मानव प्रकृति का अभिन्न अंग है तथा उसने प्राकृतिक संसाधनों एवं पारिस्थितिकी प्रणालियों के आधार पर ही विकास किया है। वस्तुतः विकास की आवश्यकता का जन्म मनुष्य की सचेतन प्रेरणा के फलस्वरूप प्राकृतिक स्थिति को स्वहित में सुधारने के लिये होता है। विशेषतः यह भोजन, वस्त्र, वस्तओं एवं शरणस्थल की स्थिति में वांछित है। मनुष्य अपने अस्तित्व, सुख-सुविधा, मनोरंजन आदि की पूर्ति साधनों के उपयोग से करता है। लेखक के विचार में जब यह उपयोग शोषण का रूप ले लेता है, तो एक ओर प्राकृतिक संसाधनों का भण्डार कम होने लगता है और दूसरी ओर इनकी गुणवत्ता में गिरावट आ जाती है। अन्ततः प्राकृतिक प्रणालियों की जीवनदायिनी क्षमताएँ क्षीण होने लगती हैं और संसाधन आधार संकुचित होने लगता है।ग्राम्य क्षेत्रों में कम होते संसाधनों के साथ पोषण, ईंधन, आवास एवं सफाई जैसी समस्याएँ प्रखर हैं। विकास विशेषतः ग्रामीण विकास के साथ पर्यवरणीय ह्रास पर सामयिक उलझन है। इसीलिये ग्रामीण विकास के सन्दर्भ में पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी के प्रश्नों का विशेष महत्त्व है तथा यह प्रश्न संसाधनों के अल्प विकास, अति दोहन, शोषण मूलक व्यवस्था, वर्गीय असन्तुलन, बेरोजगारी एवं कुपोषण की स्थिति में और ही प्रखर है। गाँव प्राकृतिक संसाधनों की गोद में बसता-पलता है तथा भारतीय ग्रामों की एक मौलिक विशेषता उसके जीवन में शताब्दियों से पर्यावरणीय अनुकूल संस्कार है। उनकी सांस्कृतिक धाराओं में प्राकृतिक एवं पारिस्थितिकी तंत्र के साथ सभी तत्वों का मानवीकरण एवं दीव्यीकरण किया गया था लेकिन आज के ग्राम नष्ट होती संसाधनता, सांस्कृतिक तत्वों में ह्रास एवं आर्थिक विपन्नता के पर्याय हैं। ग्रामीण विकास हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकता है तथा इसको संचालित कर ग्राम्य जीवन को सुखद बनाना हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य है। सामान्यतः ग्रामीण विकास की प्रक्रिया संसाधन विकास, कृषि विकास, प्राविधिक प्रत्यावर्तन एवं ग्रामीण समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक तथा आर्थिक रूपांतरण से सम्बद्ध है। हमारा सम्पूर्ण विकास ग्राम्य क्षेत्रों में फैले संसाधनों पर निर्भर है।
समग्र ग्रामीण विकास की अवधारणा में किसी ग्राम्य तंत्र का अपने स्वयं के पर्यावरण के साथ तालमेल रखते हुए अपनी सम्पूर्ण सम्भावना को उदघाटित करना और अपने में ऐसी आँतरिक संरक्षात्मक प्रक्रियाओं को अपनाना एवं संवर्द्धन करना, जो दीर्घकालिक पर्यावरणीय परिवर्तनों के साथ अनुकूलन एवं सामन्जस्य स्थापित करने में सहयोग दे, को सम्मिलित किया गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विकास विशेषतः ग्रामीण विकास में प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप पर्यावरण का न्यायोचित विवेकपूर्ण एवं अनवरत उपयोग सम्मिलित है। पारिस्थितिकी रूप से सन्तुलित दीर्घकालिक योजना का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकता के अधिकतम अनुरूप बनाना है। इसके अन्तर्गत बाढ़ नियंत्रण, सूखा नियंत्रण, वनीकरण एवं वृक्षारोपण, मृदा-अपरदन पर रोक, ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की खोज, भूमि दुरुपयोग नियंत्रण, प्रदूषण नियंत्रण एवं ग्रामीण स्वच्छता आदि को स्वीकृति प्राप्त है इससे स्थानिक एवं वर्गीय सन्तुलन के साथ पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी सन्तुलन बना रहेगा।
