और कार्बनिक पदार्थों की विभिन्न परतों से होकर गुजरती हुई तरल पदार्थ के रूप में एकत्रित होती है। इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश और अन्य सूक्ष्मपोषक तत्वों के साथ ऑक्सीन एवं साइटाकाइनिन जैसे पौधों की वृद्धि हार्मोन और कई लाभदायक सूक्ष्मजीव, जैसे-एजोटोबैक्टर, नाइट्रोबैक्टर, नाइट्रोसोमोनास, राइजोबियम, कई फास्फोरस घोलक जीवाणु, लाभकारी कवक के बीजाणु आदि होते हैं। अत: वर्मीवाश पौधों के लिये टॉनिक के रूप में में कार्य करता है और रोग एवं कीट के प्रकोप भी कम करने में मददगार होता है। एक लीटर वर्मीवाश और एक लीटर गौमूत्र को 10 लीटर पानी में मिलाकर मिश्रण को तरल खाद एवं जैव कीटनाशक के रूप में छिड़काव विधि से प्रयोग कर सकते हैं। 5 प्रतिशत वर्मीवाश का छिड़काव लीची में लगने वाले नाशीकीटों, खासकर फल एवं बीज बेधक कीट से बचाव के लिये प्रभावी पाया गया है।

वर्मीवाश बनाने की किफायती विधि


इसके लिये 25-30 लीटर क्षमता वाली एक प्लास्टिक की कंटेनर/बाल्टी अथवा मिट्टी का मटका लें जिसमें टोंटी लगी हो। वर्मीवाश बनाने के लिये इसे निम्न प्रकार भरें- पहली आधार परत 10 सेमी. ईंट एवं पत्थर, दूसरी परत 15 से.मी. रेत या मिट्टी+ कम्पोस्ट, तीसरी परत गोबर 5 सेमी., चौथी परत 120-150 केंचुए, पाँचवी परत 5 सेमी. गोबर, अन्तिम परत कम्पोस्ट, पत्तियाँ इत्यादि। एक माह बाद कंटेनर के ऊपर एक छोटे मटके में पानी भरकर उसमें बारीक-बारीक छेद करके लटका दिया जाता है, जिसमें कपड़े की चिन्दियों के माध्यम से पानी रिसता रहता है। एक माह में केंचुए जो कंटेनर के ऊपर से नीचे की ओर बारीक-बारीक चालन करते हैं उसमें बारीक-बारीक रिक्तिकाएँ कंटेनर में भरे कम्पोस्ट में बन जाती हैं। ऊपर बंधे मटके से रिसता पानी जब रिक्तिकाओं से होकर गुजरता है तब उसमें केंचुओं के शरीर से उत्सर्जित द्रव/मूत्र और कार्बनिक पदार्थों की विभिन्न परतों से होकर रिसता तरल पदार्थ मिल जाता है। यही पानी वर्मीवाश है जिसे कंटेनर के नीचे लगें टोंटी से खोलकर एकत्रित कर लिया जाता है।

जैविक उर्वरक


मृदा विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म जीवाणुओं का आश्रय स्थल है। मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु, कवक एवं सूत्रकृमि विभिन्न जैविक क्रियाओं द्वारा मिट्टी में विद्यमान जटिल पदार्थों को पौधों के लिये उपयोगी तरल तत्वों में परिवर्तित करते रहते हैं। इसलिये मिट्टी की उर्वरता अच्छी बनाए रखने के लिये सूक्ष्म जीवों की संख्या एवं क्रियाशीलता महत्त्वपूर्ण है। जैविक उर्वरक सूक्ष्म जीवों का लाभकारी मिश्रण होता है। सूक्ष्म जीव जैविक क्रियाओं द्वारा मिट्टी में उपस्थित जटिल तत्वों को पौधे की आवश्यकतानुसार परिवर्तित करते हैं। ये सरल तत्व पौधों द्वारा आसानी से भोजन पदार्थों के रूप में उपयोग में लाए जाते हैं। लीची में प्रयोग किये जाने वाले प्रमुख जैविक उर्वरक निम्नलिखित हैं :

