गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में पेयजल व्यवस्था

विकास के मुद्दे पर भारत ही नहीं पूरी दुनिया में गुजरात माॅडल की चर्चा हो रही है। चूँकि विपरीत परिस्थितियों में भी गुजरात में पेयजल सहित विभिन्न क्षेत्रों में ऐतिहासिक विकास कार्य हुए हैं। इस प्रदेश में लोगों को स्वच्छ एवं गुणवत्तापरक पेयजल मिल रहा है तो आवागमन के लिए पक्की सड़कें मौजूद हैं। पेयजल के मामले में गुजरात ने पूरी दनिया पर छाप छोड़ी है। गुजरात के पेयजल माॅडल की झलक पड़ोसी राज्य राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश में भी दिखती है। इन राज्यों में पेयजल के लिए किए गए प्रावधान दूसरे राज्यों के लिए नजीर बन गए हैं।

गुजरात की स्थिति देखें तो इस राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पाकिस्तान से लगी है। उत्तर में राजस्थान तो उत्तर-पूर्व में मध्य प्रदेश है। दक्षिण में महाराष्ट्र मौजूद है। कहने का मतलब यह है कि गुजरात की सीमा से सभी ऐसे राज्य लगे हैं, जहाँ कभी पेयजल की कमी सबसे बड़ा मुद्दा रही है। लेकिन विकासात्कम दौड़ में यह मुद्दा खत्म हो गया है। इन सभी राज्यों में भरपूर पेयजल का इन्तजाम है। ऐसे में गुजरात सीमावर्ती राज्यों से मुकाबला करते हुए सबसे आगे निकल गया। प्रदेश में समुद्री सीमा होने की वजह से भी कई इलाकों में पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित हुई, लेकिन तत्कालीन मुख्यमन्त्री और वर्तमान में भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की विकासात्मक सोच ने हर चुनौती को पीछे छोड़ दिया। अब स्थिति यह है कि इस राज्य में किए गए नए पेयजल इंतजाम की चर्चा पूरे देश में हो रही है। विभिन्न राज्यों की सरकारें गुजरात माॅडल को अपनाकर प्रदेश में तरक्की की इबादत लिख रही हैं। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी विभिन्न राज्यों में गुजरात माॅडल का उदाहरण देते हुए तरक्की की राह पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि जिस योजना के तहत गुजरात व आसपास के राज्यों में पेयजल संकट दूर हुआ है और लोगों को गुणवत्तापरक पेयजल मिलने लगा है, उसके जरिए पूरे देश में इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।

पिछले दिनों केन्द्र सरकार की ओर से गुजरात सरकार के जल एवं स्वच्छता प्रबंधन संगठन की ओर से मिले ‘द स्टेट वाइज वाटर सप्लाई ग्रिड’ विषय वाली एक सीडी राज्यों को अध्ययन के लिए दी गई है। इसमें बताया गया है कि किस तरह गुजरात ने अपने यहाँ पानी की कमी की समस्या से उबरने का इंतजाम किया। एक सदी पहले हम देशी तरीके से पानी का ज्यादा बेहतर संरक्षण करते थे, लेकिन नई जीवनशैली के नाम पर हम उन सब बातों को भूल गए। हम भूल गए कि कुछ ही दशक पहले तक हमारी नदियों में कल-कल करके शुद्ध जल बहता था। अब ऐसा नहीं रहा। विकास की दौड़ में शुद्ध पानी और इसके स्रोत प्रदूषित होते चले गए। अनियोजित और नासमझी से भरे विकास ने नदियों को प्रदूषित और विषाक्त कर दिया। एशिया के 27 बड़े शहरों में जिनकी आबादी 10 लाख या इससे ऊपर है, में चेन्नई और दिल्ली की जल उपलब्धता की स्थिति सबसे खराब है। मुम्बई इस मामले पर दूसरे नम्बर पर है जबकि कोलकाता चौथे नम्बर पर। दिल्ली में तो पानी का कारोबार सबसे ऊपर है। यहाँ टैंकर पैसों के बदले पानी खुले आम बेचते हैं। अब राज्यों में नदियों के जल बँटवारे को लेकर दशकों से विवाद जारी हैं। कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में टकराव, गोदावरी के जल को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक में तनातनी और नर्मदा जल पर गुजरात और मध्य प्रदेश में टकराव की स्थिति अक्सर सामने आती रहती है। देश की 14 बड़ी नदियाँ बड़े संकट की शिकार हैं। नदियों के बहाव क्षेत्र में बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो रही हैं।

