गरीब पर गिरेगी अमीर के अय्याशी की गाज

औद्योगिक इकाईयों की स्थापना और उसमें उत्पादन को सुचारू करने के लिए जिस भारी मात्रा में हमें उर्जा चाहिए थी उसके लिए परंपरागत स्रोत से काम नहीं चल सकता था। उस वक्त की तकनीकि ने जो विकल्प प्रस्तुत किया वह मुख्य तौर पर जीवाश्म ईंधन पर आधारित था। यह जीवाश्म ईंधन कोयला और तेल के रूप में प्राप्त किया गया और औद्योगिक उत्पादन से लेकर परिवहन तक हर जगह उर्जा के इन्हीं दो प्रारूपों को आधार बनाकर तकनीकि विकसित की गई।

हैती, बांग्लादेश, जिम्बाबवे, सियरा लियोन, मेडागास्कर कोई ऐसे देश नहीं हैं जिन्हें अमीर या सुविधाभोगी कहा जा सके लेकिन ये वो देश हैं जो अगले एक दशक में बिगड़ते पर्यावरण की सबसे भीषण मार झेंलेगे। बांग्लादेश की राजधानी ढाका हो या फिर भारत का कोलकाता सब पर बाढ़ और चक्रवात का खतरा मंडरा रहा है। इन सबमें सबसे बड़ा खतरा बैंकाक को है। थाइलैण्ड के इस शहर के कई हिस्से बाढ़ के कारण अगले कुछ सालों में बर्बाद हो सकते हैं। यह सब उथल पुथल होगी पर्यावरण में हो रहे बदलाव के कारण। पश्चिम से जिस औद्योगिक विकास ने पूरब में पैर पसारा था उसी पश्चिम ने क्लाइमेट चेंज की चाभी जेब से निकाली और ताला खोलकर बोलना शुरू किया कि देखो दुनिया का पर्यावरण कैसे बिगड़ रहा है? जिस रिपोर्ट के हवाले से यह खबर आई है कि पर्यावरण में होने वाले बदलाव के कारण दुनिया के सर्वाधिक गरीब देश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे वह लंदन की एक रिसर्च संस्था है मेपलक्राफ्ट। मेपलक्राफ्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक के लिए ठेके पर रिसर्च करती है और अपने शोध के लिए विश्वसनीय होने का दावा करती है। इसी शोध संस्था ने पर्यावरण में होने वाले बदलाव का एक एटलस जारी किया है जिसका नाम है क्लाइमेट चेंज-फोर्थ ग्लोबल एटलस रिपोर्ट। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व के बिगड़ते पर्यावरण का सबसे अधिक प्रभाव एशिया और अफ्रीका के देशों पर होगा।

शोधकर्ता मानते हैं कि जिन अफ्रीकी और एशियाई देशों में बिगड़ते पर्यावरण का सबसे बुरा प्रभाव होगा उसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं क्योंकि जीवन के न्यूननत मानक उन्हें पूरे नहीं किये हैं जिसका खामियाजा उनको भुगतना पड़ेगा। ये मानक मुख्य रूप से शहरी जीवन और औद्योगिक उत्पादन पर आधारित है। यह शहरी जीवन और औद्योगिक उत्पादन अफ्रीकी और एशियाई देशों तक कैसे पहुंचा यह दार्शनिक विषय है इसलिए रिपोर्ट इस बारे में कुछ नहीं कहती लेकिन शहरीकरण और औद्योगीकरण के जो अमेरिकी या यूरोपीय मानक हैं उनको आधार बनाकर ही विश्लेषण किये गये हैं। मेपलक्राफ्ट मानता है कि 'बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि, कमजोर प्रशासन, भ्रष्टाचार, गरीबी और अन्य समाजिक-आर्थिक कारकों के चलते इन देशों में रहने वाले लोगों तथा व्यापार के लिए परिस्थितियों को खतरनाक बना दिया है।' यह खतरनाक परिस्थिति बिगड़ते पर्यावरण के रूप में सामने आ रहा है। एशिया के जिन शहरों को खतरे के मुहाने पर दिखाया गया है उसमें ढाका, जकार्ता, मनीला और कोलकाता अव्वल हैं। ये वो शहर हैं जहां आने वाले एक दशक में समुद्री चक्रवात, बाढ़ आदि के कारण बर्बादी आयेगी। जाहिर है, इस रिपोर्ट के बाद वैश्विक स्तर पर काम करने वाली कंपनियां इन शहरों से अपनी रूचि कम करना शुरू करेगी जिसका यहां की व्यापारिक गतिविधियों पर असर पड़ेगा। लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि अगर पर्यावरण का सबसे लंबे समय तक शोषण पश्चिम ने किया है तो उसका नकारात्मक प्रभाव सबसे पहले एशिया और अफ्रीका के देशों पर क्यों पड़ेगा?

