ग्रामसभा का महत्व और चुनौतियां

ग्रामसभा को मजबूत बनाए बिना देश में स्वराज नहीं आ सकता। हमारे देश में पंचायती राज कानून बने, पर पंचायतों को उसका अधिकार नहीं दिया गया। पंचायतों को ताकत देने के लिए एक संवैधानिक सुधार की जरूरत भी है। ग्रामसभा को कुछ मांगने की जरूरत ही नहीं है। एकजुटता में वही सब कुछ समाहित है, जो एक नागरिक को चाहिए।ग्रामीण भारत में अपने स्वशासन की व्यवस्था का लंबा ऐतिहासिक प्रमाण रहा है। पंचायती राज की व्यवस्था भारत में न ही नई है और न ही आयातित। भारत की यह स्वनिर्मित व्यवस्था है। वैदिककाल से लेकर आजादी के बाद तक इसके स्वरूप में बदलाव स्वाभाविक था, किंतु 73 वें संविधान संशोधन को इस दिशा में मील का पत्थर अवश्य माना जा सकता है। वैदिककाल में गांव की व्यवस्था मुखिया के द्वारा होती थी। इस काल में सभा होती थी जिसमें सभी भाग लेते थे और जिसका निर्णय सर्वोपरि होता था।

वैदिककाल में गांवों का प्रबंध सभा और समिति नामक संस्थाएं करती थी। सभा लोगों का मार्गदर्शन करती थी। इस काम में महिलाएं सभा एवं समितियों में बढ़चढ़ कर भाग लेती थीं। उत्तर वैदिककाल में पुरानी व्यवस्था का विस्तार हुआ। बौद्धकाल में जातक कथाओं से जानकारी मिलती है। इस काल में न्यायिक प्रणाली सुदृढ़ थी। मौर्यकाल में कौटिल्य ने विधि व्यवस्था में पंचायतों की भूमिका को रेखाखिंत किया है।

वैशाली, मगध, अंग जैसे विकसित राज्यों की चर्चा यजुर्वेद, एतरीय संहिता, सतपथ ब्राह्मण ग्रंथों में कही संक्षिप्त तो कही विस्तार से है। वैशाली को विश्व का प्रथम गणतंत्र होने का गौरव प्राप्त है। मगध में ग्राम शासन की परंपरा पाई जाती है। गुप्तकाल में भी स्थानीय स्वशासन का बड़ा ही महत्व था। यद्यपि राजतंत्र था, लेकिन सत्ता के विकेन्द्रीकरण के विभिन्न आयाम थे। स्थानीय स्वशासन की कतिपय संस्थाएं 1872 से ही अंग्रेज शासकों द्वारा स्थापित हुई थी। उनसे पंचायतों का वास्तविक स्वरूप नहीं उभर सकता था, जो प्राचीन भारतीय सभ्यता की आधारभूत राजनीतिक संरचना थी।

अंग्रेजों ने इजारेदारी, बंदोबस्ती आदि के जरिए जनता पर कर थोपने का प्रयास किया। जनता से कर उगाही में पंचायतों को भागीदार बनाया। फलस्वरूप इस व्यवस्था का बड़ा ही नुकसान हुआ। पंचायती राज व्सवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया गया। कर्जन की नीतियों ने इस व्यवस्था को नियंत्रित करने का प्रयास किया। गांधीवादियों ने भारतीय अवधारणा और संवैधानिक प्रावधानों के बीच समन्वय कायम करने का प्रयास किया।

ग्राम पंचायतें भारत में शासन व्यवस्था की सशक्त इकाईयां रही है जो प्रतिकूल राजनैतिक परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाए रखने में समर्थ रही है। देश की आजादी के बाद गांधी लोगों के लिए प्रेरणास्रोत थे। सत्ता के विकेंद्रीकरण को निचले स्तर पर स्थापित करने तथा गांधी के ग्राम स्वराज के सपनों के साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संघर्ष किया। ग्रामसभा के सशक्तिकरण की दिशा में 73वां संविधान संशोधन एक ऐतिहासिक कदम था। सत्ता के विकेंद्रीकरण के आधुनिक दौर में भी राज्य सरकार पंचायती राज के विकेंद्रीकरण के आधुनिक दौर में भी राज्य सरकार पंचायती राज संस्थाओं के मामले में नौकरशाहों पर निर्भर रही। जनसाधारण के सशक्तिकरण में यह बहुत बड़ी बाधा रही है।

