राजकीय कोष से उदारता-पूर्वक राशि के आवंटन मात्र से न तो निर्धनता मिटती है और न ही ग्रामीण विकास होता है। राजनीतिक-उद्देश्यों से प्रेरित, निर्मित कार्यक्रम तात्कालिक, क्षणित एवं एकांगी प्रभाव डालते हैं, स्थायी नहीं। स्थायी प्रभाव के लिये अनुभूति-जन्य नियोजन होना चाहिये। निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर उचित प्राथमिकताओं पर निर्धारण एवं क्रियान्वयन होना चाहिये।
पिछले चार दशकों में ग्रामीण विकास के लिये अनेक कार्यक्रम और योजनाएँ बनाई गई लेकिन इनका पूरा लाभ ग्रामीणों को प्राप्त नहीं हुआ। शायद इन योजनाओं में ग्रामीण विकास की प्राथमिकताओं के निर्धारण में कहीं कमी रही है या उनके क्रियान्वयन में। लेखक का कहना है कि जब तक ग्रामीण संरचना में परिवर्तन और संस्थागत सुधार नहीं होता तथा ग्रामीण आधारभूत संरचना को सुदृढ़ नहीं बनाया जाता, तब तक ग्रामीण विकास के लिये बनाए गए समस्त कार्यक्रम राजनीतिक वर्ग, प्रशासनक एवं बड़े कृषकों को ही लाभान्वित करते रहेंगे।स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त भावी भारत के निर्माताओं ने देश के समाजार्थिक आयामों के तीव्र एवं समुचित विकास हेतु नियोजन का मार्ग चुना था। क्योंकि उन्होंने विचार किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था को यदि स्वार्थ-प्रेरित मूल्य-यंत्र से संचालित एवं स्वतंत्र मांग-पूर्ति की शक्तियों पर आधारित बाजार-व्यवस्था पर छोड़ दिया जाता है तो न तो राष्ट्रीय आय में तीव्र वृद्धि दर प्राप्त की जा सकेगी न विपन्न वर्ग को न्याय प्राप्त हो सकेगा और नहीं ही आय की विषमताएँ एवं क्षेत्रीय असन्तुलनों को दूर किया जा सकेगा। इस दृष्टिकोण से सरकार ने राष्ट्रीय महत्त्व के विभिन्न उद्योगों की स्थापना की तथा सामाजिक कल्याण को प्राथमिकता देते हुए ‘बैंकिंग’ जैसे अन्य महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत क्षेत्रों का, उनकी गतिविधियों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण प्राप्त करने हेतु, राष्ट्रीयकरण किया। साथ ही साथ विभिन्न क्षेत्रों में अभीष्ट वृद्धि करने के उद्देश्य से रियायतें एवं प्रोत्साहन भी दिये। वस्तुतः इन सभी कार्यक्रमों की पृष्ठभूमि में वृद्धि न्याय एवं संतुलन के त्रिलक्ष्य निहित थे। परन्तु आज जब हम पिछले चार दशकों के प्रयासों का मूल्यांकन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि उपर्युक्त त्रिलक्ष्यों की प्राप्ति में हमें आशातीत सफलता नहीं प्राप्त हो सकी है। इसलिये अपने भूतकाल के प्रयासों का मूल्यांकन वर्तमान में आवश्यक परिवर्तन तथा भावी कार्यक्रमों के निर्माण में वास्तविकताओं के समावेश की आवश्यकता होती है। प्रस्तुत विश्लेषण में ‘ग्रामीण-विकास’ पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
गम्भीर विचार की जरूरत
पिछले चार दशकों में ग्रामीण विकास के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐसा विषय रहा होगा जो सरकार, प्रशासन, नियोजन एवं शिक्षाविदों के व्यापक विचार-विमर्श का केन्द्र बिन्दु बना हो। किन्तु स्थिति यदि यथावत नहीं तो उसमें विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। ग्रामीण क्षेत्र मानसून की अनिश्चिताओं से ग्रस्त हैं। अभी भी बड़े भू-धरों का वर्चस्व विद्यमान है, उत्पादकता कम है, बेरोजगारी एवं निर्धनता बनी हुई है। लघु एवं कुटीर-उद्योगों का व्यापक विकास नहीं हो पाया है तथा अधः संरचना की कमी है। परिणाम स्वरूप ग्रामीण क्षेत्र शहरी क्षेत्र से कटा हुआ दिखाई देता है, विकास की प्रमुख धारा से कटा हुआ दिखाई देता है। प्रश्न उठता है कि समस्या का निदान क्या है परन्तु उससे पूर्व महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या समस्या का सम्यक ज्ञान है? क्या ग्रामीण विकास के नियोजन ग्राम्य-क्षेत्र की नग्न वास्तविकताओं से परिचित हैं? परिणामों को दृष्टिगोचर करते हुए उत्तर नकारात्मक ही प्राप्त होगा। इस परिप्रेक्ष्य में सबसे पहले कुछ मौलिक विषयों पर चर्चा करनी चाहिए जैसे ग्रामीण विकास के प्रति राजनीतिक इच्छा एवं कटिबद्धता, नियोजन की आवश्यकता, औचित्य एवं उसके प्रति ईमानदारी, नियोजन का प्रकार, नियोजन में प्राथमिकताओं का निर्धारण, क्रियान्वयन एवं मूल्यांकन।
