ग्रामीण विकास और स्वयंसेवी संगठन

स्वयंसेवी संगठन ग्रामीण विकास हेतु विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे संगठनों में निःस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले व्यक्तियों का होना आवश्यक है। यदि स्वयंसेवी संस्थाएँ अपनी ही क्षमताओं व संसाधनों के बलबूते पर डटी रहती हैं तो उनकी साख बनती है और उन्हें जनसहयोग मिलता है।ग्रामीण विकास में स्वयंसेवी संस्थाएँ एक अरसे से अग्रणी भूमिका निभाती आ रही हैं। इन्होंने जनता के प्रति सेवा, सरोकार और घनिष्ठता के उत्कृष्ट गुणों का परिचय दिया है। इसके अलावा नये कार्यक्रमों को प्रारम्भ करने एवं उनका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन करने की क्षमता भी दर्शाई है। इन संस्थाओं ने विकास सम्बन्धी कठिन समस्याओं के समाधान के ऐसे तरीके भी सुझाए हैं जिन्हें सरकार को भी मानना पड़ा है। इन्होंने सरकार को ऐसी परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों को हाथ में लेने के लिए प्रेरित किया है जिन्हें संस्थाओं ने सफलतापूर्वक संचालित किया है। आज विकास के जो परिणाम हैं, चाहे वे शिक्षा के क्षेत्र में हों या स्वास्थ्य के क्षेत्र में, उनमें स्वयंसेवी संस्थाओं का काफी योगदान रहा है। इस तरह के हजारों उदाहरण हैं जो स्वयंसेवी संगठनों के इतिहास को गौरवान्वित करते हैं।

ढाँचा


स्वयंसेवी संगठन व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसने स्वयं को एक विधि सम्मत निकाय में संगठित कर लिया हो, ताकि वे संगठित कार्यक्रमों के माध्यम से सामाजिक सेवाएँ प्रदान कर सकें। ये संगठन अपनी ही पहल पर अथवा बाहर से प्रेरित होकर, साथ ही आत्मनिर्भर रहकर गतिविधियाँ चलाते हैं। ये संस्थाएँ लोगों की जरूरतें पूरी करने तथा सार्वजनिक क्षेत्र की प्रसार सेवाओं को एक-दूसरे के करीब लाने का प्रयास करती हैं। ग्रामीण कमजोर वर्गों के न्यायोचित और प्रभावी विकास को अंजाम देने के लिए भी ये संस्थाएँ निरन्तर प्रयत्न करती रहती हैं।

सभी गैर-सरकारी संगठन स्वयंसेवी संस्थाएँ नहीं होतीं। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का उद्देश्य कमजोर लोगों की मदद कर पुण्य कमाना, ख्याति प्राप्त करना अथवा धर्मार्थ कार्य करना होता है, जबकि कुछ संगठन ज्ञान प्राप्त करने, विकास के रास्ते सुगम बनाने, आत्मनिर्भर बनाने तथा गरिमा एवं स्वाभिमान से जीवन बिताने के अधिकार को मान्यता देकर कार्य करते हैं।

कार्यों का स्वरूप


हमारे देश में अनेक स्वयंसेवी संगठन सभी क्षेत्रों में विकास कार्यों एवं सामाजिक सेवा में भागीदारी निभा रहे हैं। यद्यपि इनकी देशव्यापी गणना एवं विश्लेषण के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं फिर भी एक अनुमान के अनुसार देश में छोटे-बड़े छह लाख संगठन बने हुए हैं। इनमें से कुछ संगठन स्थानीय तौर पर कार्य करते हैं।

रोजगार के क्षेत्र में खादी ग्रामोद्योग संघ का नाम उल्लेखनीय है। यह संगठन लोगों को प्रशिक्षण, वित्त प्रबन्ध, विपणन आदि अनेक सेवाओं में सहयोग करके रोजी-रोटी जुटाने में सहयोग कर रहा है। किसान मजदूर संगठन ने सूचना के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है जिनके परिणामस्वरूप राज्य सरकारों ने भी अपने स्तर पर ही पंचायतों में जनसुनवाई की पहल की है।