तरक्की की धुन पर थिरकती गुजरात की पेयजलधारा


कभी गुजरात में पेयजल को लेकर लोगों को घण्टों लाइन में खड़े रहना पड़ता था तो महिलाओं को तड़के पानी की खोज में निकलना पड़ता था, लेकिन अब गुजरात पूरे देश के लिए रोल माॅडल है। गुजरात एक ऐसा राज्य है जहाँ 20 फीसदी क्षेत्र में 71 फीसदी जल-संसाधन और शेष 80 फीसदी क्षेत्र में 29 फीसदी जल संसाधन है और ग्रामीण क्षेत्रों को पीने के पानी के संकट से जूझना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में जल संसाधनो की व्यवस्था राजय सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और बदलाव की कहानी लिखना शुरू किया। वास्तव में यहाँ पेयजल की तस्वीर बदलनी शुरू हुई 2001 में। श्री मोदी के पहली बार मुख्यमन्त्री बनने के बाद प्रदेश में पेयजल योजनाओं को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ। इसके बाद तो प्रदेश में एक के बाद एक पेयजल योजनाएँ चल पड़ी। राज्य में जलस्रोतों का उचित व समेकित उपयोग करने के लिए ‘सुजलाम् सुफलाम्’ नामक कार्यक्रम शुरू हुआ। यह अभियान इतना जबर्दस्त रहा कि पूरे प्रदेश की जनता इसमें सहभागी बनने लगी और जल की बर्बादी को रोका जा सका। तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ग्रामीण समुदायों में पीने के पानी की आपूर्ति की समस्या को सुलझाने के लिए एक विशेष उद्देश्य वाली गतिविधि शुरू की। इसे राज्य भर में लागू किया जिससे ग्रामीण समुदायों में पीने के पानी की काफी पुरानी समस्या का हल हुआ है। जल प्रबंधन के निर्णय लेने की प्रक्रिया में, पानी समितियों (वाॅटर कमेटी) के गठन के दौरान ग्रामीण नागरिकों को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। इसका असर यह रहा कि समूचे प्रदेश में पेयजल की गुणवत्ता को लेकर जागरूकता आई। गुजरात में वर्ष 2011 के अंत तक 72.22 फीसदी घरों में नलों की व्यवस्था कर दी गई थी, जो 26.6 फीसदी के राष्ट्रीय स्तर की तुलना से काफी अधिक है। प्रदेश में 2003 में 3961 गाँवों को पानी के टैंकरों की जरूरत पड़ती थी, जो वर्ष 2011 में सिर्फ सात रह गई।

वाॅटर एण्ड सेनीटेशन मैनेजमेंट आर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएएसएमओ)


गुजरात में पेयजल को चलाने वाले अभियान के तहत 2002 में एक विशेष अभियान चला। वाॅटर एण्ड सेनीटेशन मैनेजमेंट आर्गेनाइजेशन नाम से शुरू हुए इस अभियान ने पूरे प्रदेश में हलचल मचा दी। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण समुदायों में पीने के पानी की आपूर्ती और स्वच्छता को बनाए रखना है। पानी की आपूर्ती का निर्णय लेने की प्रक्रिया में ग्रामीण नागरिकों को शामिल करने के लिए ग्राम पंचायत की उप-समितियों के रूप में पानी समितियों का गठन किया गया है। इन समितियों की खास विशेषता यह है कि महिलाओं और उपेक्षित समूहों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व का आश्वासन दिया गया है। तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने नारा दिया ‘सेव वाटर, वाटर विल सेव अस’। इसके जरिए इस योजना से गुजरात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है। इस संगठन को यूनाईटेड नेशंस पब्लिक सर्विस अवाॅर्ड - 2009 द्वारा फोस्टरिंग पार्टिसिपेशन इन पाॅलिसी मेकिंग डिसीजन इनोवेटिव मैकेनिज्म श्रेणी के अंतर्गत ग्रामीण समुदायों में पेयजल आपूर्ति प्रबंधन के संस्थानीकरण कार्यक्रम और लोगों को पीने के पानी की गुणवत्ता के बारे में बताने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिया गया।