लाकेतंत्र का हृदयस्थल ‘ग्रामसभा’
गांव के हित में योजना बनाना, बजट पारित करना, कर एकत्रण के नियम बनाना, योजनाओं को लागू करना, सार्वजनिक संपत्तियों की रक्षा करना, लाभार्थियों का चयन करना, जन सहभागिता निभाना तथा जनसुनवाई के माध्यम से पारदर्शिता एवं जवाबदेही लाने जैसे दायित्वों को लेकर ग्रामसभा की महत्वपूर्ण भूमिका है। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम में ग्राम सभा के गठन के बारे में प्रावधान का उल्लेख किया गया है। संवैधानिक मान्यता के अनुसार ग्रामसभा के आयोजन को टाला नहीं जा सकता। बिहार, असम, मध्य प्रदेश में चार बार ग्रामसभा आयोजित करने का प्रावधान है। गुजरात एवं महाराष्ट्र में वर्ष में दो बार ग्रामसभा करने का प्रावधान है। गुजरात में ग्रामसभा लेखा-जोखा पर विचार करेगी एवं सुझाव देगी, लेकिन ग्राम पंचायत के लिए इसेमानना बाध्यकारी नहीं है। इस रूप में गुजरात सहित हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश के पंचायत अधिनियम प्रगतिशील नहीं माने जा सकते। मध्यप्रदेश में ग्रामसभा सचिव द्वारा बुलाई जाती है। बिहार में ग्रामसभा की बैठक की सूचना पन्द्रह दिन पहले नोटिस चिपका कर, डुगडुगी बजवाकर, व्यक्तिगत संपर्क के आधार पर दिए जाने का प्रावधान है। बच्चों को उसके स्कूल में सूचना दी जाएगी, ताकि वे अपने अभिवावकों को ग्रामसभा की सूचना दे सकें। ग्रामसभा की बैठक का कोरम कुल सदस्य के 20 वें भाग से होगा। पूरा नहीं होने पर बाद में 40वें भाग से भी कोरम पूर्ति की अनुमति दी गई है। प्रदेश में तीन महीने के अंतराल पर ग्रामसभा आयोजित किए जाने का प्रावधान है। बिहार एवं आंध्रप्रदेश के प्रत्येक गांव में ग्रामसभा का प्रावधान है।

जनतंत्रीय विकेन्द्रीकरण की बाधा


ग्रामसभा का विफल क्रियान्वयन
पिछले दिनों उठाए गए अनेक सुधारात्मकों की वजह से वंचितों की भागीदारी तो बढ़ी, लेकिन ग्रामसभा की राह में अनेक चुनौतियां भी खड़ी हुई। पंचायती राज व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी ग्रामसभा हो गई। विडंबनाओं की शुरुआत ग्रामसभा के क्रियान्वयन से ही होती है। विधिसंगत तरीके से ग्रामसभा का आयोजन देखने-सुनने को नहीं मिला करता है। ग्रामसभा होती भी है तो लोगों की संख्या नहीं होती। कभी-कभार आयोजित ग्रामसभा में लोगों की भागीदारी रस्म अदायगी भर होती है। गांव के हित में योजना बनाना, बजट पारित करना, कर एकत्रण के नियम बनाना, योजनाओं को लागू करना, सार्वजनिक संपत्तियों की रक्षा करना, लाभार्थियों का चयन करना, जनसहभागिता निभाना तथा जनसुनवाई के माध्यम से पारदर्शिता एवं जवाबदेही लाने जैसे दायित्वों के प्रति तो कई प्रदेशों की ग्रामसभा आज भी अनजान ही है।

