इस व्यवस्था में महिला सरपंचों को ज्यादा संघर्ष करना पड़ रहा है और जहां वे सक्षम है उन पंचायतों में सबसे बेहतर परिणाम सामने आये हैं। पंचायती राज और ग्राम स्वराज के संबंध में सबसे बड़ी कमजोरी ग्राम सभा की बैठकों के आयोजन न हो पाने के रूप में सामने आई है। सामाजिक न्याय समितियों का या तो गठन नहीं हो पाया है या फिर समितियां सक्रिय नहीं है।
गरीबी भूख है और उस अवस्था में जुड़ी हुई है निरन्तरता। यानी सतत् भूख की स्थिति का बने रहना। गरीबी है एक उचित रहवास का अभाव, गरीबी है बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ले पाने में असक्षम होना, विद्यालय न जा पाना और पढ़ न पाना। गरीबी है आजीविका के साधनों का अभाव और दिन में दोनों समय भोजन न मिल पाना। छोटे-बच्चों की कुपोषण के कारण होने वाली मौतें गरीबी का वीभत्स प्रमाण है और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शक्तिहीनता, राजनैतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न होना और अवसरों का अभाव गरीबी की परिभाषा का आधार तैयार करते हैं। मूलत: सामाजिक और राजनैतिक असमानता, आर्थिक असमता का कारण बनती है। जब तक किसी व्यक्ति, परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती है तब तक वह शनै:-शनै: विपन्नता की दिशा में अग्रसर होता जाता है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें वह शोषण का शिकार होता है, क्षमता का विकास न होने के कारण विकल्पों के चुनाव की व्यवस्था से बाहर हो जाता है, उसके आजीविका के साधन कम होते हैं तो वह सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में निष्क्रिय हो जाता है और निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है।शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलायें और बच्चे कचरा बीनने और कबाड़े का काम करते हैं। यह काम भी न केवल अपने आप में जोखिम भरा और अपमानजनक है बल्कि इस क्षेत्र में कार्य करने वालों का आर्थिक और शारीरिक शोषण भी बहुत होता है। विकलांग और शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के समक्ष सदैव दोहरा संकट रहा है। जहां एक ओर वे स्वयं आय अर्जन कर पाने में सक्षम नहीं होते हैं वहीं दूसरी ओर परिवार और समाज में उन्हें उपेक्षित रखा जाता है। कई लोग गरीबी के उस चरम स्तर पर जीवनयापन कर रहे हैं जहां उन्हें खाने में धान का भूसा, रेशम अथवा कपास के फल से बनी रोटी, पेंज, तेन्दुफल, जंगली कंद, पतला दलिया और जंगली वनस्पतियों का उपयोग करना पड़ रहा है।
गरीबी को स्वीकारने की जरूरत
वर्तमान संदर्भों में गरीबी को आंकना भी एक नई चुनौती है क्योंकि लोक नियंत्रण आधारित संसाधन लगातार कम हो रहे हैं और राज्य व्यवस्था इस विषय को तकनीकी परिभाषा के आधार पर समझना चाहती है। संसाधनों के मामले में उसका विश्वास केन्द्रीकृत व्यवस्था मंच ज्यादा है इसीलिए उनकी नीतियाँ मशीनीकृत आधुनिक विकास को बढ़ावा देती हैं, औद्योगिकीकरण उनका प्राथमिक लक्ष्य है, बजट में वे जीवनरक्षक दवाओं के दाम बढ़ा कर विलासिता की वस्तुओं के दाम कम करने में विश्वास रखते हैं, किसी गरीब के पास आंखें रहें न रहें परन्तु घर में रंगीन टीवी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में