ग्रेटर नोएडा में कैंसर के कारखाने

भगत सिंह अपनी जिन्दगी बचाने के लिए अपनी जमीन-जायदाद सब कुछ बेच चुके हैं, लेकिन उनकी सेहत सुधरने के बजाय दिनोंदिन और बिगड़ती जा रही है। कभी शरीर से हट्टे-कट्टे रहे भगत अब इतना कमजोर हो चुके हैं कि उनके लिये बिस्तर से उठ पाना तो दूर, किसी से बात तक कर पाना मुश्किल हो रहा है। हर नए शख्स के चेहरे को वह एकटक देखते ही रहते हैं। उनके परिजन किसी तरह इलाज तो करा रहे हैं, लेकिन उन्होंने भी अब भगत के बचने की उम्मीद छोड़ दी है।

बिस्तर पर पड़े इस शख्स को मौत किसी भी वक्त अपने आगोश में ले सकती है। उन्हें मुँह का कैंसर है, जो अन्तिम चरण में पहुँच चुका है। यहाँ एक और शख्स हैं हरिचंद्र, जिनके गले के कैंसर का इलाज उनकी बहन करा रही हैं। भगत-हरिचंद्र उत्तर प्रदेश स्थित ग्रेटर नोएडा के सादेपुर गाँव के रहने वाले हैं। यह दिल्ली से महज तीस किमी दूरी पर स्थित है।

सादेपुर के पास दुजाना की स्थिति और भी बदतर है। वह तो कैंसर वार्ड जैसा लगता है। कभी दुजाना के जोगी मुहल्ले में 33 साल की सुमन देवी का हँसता-खेलता परिवार था। एक बेटी और एक छोटा बेटा है। इस परिवार में साल भर पहले जब उन्हें पता चला कि सुमन को रक्त कैंसर है, तो पूरे परिवार में मातम छा गया।

सुमन ने बताया कि डेढ़ साल पहले तक सब कुछ ठीक था, पर एक दिन अचानक उल्टियाँ होने लगीं और उसके बाद उसका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। कुछ दिनों बाद शरीर में कई जगह गाँठें पड़ गईं। वह तकलीफ से निजात पाने के लिए अस्पताल के चक्कर-पर-चक्कर लगाने लगी। इस बीच उसके कई जाँच हुए और करीब छह महीने की जाँच के बाद पता चला कि उसे रक्त कैंसर है, तो उसके पैरों तले की जमीन ही खिसक गई।

सुमन का इलाज अभी दिल्ली के एम्स में चल रहा है, जहाँ एक बार में करीब 10 से 15 हजार रुपए खर्च होता है। नतीजा है कि उसके पति कर्ज के बोझ से दब गए हैं और अब इलाज कराना उनके बूते की बात नहीं रह गई है।

शिक्षा देवी भी दुजाना गाँव की ही हैं, जो हर दिन घुट-घुट कर जी रही हैं। वह कहती हैं कि अगर मेरी शादी इस गाँव में न हुई होती, तो इस गाँव का पानी न पीना पड़ता और आज कैंसर जैसी बीमारी से जूझना नहीं पड़ता। उन्होंने बताया कि शुरू में जब तबीयत खराब होती, बुखार आता तो वह गाँव के ही डॉक्टर के पास जाकर दवाइयाँ ले आया करती थीं। दवा का असर जब तक रहता तो आराम रहता, लेकिन असर कम होते ही तबीयत फिर खराब हो जाती थी।

डेढ़ साल पहले, जब उनकी हालत अचानक बिगड़ गई, तो कई तरह की जाँच हुई, जिसमें पता चला कि उन्हें स्तन कैंसर है। उनकी जिन्दगी उसी दिन से बिस्तर और अस्पताल तक सिमट कर रह गई है। उन्हें कीमोथेरेपी के लिए हर पन्द्रह दिन पर दिल्ली के गुरू तेगबहादूर अस्पताल जाना पड़ता है और कीमोथेरेपी के बाद दर्द और भी बढ़ जाता है। कैंसर के इलाज ने उनकी कमर तोड़ दी है। उनके पति निजी माध्यमिक स्कूल में शिक्षक हैं, जिनका वेतन 5 हजार रुपए प्रति माह है। इसी आय में उन्हें पत्नी का इलाज कराने से लेकर घर तक चलाना पड़ता है।