पानी समितियों ने दिखाया कमाल


राज्य में गठित पानी समितियों ने गजब का कमाल दिखाया। पानी समितियों को विशेष रूप से स्वच्छता, स्वास्थ्य, गन्दे पानी से होने वाली बीमारियों की रोकथाम के प्रति जागरूक करने के लिए सक्रिय किया गया। इसको लेकर लोगों में उत्साह बढ़ा, जिसका नतीजा रहा कि वर्ष 2002 में जहाँ पूरे प्रदेश में सिर्फ 82 पानी समितियाँ थी वहीं 2012 में इनकी संख्या बढ़कर 18,076 हो गई।

वाॅटर क्वालिटी टीमों का गठन


ग्रामीण क्षेत्रों में पीने के स्वच्छ पानी को पहुँचाने के लिए सर्वीलांस प्रोग्राम लागू किया गया है। इसके तहत गुजरात वाॅटर सप्लाई, सीवरेज बोर्ड और यूनीसेफ के सहयोग से पूरे प्रदेश में 16,676 वाॅटर क्वालिटी टीमों का गठन किया गया। इसमें विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के साथ ही सीधे तौर पर स्वयं सहायता समूह की भागीदारी बढ़ाई गई। कुछ समय बाद टीमों का दायरा बढ़ाते हुए आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को शामिल किया गया। बेहतर परिणाम आता देख इस अभियान में स्कूल व कॉलेज के छात्रों एवं अध्यापकों को भी जोड़ लिया गया। इसके बाद तो यह अभियान व्यापक तौर पर चल पड़ा। सभी की संयुक्त भागीदारी होने की वजह से यह अभियान हर घर से जुड़ा। टीमें विभिन्न गाँवों में जाकर लोगों को पीने के स्वच्छ पानी के बारे में जानकारी देती हैं। ग्रामीणों को बताती हैं कि वे किस तरह से पानी का सदुपयोग करें। पानी बचाने के साथ ही पानी में मौजूद तत्वों और कौन-सा पानी स्वास्थ्य के लिए फायदेमन्द है, इसकी भी जानकारी देती हैं। पीने और नहाने अथवा कपड़े धोने में अलग-अलग पानी का प्रयोग करते हुए किस तरह से पानी भी बचाया जा सकता है और अपनी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं, इस बाबत भी जागरूक किया जाता है। यह टीमें व्यक्तिगत स्वच्छता के बारे में भी जानकारी देती हैं।

सरदार सरोवर परियोजना


सरदार सरोवर परियोजना सिंचाई, विद्युत एवं पेयजल के लाभों हेतु एक बहु-उद्देशीय परियोजना है, जो गुजरात के साथ ही मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान को पानी उपलब्ध कराती है। इस परियोजना के अन्तर्गत गुजरात में नर्मदा नदी पर 1,210 मीटर लम्बे एवं 163 मीटर ऊँचे बाँध का निर्माण किया गया। इसकी भण्डारण क्षमता 5,800 मिलियन घन मीटर (4.73 मिलियन एकड़ फीट) है। गुजरात में 17.92 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि पर वार्षिक सिंचाई करने का प्रावधान है। इसके साथ ही राजस्थान को आवंटित 616 मिलियन घनमीटर (0.5 मिलियन एकड़ फीट) नर्मदा जल का संवहन, राजस्थान के बाड़मेर एवं जालोर जिलों की कृषि योग्य कमाण्ड क्षेत्र की 246 लाख हेक्टेयर भूमि (वर्तमान में किए गए संशोधन के अनुसार) पर वार्षिक सिंचाई करने का प्रावधान है। गुजरात राज्य को आवंटित 9 मिलियन एकड़ में पेयजल, नगरीय एवं औद्योगिक क्षेत्रों के उपयोग में लाने हेतु प्रावधान किया गया है।