सरकार पूरी तरह से जुटी हुई है। हमारे सामने हर वर्ष नित नये आंकड़े और सूचीबद्ध लक्ष्य रखे जाते हैं, व्यवस्था में हर चीज को, हर अवस्था को आंकड़ों में मापा जा सकता है, हर जरूरत को प्रतिशत में पूरा किया जा सकता है और इसी के आधार पर गरीबी को भी मापने के मापदण्ड तय किये गये हैं। ऐसा नहीं है कि गरीबी को मिटाना संभव नहीं है परन्तु वास्तविकता यह है गरीबी को मिटाने की इच्छा कहीं नहीं है। गरीबी का बने रहना समाज की जरूरत है, व्यवस्था की मजबूरी है और सबसे अहम बात यह है कि वह एक मुद्दा है। प्रो.एम.रीन का उल्लेख करते हुये अमर्त्य सेन लिखते हैं कि ''लोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिये कि उनसे घिन आने लगे, या वे समाज को नुकसान पहुंचानें लगें। इस नजरिये में गरीबों के कष्ट और दुखों का नहीं बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है। गरीबी की समस्या उसी सीमा तक चिंतनीय है जहां तक कि उसके कारण, जो गरीब नहीं हो, उन्हें भी समस्यायें भुगतनी पड़ती है।''
गरीबी के आधार
खेतों से जुड़ती गरीबी - पारम्परिक रूप से मध्यप्रदेश का समाज प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि को ही जीवन व्यवस्था का आधार बनाता रहा है। इसी कृषि व्यवस्था के कारण वह विपरीत परिस्थितियों जैसे बाढ़, सूखा या आपातकालीन घटनाओं से जूझने की क्षमता रखता था। खेती में भी उसका पूरा विश्वास ऐसी फसलों में था जो उनकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती थीं जैसे- ज्वार, बाजरा, कौंदो-कुटकी। यही कारण था कि वे अपने पेट की जरूरत को पूरा कर पाने में सदैव सक्षम रहे। ये ऐसी फसलें थीं जिनसे कभी जल संकट पैदा नहीं हुआ, न ही जल संकट ने उन फसलों को प्रभावित किया। परन्तु विकास की तेज गति के फलस्वरूप कृषि में जो बदलाव आये वे भी गरीबी को विकराल रूप देने में जुटे हुयें हैं। किसान के जरिये उद्योगों को पोषित करने की नीति के तहत नकदी फसलों पर जोर दिया जाने लगा। ये फसलें ज्यादा पानी की मांग करती हैं, इसी कारण रासायनिक पद्धतियों का उपयोग भी लगातार बढ़ा है और किसान की जमीन अनुत्पादक होती गई है। कृषि का आधुनिकीकरण होने के कारण अब बुआई में ट्रेक्टरों और कटाई में हारवेस्टरों का खूब उपयोग होने लगा है इसके कारण कृषि मजदूरी के अवसरों में भारी कमी आई है। ऐसी स्थिति में जीवन यापन करने और प्रतिस्पर्धा से जूझने के लिये गरीब लोग कम से कम मजदूरी में भी श्रम करने के लिये तैयार हो जाते हैं।
विकास से बढ़ता अभाव - विकास के नाम पर बड़ी परियोजनाओं को शासकीय स्तर पर बड़ी ही तत्परता से लागू किया जा रहा है। इन परियोजनाओं में बांध, ताप विद्युत परियोजनायें, वन्य जीव अभ्यारण्य शामिल हैं जिनके कारण हजारों गांवों को विस्थापन की त्रासदी भोगनी पड़ी और उन्हें अपनी जमीन, घर के साथ-साथ परम्परागत व्यवसाय छोड़ कर नये विकल्पों की तलाश में निकलना पड़ा। नई नीतियों के अन्तर्गत लघु और कुटीर उद्योग लगातार खत्म होते गये हैं। जिसके कारण गांव और कस्बों के स्तर पर रोजगार की संभावनायें तेजी से घट रही हैं। कई उद्योग और मिलें बहुत तेजी से बंद हो रहे हैं और वहां के श्रमिक संगठित या पंजीकृत नहीं है, ऐसी स्थिति में उनके संकट ज्यादा गंभीर हो जाते हैं।