निवास्य विज्ञान विगत तीन दशकों से ग्रामीण एवं नगरीय पक्षों का अध्ययन कर रहा है। वस्तुतः नगर एवं ग्राम एक वृहद् पर्यावरणीय तंत्र में विकसित होने वाले दो उपतंत्र हैं जो सहअस्तित्व की दृष्टि से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। नगरीय क्षेत्रों का प्रदूषित एवं समस्याग्रस्त जीवन ग्रामीण क्षेत्रों की अभावग्रस्तता निवास्य विज्ञान के लिये गम्भीर चुनौती है। प्रस्तुत शोध प्रपत्र में ग्राम्य क्षेत्रों की पर्यावरणीय समस्याओं सहित पारिस्थितिकी सम्वर्द्धन के साथ ग्रामीण विकास के विविध पक्षों का विश्लेषण किया गया है।
ग्राम्य क्षेत्रों का मुख्य आधार कृषि एवं उसके अनुषंगी कार्य है। कृषि विकास पर्यावरण के विभिन्न घटकों यथा भूमि, जल, वायु एवं वनस्पति आदि के समतोल से ही सम्भाव्य है। मृदा अपरदन, निर्वनीकरण, बाढ़, सूखा आदि से कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है। मृदा की उर्वरा शक्ति का ह्रास हो रहा है। इसके अतिरिक्त चरागाहों का सिमटना, पशुपालनों के लिये एक प्रमुख चुनौती है। सम्प्रति ग्राम्य क्षेत्रों में स्थानीय संसाधनों के अल्प उपयोग के साथ ही साथ अति उपयोग से अनेकानेक समस्याएँ जन्म ले रही हैं:-
भूमि का दुरुपयोग:- हमारे देश में तीन तरह की जमीन है।
1. खेती की जमीन, 2. जंगल की जमीन, 3. चरागाह की जमीन। खेती की भूमि का प्रबन्ध कृषि एवं सिंचाई विभाग के हाथ में है। जंगल का प्रबन्ध जंगल विभाग के पास है तथा चरागाहों का प्रबन्ध पशुपालन विभाग करता है। ये विभाग आपस में सलाह-मशविरा नहीं करते तथा एक-दूसरे की समस्या जानने की कोशिश नहीं करते फलतः भूमि का समन्वित उपयोग नहीं हो पाता। भूमि सुधार एवं कृषि क्षेत्र विस्तार के लिये तालाबों को पाट दिया गया। वस्तुतः तालाब तीव्र गति से बहते वर्षा के जल को रोकने में सहायक होते हैं, साथ ही भूमिगत जल सतह को बनाये रखने में सक्षम होते हैं। इनके पटने से जल प्रवाह से भूमि क्षरण हुआ है साथ ही भूमिगत जल पर भी प्रभाव पड़ा है। नदियों में बाढ़ें आने लगी हैं। ग्राम्य क्षेत्रों विशेषतः नगरों के चतुर्दिक ईंट भट्ठों के कारण उर्वर भूमि बंजर होती जा रही है।
चरागाह की जमीन सर्वाधिक उपेक्षित हुई है। कृषि क्षेत्र के विस्तार के फलस्वरूप बड़े-बड़े चरागाह कृषि भूमि में बदल गए। जिससे चारे का भार वनों एवं कृषि पर आ गया। वनों में अत्यधिक चराई के कारण वन वृक्षों की वृद्धि प्रभावित हुई है। भू-अपरदन में वृद्धि हुई है। चारागाहों के क्षेत्रफल में कमी के कारण पशुओं की उत्पादकता भी कम हुई है। पशुपालक मजदूर बनने पर विवश हैं।
भूमिगत जल का अत्यधिक उपयोग:- सिंचाई सुविधाओं में विस्तार के फलस्वरूप भूमिगत जल का व्यापक उपयोग प्रारम्भ हो गया। कतिपय क्षेत्रों में नलकूपों द्वारा अत्यधिक जल विदोहन के कारण स्प्रिंग लेवल (जलस्तर) नीचे-चला गया है। गर्मी के दिनों में जब जल की आवश्यकता बढ़ती है तो नलकूप एवं कूप सूखे रहते हैं। पेयजल का संकट आ जाता है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में अधिक जल में उत्पन्न होने वाली फसलों को उत्पादित किये जाने से भी भूमिगत जल स्तर नीचे आ गया है। दृष्टव्य है कि पंजाब एवं हरियाणा राज्य के कुछ जनपद जल के अति उपयोग से प्रभावित हैं। वाराणसी जनपद के काशी विद्यापीठ आराजी लाइंस विकास खंडों में जलकूपों द्वारा अत्यधिक जल उपयोग के कारण गर्मी के दिनों में पेयजल का संकट उत्पन्न हो जाता है, इससे कालान्तर में ग्राम्य क्षेत्रों की उत्पादकता प्रभावित होगी तथा पारिस्थितिकी व्यतिक्रम भी सम्भाव्य है।
पोषण में कमी एवं विस्थापन:- फलदार वृक्षों के कटने के कारण महत्त्वपूर्ण पौष्टिक फल अब बड़ी कठिनाई से मिल पाता है। वनों में कन्द-मूल भी अब कम मिलने लगे हैं। अतएव वन ग्रामों में पोषण की कमी हुई है।
