गंगा डॉल्फिन का निवास स्थल भारत के गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, बांग्लादेश के करनाफुली, सांगू और नेपाल के करनाली और सप्तकोशी नदी में है। कभी यह जीव नदियों के सभी हिस्सों में विचरण करता था, लेकिन 1966 में नरौरा, 1975 में फरक्का और 1984 में बिजनौर में बैराज बनने से इसका घर तीन भागों में बँट गया। दूसरे परिप्रेक्ष्य में देखें तो बैराजों ने गंगा नदी को निचले, मध्य और अगले भागों में बाँट दिया है, जिसकी वजह से डॉल्फिनों के लिए गंगा के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक जाना मुश्किल हो गया है।
गंगा डॉल्फिन हमारे देश का राष्ट्रीय जलीय जीव है। हर साल पाँच अक्टूबर को डॉल्फिन दिवस मनाया जाता है। 1996 में गंगा-डॉल्फिन को लुप्तप्राय प्राणी घोषित किया गया था। इसके बावजूद इसके संरक्षण के लिए गम्भीर प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। 1982 में इसकी आबादी छह हजार थी, जो घटकर अब बारह सौ से अठारह सौ रह गई है। गंगा-डॉल्फिन को जुझारू जलीय जीव माना गया है, क्योंकि प्रतिकूल माहौल में भी यह जीने का माद्दा रखती है।
तापमान में होने वाले बड़े उतार-चढ़ाव के साथ यह आसानी से सामंजस्य बैठा लेती है। फिर भी तेजी से इसकी संख्या का कम होना चिन्ता का विषय है।
नेपाल में बहने वाली करनाली नदी में यह पाँच डिग्री सेल्सियस तापमान को सह लेती है, वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में बहने वाली गंगा में यह 35 डिग्री सेल्सियस तापमान का आसानी से सामना कर लेती है। आमतौर पर यह गंगा और उसकी सहायक नदियों के संगम पर पाई जाती है, ताकि मुश्किल की घड़ी में यह सहायक नदियों में अपना रैन-बसेरा बना सके। गंगा नदी में पानी कम होने पर यह सहायक नदियों में अपना अस्थायी घर बनाती है। दरअसल, गंगा-डॉल्फिन को छिछले पानी और संकरी चट्टानों में रहना पसन्द नहीं है। इस तरह के स्वभाव के कारण यह गंगा की सहायक नदियों जैसे-रामगंगा, यमुना, गोमती, राप्ती, मानस, भरेली, तिस्ता, लोहित, दिसांग, दिहांग, दिवांग, कुलसी आदि नदियों में रहना पसन्द करती है। बीते सालों में पटना के पास डॉल्फिन के गंगा से सोन नदी और हुगली से दामोदर नदी में जाने का मामला प्रकाश में आया था।
गंगा नदी में पाए जाने वाले डॉल्फिन का प्रचिलित नाम सोंस है। यह मीठे पानी में पाया जाने वाला जलचर है। वैसे, यह नदी और समुंदर के मिलन स्थल पर अवस्थित खारे पानी में भी रह सकती है, लेकिन समुंदर में रहना इसे पसन्द नहीं है। हर तीस से 120 सेकेंड के बाद इसे साँस लेने के लिए पानी के सतह पर आना पड़ता है। मादा डॉल्फिन की नाक और शरीर की लम्बाई नर से अधिक होती है। जबड़ा भिंचा रहने के बावजूद इसके लम्बे नुकीले दाँतों को देखा जा सकता है। एक वयस्क डॉल्फिन का वजन 70 से 100 किलोग्राम के बीच होता है। मादा डॉल्फिन की गर्भधारण अवधि नौ महीनों की होती है और वह एक बार में एक बच्चे को जन्म देती है। नर दस साल में, जबकि मादा दस साल से कम अवधि में मिलन के लिए तैयार हो जाती है। फिलहाल, पूरे विश्व में मीठे पानी में पाई जाने वाली डॉल्फिन की कुल तीन प्रजाति बची हैं। भारत में गंगा के अलावा पाकिस्तान के सिन्धु और लातीनी, अमेरिका के अमेजन नदी में डॉल्फिन पाई जाती है, जिसे भुलन और बोटा के नाम से जाना जाता है। मीठे पानी की एक और डॉल्फिन, जिसका नाम बैजी था, 2006 तक चीन की नदियों में पाई जाती थी, लेकिन अब यह लुप्त हो गई है।
गंगा-डॉल्फिन का निवास स्थल भारत के गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, बांग्लादेश के करनाफुली, सांगू और नेपाल के करनाली और सप्तकोशी नदी में है। कभी यह जीव नदियों के सभी हिस्सों में विचरण करता था।
लेकिन 1966 में नरौरा, 1975 में फरक्का और 1984 में बिजनौर में बैराज बनने से इसका घर तीन भागों में बँट गया।