इन योजनाओं में विस्थापन को लाभकारी बता कर क्रियान्वित किया गया किन्तु भ्रष्टाचार और अनियोजित क्रियान्वयन के कारण लोगों के एक बड़े समुदाय के अस्तित्व पर ही संकट आ गया। अब सरकार स्वयं स्वीकार करती है कि वह विस्थापितों की जरूरतें पूरी करने की क्षमता खो चुकी है, परन्तु फिर भी निरन्तर ऐसी योजनायें बढ़ती जा रही हैं जिनका क्रियान्वयन ही विस्थापन और गरीबों की भूमि के अधिग्रहण पर आधारित है। सागर की पेयजल समस्या को हल करने के लिये राजघाट बांध बनाया गया। इसके लिए किसानों से जमीनें ले ली गई ; इसके बदले सरकार ने उन्हें जमीन तो दे दी, पर किसानों को जमीन पर कब्जा नहीं मिल पाया। इसी मामले में मूड़रा गांव के अमान अहिरवार को अपना परिवार चलाने के लिये पत्नी का मंगलसूत्र बेचना पड़ा। अमान स्वयं हाथ पैरों से विकलांग है, उनकी एक बेटी है पर नेत्रहीन और एक समय उनके पास चार एकड़ जमीन थी।
सामाजिक व्यवस्था और गरीबी - मध्यप्रदेश के चंबल और विंध्य क्षेत्र ऐसे हैं जहां सामाजिक भेदभाव अपने चरम पर है। यहां ऊँची और नीची जाति के बीच चिंतनीय भेद नजर आता है। इन क्षेत्रों में नीची जाति के लोगों के साथ खान-पान संबंधी व्यवहार नहीं रखा जाता है, न ही उन्हें धार्मिक और सामाजिक समारोह में शामिल होने या स्थलों में जाने की इजाजत होती है। इन्हीं क्षेत्रों में कई समुदाय गरीबी और सामाजिक उपेक्षा के कारण निम्नस्तरीय पारम्परिक पेशों में संलग्न हैं। यहां जातिगत देह व्यापार, जानवरों की खाल उतारना, सिर पर मैला ढोना जैसे पेशे आज भी न केवल किये जा रहे है बल्कि इन समुदाय के लोगों को सम्मानित पेशों में शामिल होने से रोका जा रहा है।
गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा के मायने
भारत में 35 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहकर अपना जीवन गुजारते हैं। अपने आप में यह जानना भी जरूरी है कि कौन गरीबी की रेखा के नीचे माना जायेगा। भारत में गरीबी की परिभाषा तय करने का दायित्व योजना आयोग को सौंपा गया है। योजना आयोग इस बात से सहमत है कि किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये न्यूनतम रूप से दो वस्तुयें उपलब्ध होनी चाहिए :-
1.संतोषजनक पौष्टिक आहार, सामान्य स्तर का कपड़ा, एक उचित ढंग का मकान और अन्य कुछ सामग्रियां, जो किसी भी परिवार के लिए जरूरी है।
2.न्यूनतम शिक्षा, पीने के लिये स्वच्छ पानी और साफ पर्यावरण।
3.गरीबी के एक मापदण्ड के रूप में कैलोरी उपयोग (यानी पौष्टिक भोजन की उपलब्धता) को भी स्वीकार किया जाता है। अभी यह माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति को अपने शरीर को औसत रूप से स्वस्थ रखने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 2410 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2070 कैलोरी की न्यूनतम आवश्यकता होती है। इतनी कैलोरी हासिल करने के लिये गांव में एक व्यक्ति पर 324.90 रुपए और शहर में 380.70 रुपए का न्यूनतम व्यय होगा।
गरीबी की रेखा और गरीबी
योजना आयोग ने गरीबी की रेखा को गरीबी मापने का एक सूचक माना है और इस सूचक को दो कसौटियों पर परखा जाता है। पहली कैलोरी का उपयोग और दूसरी कैलोरी पर खर्च होने वाली न्यूनतम आय। इसे दो अवधारणों में प्रस्तुत किया जाता है -