जहाँ तक ग्रामीण-क्षेत्र के विकास का प्रश्न है उसे सैद्धान्तिक, व्यावहारिक एवं मानवीय तीनों आधारों पर नकारा नहीं जा सकता तथा इस सन्दर्भ में विश्लेषण करना समय का दुरुपयोग ही होगा। परन्तु प्रश्न उठता है कि विकास का दृष्टिकोण दीर्घकालिक है कि नहीं उसे आत्म-निर्भर बनाने का है कि नहीं। इस परिप्रेक्ष्य में ग्रामीण विकास के प्रति राजनीतिक इच्छा एवं कटिबद्धता पर प्रश्न चिन्ह अवश्य लगाया जा सकता है। यद्यपि अपनी पंच वर्षीय योजनाओं में उसे पर्याप्त स्थान मिला है परन्तु वर्तमान राजनेताओं एवं प्रशासनों के उद्घटित व्यवहार (Revealed Behaviour) से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी आत्मा में ग्रामीण-विकास या निर्धनता-उन्मूलन हेतु कोई संकल्प या दायित्व की भावना है। यह तथ्य मात्र अनुभव किया जा सकता है उसे आंकड़ों द्वारा सिद्ध करने के लिये अभी भी वैज्ञानिक अध्ययन विधि का आविष्कार नहीं हुआ है।
दूसरा प्रश्न उठता है नियोजन की आवश्यकता औचित्य एवं उसके प्रति ईमानदारी का। जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है कि भारत के निर्माताओं ने विकास के लिये नियोजन का मार्ग श्रेयस्कर समझा था। परन्तु ग्रामीण क्षेत्र में नियोजन के यंत्र का सही प्रयोग एवं प्रभावशाली प्रयोग नहीं हुआ है। ग्रामीण क्षेत्र एक असंगठित क्षेत्र है जहाँ अधिकतर निर्णय निजी क्षेत्र के होते हैं जो स्वार्थ-लाभ की भावना से प्रेरित होते हैं। जाति धर्म, रूढ़ियाँ अपना प्रभाव डालती हैं। यदि इन्हीं शक्तियों के हाथों विकास कार्यक्रम सौंप दिये जाते हैं तो निश्चित विकास नहीं हो सकेगा। इसलिये उपयुक्त नियोजन की आवश्यकता है। परन्तु ऐसा नियोजन नहीं जैसा कि वर्तमान मे विद्यमान है। कहने का तात्पर्य यह है कि ग्रामीण क्षेत्र में अभी भी नियोजन की प्रक्रिया को और अधिक सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है।
तीसरा प्रश्न है कि नियोजन कैसा हो केन्द्र से गाँव तक या गाँव से केन्द्र तक। ग्रामीण संरचना की विविधता को देखते हुये यही कहा जा सकता है कि नियोजन गाँव के स्तर पर होना चाहिये। अनुमति जन्य होना चाहिये। क्योंकि हम जानते हैं कि व्यापक स्तर पर बनाई गई योजनाएँ सूक्ष्म स्तर पर क्रियाशील नहीं होती या संयोगवश ही होती है। इसलिये व्यावहारिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुये क्रमशः नियोजन, करना चाहिये। तथा कार्यक्रम निर्धारित करते समय उचित प्राथमिकतायें निर्धारित की जानी चाहिये। जहाँ तक संसाधनों का प्रश्न है वे हमेशा सीमित रहते हैं, प्रचुर होने पर भी। उनसे अनुकूलतम लाभ प्राप्त करने के लिये प्राथमिकताओं का निर्धारण आवश्यक है। किसी भी क्षेत्र के विकास हेतु नियोजन करते समय सबसे पहले वहाँ की आधारभूत संरचना (Infra-structure) के निर्माण को प्राथमिकता देनी चाहिये। हम सभी जानते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र की आधारभूत संरचना कितनी दुर्बल है। इस संरचना में शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, सड़क संचार साधन ऊर्जा इत्यादि सम्मिलित होते हैं जिनके निर्माण का औचित्य पूरी अर्थव्यवस्था को दीर्घकाल तक संयोजित करने में होता है परन्तु इसमें कापी मात्रा में संसाधनों का विनियोग करना पड़ता है इसलिये एक सूत्रीय नियोजन के आधार पर आवश्यकतानुसार एक-एक आधारभूत सुविधा के निर्माण को प्राथमिकता देनी चाहिये। अपने ग्रामीण क्षेत्र के व्यापक सर्वेक्षण एवं अध्ययन के उपरान्त मैंने उसके विकास तथा नियोजन हेतु प्राथमिकताएँ निर्धारित की हैं, उन्हें निम्नलिखित रूप में रखा जा सकता है।:-