विकास कार्यक्रमों को जनभागीदारी के बिना सफल नहीं बनाया जा सकता है। जनभागीदारी प्राप्त करने के लिए स्वयंसेवी संगठन काफी सहायक हैं।शिक्षा के क्षेत्र में हजारों की संख्या में संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। शिक्षाकर्मी योजना के माध्यम से राजस्थान के उन दुर्गम स्थानों को चुना गया, जहाँ आज भी आवागमन का कोई साधन नहीं है। वहाँ स्थानीय लोगों को प्रेरित कर स्थानीय शिक्षक का चयन कर बच्चों के शिक्षण का कार्य होता है। परिणामस्वरूप सरकार ने भी इस प्रकार के 22 हजार विद्यालय खोले हैं जिससे गाँव-ढाणी में ऐसे स्कूलों की व्यवस्था हुई।

सुलभ इण्टरनेशनल द्वारा शौचालय का निर्माण एवं संचालन का प्रयोग भी देश के विभिन्न भागों में काफी सफल रहा है। सुलभ शौचालयों के माध्यम से दैनिक जीवन की एक महत्वपूर्ण सुविधा का विकास किया गया है। रेडक्रॉस सोसायटी ने चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है और कम लागत पर जरूरतमन्दों को चिकित्सा की आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध कराई है।

जल-संग्रहण के लिए भी अनेक संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। ये संस्थाएँ स्थानीय लोगों का सहयोग लेकर वर्षा जल को एकत्रित करने की व्यवस्था करने में महत्वपूर्ण योगदान कर रही हैं। बायफ संस्था ने कुछ क्षेत्रों में रोजगार की दृष्टि से लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृषि का विकास किया है। पशुपालन में भी मदद की है, जिससे लोग आत्मनिर्भर बने हैं।

नागरिकता संस्थान विद्या भवन सोसायटी ने पंचायतीराज के क्षेत्र में जनप्रतिनिधियों को आवासीय प्रशिक्षण देकर इस दिशा में एक नया अध्याय जोड़ा है। यदि हम जनप्रतिनिधियों को सशक्त करते हैं तो वे ग्रामीण विकास में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। फिर चाहे वे अशिक्षित महिलाएँ हों, आदिवासी या अन्य सभी प्रशिक्षण प्राप्त करके पंचायतीराज के स्वप्न को साकार कर सकते हैं।

भारत सरकार द्वारा वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार कानून लागू किया गया। इस कानून को बनवाने में स्वयंसेवी संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

स्वैच्छिक संगठन जरूरी क्यों?


अनुभव बताता है कि विकास कार्यों में सरकारी तन्त्र की भूमिका आशानुरूप परिवर्तन नहीं ला सकी है। यद्यपि ग्रामीण पुनर्निर्माण के कार्यक्रमों का सूत्रपात और क्रियान्वयन नौकरशाही ही करती है फिर भी गाँवों में अनेक गतिविधियों के लिए वे उपयुक्त नहीं हैं जिसके कारण सरकार को इन कार्यक्रमों को चलाने में सफलता नहीं मिलती है। यदि ये कार्यक्रम स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाए जाते हैं तो सृजनशीलता, तात्कालिकता और नवीनता के गुणों से वे कुशलतापूर्वक समन्वय कर सकते हैं।

विकास कार्यक्रमों को जनभागीदारी के बिना सफल नहीं बनाया जा सकता है। जनभागीदारी प्राप्त करने के लिए स्वयंसेवी संगठन काफी सहायक हैं।

स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका को अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यापक मान्यता प्राप्त हुई है। ये संगठन बहुत हद तक लोगों को सहायता प्रदान करने में सफल हुए हैं। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि कोई भी विकास कार्यक्रम तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक उनमें वे लोग शामिल न हों, जिसके लिए वे चलाए जा रहे हैं। ऐसे कार्यों को स्वयंसेवी संगठन अच्छी तरह से अंजाम दे रहे हैं।