गरीबी की रेखा - आय का वह स्तर जिससे लोग अपने पोषण स्तर को पूरा कर सकें, वह गरीबी की रेखा है।
गरीबी की रेखा के नीचे - वे लोग जो जीवन की सबसे बुनियादी आवश्यकता अर्थात रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं कर सके, गरीबी की रेखा के नीचे माने जाते हैं। भारत में 4.62 लाख उचित मूल्य की राशन दुकानों के जरिये हर वर्ष 35000 करोड़ रुपए मूल्य का अनाज 16 करोड़ परिवारों को वितरित किया जाता है। भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी वितरण प्रणाली है।
गरीबों की संख्या | न्यूनतम जरूरत | उपलब्धता |
35 करोड़ | 2400 कैलोरी | 1460 कैलोरी |
भारत में गरीबों का स्तर | |
वर्ष 1993-94 | वर्ष 1999-2000 |
35.97 प्रतिशत | 26.10 प्रतिशत |
यह है सच्चाई
• जिन आधारों पर व्यक्ति को गरीब माना जाता है यदि उन्हीं पर नजर डालें तो स्थिति दुखदायी है।
• देश में हो रहे विकास का लाभ समाज के गरीब और वंचित वर्गों तक सीधे नहीं पहुंच रहा है स्वाभाविक है कि गरीबों की परिस्थितियों में भी सुधार नहीं हो रहा है परन्तु वहीं दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव और राजनैतिक कारणों से सरकार गरीबों की संख्या में लगातार कमी करती जा रही है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अब कई पहचान से वंचित गरीबों को सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पायेगा। आज के दौर में गरीबी के संदर्भ में जो सबसे आम प्रवृत्ति का पालन किया जा रहा है वह है गरीबी को नकारना।
वास्तव में गरीबी की रेखा वह सीमा है जिसके नीचे जाने का मतलब है जीवन जीने के लिये सबसे जरूरी सुविधाओं, सेवाओं और अवसरों का अभाव। यही वह अवस्था है जिसमें आकर जीवन पर संकट और दुखों की संभाव्यता सौ फीसदी हो जाती है। जिस सीमा को हम गरीबी की रेखा कहते हैं उसे परिभाषित करने के लिये सरकार की ओर से कुछ मानदण्ड तय किये गये हैं। इन्हीं मानदण्डों के आधार पर यह तय होता है कि किसका जीवन संकटमय अभाव में बीत रहा है। गरीबी की रेखा के निर्धारण के संदर्भ में यही आर्थिक मापदण्ड सबसे अहम भूमिका निभाते हैं। किसी भी परिवार की आय मापने के लिये उसके पास उपलब्ध सुविधाओं और सेवाओं का मूल्यांकन किया जाता है जैसे- परिवार के पास रेडियो, सीलिंग पंखा, साईकिल, स्कूटर, कार, ट्रैक्टर या टीवी है अथवा नहीं। साथ ही मकान कैसा है- कच्चा, अर्धकच्चा, किराये का या किसी अन्य प्रकार का। परिवार के लोग क्या और कितना खाते हैं- दाल, सब्जी, मांस, दूध और फल।
ग्रामीण समाज के संदर्भ में गरीबी की अवस्था के मापने की प्रक्रिया में भूमि संबंधी मापदण्ड बहुत मायने रखते हैं। मध्यप्रदेश के लगभग 22 लाख उन परिवारों को इसी गरीबी की रेखा की श्रेणी में रखा गया है जिनके पास आधा हेक्टेयर से कम अथवा बिल्कुल भूमि न हो। इसी तरह एक हेक्टेयर से कम 9.54 लाख भूमिधारियों को सीमान्त कृषक की श्रेणी में रखा गया है, परन्तु वे अति गरीब नहीं माने जाते हैं, चाहे सालों से उनके खेत पर पानी ही न बरसा हो। गरीबों की पहचान करने में पशुधन को भी एक अहम सूचक माना गया है पशु धन में गाय, बकरे, मुर्गे, बतख और बैल को चिन्हित किया गया है।