वाॅटर सप्लाई ग्रिड


गुजरात के 70 फीसदी इलाकों में जलापूर्ति के लिए जल के स्रोत मात्र 30 फीसदी इलाकों में हैं। इस समस्या का मुकाबला राज्य भर में वाटर सप्लाई ग्रिड बनाकर किया गया है। इस ग्रिड के जरिए सरकार दूरदराज के क्षेत्रों तक जल की बड़ी मात्रा एक जलाशय से दूसरे जलाशय तक भेजती है। इस योजना का फैलाव एक लाख 20 हजार 769 किलोमीटर क्षेत्र में है। यह योजना कच्छ और सौराष्ट्र में पेयजल आपूर्ति की जीवनरेखा बन चुकी है।

महाराष्ट्र में पेयजल के इन्तजाम


महाराष्ट्र सरकार के 100 दिन पूरे होने पर मुख्यमन्त्री श्री देवेन्द्र फडणवीस ने तमाम विकास कार्यों के साथ ही पेयजल की उपलब्धता एवं उसकी गुणवत्ता पर जोर दिया। उन्होंने साफ कहा कि सरकार प्रदेश वासियों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए कई नए प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही है। उन्होंने बताया कि सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती सूखे की थी, जिससे राज्य में 20 हजार से अधिक गाँव प्रभावित हुए। प्रभावित क्षेत्रों में टैंकर के जरिए पेयजल की आपूर्ति पहले ही शुरू की जा चुकी है। जल्द ही यहाँ पेयजल आपूर्ति के ठोस इंतजाम किए जाएँगे। महाराष्ट्र सरकार की ओर से किए अनुमान के मुताबिक वहाँ अप्रैल-जून तक 1332 गाँवों में जलसंकट गहरा सकता है। इसके लिए सभी जिला प्रशासनों को इंतजाम करने को कहा गया है। 132 गाँवों में जलसंकट से निपटने के लिए 161 योजनाएँ प्रस्तावित है। इनमें 65 निजी कुओं का अधिग्रहण, 67 नल योजना की विशेष दुरूस्ती, 19 हैंडपम्प और आठ टैंकर प्रस्तावित है। इन योजनाओं पर 309.34 लाख रूपये का खर्च अपेक्षित है।

आमतौर पर महाराष्ट्र के 34 जिलों में अक्सर पानी का संकट रहता है। इसमें सोलापुर, अहमदनगर, सांगली, पुणे, सतारा, बीड और नासिक सूखे से सबसे अधिक प्रभावित जिले हैं। बुलढाना, लातूर, उस्मानाबाद, नांदेड़, औरंगाबाद, जालना, जलगाँव और धुले जिलों में भी स्थिति गम्भीर रहती है। समुद्रीय क्षेत्र के जिलों में पेयजल संकट अधिक है। यहाँ के पानी में तमाम हानिकारक तत्व मौजूद हैं, जिसे पीने से तमाम बीमारियाँ होती हैं। मराठावाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र के कई इलाकों में परम्परागत जलस्रोत कम हैं। ऐसी स्थिति में लोगों के लिए पेयजल का इंतजाम करना सरकार की जिम्मेदारी रहती है। बढ़ती आबादी की वजह से अन्य प्रदेशों की तरह ही महाराष्ट्र में भी तालाबों, नदियों, कुओं का अस्तित्व मिटता जा रहा है। 2009 में यहाँ पड़े भीषण सूखे ने रही-सही कसर पूरी कर दी। किसानों की तबाही के साथ ही पानी के अभाव में जनजीवन संकट में पड़ गया था। तब सरकार की ओर से पेयजल के विकास के लिए कई पुख्ता परियोजनाएँ शुरू की गई। जिसकी वजह से आज समूचा महाराष्ट्र पेयजल संकट से निबट पाता है। सूखाग्रस्त अमरावती जिले में प्रधानमन्त्री राहत योजना के तहत अपर वर्धा सिंचाई प्रोजेक्ट बना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अकाल का सीधा सम्बन्ध अर्थव्यवस्था से है। व्यापक शहरीकरण के बावजूद महाराष्ट्र में कृषि ही अर्थव्यवस्था का पूरक आधार है। सरकार की ओर से राज्य में ढेरों सिंचाई परियोजनाएँ चलाने के साथ ही बन्द परियोजनाओं को चालू कराया जा रहा है।