प्रभावी व्यूहरचना


सफल रहने वाली संस्थाओं की प्रमुख विशेषता होती है — उनकी कार्यशैली एवं प्रभावी व्यूहरचना। ये लोग संस्थाओं के कार्यकर्ताओं के चयन में पहली शर्त यही रखते हैं कि उन्हें गाँवों में कार्य करना होगा। उन्हें लोगों की बोलचाल की भाषा जानना जरूरी है और उन्हें स्थानीय रीति-रिवाज व संस्कृति में घुल-मिल कर कार्य करना होगा। यहाँ समानता का व्यवहार रखकर कार्य किया जाता है।

संस्था में सभी का उठना-बैठना, खाना-पीना एक समान रहता है। समय-समय पर बैठकें आयोजित कर अपनी सफलताओं पर कम परन्तु असफलताओं पर ज्यादा बातचीत करते हैं। बातचीत के आधार पर नये रास्ते तलाश करके उसकी कार्यप्रणाली विकसित करते हैं। नयी पद्धति पर कुछ कार्य कर लेने के बाद पुनः विचार करके उनमें आवश्यक संशोधन करते हैं। इतना लचीलापन राजकीय संस्थाओं में नहीं होता है। हालाँकि उनके पास साधनों एवं सूचनाओं का भण्डार रहता है। ये संस्थाएँ स्वयं लोगों के पास पहुँचकर कार्य करती हैं।

राजकीय एवं स्वयंसेवी संस्थाओं की कार्यशैली के इस अन्तर से ही आज स्वयंसेवी संस्थाओं की साख बढ़ती जा रही है। उनके पास व्यावसायिक नेटवर्किंग है। इन संस्थाओं ने युवाओं के लिए आजीविका के नये मार्ग खोल दिए हैं। उनके साथ इंजीनियर, वकील, प्रबन्धन से जुड़े लोग, स्नातक, तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवा सभी हैं। ये लोग शोध एवं डॉक्युमेण्टेशन को विकास प्रक्रिया में अनिवार्य मानकर कार्य करते हैं।

इस प्रकार स्वयंसेवी संगठन एक तरफ सामाजिक-आर्थिक विकास का कार्य कर रही हैं, वहीं मनोवैज्ञानिक स्तर पर लोगों को अपने अधिकारों के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाती हैं। साथ ही समाज और सरकार के बीच समन्वय भी स्थापित करती हैं। संस्थाओं के कार्यकर्ता भी आज शिक्षित एवं नये सूचना माध्यमों और तकनीक से लैस हैं। इन्हीं कारणों से संस्थाओं की व्यूह-रचना कामयाब रहती है।

प्रभावी संचार तन्त्र


ऐसी अनेक जनोपयोगी योजनाएँ हैं, जिन्हें स्वयंसेवी संस्थाएँ सुचारू रूप से अंजाम देती हैं। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं की लोगों में पैठ एवं प्रभावी संचार प्रणाली का योगदान होता है। संस्थाओं के अधिकांश लोग सेवा भाव से प्रेरित होकर समाजोपयोगी कार्य करते हैं। परिणामस्वरूप ये लोग जनसहयोग और जनसहभागिता के माध्यम से जनसम्पर्क बढ़ाकर गरीब, पिछड़ों एवं जरूरतमन्दों को राहत पहुँचाते हैं। इन संस्थाओं के व्यवहार एवं कार्यप्रणाली में लचीलापन आ जाता है। ये अपनी कार्यप्रणाली एवं नीतियों में समय-समय पर परिवर्तन कर सफलता प्राप्त करते हैं।

पंचायतों द्वारा संचालित विकास कार्यों में योगदान


पंचायतीराज कानून में अन्य व्यवस्थाओं के अलावा एक महत्वपूर्ण प्रावधान किया गया है कि सभी तरह के विकास कार्यक्रम पंचायतों द्वारा निर्धारित, संचालित तथा कार्यान्वित किए जाएँगे। ऐसा प्रावधान संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची के अनुच्छेद 243-जी के अन्तर्गत किया गया है। परन्तु इतने बड़े पैमाने पर कार्य करने का अनुभव शायद ही किसी पंचायत संस्था को है और यही सबसे बड़ी चुनौती भी है। इसका एक कारण यह भी है कि अभी तक सरकारी एजेंसियाँ विकास के कार्य या तो स्वयं करती थीं या ठेकेदारों के माध्यम से करवाती थीं। दूसरी तरफ स्वयंसेवी संस्थाओं को विकास कार्य करने का अनुभव होता है इसलिए वे पंचायतों को अपना सहयोग दे सकती हैं। आज की स्थिति में समय की माँग है कि पंचायत तथा स्वयंसेवी संस्थाएँ एक-दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करें।