एजोटोबैक्टर जीवाणु खाद


एजोटोबैक्टर नामक जीवाणु जो कि स्वतंत्र रूप से मिट्टी में पाया जाता है। वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित करता है और यह अमोनिया लीची के पौधों को नाइट्रोजन के रूप में प्राप्त होता है। इसके प्रयोग से प्रति हेक्टेयर 10-20 किग्रा. नाइट्रोजन की बचत होती है। मिट्टी में उपस्थित अन्य रासायनिक तत्व की उपलब्धता बढ़ती है एवं पौधे की जड़ों में होने वाले रोग से बचाव होता है। कल्चर के साथ गोबर की खाद/कम्पोस्ट देने से क्षमता बढ़ती है। पौधे में वृद्धिकारक हार्मोन भी बनते हैं। इसका प्रयोग वर्ष में दो बार किया जा सकता है- पहला, जून-जुलाई में खाद देते समय एवं दूसरा, नवम्बर-दिसम्बर में। 5-10 साल के वृक्ष के लिये लगभग 100 ग्राम कल्चर एवं 10 साल से ऊपर के वृक्षों के लिये 150-200 ग्राम कल्चर केंचुए की खाद या गोबर की सड़ी खाद (1:5 अनुपात) में मिलाकर प्रयोग करें।

एजोस्पाइरिलम जीवाणु खाद


यह एक सूक्ष्म जीवाणु है जो हवा में मौजूद नाइट्रोजन को भूमि में स्थिरीकृत करता है, जिसे पौधे उपयोग करते हैं। ये जीवाणु जड़ों में गाँठ नहीं बनाकर जड़ों के बाहरी सतह या जड़ों के अन्दर पाये जाते हैं और पौधों को वायुमंडलीय नाइट्रोजन उपलब्ध कराते हैं। खेत में नमी होने पर इसकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। इसके प्रयोग से प्रति हेक्टेयर 20 किग्रा. नाइट्रोजन मिलता है अथवा प्रति हेक्टेयर 45 किग्रा. यूरिया की बचत होती है। कई पादप हार्मोन (आई.ए.ए., जीब्रेलीन एवं साइटोकाइनिन) भी बनते हैं, जिससे पौधों की वृद्धि होती है। पौधों की जड़ों का फैलाव ज्यादा होता है, जिससे पौधे पोषक तत्व, खनिज लवण आसानी से लेते हैं। इसके प्रयोग से फफूंद से होने वाले रोगों से बचाव होता है। इसका प्रयोग वर्ष में दो बार किया जा सकता है- पहला, जून-जुलाई में खाद देते समय एवं दूसरा नवम्बर-दिसम्बर में। 5-10 साल के वृक्ष के लिये लगभग 100 ग्राम कल्चर एवं 10 साल के ऊपर के वृक्षों के लिये 150-200 ग्राम कल्चर केंचुए की खाद या गोबर की सड़ी खाद (1:5 अनुपात) में मिलाकर प्रयोग करें।

फॉस्फोरस घोलक सूक्ष्मजीव


वैसिलस स्पेसिज एवं माइक्रोराइजा कवक पौधे की जड़ों के पास मिट्टी में उपस्थित होते हैं। ये मिट्टी में उपस्थित जटिल फास्फोरस को जैविक क्रियाओं द्वारा घुलनशील फास्फोरस में परिवर्तित करके लीची के पौधों के उपयोग के लिये उपलब्ध कराते हैं।

