गरमी का ताप : गरीबों का संताप

सुभाष चंद्र कुशवाहा


साल दर साल गरमी बढ़ रही है। इस बार उत्तर भारत कुछ ज्यादा तप रहा है, तो पहाड़ पर भी गरमी ने दस्तक दे दी है। पारा रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। कुछ वर्षों से मसूरी और नैनीताल जैसे ठंडे पहाड़ी इलाकों में भी कूलर और एसी का उपयोग होने लगा है। वर्ष 2006 में तिहाड़ जेल में गरमी की मार से पांच कैदी मरे थे। विगत वर्ष लू के थपेड़ों से 100 से अधिक लोग मारे गए और इस वर्ष अप्रैल तक यह संख्या दो दर्जन तक पहुंच चुकी है। इन आंकड़ों में गांव-कसबों में लू से मरने वाले तथा गरमी से फैले डायरिया से मरने वाले शामिल नहीं हैं।

गरमी से मुकाबले के लिए संपन्न वर्ग के पास कूलर और एसी है। वह वातानुकूलित गाड़ियों में सफर कर रहा है। सन स्क्रीन लोशन और क्रीम लगाता है। वह हिल स्टेशन पर छुटि्टयां मनाने चला जाता है। मगर गरीब क्या करे? वह कैसे अपनी हिफाजत करे? दैनिक मजदूरों का कामकाज के लिए बाहर निकलना बेहद तकलीफ भरा हो गया है।पानी की तलाश में बुंदेलखंड के लोग मीलों भटक रहे हैं। नदियां और अन्य जलाशय सूख रहे हैं, लेकिन डब्बाबंद ठंडा पानी अमीरों के लिए उपलब्ध है। गरीबों के लिए न शीतल पेय है, न प्राकृतिक वातानुकूलन के साधन। पेड़ों की सुलभ छांव को हमने विकास के नाम पर निगल लिया है। शहरों में रिक्शेवाले या मजदूरों के सुस्ताने के ठांव अब दिखाई नहीं देते। विकास के नाम पर आकाश को बेपरदा किया जा रहा है और धरती को जलाया जा रहा है। दरअसल विकास का वर्तमान मॉडल गरीब विरोधी है, जो बहुतों को उपेक्षित कर केवल कुछ समर्थों का भला कर रहा है। बढ़ती गरमी को कम करने के उपाय रहनुमाओं की चिंता के विषय नहीं होते। एक तरफ ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर गाल बजाए जाते हैं, तो दूसरी तरफ उसे बढ़ाने के सारे उपक्रम किए जा रहे हैं। दिखावे के लिए कुछ विज्ञापन छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। पेड़-पौधों, नदी-नालों को मिटाकर सीमेंट के बाग खड़े किए जा रहे हैं। हर प्रकार से प्रदूषण फैलाकर तापमान बढ़ाया जा रहा है।

सवाल यह है कि गरीब बढ़ती हुई गरमी से अपना बचाव कैसे करें? गरीब आखिर घडे़ का पानी लेकर खेती-बाड़ी करने नहीं जा सकते। उनके पास गरम लू के थपेड़े झेलने के अलावा और कोई चारा भी नहीं है। शहरी मजदूरों और किसानों को काम-धंधे के लिए बाहर निकलना ही होता है। न तो छतरी लगाकर मजदूरी हो सकती है और न बिना काम किए भोजन मिल सकता है। दुधमंुहों से लेकर बड़ों तक घर का पूरा कुनबा गरमी में झुलसता है। एक तो खाने की समस्या, ऊपर से गरमी। कुपोषण के शिकार तन को आसानी से लू चपेट में ले लेती है।

शहर में बिजली है, तो गरमी से जूझने के तमाम उपकरण हैं। फ्रीज हैं, ठंडा और आइसक्रीम हैं। वातानुकूलित शॉपिंग मॉल हैं। लेकिन देश की सत्तर प्रतिशत आबादी के हिस्से में क्या है? गांवों में रहने वाली ज्यादातर आबादी के पास तो बिजली तक नहीं है। जहां कहीं बिजली के खंभे हैं, वहां बिजली आती ही नहीं। गांव के सार्वजनिक तालाब मछली पालकों को पट्टे पर दे दिए जाने के कारण अब लोग तपती गरमी में उनमें नहाकर राहत भी नहीं पा सकते। बड़े किसानों या सामंतों ने अपने ताल-तलैयों को पाटकर खेत बना लिए हैं। मिट्टी के घर एवं बरतनों का प्रचलन खत्म होने से तालाबों से मिट्टी नहीं निकाली जाती, सो उनकी गहराई कम होती गई है। पानी का संचयन न होने के कारण हवा से ठंडक गायब हो गई है। कॉलोनियों या सड़कों के निर्माण के नाम पर बाग-बगीचे और जंगल उजाड़ दिए गए हैं।

पहले सघन बगीचों से गुजरती गरम हवा पत्तों को छूकर ठंडी हो जाती थी, क्योंकि पेड़ों की सघनता के कारण वातावरण में नमी बनी रहती थी। अब तो नंगी धरती की हवा रूखी-सूखी हो गई है। पहले फूस सस्ते और सबके लिए उपलब्ध थे। फूस की झोपçड़यां गरीबों को गरमी से बचाती थीं। लेकिन अब विकास की मार ऐसी पड़ी है कि फूस, बांस, मूंज सब दुर्लभ या महंगे हो चले हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के लिए गरीब जिम्मेदार नहीं हैं। प्रकृति को उजाड़ने के लिए भी गरीब जिम्मेदार नहीं हैं। प्रकृति का भोग व्यवसायी करता है। गरीब हमेशा प्रकृति के साथ जीता है। प्रकृति उसे पालती है और वह प्रकृति का संवर्द्धन करता है। आदिवासी जंगलों की हिफाजत करते हैं, तो किसान, जमीन और सिंचाई के परंपरागत स्त्रोतों को महफूज रखते हैं। अब जंगल, जमीन, नदी, तालाब सब खतरे में हैं। सब पर व्यवसायियों की नजर है। वे वर्तमान को भोगने के लालच में हमेशा के लिए प्राकृतिक संतुलन को नष्ट कर रहे हैं। प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने का परिणाम ही है कि तापमान में वृद्धि हो रही है। अब जब प्रकृति ही खतरे में है, तब गरीब को कौन बचायेगा?

(लेखक साहित्यकार हैं)

साभार – अमर उजाला

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