मध्य प्रदेश के सीहोर जिले के राजूखेड़ी गांव के निवासी गरीब और पिछड़ेपन के शिकार भले ही रहे हों, लेकिन उन्होंने किसी पर निर्भर रहने की बजाय अपने जीवन की बेहतरी का रास्ता खुद तैयार कर लिया है। राजूखेड़ी को एक व्यवस्थित एवं संपन्न गांव बनाने से लेकर ‘निर्मल पंचायत’ का राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाने में जनभागीदारी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
वर्ष 2008 में गैर सरकारी संस्था ‘समर्थन’ के हस्तक्षेप के बाद राजूखेड़ी के विकास का एक रोडमैप तैयार किया गया। इसमें स्थानीय लोगों को किसी पर आश्रित करने की बजाय उन्हें भारतीय संविधान में वर्णित जनाधिकारों से परिचित कराया गया एवं एजेंसियों के बारे में भी ग्रामीणों को जानकारी दी गई। इतना सब कुछ जान लेने के पश्चात जब राजूखेड़ी के ग्रामीणों को जनता की ताकत और अधिकारों का ज्ञान हुआ तो सबने मिलकर अपने हक की लड़ाई लड़ने का मन बना लिया। फिर क्या था, सिलसिला शुरु हुआ और कारवां बनता चला गया। मेवाड़ समुदाय बहुल राजूखेड़ी गांव के निवासियों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता नहीं थी और निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं एवं युवाओं की भागीदारी भी नहीं थी। गांव का प्रशासनिक ढांचा छिन्न-भिन्न पड़ा था और लोगों का विकास को लेकर कोई सीधा सरोकार नहीं था।
इस प्रकार की व्याधियों के चलते सरकारी योजनाओं का लाभ राजूखेड़ी के निवासियों तक नहीं पहुंच पा रहा था। राजूखेड़ी की ‘विलेज वाटर एंड सेनीटेशन कमेटी’ के अध्यक्ष चंद्रसिंह मेवाड़ा के मुताबिक ‘सरकार से नाउम्मीद होकर हम सबने गांव की बेहतरी के लिए साथ मिलकर काम करने का मन बना लिया। देव महाराज के चबूतरे पर बैठकर पूरे गांव ने सबसे पहले गांव की समस्याओं की पहचान की और फिर उन समस्याओं को हल करने के लिए एक विस्तृत कार्ययोजना भी तैयार कर ली गई।’ बैठक में शिक्षा की गुणवत्ता, बिजली, पीने के पानी, शौचालय निर्माण, सिंचाई के लिए नहर का पानी लाने, गंदे पानी की निकासी, सड़क एवं खडंज़े का निर्माण, कृषि सुधार, हाईस्कूल को मान्यता दिलाने, नियमित आंगनवाड़ी और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार जैसी समस्याएं सामने आईं।
समस्याओं का चयन कर लेने के पश्चात उनके निदान के लिए निर्धारित कार्ययोजनाओं को अमल में लाने की बारी आई। सबसे पहले पूरे गांव के हर घर में शौचालय निर्माण का फैसला लिया गया। गांव के लोग पहले सोचते थे कि शौचालय के निर्माण में 20 हजार रुपये से भी अधिक खर्च आता होगा। लेकिन जब ‘समर्थन’ संस्था के कार्यकताओं ने शौचालय निर्माण की लागत एवं इसके लाभ के बारे में लोगों को समझाया तो लोगों के मन में बात बैठ गई। इस काम को ठीक तरीके से संपन्न करने के लिए ग्राम स्तर पर एक समिति बनाई गई। ढाई हजार रुपये की लागत से बनने वाले शौचालय के निर्माण एवं रखरखाव के लिए प्रत्येक ग्रामवासी को ट्रेनिंग भी दी गई। 500 रुपये ‘समर्थन’ की ओर से दिलाए गए जबकि शेष राशि गांव वालों ने खुद खर्च की। एक साल के भीतर राजूखेड़ी के हर घर में शौचालय निर्माण के लक्ष्य को पूरा कर लिया गया और लोगों ने खुले में शौच जाना बंद कर दिया।