वैसिलस मेगाटेरियम : इस जीवाणु के व्यावसायिक फार्मूलेशन का प्रयोग नर्सरी पौधों एवं बगीचे के वृक्षों में किया जा सकता है। नर्सरी में लगभग 25 ग्राम/पौधा (पॉलीबैग) इस्तेमाल करते हैं। 5-10 साल के वृक्ष के लिये लगभग 100 ग्राम कल्चर एवं 10 साल से ऊपर के वृक्षों के लिये 150-200 ग्राम केंचुए की खाद या गोबर की सड़ी खाद (1:5 अनुपात) में मिलाकर प्रयोग किया जा सकता है। नर्सरी में नए पौधों के प्रवर्धन के समय 25 ग्राम कल्चर प्रति पॉलीबैग में डालकर पौधा लगाएँ।

अर्बसकुलर माइकोराइजा : लीची की जड़ों में माइकोराइजा कवक एक सहजीवी के तौर पर पाया जाता है, जो लीची के पौधों के लिये काफी लाभप्रद होते हैं- खासकर अर्बसकुलर माइकोराइजा समूह के कवक। ये लीची में फॉस्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने के साथ जल और पोषक तत्वों के अवशोषण क्षमता बढ़ाने में सार्थक साबित हुए हैं। लीची की जड़ों में माइकोराजा के विनिवेशन से पौधे की ऊँचाई, तने की मोटाई एवं कुल जैव पदार्थ में बिना माइकोराजा वाले पौधों की अपेक्षा सार्थक वृद्धि दर्ज की गई है। माइकोराजा की उपस्थिति से न केवल फास्फोरस बल्कि पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता पत्तियों में बेहतर पायी गई है। संयुक्त रूप में एजोटोबैक्टर और माइकोराजा कवक का जड़ विन्यास क्षेत्र में उपलब्धता नाइट्रोजन और फास्फोरस पोषण बढ़ाने में काफी लाभप्रद साबित हुए हैं।

प्रायोगिक तौर पर एन.आर.सी.एल. प्रक्षेत्र में अर्बसकुलर माइकोराजा की प्रजाति-ग्लोमस मोसी, ग्लोमस इन्ट्रारेडिसेस और ग्लोमस फैसीकुलेटेम के मिश्रित कल्चर का प्रयोग काफी प्रभावी साबित हुआ है। नर्सरी में नये पौधों के प्रवर्धन हेतु 10 किग्रा. माइक्रोराइजा कल्चर को 100 किग्रा. मिट्टी, गोबर खाद एवं अन्य सामग्री में मिलाकर पॉलीबैग में प्रयोग करें। खेत में नये बाग लगाते समय प्रति पौधा 20 ग्राम कल्चर का प्रयोग करें। 5-10 साल के वृक्ष के लिये लगभग 100 ग्राम कल्चर एवं 10 साल से ऊपर के वृक्षों के लिये 150-200 ग्राम कल्चर केंचुआ खाद या गोबर की सड़ी खाद (1:5 अनुपात) में मिलाकर प्रयोग किया जा सकता है।

गोबर की खाद, कम्पोस्ट और केंचुए की खाद का जैव संवर्धन


गोबर से बनी कंपोस्टगोबर से बनी कंपोस्टजैव उपयोगी कल्चर जैसे- एजोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलम, वैसिलस मैगाटेरियम, फ्लोरोसेंट स्यूडोमोनास, ट्राईकोडर्मा आदि से जैव संवर्धित गोबर की खाद, कम्पोस्ट या केंचुए की खाद के खेत में प्रयोग करने से लीची के पौधों की वृद्धि, फलन और गुणवत्ता में आशातीत लाभ होता है। इसके लिये कल्चर को इन जैविक खाद में प्रयोग करने के एक सप्ताह पहले मिलाकर छाँव में रखें। अगर ये मिश्रण सूखा लगे तो थोड़ा पानी का छिड़काव कर दें। कल्चर की मात्रा इस प्रकार है-

एजोटोबैक्टर और एजोस्पिरिलम के पाउडर फार्मूलेशन : 2 किग्रा. कल्चर/टन जैविक खाद, अगर तरल फार्मूलेशन हो तो एक लीटर /टन प्रयोग करें।

