विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का उद्देश्य गरीबी दूर करना है। इसके लिए कोष को अधिक से अधिक बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं है। बेहतर परिणामों के लिए बुनियादी स्तर पर कुछ परिवर्तन लाना आवश्यक है। इस पूरी प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उन लोगों की पहचान करना जिन्हें इन कार्यक्रमों से लाभ पहुँचाया जाना है।
भारत ग्राम-प्रधान देश है और ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के बिना राष्ट्रीय विकास सम्भव नहीं है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व भी हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक नेताओं की यही मान्यता थी। वास्तव में स्वतन्त्रता संग्राम का एक आधार यह भी था कि ब्रिटिश राज के दौरान ग्रामीण भारत की अनदेखी की जा रही थी। महात्मा गाँधी ने तो ‘ग्राम-स्वराज’ को ही स्वतन्त्र भारत के आर्थिक विकास के केन्द्र-बिन्दु के रूप में देखा।आज देश को स्वतन्त्र हुए पचास वर्ष हो चुके हैं और महात्मा गाँधी का ग्रामीण विकास का आह्वान आज भी बरकरार है। तेजी से हो रहे शहरीकरण के बावजूद हमारी जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आज भी गाँवों में रह रहा है। प्रतिशत के हिसाब से हो सकता है ग्रामीण जनसंख्या में कुछ कमी आई हो लेकिन आर्थिक विकास के कार्यक्रमों के लिए ग्रामीणों की कुल संख्या अब भी काफी है।
ऐसा नहीं है कि विकास कार्यक्रमों में कोई प्रगति नहीं हुई है लेकिन उनकी गति और उपलब्धियाँ वाँछित स्तर की नहीं है। ग्रामीण विकास को हमेशा कृषि विकास के साथ जोड़ा गया और यह मान लिया गया कि कृषि उत्पादन में वृद्धि के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में समृद्धि आ जाएगी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के एक दशक बाद वैचारिक परिवर्तन हुआ। ‘अधिक अन्न उपजाओ’ जाँच समिति ने केवल कृषि या कृषि से जुड़ी अन्य गतिविधियों जैसे पशुपालन आदि को ही नहीं अपितु इसके साथ-साथ ग्रामीणों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक-आर्थिक जरूरतों के समन्वित कार्यक्रम को भी बढ़ावा दिया।
सामुदायिक विकास
सामुदायिक विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय विस्तार योजना इसी सिफारिश के तहत शुरू किए गए। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत 100 से 120 गाँवों का एक ब्लॉक योजना और समन्वित ग्राम विकास की मूल इकाई बना दिया गया। इसमें कृषि और इससे जुड़ी अन्य गतिविधियाँ, शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज-कल्याण, संचार, अनुपूरक रोजगार आदि भी शामिल किए गए और स्वावलम्बन तथा आम आदमी की भागीदारी पर विशेष बल दिया गया। यह कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी ब्लॉक विकास अधिकारी की है। उसकी मदद के लिए अलग-अलग विभागों के तकनीकी अधिकारी और ग्राम सेवक-सेविकाएँ होते हैं। इस कार्यक्रम के तहत राज्य और जिला स्तर पर भी संगठन बनाए गए।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था ग्रामीण क्षेत्रों के संसाधनों और मानव संसाधनों का भरपूर विकास करना तथा स्थानीय नेतृत्व और स्वशासित संस्थान विकसित करना ताकि ग्रामीण लोग अपने बलबूते पर अपना जीवन-स्तर ऊँचा कर सकें। इस कार्यक्रम की शुरुआत अच्छी रही। इसके परिणामस्वरूप देश के सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र के लिए एक व्यावहारिक ढाँचागत बुनियाद तैयार हो गई। जैसा कि अन्य कार्यक्रमों के साथ भी होता है, इस कार्यक्रम की सफलता का पैमाना हर राज्य में अलग-अलग रहा। इस कार्यक्रम की शुरुआत के सत्रह बरस बाद 1969 में केन्द्र सरकार ने इस कार्यक्रम की जिम्मेदारी राज्यों को सौंपने का फैसला किया और इसी के साथ शुरू हुआ इसका पतन और धीरे-धीरे मौत।