पंचायतीराज कानून में अन्य व्यवस्थाओं के अलावा एक महत्वपूर्ण प्रावधान किया गया है कि सभी तरह के विकास कार्यक्रम पंचायतों द्वारा निर्धारित, संचालित तथा कार्यान्वित किए जाएँगे। ऐसा प्रावधान संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची के अनुच्छेद 243-जी के अन्तर्गत किया गया है। परन्तु इतने बड़े पैमाने पर कार्य करने का अनुभव शायद ही किसी पंचायत संस्था को है और यही सबसे बड़ी चुनौती भी है। स्वयंसेवी संस्थाओं को विकास कार्य करने का अनुभव होता है इसलिए वे पंचायतों को अपना सहयोग दे सकती हैं।अब हम यह देखेंगे कि ऐसे कौन-कौन से कार्य हैं जिनमें पंचायतें स्वैच्छिक संस्थाओं का सहयोग ले सकती हैं। इन प्रश्नों के जवाब के लिए सर्वप्रथम स्वैच्छिक संस्थाओं की अनुभव क्षमता को ध्यान में रखना पड़ेगा। सामाजिक क्षेत्र में इन संगठनों का बड़ा महत्व है क्योंकि कितने ही सामाजिक कार्य ऐसे हैं जो सरकार नहीं कर सकती, न ही कानून द्वारा सामाजिक समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। सामाजिक क्षेत्र के अलावा अन्य क्षेत्र भी खुले हुए हैं जो स्वैच्छिक संगठनों का कार्यक्षेत्र बन सकते हैं जैसे- ग्रामीण साक्षरता, परती भूमि विकास, आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग, गैर-पारम्परिक ऊर्जा का विकास, गाँव, घर एवं आसपास की स्वच्छता, सामाजिक वानिकी, भूमि एवं जल परिरक्षण, मूलभूत अधिकारों के प्रति चेतना, टीकाकरण, परिवार नियोजन के प्रति चेतना जागृत करना, गाँवों में योजनाओं का निर्माण व क्रियान्वयन, जनप्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देना, प्राकृतिक आपदाओं जैसे- बाढ़, भूकम्प, तूफान में पुनर्वास की व्यवस्था, विकलाँग— मूक-बधिर एवं नेत्रहीनों का पुनर्वास, सांप्रदायिकता एवं जातीयता को रोकना, महिला विकास, बाल विकास, छुआछूत मिटाना, दहेज प्रथा का विरोध, बाल श्रमिक प्रथा खत्म करना, नशीले एवं मादक पदार्थों का सेवन बन्द करना, बन्धुआ मजदूरी खत्म करना, भ्रामक धारणाएँ खत्म करना आदि।

अब यह विचार किया जाना चाहिए कि वे कौन-कौन से कार्य हैं जिनमें सवयंसेवी संस्थाओं की मदद आवश्यक होगी एवं यह मदद किस प्रकार मिल सकती है। यह निम्न है :

1. जानकारी उपलब्ध कराना : जानकारी को शक्ति माना गया है। जिनके पास ज्यादा जानकारी है, वही अधिक क्षमता और सक्रियता रखता है। इसलिए पंचायतों को भी कई तरह की जानकारियाँ रखनी पड़ेंगी। विकास के कार्यक्रम, सरकार की नीति, धन की उपलब्धता, संसाधन आदि की जानकारियों को स्वयंसेवी संस्थाएँ इकट्ठा कर पंचायतों को बता सकती हैं।