वैसिलस मैगाटेरियम : 4 किग्रा. कल्चर/टन जैविक खाद, अगर तरल फार्मूलेशन हो तो 2 लीटर/टन प्रयोग करें।

स्यूडोमोनास और ट्राइकोडर्मा : 2 किग्रा. कल्चर/टन जैविक खाद, अगर तरल फार्मूलेशन हो तो 500 मिलीलीटर/टन प्रयोग करें।

जैविक नाशीजीव प्रबन्धन


लीची की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये नाशीकीटों एवं रोगों का समय पर प्रबन्धन जरूरी है। जैविक खेती का उद्देश्य कीटों को पूर्णत: समाप्त करना नहीं है बल्कि कीटों को नियंत्रित रखना है। लीची के संदर्भ में जैविक खेती के घटक इस प्रकार है -

1. कृषिगत क्रियाएं-जुताई, बगीचे की स्वच्छता, प्रभावित टहनियों की कटाई-छंटाई
2. यांत्रिक नियंत्रण-हाथों से चुनकर खत्म करना, तनों पर चिपचिपी पट्टी बांधना (दहिया कीट के नियंत्रण के लिये), प्रभावित शाखा और टहनियों को हिलाना और कीटों का यांत्रिक विनाश
3. भौतिक नियंत्रण-प्रकाश ट्रैप का प्रयोग
4. जैविक जैवनाशी-कीटों के लिये- ट्राइकोग्रामा चिलोनिस परभक्षी, व्यूवेरिया वैसियाना और मेटाराइजियम एनिसोप्ली जैसे परजीवी कवक, बैसलस थूरिंजीएंसिसि जैसे जीवाणु, न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वायरस (एन.पी.वी) जैसे विषाणु, रोगों के लिये-ट्राइकोडर्मा स्पीशीज जैसे कवक एवं स्यूडोमोनास फ्लोरेंसेन्स जैसे जीवाणु (जो पौधों की वृद्धि नियामक के रूप में भी कार्य करता है) का प्रयोग
5. फेरोमोन ट्रेप या गंधापाश जाल
6. वैकल्पिक कीटनाशक : नीम आधारित कीटनाशक, गोमूत्र आधारित कीटनियंत्रक, वर्मीवाश और पौधों से तैयार कीटनाशक

जैविक खेती में प्रयुक्त कुछ संसाधनों की चर्चा यहाँ की जा रही है जिससे कीटों एवं रोगों से होने वाली आर्थिक क्षति से लीची को बचाया जा सकता है।

नीम की पत्ती


एक बर्तन में नीम की पत्तियाँ डालकर पानी से भर दें। इसे 4 दिनों के लिये छोड़ दें, पाँचवे दिन पत्तियों को अच्छी तरह मिला कर छान लें। छानने के बाद प्रति लीटर एक ग्राम डिटर्जेंट/सर्फ पाउडर मिलाकर छिड़काव करें जिससे कई कीटों के पिल्लू एवं भृंगों का नियंत्रण होता है।

गाय का गोबर


एक मिट्टी के बर्तन में 12.5 किग्रा. गोबर लें। बर्तन के मुँह को ढक्कन से बंद कर जमीन में 20 दिन तक गाड़ दें। 21वें दिन कपड़े से छान लें एवं उसमें पानी मिलाकर 500 लीटर बना लें यह रस चूसने वाले कीटों की रोकथाम करता है।

गोमूत्र


गोमूत्र में 1:20 अनुपात में पानी मिलाएँ और पौधों पर छिड़काव करें। इसके प्रयोग से रोगों एवं कीटों से बचाव के साथ पौधों की वृद्धि होती है।