इसके बाद बिजली की समस्या को जड़ से समाप्त करने की तैयारी शुरु कर दी गई। ट्रांसफार्मर न होने के कारण लाइट आने पर फ्यूज उड़ जाया करते थे। इसका सबसे अधिक प्रभाव सिंचाई न हो पाने के कारण खेती-बाड़ी पर पड़ रहा था। ग्रामीणों ने सीहोर विद्युत मंडल में अपनी फरियाद सुनाई तो उन्होंने कहा कि हमारे यहां सीधे तौर पर ट्रांसफार्मर लगाने का प्रावधान नहीं है। इस पर कुल 6 लाख 10 हजार का खर्च आना था। लेकिन गांव के लोग इतनी राशि की व्यवस्था एक साथ कर पर पाने में सक्षम नहीं थे। स्थानीय विधायक से जब लोगों ने फरियाद की तो उन्होंने 2 लाख 10 हजार रुपये की व्यवस्था कर दी। शेष राशि लोगों ने जुटाकर ट्रांसफार्मर लगाने के कार्य को अंजाम दिया। नरसिंह मेवाड़ा बताते हैं कि बिजली नहीं होने से सिंचाई के लिए हर वर्ष करीब 80 हजार रुपये का डीजल खर्च हो जाया करता था। लेकिन अब बिजली नियमित रहने से खेती की लागत कम हो गई है।
कुछ इसी तरह की बात राजूखेड़ी के पंच हेमसिंह मेवाड़ा भी कहते हैं। बकौल हेमसिंह हमारा जीवन ही अंधकार में डूबा हुआ था। इस अंधकार से निपटने के लिए हमने प्रति टयूबवैल के हिसाब से गांव भर में चंदा इकट्ठा किया और इसी का नतीजा है कि आज हम उजाले की ओर अग्रसर हैं।
राजूखेड़ी के लोग सूचना के अधिकार के महत्व को बखूबी जानते हैं। कई मामलों में स्थानीय लोगों ने आरटीआई का उपयोग कर बड़े-बड़े अधिकारियों को भी पानी पिला दिया है। गांव में कृषि विस्तार अधिकारी और ग्रामसेवक पहले कभी दिखाई नहीं पड़ते थे। जिसके कारण समस्याएं जस की तस बनी रहती थीं। वर्ष 2006 में एक आरटीआई दाखिल करके राजूखेड़ी के निवासियों ने कृषि विभाग से जानना चाहा कि ‘कृषि से जुड़ी आगतें जैसे कीटनाशक, बीज एवं खाद इत्यादि गांव के कितने किसानों को और किस मात्रा में मिल रहा है।’ इस तरह की पूछताछ से अधिकारी सकते में आ गए। राजूखेड़ी के निवासियों को समय पर कृषि इन्पुट्स मिलने लगे। यहां तक कि कृषि अधिकारी भी अब समय-समय पर गांव का चक्कर लगाते हैं और मिट्टी परीक्षण के साथ-साथ लोगों को फसलों के रखरखाव की भी जानकारी दी जाने लगी है।
इसी तरह का किस्सा मोहन सिंह मेवाड़ा का भी है। वे बताते हैं कि दो साल पहले उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक की सीहोर शाखा में किसान क्रेडिट कार्ड के लिए आवेदन किया था। लेकिन आवेदन स्वीकार नहीं किया जा रहा था। उन्होंने ‘समर्थन’ के कार्यकर्ता धरमप्रकाश को यह बात बताई। बाद में जब वे एक सामाजिक कार्यकर्ता को लेकर बैंक गए तो वहां देखा कि सूचना के अधिकार की जानकारी देने वाला बोर्ड तक नहीं लगा हुआ था। बैंक के अधिकारियों से बोर्ड के न होने की पूछताछ करते हुए मोहन सिंह को लोन न दिए जाने का कारण जानने के लिए आइटीआई के तहत आवेदन भी कर दिया। असर शीघ्र ही देखने को मिल गया। मोहन सिंह कहते हैं कि मेरा लोन स्वीकृत हो गया और बैंक में सूचना के अधिकार को लेकर बोर्ड भी लगा दिया गया। वे कहते हैं कि आज हालात ये है कि बैंक मैनेजर जिन्होंने कभी मुझे लोन देने से मना कर दिया था, आज वे मुझे मेवाड़ा साहब कहकर बुलाते हैं।