सामाजिक अंकेक्षण की अनदेखी


एक ओर योजनाओं के क्रियान्वयन की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है तो दूसरी ओर विकास के मॉडल पंचायतों को सशक्त करने के प्रयास भी हो रहे हैं। उन्हें वित्तीय अधिकार दिए जा रहे हैं। मनरेगा, आपदा प्रबंधन अधिनियम तथा विचाराधीन खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसी कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में ग्रामसभा की सशक्त भूमिका सामाजिक अंकेक्षण को लेकर महत्वपूर्ण हो जाती है। सामाजिक अंकेक्षण या सोशल ऑडिट के महत्व को केंद्र सरकार ने भी परिभाषित किया हुआ है, लेकिन मनरेगा के अधिनियम की अनदेखी ग्रामसभा के सशक्त नहीं रहने के कारण होती रही है। मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि ग्रामसभाओं की सक्रियता से ग्राम पंचायत ग्रामीण विकास का काम ईमानदारी और निष्ठा से कर सकती है। ग्रामसभा ही ग्राम पंचायतों पर नियंत्रण कर सकती है। ग्रामवासियों को ग्रामसभा के महत्वपूर्ण कार्य और अधिकारों को समझना होगा, क्योंक यही एक ऐसा मंच है जहां पर सामाजिक अंकेक्षण हो सकता है। इसलिए ग्रामसभा के जीवंत रूप में कार्य करना आवश्यक हो जाता है। ग्रामसभा केवल खानापूर्ति की जगह न बन जाए बल्कि यह लोगों को ग्रामीण विकास के प्रति जागरूक कर सके।

लालफीताशाही


पंचायत की राह में एक ओर अफसरशाही रोड़ा अटकाती रही है। वहीं दूसरी ओर राजनितिक इच्छाशक्ति की भी कमी है। लेकिन यह भी सत्य है कि राजनैतिक इच्छाशक्ति की वजह से अनेक सुधार के प्रयास हुए हैं। पंचायत प्रतिनिधियों के अनुसार योजनाओं के क्रियान्वयन में धीमी गति के पीछे मुख्यतः पदाधिकारियों का उदासीन रवैया रहा है। सरकार ने प्रतिनिधियों को अधिकार तो दिया है लेकिन उसके अनुपालन के प्रति पदाधिकारियों में कोई उत्साह नहीें होता। जनप्रतिनिधि कभी-कभी खुद को उपेक्षित समझने लगते हैं।

कर्मचारियों का अभाव


कर्मचारियों का अभाव एक बड़ी समस्या रही है। पंचायतें अलग-अलग आबादी के लिए स्वायत्तशासी एवं संवैधानिक इकाई हैं। ऐसे में जरूरी है कि उनके पास अपने कार्यों के निष्पादन के लिए पर्याप्त संख्या में कर्मचारी हो। ग्राम पंचायत के लिए कर्मचारियों की आदर्श व्यवस्था क्या हो, इसका निदान पंचायती राज मंत्रालय के अखिल भारतीय संदर्भ में तैयार किए गए रोडमैप में सुझाया गया है। इस रोडमैप के मुताबिक पंचायतो के लिए कर्मचारियों के तीन कैडर हैं- एक ग्राम पंचायत दूसरा जिला एवं तीसरा राज्य कैडर। राज्य में प्रखंड एवं जिला इकाई पहले से ही क्रियाशील है। आमतौर पर बिहार एवं झारखंड में पंचायत सचिवों की घोर कमी है जिससे पंचायतों का काम बखूबी संपादित नहीं हो पाता है।

पंचायती राज में भ्रष्टाचार


निचले स्तर पर अराजकता का माहौल है। सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचारियों की भेंट चढ़ गई हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में निचले स्तर पर लोगों को जोड़ने की जरूरत है। आम लोगों में यह शिकायत है कि भ्रष्टाचार की वजह से उनका कोई काम नहीं हो सकता है। इसकी सर्वाधिक मार गरीबों के ऊपर ही पड़ती है। मौजूदा समय में कानून तो हैं, लेकिन जांच एजेंसियों पर सरकार का दबाव नहीं होता है। आम लोगों को जरूरी कामों के लिए मुखिया तथा प्रखंड मुख्यालय के बार-बार चक्कर काटने पड़ते हैं। बिना पैसे खर्च किए आम लोगों का काम ही नहीं हो पाता है। इस काम में पंचायतें कारगर भूमिका निभा सकती हैं। तमाम लोकोपयोगी योजनाओं को दिशा देने के साथ ही लोकतंत्र को सशक्त करने में पंचायत की भूमिका है, लेकिन बीते वर्षों में पंचायतों की विश्वसनीयता घटी है, जो गांधी के ग्राम स्वराज के दर्शन के विपरीत है। लोकतंत्र की जड़ें जिन गावों में पोषित होती हैं वहां तो भ्रष्टाचार की दीमक लगी है। बीते वर्षों में पंचायत प्रतिनिधियों की चर्चा भ्रष्टाचार के कारण ज्यादा हुई है। बिहार में इस व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी ग्रामसभा ही है। विडंबनाओं की शुरुआत ग्रामसभा के क्रियान्वयन से होती है।