नीम की पत्ती, धतूरा और गोमूत्र द्वारा


दस किग्रा. नीम की पत्तियों को पीस लें। उसमें 10 किग्रा. आक की पत्तियाँ एवं 10 किग्रा. धतूरे की पत्तियों को पीसकर मिला दें। इसमें 200 लीटर पानी एवं 5 किग्रा. गोमूत्र मिलाएं। इसे छानकर छिड़काव करने से रोगों एवं चूसने वाले कीटों की रोकथाम होती है।

बैसिलस थूरिन्जीएंसिस (बी.टी आधारित बायोपेस्टीसाइड)


यह मिट्टी में पाया जाने वाला जीवाणु है, जो अनेक प्रकार के कीटों के अलावा कृमियों को भी मारता है। इसके आक्रमण से कीट का आहार नली तथा मुख निष्क्रिय हो जाता है और कीट तुरंत मर जाता है। यह बाहरी स्पर्श से प्रभावित नहीं होता है। अत: इसे उस स्थान पर छोड़ा जाता है जहाँ कीट खाते रहते हैं। बी.टी. आधारित बायोपेस्टीसाइड (हाल्ट) एक ग्राम/लीटर पानी के घोल का छिड़काव सायंकाल में किया जा सकता है।

विषाणु (एन.पी.वी)


लीची लपूर एवं अन्य कीटों के कैटरपिलर (लार्वा/इल्ली) पर विषाणु न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वायरस (एन.पी.वी) काफी प्रभावित होते हैं। एन.पी.वी के घोल का छिड़काव 250 लार्वल इक्विवेलेंट (एल.ई.) (1.5 X 1012 पी.आई.बी.)/ हेक्टेयर की दर से शायंकाल में किया जा सकता है।

मेटाराइजियम एनिसोप्ली और व्यूवेरिया बैसियाना


ये दोनों कीटनाशक फफूंद हैं जिसके बीजाणु का व्यावसायिक फार्मूलेशन बाजार में उपलब्ध है। लगभग 2.0-2.5 X 106 बीजाणु/ लीटर (लगभग 2-3 ग्राम/लीटर) या उत्पाद पर लिखे मात्रानुसार इसे पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। ये भी लीची लपूर एवं अन्य कीटों के कैटरपिलर के निंयत्रण के लिये उपयोगी है।

ट्राइकोग्रामा चिलोनिस


यह एक सूक्ष्म अण्ड परभक्षी कीट है जो फल एवं बीज बेधक, पत्ती मोड़क और तना छेदक कीटों के अण्डों पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। उपयोग हेतु ट्राइकोकार्ड के व्यावसायिक नाम से उपलब्ध इन परिभक्षियों के अण्डों को वृक्ष के पत्तों पर पिन कर दिया जाता है। बागीचों में ट्राइकोग्रामा चिलोनिस के 50000 अण्डे प्रति हेक्टेयर बौर निकलने के बाद, मार्च प्रथम सप्ताह में प्रयोग करें।

प्रकाश ट्रैप एवं फेरोमोन ट्रैप


प्रकाश ट्रैप एवं फेरोमोन ट्रैप का व्यवहार कीट प्रबंधन के लिये करें। प्रकाश ट्रैप के व्यवहार से वे कीट, जो रात्रि में अधिक सक्रिय रहते हैं उन्हें आकर्षित कर नष्ट किया जा सकता है। फेरोमोन ट्रैप के व्यवहार करने से नर कीट आकर्षित होकर इसमें फँसते हैं। इसमें ल्यूर (फेरोमोन), लाइनर (चिपचिपा आधार) तथा ट्रैप होता है। ल्यूर में मादा की गंध होती है जिससे नर कीट आकर्षित होते हैं। इसके साथ ही प्रकाश ट्रैप एवं फेरोमोन ट्रैप के प्रयोग से खास तरह के कीटों के आगमन के बारे में भी संकेत मिलता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की राष्ट्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन संस्थान, नई दिल्ली ने कई तरह के प्रकाश ट्रैप को डिजाइन और विकसित किया है जिसे मेसर्स फाइन ट्रैप (इंडिया) (6 सावरकर मार्केट, दत्ता चौक, यावतमल, महाराष्ट्र) बाजार में उपलब्ध करा रही है जहाँ से किसान इन्हें आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। विभिन्न मॉडल की कीमत उसमें सन्निहित सुविधाएँ जैसे- बैटरी पैक, स्टैंड आदि के होने या न होने पर निर्भर है। इनकी कीमत इस प्रकार है: अत्यधिक किफायती-965 रुपए, किफायती- 1500-4500 रुपए और नियमित- 2490-5100 रुपए।