2. गाँव से जिला स्तर की योजना बनाना : पंचायतीराज संस्थाओं में अपने स्तर पर विकास योजनाएँ बनाने का प्रावधान है। यह प्रक्रिया सरल नहीं है। अगर पंचायतों के प्रतिनिधि इन कार्यों को करने में सक्षम नहीं होंगे तो फिर विकास के वांछित लक्ष्य से पीछे छूट जाएँगे। इस कार्य में स्वयंसेवी संस्थाओं के व्यापक अनुभव का लाभ पंचायतों को मिल सकता है।

3. योजनाओं का क्रियान्वयन : अभी तक सरकार विकास कार्य ठेकेदारों के माध्यम से कराती रही है। इसलिए विकास का पैसा ठेकेदारों की जेब में तथा ताम-झाम पर खर्च हो जाता है, जबकि स्वयंसेवी संगठनों की सहभागिता एवं व्यापक अनुभव से ये पंचायतों की मदद कर सकते हैं।

4. मूल्याँकन तथा प्रबोधन : स्वयंसेवी संस्थाएँ समय-समय पर परियोजना के विभिन्न चरणों में कार्य का प्रबन्धन तथा मूल्याँकन करती हैं, ताकि कहीं कुछ ठीक नहीं हो रहा हो तो उसे समय रहते सुधारा जा सके। अतः मूल्याँकन तथा प्रबोधन के कार्यों में भी संस्थाएँ मदद कर सकती हैं।

5. प्रशिक्षण : पंचायतों के ज्यादातर चुने हुए लोग अनुभवहीन एवं अनपढ़ होते हैं, कुछ कम पढ़े-लिखे भी। पंचायत के हर कार्य के लिए प्रशिक्षण देकर उन्हें स्वावलम्बी बनाया जा सकता है। स्वयंसेवी संस्थाओं के पास प्रशिक्षण की कई विधियाँ होती हैं जिससे सभी वर्गों को लाभ मिल सकता है।

6. तकनीकी विशेषता : स्वयंसेवी संगठनों के पास कम खर्चीला तकनीकी ज्ञान एवं विशेषता उपलब्ध होती है। पंचायतें उसे प्राप्त कर सकती हैं। पंचायतों एवं स्वयंसेवी संगठनों को एक-दूसरे के पूरक तथा सहयोगी के रूप में कार्य करना होगा। एक-दूसरे पर विश्वास करना होगा। खुलेपन एवं पारदर्शिता से कार्य करने पर ही सफलता मिलेगी।

संगठनों की विशेषताएँ


विकास में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने में ये संस्थाएँ प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं को ग्रामीण विकास के लिए उत्प्रेरक अभिकर्ता माना जाता है, क्योंकि ये गरीबी उन्मूलन में विविध भूमिकाएँ अदा कर सकते हैं :

1. लाभ न मिल पाने वाले समहों को सामाजिक न्याय दिला सकते हैं। उनमें अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरुकता पैदा कर सकते हैं।
2. ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं में प्रगति को बढ़ावा दे सकते हैं। सरकारी लोगों की अपेक्षा ये संगठन लोगों से अधिक नजदीकी सम्बन्ध स्थापित कर पाते हैं, क्योंकि ये संगठन नियमों/उपनियमों और पद्धतियों से बन्धे हुए नहीं होते हैं।
3. ग्रामीण गरीबों को विकास प्रक्रिया में भागीदारी के लिए संगठित कर सकते हैं।
4. प्रत्येक योजना, उसके उद्देश्य, अपेक्षित लाभ, कार्यप्रणाली आदि के बारे में बेहतर ढंग से समझा सकते हैं।
5. गलत धन-प्रवाह को रोकने एवं भ्रष्टाचार निवारण में सहायक हो सकते हैं। लोगों का परम्परागत कौशल बढ़ाने तथा उनमें प्रबन्धकीय विशेषज्ञता विकसित करने में सहायक हो सकते हैं।
6. राजकीय अधिकारी वर्ग के साथ बैठकर अनेक समस्याओं को बातचीत द्वारा सुलझाने में संगठन कारगर भूमिका निभाते हैं।
7. ये संगठन स्थानीय वित्तीय संसाधन इकट्ठा करके लोगों को आत्मनिर्भर बना सकते हैं।
8. योजनाओं में कुछ लाभार्थी उपभोक्ता बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण का दुरुपयोग करते हैं। स्वैच्छिक संगठन ऐसे लाभार्थियों को ऋण का प्रभावी और उत्तम उपयोग करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