कुछ सालों से लगातार जलस्तर नीचे गिरने से पानी की समस्या भी सामने आ रही थी। नल-जल योजना के तहत पीने के पानी की समस्या को भी हल करने का काम शुरू कर दिया गया। इसके लिए दो टंकियां लगाने के अलावा सप्लाई के पाइप इत्यादि की व्यवस्था के लिए 2 लाख 14 हजार रुपये की जरूरत पड़ी। ‘समर्थन’ ने यहां भी लोगों की मदद की और एक लाख साठ हजार रुपये दिलवा दिये जबकि शेष 40 हजार रुपये लोगों ने चंदे से जुटा लिए। बाकी के 14 हजार रुपये का सहयोग पंचायत से मिल गया।
इस तरह से पीने के पानी की समस्या भी हल कर ली गई। इसी तरह से जनभागीदारी एवं परस्पर सहयोग से लोगों ने नाली एवं खड़ंजों का भी निर्माण करा लिया। स्वास्थ्य सेवाएं नियमित देने के लिए एएनएम पर भी दबाव बनाया गया तो उसने समय पर आना आरंभ कर दिया। पहले समय पर लोगों को डाक नहीं मिलती थी। जब आरटीआई के माध्यम से गांव में आने वाली डाक का लेखा जोखा मांगा गया तो डाकिये के होश ठिकाने आ गए और समस्या का अंत हो गया। कुछ समय पश्चात आंगनवाड़ी भी खुल गई।
रोजगार की समस्या को हल करने के लिए अलग-अलग समूह बनाए गए, जिसमें एक निर्धारित राशि प्रत्येक सदस्य हर महीने जमा करता है। बाद में इन समूहों का बैंक से लिंकेज करा दिया गया। किसी को कोई छोटा-मोटा रोजगार शुरु करना हो तो अब लोन आसानी से उपलब्धा हो जाता है। दो प्रतिशत की ब्याज दर पर समूह में जमा पैसे को भी सदस्यों को जरूरत के समय दे दिया जाता है।
धब्बूबाई ‘कल्पना स्वयं सहायता समूह’ की कोषाध्यक्ष हैं। कुछ समय पहले तक धब्बूबाई का संसार घर-परिवार तक ही सिमटा हुआ था और बाहर कुछ भी कहने में वो सकुचाती थीं। लेकिन आज समूह का पूरा लेखा-जोखा वो रखती हैं। 5 हजार रुपये से शुरू की गई अपनी दुकान को उन्होंने अब काफी बढ़ा लिया है। कुछ समय पूर्व गांव में स्वच्छता अभियान चलाने वाली 40 महिलाओं में धब्बूबाई भी शामिल थीं। वे बताती हैं कि गांव की महिलाओं ने मिलकर किस तरह से घर-घर में गंदे पानी के निपटारे के लिए सोख्ता गङ्ढे बनवाए थे। ग्रामसभा की बैठकों में भी धब्बूबाई अब जमकर गांव से जुड़े विभिन्न मुद्दों को लेकर सवाल उठाती हैं।
उल्लेखनीय है कि किसी काम को अंजाम देने के लिए ग्रामसभा में गांव के 10 प्रतिशत सदस्यों का अनुमति होना जरूरी होता है। अधिकतर मामलों में सरपंच घर-घर जाकर लोगों से हस्ताक्षर करा लेते हैं। यही कारण है कि ग्रामीणों को ग्रामसभा के महत्व और उसके स्वरूप का ज्ञान तक नहीं हो पाता है। इसकी आड़ में भ्रष्टाचार पलता है और लोग अनभिज्ञ बने रहते हैं। लेकिन राजूखेड़ी में ऐसा नहीं है। इस गांव के लोग ग्रामसभा में बढ़ चढ़-कर हिस्सा लेते हैं। धब्बूबाई बताती हैं कि हर महीने की पूर्णिमा को उनके समूह की बैठक होती है, जिसमें बचत, साफ-सफाई इत्यादि पर चर्चा की जाती है और बैठक में न आने वालों पर 50 रुपये का जुर्माना भी लगाया जाता है।
विकास में सभी की भागीदारी हो, इसके लिए विभिन्न आयु वर्ग के लोगों के अलग-अलग समूह एवं ग्राम निगरानी समितियां राजूखेड़ी में गठित की गई हैं। गांव में एक युवा मंडल, एक बाल समूह, तीन महिला समूह, एक विलेज वॉटर एंड सेनीटेशन कमेटी, एक निर्माण समिति और एक किशोरी समूह है।
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