पेयजल के लिए शुरू होगा वेब आधारित जीआईएस


दूसरे राज्यों की तरह ही महाराष्ट्र में भी एक तरफ जल संकट है तो दूसरी तरफ जल प्रदूषण इस संकट को बढ़ा रहा है। पानी को लेकर मची मारामारी से निबटने के लिए सरकार की ओर से तमाम प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं। अब सरकार ने पेयजल के लिए जीआईएस आधारित नया प्रोजेक्ट तैयार किया है। इस योजना में मोबाइल एप्लीकेशन को भी शामिल किया जाएगा। इसमें पहले चरण में नागपुर स्थित एमआरएसएसी जीपीएस के जरिए पेयजल के स्रोतों का पता लगाएगा। एमआरएसएसी और बेलापुर स्थित जल और स्वच्छता संस्थान के बीच हुए एक समझौता ज्ञापन को सरकार ने मंजूरी प्रदान कर दी है। परियोजना के तहत 34 जिलों में पता लगाए गए पेयजल स्रोतों, एकत्र नमूनों को शामिल किया गया है। इसमें बताया गया है कि इसके लिए 49.18 लाख रूपये में से एमआरएसएसी को 24.90 लाख रूपये का भुगतान किया जाएगा।

पेयजल शुद्धता जाँचने की नई तकनीक


पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) और लंदन स्कूल आॅफ हाइजीन एवं ट्राॅपिकल मेडिसिन ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसके जरिए पीने के पानी की गुणवत्ता का आसानी से पता लगाया जा सकता है। यह अनुसंधान यूएस इंस्टीट्यूट आॅफ इंटरनेशनल एजुकेशन द्वारा वित्तपोषित था। महाराष्ट्र के नागपुर में स्थित आठ गाँवों में गर्मी में हुए प्रयोग के बाद इसे विस्तारित करने की योजना है। यदि महाराष्ट्र में यह प्रयोग सफल रहा तो देश के अन्य हिस्सों में भी प्रयोग किया जाएगा। इसके तहत गाँवों के लोगों को एक टेस्ट किट दी जाती है जिसमें पीले रंग के पदार्थ से भरा एक टेस्ट टयूब होता है। गाँव वालों को नल पानी या बर्तन में भर कर रखा गया पानी इस टेस्ट टयूब में भरकर, रात भर छोड़ देने को कहा जाता है। अगर ये पीला पदार्थ बैंगनी पड़ जाता है तो इसका मतलब होता है कि पानी में ‘ई-कोलाई’ नामक जीवाणु मौजूद है। यह जीवाणु दूषित जल में पाया जाता है। इसके बाद लोग अपने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करके आँकड़ों की एक शृंखला भेजते हैं, जो ये बताती है कि परीक्षण में इस्तेमाल हुआ पीला पदार्थ, स्वच्छ पानी की पुष्टि करते हुए पीला ही बना रहा या बैंगनी हो गया, जिससे ये साबित हो गया कि पानी दूषित है।

पहाड़ों एवं झरनों के शहर में पेयजल इन्तजाम


पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) और लंदन स्कूल आॅफ हाइजीन एवं ट्राॅपिकल मेडिसिन ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसके जरिए पीने के पानी की गुणवत्ता का आसानी से पता लगाया जा सकता है। यह अनुसंधान यूएस इंस्टीट्यूट आॅफ इंटरनेशनल एजुकेशन द्वारा वित्तपोषित था। महाराष्ट्र के नागपुर में स्थित आठ गाँवों में गर्मी में हुए प्रयोग के बाद इसे विस्तारित करने की योजना है। यदि महाराष्ट्र में यह प्रयोग सफल रहा तो देश के अन्य हिस्सों में भी प्रयोग किया जाएगा।

मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में पेयजल में प्रमुख तत्वों का अभाव है, लेकिन यहाँ सरकार की ओर से चलाई जा रही विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की वजह से लोगों को पेजयल की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ रहा है। सरकार का प्रयास है कि सामूहिक पेयजल योजनाओं के माध्यम से मध्य प्रदेश में अगले दस साल में सभी घरों में नल से पेयजल उपलब्ध करवाया जाए। इस दिशा में प्रयास शुरू हो गया है। इसके तहत सतही स्रोत आधारित सामूहिक पेयजल योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जल निगम का गठन किया गया है। सामूहिक पेयजल योजनाओं के माध्यम से ऐसी व्यवस्था की जा रही है, जिससे महिलाओं को 100 मीटर के अन्दर ही स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो सके। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल उपलब्ध करवाने के लिए लगभग 5 लाख 21 हजार हैंडपम्प लगे हैं, जबकि राज्य में 12 हजार 518 नल-जल योजनाएँ और पेयजल की गुणवत्ता की निगरानी के लिए 155 प्रयोगशालाएँ कार्य कर रही हैं। लगभग एक हजार की आबादी वाले 3412 गाँवों में मुख्यमन्त्री पेयजल योजना का क्रियान्वयन हो चुका है। शेष 588 में कार्य चल रहा है। प्रदेश के भौगोलिक अन्तर और जटिलता से जल की गुणवत्ता प्रभावित हुई है। लगभग 28 जिले फ्लोराइड, 14 खारे पानी, 10 नाईट्रेट और 13 आयरन की समस्या से प्रभावित हैं। सरकार ने ग्रामीण इलाकों में 1911.5 करोड़ रुपये से पेयजल व्यवस्था कराने की योजना बनाई है।

मध्य प्रदेश का औसत सतही जलप्रवाह 81 लाख 5 हजार हेक्टेयर मीटर है। इसका 56 लाख 8 हजार हेक्टेयर मीटर प्रदेश द्वारा उपयोग किया जाता है। शेष 24 लाख 7 हजार मीटर अंतर्राष्ट्रीय समझौते में पड़ोसी राज्यों को आवंटित है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना की अवधि वर्ष 2007 से 2012 के मध्य 9598 करोड़ 09 लाख रुपये खर्च कर 828.57 हजार हेक्टेयर सिंचाई भूमि की सिंचाई की व्यवस्था की गई। प्रदेश में 05 नवीन वृहद् परियोजनाएँ हैं। इनमें टीकमगढ़ की गणेशपुरा पिकअप वियर और बानसुजारा, शाजापुर की काली सिंध, मुरैना की ऐसाहा उदवहन सिंचाई योजना एवं सागर की बीना बहु-उद्देशीय योजना शामिल हैं। इनकी अनुमानित लागत 2916 करोड़ 41 लाख रूपये है। इन परियोजनाओं के पूर्ण होने पर 2 लाख 57 हजार 436 हेक्टेयर में सिंचाई हो सकेगी।

राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना


मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना के तहत केन्द्रीय आवंटन में बढ़ोतरी की माँग की है। इस समय राज्य और केन्द्र सरकार ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल के लिए बराबर अशंदान देती हैं। पूर्व शहरी विकास मन्त्री श्री नितिन गडकरी की अध्यक्षता में नई दिल्ली में ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल योजनाओं पर बैठक बुलाई गई थी। विजन डाक्यूमेंट - 2018 के तहत राज्य के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रतिदिन प्रति व्यक्ति न्यूनतम 55 लीटर जल का लक्ष्य रखा है।

खेत तालाब योजना


खेत तालाब योजना के जरिए किसानों को फायदा पहुँचाने के साथ ही जल संरक्षण की दिशा में भी कार्य किया जा रहा है। किसान स्वेच्छा से तालाब के तीन माॅडलों में से एक का चयन कर सकता है। सभी वर्गों के किसानों को लागत का 50 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है, जिसकी अधिकतम सीमा 16 हजार 350 रुपये है। खेत, तालाब, बारिश का पानी रोक कर उसे सिंचाई में उपयोग के लिए काफी कारगर सिद्ध हुए हैं। पहले बारिश का पानी बेकार बह जाता था। एक तालाब से काफी बड़े क्षेत्र में पानी की सुविधा हो जाती है।