ये संगठन सतत प्रयास, बुद्धि, चातुर्य और नवीन कार्य करके ग्रामीण विकास को नयी दिशा प्रदान कर सकते हैं। ग्रामीण समुदायों को अपने ही विकास में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए संगठित, प्रोत्साहित, जागरूक एवं समर्थ बना सकते हैं।

संगठनों की आर्थिक व्यवस्था


स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या आर्थिक स्तर पर रहती है। राज्य सरकार के कुछ कानून व नीतियाँ भी आर्थिक मदद मिलने में कठिनाइयाँ उत्पन्न करती हैं। कई विकासशील देश जैसे— ब्रिटेन, जापान, अमेरिका, स्वीडन, डेनमार्क, कनाडा आदि स्वयंसेवी संगठनों को धन देते हैं। किन्तु यह धन सरकार की स्वीकृति से और उन्हीं कार्यों के लिए दिया जाता है जो सरकार द्वारा संयोजित किए जाते हैं।

अनेक अन्तरराष्ट्रीय एजेसियाँ हैं जैसे— डब्ल्यूएचओ, यूनेस्को, यूनिसेफ, यूएनडीपी, आईएलओ, आईएमएफ आदि भी स्वैच्छिक संगठनों को आर्थिक सहयोग देते हैं। यह धन सरकार की निगरानी में विभिन्न परियोजनाओं के लिए दिया जाता है। यह अनुदान स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, समाज कल्याण, पर्यावरण, स्त्रियों और बच्चों की शिक्षा, ग्रामीण विकास, विज्ञान और तकनीकी क्षेत्रों में कार्यरत संस्थाओं को दिया जाता है। अब सरकार की नीतियाँ स्वयंसेवी संस्थाओं को बढ़ावा देने वाली बन गई हैं। केन्द्र में मानव संसाधन मन्त्रालय और स्थानीय स्तर पर जिला ग्रामीण विकास अभिकरण, जिला परिषद इत्यादि आर्थिक सहयोग करती हैं।

फर्जी स्वयंसेवी संस्थाओं से सतर्कता


यह भी एक सच्चाई है कि स्वयंसेवी संस्थाओं के नाम पर कई लोग अपनी दुकानें चलाते हैं जिन्हें न तो किसी कार्य का अनुभव होता है और न ही उन पर विश्वास किया जा सकता है। इसलिए पंचायतों को ऐसी फर्जी संस्थाओं से सतर्क रहना पड़ेगा। एक बड़ी समस्या यह है कि बहुत से लोग गैर-सरकारी संगठन का मुखौटा लगाकर सरकारी सहायता को हड़पने के उद्देश्य से स्वयंसेवी संस्थाएँ चला रहे हैं। ग्रामीण विकास या सामाजिक विकास उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है। ऐसी संस्थाओं से सावधान रहना जरूरी है।

स्वयंसेवी संगठन ग्रामीण विकास हेतु विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे संगठनों में निःस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले व्यक्तियों का होना आवश्यक है। यदि स्वयंसेवी संस्थाएँ अपनी ही क्षमताओं व संसाधनों के बलबूते पर डटी रहती हैं तो उनकी साख बनती है और उन्हें जनसहयोग मिलता है। यदि ग्रामीण युवा मिलकर स्वयंसेवी संगठन बनाएँ तो वे अपनी रोजगार की समस्या का हल कर सकते हैं। ये संस्थाएँ छोटी हों या बड़ी, यदि वे गाँव के लोगों को एक सूत्र में बाँधने का काम करती हैं, तो सरकार एवं समाज को भी उनके प्रयासों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

(लेखक उदयपुर स्थित स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : pmdevpura@gmail.com

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