ट्राइकोडर्मा


यह एक प्रकार का मित्र फफूंद है, जो कृषि को नुकसान पहुँचाने वाली फफूंदों को समाप्त करता है। इसके मुख्यतया दो प्रकार हैं- ट्राइकोडर्मा विरिडी एवं ट्राइकोडर्मा हर्जियानम। इसके प्रयोग से लीची की मृदा जनित रोग जो विभिन्न प्रकार की फफूंद जैसे- फ्यूजैरियम, पिथियम, अलटरनेरिया आदि से होता है, को नियंत्रित किया जा सकता है। प्रयोग विधि इस प्रकार है: एक किग्रा. ट्राइकोडर्मा पाउडर को 25 किग्रा. कम्पोस्ट (गोबर की सड़ी खाद) में मिलाकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रख कर उसे गीले बोरे से ढका जाता है ताकि इसके बीजाणु अंकुरित हो जाएं। इस कम्पोस्ट को एक एकड़ खेत में फैलाकर मिट्टी में मिला दें फिर लीची की पौध लगाएँ।

वायुरोधक वृक्ष लगाना


लीची के बागीचे के चारों तरफ विशेष करके उत्तर तथा पश्चिम दिशा में तीव्र गति से बढ़ने वाले बहुवर्षीय पौधों की कम से कम दो कतारें नजदीक-नजदीक लगाएँ। इससे बगीचे की सूक्ष्म जलवायु नियंत्रित रहने से कीटों एवं रोगों का प्रकोप कम होता है। इसके लिये पापुलर, जामुन, सागौन, शीशम इत्यादि के पौधे लगाए जा सकते हैं। वायुरोधक पौधों के बीच में झाड़ीनुमा बढ़ने वाले कांटेदार पौधों को लगाने से बाग की सुरक्षा भी की जा सकती है, क्योंकि ये पौधे बाहर से आने वाले जानवरों तथा अन्य जीव जन्तुओं को बगीचे में प्रवेश करने से रोकते हैं। झाड़ीदार पौधों में करौंदा, झरबेर, डुरंता इत्यादि को लगाया जा सकता है।

जैविक खेती में सावधानियाँ


1. जैविक खेती राष्ट्रीय मानक के अनुसार करें।
2. कोई भी रसायन उर्वरक एवं कीटनाशी का प्रयोग न करें।
3. जैविक खरपतवार को पलवार के रूप में प्रयोग करें।
4. शहरों से आने वाले प्रदूषित जल का उपयोग सिंचाई हेतु न करें।
5. जैविक पदार्थों को जलाकर खेत की सफाई न करें।

जैविक खेती से लीची में लाभ


1. जैविक उर्वरकों के नियमित उपयोग से मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की संख्या का संतुलन बना रहता है।
2. भूमि की संरचना एवं उसके भौतिक तथा रासायनिक गुणों में सुधार होता है।
3. भूमि की जल धारण क्षमता तथा पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
4. रासायनिक उर्वरकों का कम उपयोग करना पड़ता है, जिससे लीची फसल की लागत कम आती है।
5. पर्यावरण संरक्षण भी होता है।
6. जैविक विधि से उत्पादित लीची का बाजार मूल्य अधिक मिलता है।

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