नहरों के अन्तिम छोर तक पानी


प्रदेश में सिंचाई सुविधाओं के लिए नहरों का इंतजाम है। इससे काफी हद तक दैनिक क्रिया का पानी भी लोगों को मिल जाता है। जल-संसाधन विभाग ने नहरों के अन्तिम छोर तक पानी पहुँचाकर लोगों की सिंचाई के साथ ही पानी अनुपलब्धता की समस्या का भी समाधान कर दिया। इसी तरह बरसात में बाँधों के जलभराव की प्रतिदिन चौकसी कर वितरण की ठोस योजना को अमल में लाया गया। राजस्थान से चम्बल नहर प्रणाली के लिए 3900 क्यूसेक पानी प्राप्त किया गया। प्रदेश में कुल 27 परियोजनाओं में से 12 परियोजनाएँ पूर्ण की जा चुकी हैं। शेष 08 परियोजनाएँ विभिन्न चरणों में निर्माणाधीन हैं और 07 परियोजनाओं के विस्तार और आधुनिकीकरण के कार्य प्रगति पर हैं। इन बड़ी परियोजनाओं में चम्बल, तवा, सुक्ता, सम्राट अशोक (हलाली), रनगवा, बारना, भाण्डेर नहर, उर्मिल, अपर बैनगंगा, थांवर, कोलार एवं राजघाट शामिल हैं। इसी तरह 145 मध्यम योजनाओं में से 110 पूर्ण की जा चुकी है। शेष 35 विभिन्न चरणों में प्रगति पर हैं। लघु योजनाओं में कुल स्वीकृत 5821 योजनाओं में से 4,337 योजनाएँ पूर्ण हैं और 1520 योजनाएँ बजट में सम्मिलत है।

राजस्थान में पेयजल उपलब्धता के लिए किए गए प्रयास


‘राजस्थान में पर्याप्त पानी’:- यह सुनने में अजीब लगता है, लेकिन सच है। यहाँ सरकार की ओर से निर्मित तमाम बाँधों के जरिए बस्तियों तक पानी पहुँचाया जा रहा है। केन्द्र एवं राज्य सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की बदौलत राजस्थान में न सिर्फ शुद्ध पानी मिल रहा है बल्कि खेत भी लहलहा रहे हैं। इस बीच सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि यहाँ पानी बचाने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पानी के सदुपयोग एवं वृहद, मध्यम एवं लघु पेयजल परियोजनाओं के सफल क्रियान्वयन से लोगों को पेयजल उललब्ध हो रहा है। चम्बल - संवाई माधोपुर - नादौती परियोजना के अंतर्गत चम्बल नदी में इनटेक - वैल बनाने के लिए 25.54 करोड़ रुपये वन विभाग को जमा करवाकर चालू किया गया है ताकि जनता को इसका लाभ मिल सके। इसी तरह भीलवाड़ा जिले को पेयजल उपलब्ध कराने हेतु परियोजना को 1020 करोड़ रुपये जारी किए जा चुके हैं। जोधपुर जिले की तहसील औसियाँ की पाँचला-घेवरा-चिराई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत 595 ग्रामों व 892 ढाणियों को लाभान्वित करने के लिए 367.98 करोड़ रुपये खर्च किए गए।

जलमणि कार्यक्रम


नीति निर्धारण समिति द्वारा भारत सरकार का ‘जलमणि कार्यक्रम,’ जिसके तहत ग्रामीण विद्यालयों में बच्चों को स्वच्छ एवं जीवाणुरहित पेयजल उपलब्ध करवाने के लिए विभिन्न प्रकार के छोटे-फिल्टर/आरओ प्लांट लगाए जाने का निर्णय लिया गया। इस कार्यक्रम के तहत 17 करोड़ रुपये की लागत की प्रशासनिक स्वीकृति जारी की गई एवं राज्य में 5000 विद्यालयों में प्रथम चरण के तहत स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए निविदाएँ आमन्त्रित कर करीब 5.50 करोड़ रुपये की वित्तीय स्वीकृति जारी की गई। जलमणि योजना के अन्तर्गत 5000 स्कूलों में टैरा फिल्टर/अल्ट्रा फिल्टर लगाने हेतु 6.75 करोड़ रुपये के कार्यादेश दिए जा चुके हैं एवं कार्य प्रगति पर है। इस कार्यक्रम के बच्चों को स्कूल में भी शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सकेगा।

आपणी योजना


राज्य सरकार की ओर से ग्रामीणों को शुद्ध एवं प्रचुर मात्रा में पेयजल उपलब्ध कराने के लिए आपणी योजना शुरू की गई है। चुरू जिले में 6 कस्बों एवं 425 ग्रामों में पेयजल समस्या के निराकरण के लिए आपणी योजना चल रही है। इस कार्य पर 78.25 लाख रुपये खर्च किए गए।