दूसरे परिप्रेक्ष्य में देखें तो बैराजों ने गंगा नदी को निचले, मध्य और अगले भागों में बाँट दिया है, जिसकी वजह से डॉल्फिनों के लिए गंगा के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक जाना मुश्किल हो गया है। नरौरा परमाणु संयन्त्र और कानपुर में स्थित 400-500 छोटे-बड़े कारखानों से निकलने वाला रासायनिक कचरा गंगा में प्रवाहित होने से उसके निचले भाग में रहने वाली डॉल्फिनें धीरे-धीरे मर गईं।
बैराज निर्माण से गंगा का प्रवाह बहुत जगहों पर रुक सा गया है। नदी में पानी का स्तर कम होने के कारण डॉल्फिन को अपना स्वाभाविक जीवन जीने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। गाद के कारण नदी उथली हो गई है। गंगा के घर में इन्सानों का घर बनने से गंगा की जान मुश्किल में है। बारिश के दिनों में नदी का पानी खतरे के निशान से ऊपर चला जाता है।
आज डॉल्फिन का शिकार करना आसान हो गया है। गंगा-डॉल्फिन का शिकार मौजूदा समय में शिकारियों का पसन्दीदा शौक है। इसका शिकार भोजन, तेल, चारे (कैटफिश को पकड़ने के उद्देश्य से) आदि के लिए किया जाता है। बांग्लादेश में गर्भवती महिलाओं द्वारा डॉल्फिन का तेल पीने की भी परम्परा है। अंधविश्वास है कि तेल पीने से शिशु स्वस्थ और सुन्दर होता है।
कुछ साल पहले तक हल्दिया से पटना और बाद में वाराणसी तक कार्गो स्टीमर चलते थे। कोलकाता में तो अभी भी हुगली नदी में फेरी और स्टीमर चलता है। नदी पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर पटना, कोलकाता आदि शहरों में स्टीमर और फेरी चलाए जा रहे हैं, जिसके कारण इनसे टकराकर डॉल्फिन घायल हो जाती हैं या फिर मर जाती हैं। इसके अलावा ध्वनि प्रदूषण से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मछुआरे मछली पकड़ने के लिए नाइलोन के जाल का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें डॉल्फिन आसानी से फँस जाते हैं। इसके अलावा, जागरूकता के अभाव में या लालच के कारण इन्हें मार डाला जाता है।
गंगा में खाद, कीटनाशक, औद्योगिक कचरा और घरेलू कचरे का अवशेष जमा हो रहा है। जलीय प्रदूषण के कारण डॉल्फिन की आयु कम हो रही है। गंगा में भारी मात्रा में रासायनिक कचरे का प्रदूषण मिल रहा है, जो गंगा-डॉल्फिन के लिए घातक है। आज जरूरत है कि इस जलीय जीव को संरक्षित करने की, जिसके लिए गंगा को पहले बचाना होगा। मोदी सरकार गंगा को बचाने के लिए कई बार प्रतिबद्धता दोहरा चुकी है। यह अच्छा संकेत है, लेकिन इस दिशा में कठोर निर्णय लेना होगा, किसी भी स्तर पर की गई लापरवाही डॉल्फिन, गंगा और हमारे अस्तित्व के लिए खतरनाक हो सकती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि डॉल्फिन पार्क की स्थापना करके उन्हें बचाया जा सकता है। इसके लिए मछुआरों को रोकना होगा कि वे डॉल्फिन वाले इलाकों में मछली न मारें। शिकारियों पर भी शिकंजा कसना जरूरी है।
पाकिस्तान में सिन्धु नदी में पाई जाने वाली डॉल्फिनों के लिए 2000 में एक अभियान चलाया गया था, जिसके तहत नहर या सहायक नदियों में गई डॉल्फिनों को सुरक्षित जगह पर लाकर उनका पुनर्वास किया गया था। भारत में भी ऐसे अभियान चलाने की जरूरत है। इस तरह के उपाय भारत, खासकर- बिहार में भी किए जा सकते हैं, क्योंकि डॉल्फिन बिहार में बहने वाली गंगा में सबसे अधिक संख्या में पाई जाती हैं। इस सन्दर्भ में आम आदमी को शिक्षित और जागरूक करना फायदेमन्द हो सकता है। केन्द्र और राज्य सरकार भी इस सम्बन्ध में सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। सिर्फ, डॉल्फिन दिवस मनाने से सकारात्मक परिणाम नहीं निकलेगा। वर्ना वह दिन दूर नहीं, जब गंगा-डॉल्फिन भी चीन की नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन बैजी की तरह लुप्त हो जाएगी।
लेखक ईमेल : satish5249@gmail.com
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