नतीजा है कि उन पर कर्ज भी है और जो कुछ था, वह बिक भी गया है। अब सिर छिपाने के लिए बस एक छत ही बची है। शिक्षा देवी के घर के पास ही रवीन्द्र सिंह का मकान है। वह भी पिछले चार साल से कैंसर से जूझ रहे हैं। उनकी पत्नी प्रकाशी कहती हैं कि सुहाग को बचाने के लिए आठ बीघे जमीन भी बेच दी और अब तक करीब तीस लाख रुपए से भी ज्यादा खर्च हो चुके हैं। इसके बावजूद हालत दिनोंदिन और खराब होती जा रही है। रवीन्द्र सिंह कहते हैं कि वे चन्द दिनों के मेहमान हैं। इस गाँव में पिछले एक महीने में ही सुभाष, धीरज, गुलाब और चतर की कैंसर से मौत हो चुकी है।

पिछले पाँच साल में सादेपुर और दुजाना ही नहीं, उसके आसपास के बिश्नुली, खेड़ा धर्मपुरा, सादुल्लापुरा, अच्छैजा जैसे गाँवों में भी 120 से ज्यादा लोगों की मौत इस बीमारी से हो चुकी है और कई दर्जन लोग इससे ग्रस्त हैं। सादेपुर गाँव के सतपाल सिंह कहते हैं कि गाँवों में कैंसर महामारी की तरह फैल रहा है। क्या उत्तर प्रदेश के अन्य गाँवों की हालत भी ऐसी ही है? अगर नहीं, तो ऐसा यहीं क्यों हैं? इससे इतना तोे समझा जा सकता है कि यहाँ की स्थिति अन्य जगहों से कुछ अलग है। आखिर वह क्या है?

दरअसल, विकास का जो मॉडल अपनाया गया है, उसी में इस समस्या के बीच छिपे हुए हैं। विकास के नाम पर यहाँ पिछले वर्षों में कल-कारखाने लगाए गए। उम्मीद थी कि यहाँ लोगों को रोजगार मिलेगा, खुशहाली आएगी, लेकिन व्यवहार में वही उनके लिए काल बनते जा रहे हैं। इन उद्योगों से निकलने वाले गन्दे पानी से भूमिगत जल दूषित हो गया है। स्वाभाविक है इसके हानिकारक प्रभाव से मानव और पशु बच नहीं पाएँगे, क्योंकि इस जल से उत्पादित होने वाले अनाज, फल, सब्जी भी प्रदूषित होंगे। शुद्ध पेयजल मिलने की तो बात ही दूर है।

ग्रेटर नोएडा के गाँवों में खेत-खलिहान हैं, मकान-दुकान हैं, लेकिन इंसान की जिन्दगी खतरे में है। गाँव छोड़ा नहीं जा सकता, तो वहाँ रहा भी नहीं जा सकता। इसके लिए कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि खुद मानव जिम्मेदार है। मानव में भी सत्ताधारी वर्ग, जो विकास के नाम पर उद्योग-धन्धे खोलता है, लेकिन उससे निकलने वाला प्रदूषण हवा के साथ-साथ भूजल को भी दूषित कर रहा है। नतीजा कैंसर जैसी बीमारी, मृत्यु, कर्ज और विस्थापन के रूप में सामने आ रहा है। मालूम हो कि ग्रेटर नोएडा के छपरौला औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित कारखानों में कॉस्मेटिक्स, पेस्टिसाइड्स, टीवी ट्यूब्स सहित कई अन्य वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। इनसे काफी मात्रा में रसायन निकलते हैं, जिन्हें कई कम्पनियाँ बिना शोधन के जमीन के अन्दर बोर करके डाल रही हैं। हालत यह है कि यहाँ से निकलने वाले पानी का रंग पीला और मटमैला हो गया है। इसके अलावा भूजल में जिस नाइट्रेट की मात्रा 1.5 मिलीग्राम होनी चाहिए, वह बढ़कर 13 मिलीग्राम प्रति लीटर तक हो गया है।

क्लोराइड और टीडीएस (पूर्ण घुलनशील पदार्थ) भी इन गाँवों के पानी में निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक है। ऐसे में इन गाँवों का पानी पीने के लायक नहीं रहा, लेकिन लोग यही पानी पीने को मजबूर हैं। इस पर दुजाना गाँव के तेजवीर सिंह कहते हैं कि बीस साल पहले छपरौला औद्योगिक पार्क बनने से पहले यहाँ का पानी मीठा और बढ़िया होता था। लोग स्वस्थ होते थे, पर इसके बनने के बाद यहाँ पानी दूषित होने लगा।