जल विद्युत परियोजना एवं विकास परियोजनाओं के कारण परियोजना परिधि में आने वाले ग्रामीण विस्थापित हो जाते हैं। विस्थापन के फलस्वरूप अनेकानेक सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ उपस्थित हो जाती है। उदाहरणार्थ 20,000 करोड़ रुपए लागत से निर्मित सरदार सरोवर एवं नर्मदा सागर बाँधों से 23 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होगी तथा 2,250 मेगावाट विद्युत उपलब्ध होगी, परन्तु इससे एक लाख 30 हजार लोग विस्थापित होंगे तथा 28 हजार एकड़ भूमि जलमग्न हो जाएगी जिसमें 44,000 हेक्टेयर वन भूमि भी सम्मिलित है। भाखड़ा बाँध से विस्थापित 21,000 परिवारों में से 730 परिवारों को ही सरकार बसा पायी और शेष इधर-उधर भटक रहे हैं।
नगरीय विस्तार:- नगरीय सीमाओं के विस्तार के फलस्वरूप उसकी परिधि के ग्राम नगरीय बस्ती के रूप में बदल जाते हैं, जिससे नागरिकों को विविध समस्याओं से जूझना पड़ता है। चूँकि ग्राम्य बसती की गलियाँ, मार्ग एवं पानी का विकास तत्कालीन एवं अत्यन्त स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप रहता है। नगरीय सुविधाएँ देने पर ग्राम की आकारिकी में परिवर्तन करना होता है जो अत्यन्त खर्चिला भी होता है। अत्यधिक व्यय से बचने के लिये कुछ सुविधाएँ दी जाती हैं तथा कुछ छोड़ दी जाती हैं। इन बस्तियों की सर्वाधिक प्रबल एवं जटिल समस्या जल-मल की होती है। विगत 30 वर्षों में नगरों ने ग्राम्य क्षेत्र एवं वनों से लगभग 15 लाख हेक्टेयर भूमि छीन ली है। उदाहरणार्थ सन 1901 में दिल्ली शहर का क्षेत्रफल 43.3 वर्ग किमी हो गया। दिल्ली परिक्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले 240 ग्रामों में से 111 ग्राम नगर के जबड़े में चले गये।
सुखा, बाढ़ एवं भूस्खलन:- वन विनाश के कारण पर्वतीय ग्राम भूस्खलन एवं बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निरन्तर जूझ रहे हैं। वन विनाश पर्वतीय मार्गों के निर्माण एवं खनन उद्योग के विस्तार एवं विकास के फलस्वरूप हुए हैं। निर्वनीकरण के कारण सूखे एवं बाढ़ की प्रवणता में वृद्धि हुई है, जिससे ग्रामों की फसलें नष्ट होती हैं।
ग्रामीण स्वच्छता:- खुले स्थानों में शौच करना ग्रामीण जीवनशैली है। लोग खेतों, बागों एवं वनों में इस निष्कर्म से निवृत्त होते हैं। तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या, सघन बसे स्थानों में सफाई का अभाव एवं शौच के लिये एकान्त स्थान का अभाव आदि ग्रामीण क्षेत्रों की गम्भीर समस्याएँ हैं। ग्रामीण परम्पराएँ एवं समस्याएँ गन्दगी एवं अस्वस्थता की जननी हैं। यही नहीं शौच से सम्बन्धित सामाजिक समस्याएँ भी हैं। जुलाई 1989 में योजना आयोग द्वारा गठित कार्यकारी दल ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 22 लाख शुष्क शौचालयों के होने का अनुमान लगाया था, जिसमें 67,200 मैला ढोने वाले लगे हुए थे।
शौच की व्यवस्था के अभाव में मानव मल के माध्यम से वातावरण प्रदूषण के फलस्वरूप अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों का जन्म होता है। गरीबी, पानी की कमी, भवनों में स्थान का अभाव, वित्तीय एवं तकनीकी अभाव, भवनों का कच्चा होना एवं रूढ़िवादिता आदि ग्रामीण स्वच्छता में बाधक तत्व हैं। सांस्कृतिक रूप से शौचालयों को स्वीकारना भी एक समस्या है।