हालांकि ऐसी रपटे औद्योगिक राजनीति का हिस्सा होती हैं लेकिन अगर इस रिपोर्ट को सही मान भी लें तो दुनिया के सर्वाधिक गरीब देश दुनिया के सर्वाधिक अमीर देशों की अय्याशी की कीमत अदा करेंगे। इस एक सवाल के जवाब में दुनिया में चल रही पर्यावरण की पालिटिक्स और अमीरी के उपभोग की काली कहानियां मिलेगी जो समस्या को समझने में मदद नहीं करती बल्कि परिस्थितियों को और अधिक जटिल बना देती हैं। आज जिस क्लाइमेट चेंज को चिंता का विषय बनाया गया है उसका आशय सिर्फ और उर्जा के उप्तादन और खपत पर आकर टिक जाता है। पूरी दुनिया में उर्जा के उत्पादन, वितरण, खपत और इस उर्जा पर आधारित उद्योग धंधे ही हमारे पर्यावरण को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। मोटे पर इसी उर्जा के उत्पादन और खपत को समायोजित करने की प्रक्रिया पर्यावरण संरक्षण है। उर्जा कोई ऐसी नई जरूरत नहीं है जिसका आविष्कार कल कर लिया गया हो। उर्जा मनुष्य की शास्वत जरूरत रही है और जबसे उसने पहला पैर धरती पर टिकाया है, अपनी जरूरत के हिसाब से उर्जा का उत्पादन और उपयोग करके अपनी जरूरतें पूरी कर रहा है लेकिन यूरोपीय औद्योगीकरण ने दुनिया के सामने विकास का जो नया नजरिया रखा था उसमें उत्पादन का केन्द्रीयकरण और वितरण का विकेन्द्रीकरण था। बड़ी औद्योगिक इकाईयों की स्थापना और उसमें उत्पादन को सुचारू करने के लिए जिस भारी मात्रा में हमें उर्जा चाहिए थी उसके लिए परंपरागत स्रोत से काम नहीं चल सकता था। उस वक्त की तकनीकि ने जो विकल्प प्रस्तुत किया वह मुख्य तौर पर जीवाश्म ईंधन पर आधारित था। यह जीवाश्म ईंधन कोयला और तेल के रूप में प्राप्त किया गया और औद्योगिक उत्पादन से लेकर परिवहन तक हर जगह उर्जा के इन्हीं दो प्रारूपों को आधार बनाकर तकनीकि विकसित की गई।