इस कारण आज इन गाँवों में कैंसर और अन्य बीमारियाँ (पीलिया, गुर्दा, यकृत और त्वचा रोग) हो रही हैं। सादेपुर गाँव के निवासी हरीश बसोया भी कहते हैं कि इन गाँवों में कैंसर की फसल उगाने में छपरौला औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित औद्योगिक इकाइयाँ काफी हद तक जिम्मेदार हैं। इनकी वजह से इन गाँवों का भूमिगत जल जहरीला हो गया है।

बहरहाल, कैंसर का खौफ इन गाँवों में इस कदर छाया हुआ है कि गाँव में किसी शख्स या बच्चे को कोई गाँठ या फोड़ा-फुंसी भी निकल रही है, तो उन्हें यही लगता है कि कहीं कैंसर तो नहीं हो गया है। इतना ही नहीं, इन गाँवों से पलायन की नौबत आ चुकी है। सादेपुर के करण सिंह ठेकेदार और पवन कुमार गाँव छोड़कर नोएडा में बस गए हैं। प्रशासन यहाँ की समस्या से पूरी तरह वाकिफ है, इसके बावजूद उसके कान पर जूँ रेंगने का नाम नहीं ले रही है। भूजल प्रदूषण के लिए जिम्मेदार कल-कारखानों पर नकेल कसने की बात तो दूर, इन गाँवों में शुद्ध पेयजल की व्यवस्था तक नहीं की गई है।

उद्योग बने अभिशाप


करीब बीस साल पहले जब दिल्ली से फैक्टरियाँ हटाई जाने लगीं, तो कुछ इकाइयाँ नोएडा के अलावा छपरौला में भी लगाई गईं। गौरतलब है कि छपरौला आधिकारिक तौर पर औद्योगिक क्षेत्र घोषित नहीं है, फिर भी यहाँ औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित की गई हैं। वर्तमान समय में छपरौला क्षेत्र में करीब 200 से ज्यादा फैक्टरियाँ हैं। यहाँ स्थापित इकाइयाँ पेण्ट, रसायन, उर्वरक, इस्पात, सीमेण्ट, कॉस्मेटिक्स, कीटनाशक, टीवी ट्यूब्स आदि का उत्पादन करती हैं।

कुछ इकाइयाँ बैट्रियाँ गलाने और चावल बनाने का भी काम करती हैं। इन इकाइयों में जहाँ काफी मात्रा में रसायन का उपयोग होता है, तो इनके उत्सर्जित पदार्थ बिना शोधन किए जमीन के अन्दर डाले जा रहे हैं। इससे पूरे क्षेत्र का पानी जहरीला हो गया है और इसका रंग भी बदल गया है।

यहाँ कुछ इकाइयाँ राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड में पंजीकृत हैं। यहाँ ऐसी बहुत-सी इकाइयाँ हैं, जिनकी चारदीवारियाँ तो ऊँची-ऊँची हैं, पर वहाँ पर किसी तरह के बोर्ड नहीं लगे हैं। इससे सीधे तौर पर यह पता नहीं चल पाता कि ये इकाइयाँ क्या उत्पादन कर रही हैं। यहाँ ज्यादातर इकाइयों में सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट (एसटीपी) और एफ्लूमेण्ट प्लाण्ट (इटीपी) नहीं लगाए गए हैं, जबकि ऐसा करना जरूरी है।

यह यन्त्र कम्पनी से निकलने वाले उत्सर्जित पदार्थ के शोधन का काम करता है। अगर कुछ फैक्टरियों में ये यन्त्र लगे भी हैं, तो उनकी क्षमता कम है। खासतौर पर चावल बनाने और बैट्री गलाने वाली इकाइयाँ प्रदूषण नियन्त्रण के मानकों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन कर रही हैं। जब इस सम्बन्ध में नोएडा प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से आरटीआई के जरिए पूछा गया तो गोलमोल जवाब मिला।

एक एनजीओ के अध्यक्ष व अधिवक्ता योगेश नागर साफ कहते हैं कि उनके संगठन ने एसडीएम को 17 जुलाई को एक पत्र भी लिखा दबाव बढ़ने पर क्षेत्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की एक टीम ने गाँव का दौरा किया और पानी के नमूने लिए, लेकिन नमूने लेने की प्रक्रिया पूरी तरह से अवैज्ञानिक रही। उसी समय उस नल से ‘जय हो’ संगठन ने भी पानी के नमूने लिए और एक निजी प्रयोगशाला में उसकी जाँच कराई।