ग्रामीण विकास की प्राथमिकतायें
सबसे पहले ग्रामीण-विकास नियोजन में सड़कों के निर्माण को प्राथमिकता देनी चाहिये। गाँव को गाँव से, गाँव को ब्लॉक, तहसील एवं जिला मुख्यालय से, प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय राजधानी से जोड़ने के लिये उपयुक्त यातायात व्यवस्था होनी चाहिये। जिसमें राष्ट्रीय राजधानी से जोड़ने के लिये उपयुक्त यातायात व्यवस्था होनी चाहिए। जिसमें राष्ट्रीय राजधानी से प्रान्तीय तथा प्रान्तीय राजधानी से जिला मुख्यालय तक आने में विशेष असुविधा नहीं होती परन्तु जिला मुख्यालय से गाँव-गाँव तक पहुँचने में अभी भी बहुत अधिक असुविधा हाती है। यहाँ यह वक्तव्य देना अनुपयुक्त न होगा कि जब गाँव तक पहुँचा ही नहीं जा सकता तब उनकी समस्याओं का ज्ञान एवं निदान भी वास्तविकता पर आधारित नहीं हो सकता। आंकड़े इस बात के साक्षी हैं कि हमारे देश के 5.92 लाख गाँवों में से 4.21 लाख अभी भी सर्वऋतु सड़कों से जुड़े नहीं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक शहर से सुदूर क्षेत्रों में बसे हुये ग्रामों को एक सड़क चक्र से नहीं जोड़ा जाता तब तक उनकी स्थिति में सुधार नहीं लाया जा सकता। इसलिये प्राथमिकता क्रम में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम ‘सड़क-निर्मण’ का होना चाहिये जिससे बहुत सी समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जायेगा। एक पंचवर्षीय योजना में यदि केवल एक सूत्रीय कार्यक्रम सड़क-अधः संरचना के निर्माण का रखा जाय तो अतिश्योक्ति न होगी। राष्ट्रीय यातायात नीति समिति (1980) ने 1978 की कीमतों पर सभी ग्रामों को सड़कों से जोड़ने की लागत लगभग 11000 करोड़ रुपये आंकी थी जो वर्तमान मूल्यों पर काफी अधिक हो चुकी होगी फिर भी आवश्यकता को देखते हुए उसके निर्माण को प्राथमिकता देनी ही होगी।
नियोजन क्रम में दूसरी प्राथमिकता शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं को देनी चाहिये। शिक्षा से तात्पर्य ऐसी शिक्षा जो ग्रामीणों को साक्षर होने के साथ-साथ उन्हें विवेकपूर्ण बनाये तथा हितों-अनहितों, कर्तव्य अधिकारों से अवगत कराये। स्वास्थ्य से तात्पर्य जो जीवितों को सुखद जीवन एवं जन्म तथा मृत्युदर कम करने में उपयोगी हो। हमारे ग्रामीण क्षेत्र मनोवैज्ञानिक रूढ़ियों एवं अति जनसंख्या से ग्रस्त हैं। जिसके कारण अनेकानेक समस्याओं का जन्म हुआ है। अतः उपयुक्त सुविधाओं की प्रभावशाली व्यवस्था होनी चाहिये। जिनके अभाव में स्वतः प्रेरित सुदृढ़ विकास सम्भव नहीं है।
तीसरी प्राथमिकता भूमि सुधार कार्यक्रमों को देनी चाहिये। ग्रामों में भूमि के विषम एवं अनार्थिक आवंटन का तथ्य अनुद्घटित नहीं है। भूमि जो कि ग्रामों में आर्थिक आय, सामाजिक स्तर एवं राजनीतिक वर्चस्व का द्योतक होती है, अभी भी कुछ हाथों में केन्द्रित है। शासन प्रशासक एवं अर्थशास्त्री सभी लोग इस बात से अवगत हैं तथा बहुत से कार्यक्रम भी बनाये गये, परन्तु उनके परिणाम उल्लेखनीय नहीं कहे जा सकते क्योंकि लाभान्वित होने वाले व्यक्तियों में जागरुकता का अभाव, ग्रामीण क्षेत्र का शहरी क्षेत्र से कटाव तथा इन सबसे ऊपर राजनीतिक इच्छा की कमी के कारण कुछ लोगों का भूमि पर स्वामित्व बना हुआ है। भूमि-संसाधन का अनुकूलतम आवंटन ग्रामीण विकास की बहुत बड़ी पूर्व शर्त है।