गरीबी के प्रभाव
गरीबों के लिये शासन के स्तर पर कई कल्याणकारी योजनायें संचालित की जा रही हैं। शासन गरीबों की पहचान करने के लिये पांच वर्ष में एक बार गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का सर्वेक्षण करवाता है। पिछली बार यह सर्वेक्षण वर्ष 1997-98 में हुआ था। हाल के आकलनों और प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर पता चलता है कि विगत् अवसरों पर वास्तविक गरीबों की पहचान नहीं की गई और उनके नाम बीपीएल सूची में नही आ पाये जिसके कारण उन्हें अन्य योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाया। बाद में कई अवसरों पर इस प्रश्न को उठाया भी गया, तब इस प्रावधान के बारे में बताया गया कि यदि अब किसी व्यक्ति का नाम बीपीएल में जुड़वाना है तो सूची में पहले से दर्ज किसी व्यक्ति का नाम ग्राम सभा में निर्णय लेकर कटवाना पड़ेगा। तभी किसी गरीब का नाम सूची में दर्ज किया जा सकेगा। इस प्रावधान का प्रयोग पंचायत स्तर पर बहुत कठिन प्रतीत होता है क्योंकि इससे वहां टकराव का वातावरण निर्मित होगा। नई शासन व्यवस्था में मध्यप्रदेश में पहले पंचायतों को और फिर ग्राम सभाओं को ज्यादा अधिकार सम्पन्न बनाया गया। यहां गरीब व्यक्ति के चयन, उसे कल्याणकारी योजना का लाभ देने का प्रस्ताव बनाने और विकास में गरीबों की सहभागिता सुनिश्चित करने के अधिकार दिये गये हैं किन्तु अनुभव बताते हैं कि गरीबों के लिये यह प्रक्रिया अभी तक तो कोई बहुत सार्थक सिद्ध नहीं हुई है। इस विकेन्द्रीकृत व्यवस्था में भी सत्ता या तो किसी प्रभावशाली व्यक्ति के हाथ में है, या फिर सरपंच के या सचिव के नियंत्रण में। इस व्यवस्था में महिला सरपंचों को ज्यादा संघर्ष करना पड़ रहा है और जहां वे सक्षम है उन पंचायतों में सबसे बेहतर परिणाम सामने आये हैं। पंचायती राज और ग्राम स्वराज के संबंध में सबसे बड़ी कमजोरी ग्राम सभा की बैठकों के आयोजन न हो पाने के रूप में सामने आई है। सामाजिक न्याय समितियों का या तो गठन नहीं हो पाया है या फिर समितियां सक्रिय नहीं है। यह महत्वपूर्ण मसला है क्योंकि गरीबी को दूर करने में अब ग्रामसभा और स्थाई समितियों की अहम भूमिका है।
व्यवस्था का कहर भी मूलत: गरीबों पर ही टूटता है। ज्यादातर कानूनों जैसे वन कानून या फिर श्रम कानून का नकारात्मक प्रभाव आमतौर पर गरीबी से जूझ रहे समुदाय पर ही नजर आता है। एक ओर तो वैसे ही जंगल कम हो जाने के कारण ग्रामीणों की दैनिक आजीविका के साधन कम हो गये हैं वहीं दूसरी ओर कानून भी अपना जाल फेंकने से नहीं चूकता है। इसी तरह पुलिस की प्रताड़ना भी गरीबों को सबसे ज्यादा सहनी पड़ती है। खास करके कचरा बीनने वालों पर चोरी का आरोप लग जाना सामान्य घटना है वहीं बांछड़ा-बेड़िया समुदाय की महिलाओं पर भी इनका गहरा प्रभाव रहता है। हम वास्तव में यदि यह महसूस करते हैं कि समाज का एक वर्ग भीषण अभाव में जीवनयापन कर रहा है और उसके पास बुनियादी जरूरतें पूरी करने के भी अवसर उपलब्ध नहीं है तो निश्चित रूप से अब याचना का नहीं-दबाव का रास्ता अख्तियार करने की जरूरत है। हर गांव, हर परिवार की गरीबी के कारण अलग-अलग हो सकते हैं पर उनके समाधान का मूल आधार एक समानता आधारित समाज की स्थापना है।