पंचायती राज व्यवस्था में बाहुबल एवं धनबल का प्रयोग


यह पंचायती राज की नई बीमारी है। कल तक विधानसभा एवं लोकसभा के चुनावों में बाहुबल एवं धन-बल का व्यापक प्रयोग होता था, लेकिन यह रोड़ा पंचायती राज व्यवस्था में लग गया है। बिहार के पंचायती राज के चुनाव में बूथ लूट एवं हत्या इसी का नतीजा है। चुनाव जीतने के बाद मुखिया के ऊपर भ्रष्टाचार इसी की परिणति है। इसके अलावा जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता जैसी बीमारियां भी स्थानीय स्वशासन की जड़ों को खोखला कर रही हैं।

ग्रामसभा सशक्तिकरण के पहलू


एकजुटता
ग्रामसभा को मजबूत बनाए बिना देश में स्वराज नहीं आ सकता। हमारे देश में पंचायती राज कानून बने, पर पंचायतों को उसका अधिकार नहीं दिया गया। पंचायतों को ताकत देने के लिए एक संवैधानिक सुधार की जरूरत भी है। ग्रामसभा को कुछ मांगने की जरूरत ही नहीं है। एकजुटता में वही सब कुछ समाहित है, जो एक नागरिक को चाहिए।

ग्रामसभा का क्रियान्वयन
73वें संविधान संशोधन की भावना के अनुरूप गांव के मामले में ग्रामसभा की सार्वभौमिकता को अक्षुण्ण रखते हुए बीपीएल निर्धारण, सामाजिक सुरक्षा पेंशन, इंदिरा आवास, कर निर्धारण, राजस्व वसूली सहित सभी विकास और कल्याण योजनाओं का निर्धारण सिर्फ ग्रामसभा में हो।

सूचना के अधिकार का क्रियान्वयन एवं लोकव्यापीकरण
सूचना का अधिकार हमारे परिपक्व लोकतंत्र का परिचायक है। मगर इस कानून को जमीनी रूप देने के लिए निचले तबकों की जागरुकता पर जोर देना होगा। इस अधिकार से जनता को अपनी समस्याओं से निजात पाने में सफलता मिल सकती हैं। बशर्ते इसे ईमानदारी से लागू किया जाए और जनता जागरूक होकर इस अधिकार का प्रयोग करो। तमाम लोकापयोग योजनाओं को क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी पंचायतों की है, लेकिन जागरुकता एवं भ्रष्टाचार की वजह से इन कार्यक्रमों का हाल चिंताजनक है।

सूचना अधिकार के प्रयोग से योजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता आ सकती है। लोगों को जागरुक करना होगा। ग्रामीणों में जागरुकता के बाद ही वित्तीय वर्ष का लेखा-जोखा, ऑडिट रिपोर्ट, गांव की योजना से संबंधित रजिस्टर, अगले वर्ष होने वाले खर्च का लेखा-जोखा भी देखा जा सकता है। इसके अलावा निगरानी समिति का गठन, पंचायतों को वित्तीय अधिकार देने, अफसरशाही पर अंकुश, पंचायत प्रतिनिधियों के अपमानपूर्ण व्यवहारों, भयादोहन आदि को रोकना होगा। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार मिटाने के गंभीर प्रयास करने जैसे कार्यों से ही ग्रामसभा सशक्त होगी।

निष्कर्ष


देश की 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है। इसलिए पंचायती राज व्यवस्था को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। पंचायती राज व ग्रामसभा की वास्तविक संभावनाओं का उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है। इसके लिए अभी अनेक प्रयास करने होंगे। ग्रामसभा को मजबूत बनाए बिना गांधी के ग्राम स्वराज्य के सपनों को साकार नहीं किया जा सकता। पंचायती राज व्यवस्था में संवैधानिक तब्दीली के साथ-साथ आम लोगों को जागरुक करने की जरूरत भी है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ई-मेल : rajivku999@gmail.com)

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