ग्रामीण विकास विज्ञान समिति


सतही जल की कमी के कारण राजस्थान को बहुत हद तक भूजल, संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। बड़ी संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। बड़ी संख्या में कुएँ, बावड़ियाँ और झालरें प्रमुख परम्परागत जल साधन हैं। राज्य में भूजल की स्थिति भू-आकारीय संरचना तथा भूमिगत जल धारक संरचनाओं की प्रकृति पर निर्भर करती है। भूजल विकास राजस्थान के पश्चिमी भागों की तुलना में पूर्वी भागों में अधिक है। पश्चिमी राजस्थान में भूजल पुनर्भरण अपेक्षाकृत कम है। अनिश्चित वर्षा, सतही जल संसाधनों की अनुपस्थिति तथा उच्च वाष्पोत्सर्जन इसके कारण हैं। मानव विकास हेतु जल एक सीमांत कारक है, तथा मानव के अस्तित्व हेतु अत्यन्त आवश्यक है। राजस्थान में भूमि व सूर्य का प्रकाश प्रचुर मात्रा में है, परन्तु उपलब्ध जल-संसाधनों के सम्बन्ध में कम भाग्यशाली है। राज्य में ऐसी कोई नदी नहीं है, जिसका उद्गम स्थल हिमपात वाले क्षेत्रों से हो। इस कारण जल संग्रह करने के साधन जैसे बाँधों, टंकियों, तालाबों, खड़ीनों और टांकों का निर्माण आवश्यक हो गया, जिससे कि पूरे वर्ष सिंचाई तथा पीने के पानी की आवश्यकता पूरी हो सके।

अन्तर-प्रदेशीय नदी जल का आवंटन


स्वयं के सतही जल संसासधनों के अतिरिक्त राजस्थान को अंतर-प्रदेशीय नदी जल-संग्रहण क्षेत्रों से काफी मात्रा में जल आवंटित किया जा रहा है। राजस्थान को विभिन्न समझौतों के अंतर्गत अंतर-प्रदेशीय नदियों व संग्रहण क्षेत्रों से 14.50 एम.ए.एफ. जल आवंटित है। अनियंत्रित एवं अत्यधिक दोहन के कारण अनेक क्षेत्र गम्भीर दबाव की स्थिति में हैं और जल-स्तर में गिरावट प्रदर्शित करते हैं। राज्य को 668 भूजल क्षमता वाले मण्डलों में विभक्त किया गया है। इनमें से 179 मण्डल अत्यधिक दोहन व संकटपूर्ण स्थिति की श्रेणी में आते हैं तथा 85 मण्डल अर्द्ध-संकटपूर्ण स्थिति की श्रेणी में रखे गए हैं। शेष 404 मण्डलों को सुरक्षित श्रेणी में रखा गया है। अधिकांश उच्च दोहन एवं संकटपूर्ण स्थिति वाले मण्डल अलवर, बाड़मेर, चुरू, धौलपुर, जयपुर, जालौर, जोधपुर, झुंझुनू, नागौर, पाली, सीकर तथा सिरोही जिलों में स्थित हैं। राज्य के विकास की कुंजी के रूप में जल संसाधनों का महत्वपूर्ण स्थान है। यह सर्वविदित है कि सभी जल संसाधनों का पुनः भराव मुख्यतः वर्षा के द्वारा होता है, जो निश्चित रूप से सीमित है। राज्य के आठ जिलों यथा जयपुर, सीकर, झुंझुनू, जोधपुर, अलवर, पाली, जालौर व नागौर में जल-स्तर में गिरावट 5 मीटर से 43 मीटर के बीच रहती है। राज्य के 237 खण्डों में 67 खण्ड अतिशोषित व डार्क मण्डल श्रेणी में आते हैं, जिनके कारण गुणवत्ता में गिरावट के अतिरिक्त जल-स्तर में कमी तथा जल को भू-पृष्ठ पर लाने की लागत में वृद्धि हो जाती है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।), ईमेल : balwant957@yahoo.in

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