भारत में उपेक्षित और पिछड़ी जनजातियों की श्रेणी में सहरिया आदिवासियों का नाम भी दर्ज है। इन्हें पिछड़ी हुई आदिम कहने के सरकार ने चार सूचक तय किये हैं -
1.कृषि में पूर्व प्रौद्यौगिकी स्तर।
2.साक्षरता का न्यूनतम स्तर।
3.अत्यंत पिछड़े एवं दूर दराज के क्षेत्रों में निवास करना।
4.स्थिर या घटती हुई जनसंख्या।
इस समुदाय की कुछ अपनी पारम्परिक विशेषतायें हैं सहरिया आदिवासी जंगलों पर निर्भर हैं, बहुत शांत और अप्रतिक्रियावादी हैं। ज्यादा आकांक्षी नहीं है और यही विशेषताएं अब उसके लिये अभिशाप बन गई। कारण बहुत रोचक है। अतीत में वह गांव की राजनैतिक सीमाओं का हिस्सा रहा किन्तु सामाजिक वर्गवाद ने उसे सामंतवादी क्षत्रिय या ठाकुर समुदाय के अधीन कर दिया। व्यवस्था यह बनी कि वह किसी ठाकुर परिवार की हवेली के सामने से जूते पहनकर या साईकल पर बैठकर या सिर उठाकर नहीं गुजरेगा। यदि वह ऐसा करेगा तो उसे हिंसा का शिकार होना पड़ेगा। सहरिया ने प्रतिक्रिया नहीं की वह सहता रहा। अन्तत: दिन-प्रतिदिन के शोषण से तंग आकर उन्होंने गांव की सीमा से बाहर एक बस्ती बना ली जिसे 'सहराना' कहा जाने लगा। शोषण से बचने के लिये उसे गांव की राजनैतिक-सामाजिक सीमा से बाहर निकल जाना पड़ा और परिणाम स्वरूप वह विकास और परिवर्तन के प्रभावों से भी महरूम रह गया। आखिरकार एकाकीपन इन समुदाय का चरित्र बन गया। न तो उनमें राजनैतिक नेतृत्व का विकास हुआ न ही सामाजिक शक्तियों का। जंगलों पर सरकार का नियंत्रण हो गया और सहरिया भूख से मरने लगे। भुखमरी की स्थिति में उनके नाम पर विकास कार्यक्रम चले पर क्षमता और नेतृत्व के अभाव में सबकुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। वे अपनी इच्छा से अपना 'मत' भी नहीं दे सकते हैं और तब उन्हें व्यापक समाज में अपनी पहचान को समाहित कर देना होता है।
गरीबी का अभिशाप केवल सहरिया नहीं भोग रहे हैं बल्कि भारत के 35 करोड़ लोग आज भांति-भांति के संकटों और शोषण से जूझ रहे हैं। ये वे लोग हैं जिनके पास सिर ढंकने के लिए छत, तन ढंकने के लिए वस्त्र, पेट भरने के लिए आजीविका के साधन और अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्रता नहीं है। इनका केवल आने वाले कल ही नहीं बल्कि बचा हुआ आज भी असुरक्षित है।' गरीबी की व्यवस्था से जूझने वाला समुदाय भ्रष्टाचार, हिंसा और शोषण, राजनैतिक, सामाजिक शक्ति के अभाव और असुरक्षित आजीविका के संकट का सामना करता है। कई ऐसी परम्परायें हैं जो बदलते परिवेश में गरीबी के चक्र को चलायमान रखने में अहम भूमिका निभाती हैं जैसे - मृत्यु भोज और वधु मूल्य। झाबुआ और धार जिले में अब से तीन दशक पहले पचास से दौ सौ रुपए में नुक्ते का आयोजन कर लिया जाता था परन्तु अब इस परम्परा को निभाने के लिये कम से कम दस हजार से तीस हजार रुपए व्यय करने पड़ते हैं।
भ्रष्टाचार, हिंसा और शोषण, राजनैतिक, सामाजिक शक्ति के अभाव और असुरक्षित आजीविका का संकट
भ्रष्टाचार