जब प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने पानी के नमूने की जाँच को सार्वजनिक नहीं किया, तो आरटीआई के तहत इस सम्बन्ध में जवाब माँगा गया। इसके बाद पानी की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया और उसे मानक के अनुरूप बताया गया, जबकि वहीं निजी प्रयोगशाला में कराई गई जाँच रिपोर्ट में कहा गया कि यह पानी पीने योग्य नहीं है। दोनों रिपोर्टों में पानी के कई मानकों में काफी फर्क थे।

ग्रेटर नोएडा में कैंसरजाहिर है कि प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड अगर पानी को पीने योग्य नहीं बताता, तो उसी पर सवाल उठने लगते। इसके बाद उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, उत्तर प्रदेश के गृह सचिव और केन्द्रीय जल संसाधन मन्त्रालय को पत्र लिखा गया। इसके बाद सपा जिला अध्यक्ष फकीर चन्द नागर के नेतृत्व में लखनऊ से प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की एक टीम ने इन गाँवों का दौरा किया और पानी के कुछ नमूने लिए, लेकिन दूसरे ही दिन केआरबीएल सहित दो-तीन औद्योगिक इकाइयों को क्लीन चिट दे दी गई।

शिकायत तो सभी 200 कम्पनियों के खिलाफ की गई थी, लेकिन केआरबीएल को क्लीन चिट देने में जल्दबाजी क्यों दिखाई गई? कहा जाता है कि केआरबीएल के सपा से काफी अच्छे सम्बन्ध हैं। इसलिए उन्हें तुरन्त क्लीन चिट दे दी गई।

इन गाँवों की हालत जब ज्यादा बिगड़ने लगी, तो नोएडा के डिप्टी सीएमओ डॉ. दोहरे के नेतृत्व में एक सर्वे कराया गया जिसमें यह बताया गया कि इन 6 गाँवों में 36 लोग कैंसर से पीड़ित हैं और 80 लोग अन्य गम्भीर बीमारियों से। ‘जय हो’ संगठन का मानना है कि करीब 6 गाँवों में 100-150 लोग कैंसर से पीड़ित हैं। पिछले पाँच साल में करीब 300 लोग कैंसर से मर चुके हैं। इसी तरह बिसरख ब्लॉक के सभी 70 गाँवों का सर्वे 1 नवम्बर को कराया गया, जिसमें बताया गया कि पूरे बिसरख ब्लॉक में करीब 199 लोग कैंसर के मरीज हैं।

स्थिति की नजाकत समझते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 12 नवम्बर को इस मामले की सुनवाई की और उत्तर प्रदेश सरकार, प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण को फटकार लगाते हुए कहा कि ऑथरिटी केवल बिल्डिंग बनाने तक सीमित न रहे, बल्कि यह भी बताए कि गाँव के लोगों के लिए पीने के पानी का इन्तजाम कैसे कर रही है।

कैंसर के कहर की गहराई


गाँव

मृतक

पीड़ित

दुजाना

40

30

सादेपुर

30

22

खेड़ा धर्मपुरा

25

20

बिश्नुली

23

20

सादुल्लापुर

13

5

अच्छैजा

10

5



कारखानों के कारण भूजल दूषित हो रहा है। बहुत सारी जाँच की गई है, जिसमें औद्योगिक कारखानों से निकलने वाला क्रोमियम भूजल में पाया गया, जो कैंसर का कारण है। लेकिन सवाल यह है कि उद्योगों से पूछेगा कौन? वे किसी सुनते हैं, मानते हैं? इस वक्त सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
राजेन्द्र सिंह ‘पर्यावरणविद्’

यह कारखाना जनित भूजल के प्रदूषण का मामला है। यह मामला तब उठता है; जब प्रेम इसे उठाता है, हालांकि एक अखबार मालिक का भी गजरौला में प्रदूषण पैदा करने वाली फैक्टरी है। सरकार तभी इसे संज्ञान में लेती है, अन्यथा धरना-प्रदर्शन करने वालों पर ही ये उद्योग-धन्धे वाले आरोप लगवा देते हैं। समस्या स्थानीय लोगों से भी आती है, जो इन कम्पनियों में काम करते हैं और इनके पक्ष में खड़े हो जाते हैं। दरअसल, उद्योग वाले दबंग किस्म के हैं। इनकी सरकार से साठगाँठ है।
राकेश टिकैत ‘किसान नेता’

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Post By: Shivendra
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