चौथी प्राथमिकता सिंचाई, विद्युत, साख इत्यादि सुविधाओं को देनी चाहिये। इसके अतिरिक्त आधुनिक तकनीकी के उपयोग को प्रोत्साहन देना चाहिये। जब भूमि का समुचित बँटवारा हो जायेगा तभी उक्त सुविधाओं का सही उपयोग हो सकेगा।
पाँचवीं प्राथमिकता संसाधनों की उपलब्धि एवं मांग के आधार पर लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना, उत्पादित माल के विपणन की व्यवस्था आदि को देना चाहिये।
छठी प्राथमिकता-मूल्यांकन-सतत मूल्यांकन को देनी चाहिये। कार्यक्रम के लक्ष्यों एवं वास्तविक परिणामों की निरन्तर तुलना होती रहनी चाहिये और उसके आवंटन आदि में अपेक्षित परिवर्तन होना चाहिये। ग्रामीण क्षेत्र से प्राप्त होने वाले आंकड़े अधिकतर भ्रामक होते हैं। इसलिये मूल्यांकन हेतु ‘आंकड़ों की कलाबाजी’ का कम से कम उपयोग करना चाहिये। उसके लिये वास्तविकताओं के प्रत्यक्ष निरीक्षण को महत्त्व देना चाहिये।
इस प्रकार ग्रामीण-विकास का एक सामान्य व्यक्ति दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जा सकता है। यह सत्य है कि प्रस्तुत लेख कुछ आदर्शवादी (Normative) प्रतीत होता है परन्तु मैं मानता हूँ कि विकास की कल्पना एक दीर्घकालिक कल्पना है उसमें ‘तदर्थवाद’ (Adhocism) या अल्पकालीन दृष्टिकोण (Short Sightedness) नहीं होना चाहिये। हमें एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना करनी चाहिये जिसमें निर्धनता उत्पन्न ही न हो। निर्धनता दूर करना तथा निर्धनता उत्पन्न ही न होने देने में बहुत अन्तर होता है। अभी वर्तमान में ‘ग्रामीण-विकास’ या निर्धनता उन्मूलन के जो भी कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं वे यथार्थ पर आधारित नहीं है संरचनात्मक नहीं हैं तथा संस्थागत परिवर्तन लाने में सक्षम नहीं है। वर्ग विशेष के लिये बनाये गये समस्त कार्यक्रमों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे उस विशिष्ट वर्ग पर एहसान या कृपा दृष्टि करने के लिये बनाये गये हों। विकास में कृपा करने की बात नहीं होती यहाँ पूरी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ एवं आत्मनिर्भर बनाने की बात होती है।
मेरा यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जब तक ग्रामीण संरचना में परिवर्तन नहीं होता, जब तक संस्थागत सुधार नहीं होता, ग्रामीण आधारभूत संरचना को सुदृढ़ नहीं बनाया जाता तब तक ग्रामीण विकास के लिये बनाये गये समस्त कार्यक्रम राजनीतिक वर्ग, प्रशासक एवं बड़े कृषकों को ही लाभान्वित करते रहेंगे। यदि यथार्थ में सरकार ग्रामीण-विकास करना चाहती है तो (1) उसकी विधान पालिका, न्याय पालिका एवं कार्यपालिका के उद्घाटित व्यवहार को ग्रामीणोन्मुखी होना पड़ेगा (2) ग्रामीण मूलभूत संरचना को सुदृढ़ बनाना होगा। (3) ग्रामीण क्षेत्र में व्यापक संरचनात्मक एवं संस्थागत परिवर्तन लाने होंगे तथा (4) कार्यक्रमों का सामयिक मूल्यांकन करते हुये अपनी नीतियों को वास्तविक एवं परिणामोन्मुखी बनाना होगा।
राजकीय कोष से उदारता-पूर्वक राशि के आवंटन मात्र से न तो निर्धनता मिटती है और न ही ग्रामीण विकास होता है। राजनीतिक-उद्देश्यों से प्रेरित, निर्मित कार्यक्रम तात्कालिक, क्षणित एवं एकांगी प्रभाव डालते हैं, स्थायी नहीं। स्थायी प्रभाव के लिये अनुभूति-जन्य नियोजन होना चाहिये। निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर उचित प्राथमिकताओं पर निर्धारण एवं क्रियान्वयन होना चाहिये।
अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन एवं अनुसंधान विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर-482001
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