वह केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार का हर रोज सामना करता है। यह एक कटु सत्य है कि जब भी उनके लिये कोई अवसर तलाशा जाता उसे अमीर या साधन सम्पन्न लोग छीन लेते हैं। हम भारत में गरीबी की रेखा के सर्वेक्षण का उदाहरण ही लेते हैं। 1997-98 के सर्वेक्षण में 30 से 40 फीसदी ऐसे लोगों को गरीबी की रेखा के नीचे मान लिया गया जो अपनी पचास एकड़ की भूमि में खेती के लिए ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं। हमारे गांवों में अक्सर यह कहा जाता है कि अपने विकास की दिशा हमें अपनी ग्रामसभा में ही बैठकर तय करना है परन्तु अनुभव यह है कि संसाधनों पर नियंत्रण तो अफसरशाही का ही है। इसी देश में हर दूसरे व्यक्ति के गरीब होने का एक बड़ा कारण क्षमतामूलक न्याय व्यवस्था का अभाव है। लोग छोटे-छोटे मामलों में फंसे रहते हैं और मृत्यु उनके जीवन का फैसला कर देती है। वे भूख से न मर जायें इसके लिये सरकार कम मूल्य का अनाज गांव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये भेजती है। परन्तु 56 प्रतिशत अनाज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े 100 फीसदी टीकाकारण का दावा करते हैं और गांव में बच्चे उन्हीं बीमारियों से मर जाते हैं।
हिंसा एवं शोषण
गरीबी का प्रकोप एक आयामी नहीं है बल्कि उसका आक्रमण बहुआयामी होता है। जब हमारे यहां राजनीति की रोटी पकाने के लिए साम्प्रदायिक दंगों की आग जलाई जाती है तो गरीबों की बस्तियां ही जलती हैं और फुटपाथ पर रहने वाले लोग मारे जाते हैं क्योंकि कानून व्यवस्था तो नेताओं और साधन सम्पन्नों की सुरक्षा में लगी रहती है।
राजनैतिक-सामाजिक शक्ति का अभाव
लोगों के जीवन में अपनी भूख का सवाल इतना गंभीर होता है कि वे उसके अलावा कुछ सोच पाने की स्थिति में ही नहीं रहते हैं। आमतौर पर यही देखा गया है कि प्रभावशाली राजनैतिक वर्ग अपने स्वार्थ साधने के लिये इन समुदायों का उपयोग करते हैं। होशंगाबाद जिले में जिला पंचायत के अध्यक्ष का पद हरिजन महिला के लिये आरक्षित कर दिया गया। इससे प्रभावशाली सामाजिक वर्ग के अहं को ठेस तो लगी पर उन्होंने रास्ता खोज ही लिया। एक स्थानीय उच्च वर्गीय नेता ने अपने घर में काम करने वाली दलित महिला अध्यक्ष को अध्यक्ष का चुनाव लड़वा दिया और स्वयं उपाध्यक्ष बन गया। चुनाव जीत जाने के बाद अध्यक्ष की मुहर, दस्तावेज, वाहन से लेकर अध्यक्ष के आसन तक सब कुछ ठाकुर साहब के नियंत्रण में था। सहभागिता और लोगों की आवाज आज के दौर में विकास की प्रक्रिया का हिस्सा बन गई है। लोग केवल योजनाओं का लाभ ही नहीं चाहते हैं बल्कि उनकी अपेक्षा है कि उनकी बात सुनी जाये और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी हिस्सेदारी हो। वे दूसरों की शर्तों पर इस प्रक्रिया में शामिल नहीं होना चाहते हैं बल्कि उसका स्वाभाविक हिस्सा होना चाहते हैं। चूंकि उनकी उपस्थिति को किसी मंच पर महसूस नहीं किया जाता है इसलिये उन्हें कहीं महत्व भी नहीं मिलता है। यह एक विचारणीय बिन्दु है कि उनकी पहुंच अपने हितों से जुड़ी सूचना तक भी नहीं है और प्रभावशाली न होने के कारण वे अपारदर्शिता से जीवन भर जूझते रहते हैं।
असुरक्षित आजीविका का संकट