ग्रामीण ऊर्जा:- पर्यावरण ऊर्जा का आधार है तथा ऊर्जा विकास का मूल बिन्दु है। ऊर्जा से ही कृषि कार्य, ग्रामीण उद्योग विकसित होंगे तथा ग्राम्य जन-जीवन में आवश्यक सुविधाएँ जुट सकेंगी। सम्प्रति भारतीय ग्राम जलाऊ लकड़ी, आपूर्ति एवं अन्य ऊर्जाजन्य समस्याओं से ग्रस्त है। भारत की बहुसंख्यक ग्रामीण जनता गरीब है। उसे सस्ती एवं धुआँ रहित तथा उपयोगी ऊर्जा प्रणाली की आवश्यकता है। ग्राम्य क्षेत्रों में कृषि छीजन, वानस्पतिक अवशेष, पशु एवं मानव जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं जो यथास्थिति में प्रदूषणकारी हैं। यदि इनका उपयोग बायोगैस उत्पादन में किया जाए, तो प्रदूषण कम होगा। ग्रामीण ऊर्जा आपूर्ति की दिशा में बायो गैस प्रौद्योगिकी बहुत ही उपयुक्त है। इससे निर्धूम एवं प्रदूषण-रहित ऊर्जा प्राप्त होगी। प्रेक्षकों का अनुमान है कि राष्ट्रीय स्तर पर बायोमास की मात्रा 20 करोड़ टन प्रतिवर्ष है। इतने बायोमास से 27.5 करोड़ बैरेल तेल के बराबर ऊर्जा प्राप्त होगी। देश में 13.3 करोड टन ईंधन लकड़ी एवं 7.3 करोड़ टन गोबर प्रतिवर्ष जला दिया जाता है। इसके सम्यक उपयोग हेतु ग्राम्य क्षेत्रों को बायोमास प्रौद्योगिकी को सफल रूप से विस्तारित करने एवं अपनाने की बहुत आवश्यकता है। बायोमास प्रौद्योगिकी वृक्षों के कटने की प्रवृत्ति को कम करेगी तथा खेतों के लिये उत्तम जीवाश्म युक्त उर्वरक भी उपलब्ध करायेगी ग्राम्य क्षेत्रों में उपलब्ध बेहया एवं जलकुम्भी का उपयोग भी बायोमास प्रौद्योगिकी के माध्यम से किया जा सकेगा। इस प्रकार ग्रामीण पर्यावरण को सन्तुलित रखने तथा ऊर्जा आपूर्ति में बायोमास प्रौद्योगिकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
बायोमास के अतिरिक्त सौर ऊर्जा के उपयोग की दशाएँ भी उत्तम हैं। सोलर कुकर आदि का उपयोग ग्राम्य क्षेत्रों के लिये समीचीन है। सुदूर ग्राम्य क्षेत्रों, पर्वतीय क्षेत्रों में रात्रि प्रकाश एवं टेलीविजन कार्यक्रमों को दिखाने में सौर ऊर्जा प्रणालियों का उपयोग किया जा सकता है। पवन ऊर्जा, समुद्री लहरों एवं भूताप आदि से भी ऊर्जा प्राप्ति की अपार सम्भावनाएँ हैं। ऊर्जा के गैर-पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों का विकास ग्राम्य क्षेत्रों के सम्यक विकास एवं पर्यावरणीय सन्तुलन को व्यवस्थित करने में सहायक सिद्ध होगा लेकिन इसके लिये सार्थक एवं गहन प्रयास की आवश्यकता है।
निष्कर्ष:- पृथ्वी मानव का आवास है, लेकिन साथ ही अन्य जैव-अजैव तत्वों का भी स्थान है। विभिन्न सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक अनुक्रियाओं के कारण अनेकानेक पर्यावरणीय विलक्षणताएँ दृष्टिगत हो रही हैं। विकास प्रक्रिया में पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी अनुक्रमण ही दीर्घकालिक विकास को सुनिश्चित कर सकता है। पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी पक्षों को दृष्टिगत रखते हुए ग्रामीण विकास को सुनिश्चित करते समय निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए- 1. निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर नियोजना प्रक्रिया को अपनाना। 2. विकेन्द्रीकृत ऊर्जा प्रणाली का विकास तथा ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का विकास। 3. स्थानीय संसाधनों का विकास एवं उनका विवेकपूर्ण उपयोग, जिससे पारिस्थितिकी सन्तुलन बना रहे, 4. विभिन्न आर्थिक प्रखण्डों का आनुपातिक विकास, 5. गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले बहुसंख्यक लोगों के जीवन की दशाओं में सुधार, 6. भूमि एवं जल का गैर कृषि में उपयोग रोकना, 7. पटती भूमि सुधार, भूमि संरक्षण, वनीकरण आदि, 8. कृषि विकास, पशुपालन एवं ग्रामीण उद्योग के विकास को प्रदूषण रहित एवं पर्यावरणीय सुरक्षा के साथ सुनिश्चित करना, 9. ग्रामीण स्वच्छता हेतु शौचालयों का निर्माण।
डाॅ. मंगला सिंह, प्राध्यापक- भूगोल, वसन्त कालेज फार वीमेन्स, राजघाट-वाराणसी
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