उस दौर की तकनीकि समय के साथ-साथ उन्नत जरूर होती गई लेकिन इस तकनीकि में सबसे बड़ी खामी इसका अनियंत्रित कार्बन उत्सर्जन था। तकनीकि विकास के जरिए हमने कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कोशिश जरूर की लेकिन जब तक हमें समझ में आया तब तक हम भूमंडल का काफी पर्यावरण बिगाड़ चुके थे। पश्चिमी सभ्यता ने पूरी दुनिया में विकास के पंख फैला दिये थे और उत्पादन तथा विपणन का वही मॉडल दुनिया का मॉडल बन चुका था जिसे यूरोप ने पैदा किया था। यूरोप के जिन चारागाहों में दुनिया को माल बेचने वाली फैक्ट्रियां खड़ी कर दी गई थीं वे चारागाह सूदूर पूरब में भी खत्म होने लगे थे। धरती को कल पुर्जों की कारस्तानी से ढांक देने वाली यूरोपीय सभ्यता ने उर्जा का नया प्रारूप गढ़ दिया था। आज भी पर्यावरण के विनाश के लिए जिम्मेदार मध्ययुगीन उर्जा की सबसे अधिक खपत अमेरिका और यूरोप में ही होती है। अमेरिका, यूरोप और आस्ट्रेलिया दुनिया के सबसे अधिक उर्जा का इस्तेमाल करने वाले देश हैं। दुनिया के कुल ईंधन का अधिकांश हिस्सा यही देश अपनी उर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। मसलन, दुनिया के कुल कोयले का 16 प्रतिशत और तेल का 26 प्रतिशत अकेले अमेरिका इस्तेमाल करता है। कोयले के उपभोग में चीन सबसे आगे है और दुनिया के कुल कोयले का 47 प्रतिशत इस्तेमाल करता है। इसी तरह यूरोप कुल कोयला उत्पादन का 8 प्रतिशत और तेल उत्पादन का 17 प्रतिशत अपनी उर्जा जरूरतों के लिए इस्तेमाल करता है। आज की दुनिया में जिस जीवाश्म ईंधन को पर्यावरण के विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है उसका सर्वाधिक इस्तेमाल (प्रति व्यक्ति के लिहाज से) खुद यूरोप और अमेरिका ही करते हैं तो पर्यावरण के विनाश का असर उन एशियाई देशों पर सबसे अधिक कैसे हो सकता है जिनकी अभी उर्जा जरूरतें ही अभी निर्मित नहीं हो पायी हैं?

ऐसे में उन शहरों को ही क्लाइमेट चेंज की सर्वाधिक मार वाला साबित करने से आखिर शोध क्या निष्कर्ष निकालना चाहता है जो दुनिया के सर्वाधिक तेजी से बढ़ते होते शहर हैं। आश्चर्य यह है कि उर्जा का सर्वाधिक उपयोग करने वाला अमेरिका, यूरोप और आष्ट्रेलिया पर क्लाइमेट चेंज का कोई खतरा नहीं है। ऐसा कैसे हो सकता है? जो शहर दुनिया का सर्वाधिक उर्जा का उपभोग करते हैं और जिन शहरों से सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन होता है उन पर आखिर क्लाइमेट चेंज का कोई खतरा क्यों नहीं मंडरा रहा है? आए दिन अमेरिका और आस्ट्रेलिया में आने वाले तूफानी चक्रवात क्या क्लाइमेट चेंज की निशानी नहीं है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर उन्हें क्लाइमेट चेंज के खतरों से बचाकर क्यों देखा जा रहा है? लेकिन इस रिपोर्ट के जरिए शायद ऐसा ही कुछ संकेत देने की कोशिश की जा रही है ताकि दुनिया के एशियाई और अफ्रीकी देशों में औद्योगिक गतिविधियां घटें और पश्चिम अपने घाटे को अपने तरीके से पूरा कर सके। भारत के सभी प्रमुख शहर क्लाइमेट चेंज के निशाने पर हैं। कोलकाता के अलावा चेन्नई, मुंबई और दिल्ली पर पर्यावरण का खतरा मंडरा रहा है। फिलीफीन्स का औद्योगिक शहर मनीला भी क्लाइमेट चेंज के निशाने पर है तो पाकिस्तान के व्यापारिक शहर कराची को भी क्लाइमेट चेंज का शिकार बताया जा रहा है। जाहिर है, इस रिपोर्ट का असर इन देशों के औद्योगिक गतिविधियों पर पड़ेगा। जिस तरह से औद्योगीकरण के नाम पर यहां इन देशों की व्यापारिक गतिविधियों को नष्ट किया गया उसी तरह अब पर्यावरण संरक्षण और क्लाइमेट चेंज के नाम पर यहां पनपने वाली नयी औद्योगिक गतिविधियों को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है।
 

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