कभी उनके बारे में मानवीय ढंग से नहीं सोचा गया। वे हमेशा उन पर निर्भर बने रहे जो अविश्वसनीय, गैर-जिम्मेदार और भ्रष्ट हैं। परिणाम यह हुआ कि उनकी दरिद्रता का स्तर बढ़ता गया। 6 करोड़ आदिवासी आज भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जंगलों से मिलने वाले खाद्य उत्पादों पर जीते हैं पर नीति, न्याय प्रक्रिया और राजनैतिक व्यवस्था उनके इस साधन को छीन लेने को तत्पर है। नि:संदेह उन्हें जीवनयापन के लिये कोई विकल्प भी नहीं दिया जाने वाला है। अब भी लाखों बल्मिकी और हैला समुदाय की महिलायें मानव मल साफ करने (मैला ढोने) का गरिमा हीन काम करती हैं। सरकार ने अब इस काम को प्रतिबंधित करने के लिए कानून बना दिया है। उनसे यह काम छुड़वा दिया जायेगा; ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि वे ऋण लेकर कोई दूसरा रोजगार करें। सब्जी बेचें, गाय-भैंस पालें या कपड़े की दुकान खोल लें यह संभव तो है परन्तु क्या समाज अस्पृश्यता की भावना से ऊपर उठकर उन्हें स्वीकार कर लेगा। अनुभव यह है कि देवास की सुमित्राबाई ने यह काम छोड़कर जब कपड़े बेचने का काम शुरू किया तो तीन माह तक उनकी दुकान से एक कपड़ा भी नहीं बिका। अन्तत: उन्हें अपनी दुकान बन्द कर देनी पड़ी। हमारे आस-पास 93 प्रतिशत ऐसे मजदूर हैं जो असंगठित हैं और इनके लिये न तो आजीविका सुनिश्चित करने वाला कानून है न कोई नीति। इतना ही नहीं व्यवस्था ने कभी उनके नेतृत्व को भी पनपने नहीं दिया। आजीविका के अभाव में ही लोग साहूकारों के कर्जे में फंसते हैं और सरकार उनके साथ छलावा करती है।
जीवन में गरीबी से मुक्ति के मायने
संसाधन
अपने जीवन की सकारात्मक परिभाषा तय कर पाने की स्थिति में होना। अच्छा जीवन जीने का मतलब है अपने बच्चे की भूख मिटा पाने, उसे स्कूल भेज पाने, मनोरंजन, शारीरिक और मानसिक विकास की राह को आसान कर पाने की स्थिति में होना। सुनिश्चित आजीविका के संसाधन हों। हम इस चिंता से मुक्त हों कि हमारे परिवार को कल खाने के लिए पौष्टिक भोजन मिलेगा या नहीं। हमारी मानसिक अवस्था शांतिपूर्ण और मददगार हो और समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण बना पाने में सक्षम हों। प्रसन्न होना और एक दूसरे की भावनाओं को समझना भी समन्वित जीवन का एक हिस्सा है।
स्वतंत्रता
हमें अपने जीवन की दिशा निर्धारित करने की स्वतंत्रता हो। शक्ति और अधिकारों का उपयोग किसी भी तरह के शोषण में न हो और हम जो व्यवहार करें उसके प्रति स्वयं जवाबदेय भी हों। हमें ऐसे अवसर चुनने की स्वतंत्रता मिले जिनसे कौशल का विकास किया जा सके ताकि जीवन और समाज को गलत दिशा में न जाने दिया जा सके।
सामाजिक जीवन
अपने परिवार और समाज के प्रति अच्छा होना। यदि कोई विकलांग है या अभाव में है तो उसके प्रति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाना। इसका जुड़ाव सकारात्मक सामाजिक सम्बन्धों से है।
सुरक्षा
सुरक्षा से आशय है हमारा अपने जीवन पर नियंत्रण और हमें यह पता होना कि आने वाला कल हमारे लिये क्या लेकर आयेगा। सुरक्षा का अर्थ केवल आजीविका के साधनों की सुरक्षा से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि इसमें व्यक्ति की राजनैतिक हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा, भ्रष्टाचार, अपराध से सुरक्षा भी शामिल है। हर व्यक्ति की कानून तक पहुँच हो और न्याय प्रक्रिया समता मूलक न्याय प्रदान करती हो भय से मुक्ति भी इसका एक हिस्सा है।
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