इसके लिए जिम्मेदार तथ्यों में एक यह भी था कि ग्रामीण विकास के समन्वित कार्यों में धीरे-धीरे ढिलाई आती गई। ग्रामीण उद्योगों से जुड़े सभी कार्य खादी और ग्रामोद्योग आयोग (के.वी.आई.सी.) को दे दिए गए और खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता की बढ़ती जरूरत को देखते हुए सारा ध्यान कृषि- उत्पादन बढ़ाने पर ही लगा दिया गया और अन्य गतिविधियों की अनदेखी हुई। परिणामस्वरूप 1960 में कुछ चुने हुए जिलों में सघन कृषि विकास कार्यक्रम (आई.ए.डी.पी.) शुरू किया गया और इसके बाद 1965 में सघन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (आई.ए.ए.पी.) और अधिक उपज किस्म कार्यक्रम (एच.वाई.वी.पी.) शुरू किया गया।
जैसा कि 1985 में जी.वी.के. राव समिति की रिपोर्ट में भी कहा गया, इन नए कार्यक्रमों की वजह से सामुदायिक विकास कार्यक्रम की पकड़ ढीली पड़ती गई और बजट में कमी आने के साथ-साथ यह पूरी तरह छिन्न-भिन्न होने लगा। दूसरे, हरित-क्रान्ति का सबसे ज्यादा फायदा बड़े किसानों और उन क्षेत्रों को हुआ जिन्हें उपज बढ़ाने वाली किस्मों की तकनीक उपलब्ध हो सकी। ग्रामीण जनसंख्या का बड़ा हिस्सा जो गरीब था, उसे इसका लाभ नहीं मिल सका और ग्रामीण विकास का मूल उद्देश्य अधूरा ही रह गया।
नई योजनाएँ
1970 के दशक के शुरू में सरकार के स्तर पर यह महसूस कर लिया गया था कि ग्रामीण विकास कार्यक्रम का उद्देश्य केवल कृषि उत्पादन बढ़ाना नहीं होना चाहिए बल्कि ग्रामीण लोगों की अन्य सामाजिक- आर्थिक जरूरतों पर ध्यान देना भी जरूरी है लेकिन सामुदायिक विकास कार्यक्रम फिर से शुरू करने के बजाय नई योजनाएँ शुरू कर दी गई। इनमें यूनिसेफ की मदद से ‘व्यावहारिक पोषण कार्यक्रम’ शुरू किया गया जिसका उद्देश्य कुछ चुने हुए विकास खंडों में ग्रामीणों के पोषण-स्तर को सुधारना और स्वास्थ्य-सम्बन्धी देखभाल, टीकाकरण, पेयजल और स्वच्छ पर्यावरण सुनिश्चित करना था। इसके अलावा ग्रामीण रोजगार क्रैश योजना (सी.एस.आर.ई.), पायलट सघन ग्रामीण रोजगार योजना (पी.आई.आर.ई.पी.) और ‘काम के बदले अनाज’ कार्यक्रम शुरू किए गए जिनका उद्देश्य रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना था। सूखे की आशंका वाले क्षेत्रों का विकास कार्यक्रम (डी.पी.ए.पी.) और रेगिस्तान विकास कार्यक्रम (डी.डी.पी.) भी शुरू किए गए जिनका उद्देश्य पारिस्थितिकी असन्तुलन दूर करना था।
इनके अलावा जनजातीय क्षेत्रों और पहाड़ी इलाकों के लिए विशेष कार्यक्रम बनाए गए। यही नहीं, राष्ट्रीय कृषि आयोग की सिफारिश पर कुछ राज्यों में ‘सम्पूर्ण ग्रामविकास योजना’ शुरू की गई। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण विकास कार्यक्रम के जरिए आय सम्बन्धी असमानता दूर करने का सामाजिक उद्देश्य हासिल करना और ग्रामीण समुदायों में रोजगार के अवसर बढ़ाना था। इस प्रकार 1952 में शुरू हुए सामुदायिक विकास कार्यक्रम और 1975 में शुरू हुए सम्पूर्ण ग्राम विकास कार्यक्रम के बाद एक बार फिर यह महसूस किया गया कि ग्रामीण विकास का वांछित लक्ष्य एक समन्वित कार्यक्रम के जरिए ही हासिल किया जा सकता है।
समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आई.आर.डी.पी.)
समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम के बारे में यह दावा किया गया कि यह एक नया कार्यक्रम है लेकिन ग्रामीण विकास से जुड़े लोगों ने महसूस किया कि धारणा की दृष्टि से यह 1950 के दशक में शुरू किए गए सामुदायिक विकास कार्यक्रम से भिन्न नहीं था। लेकिन समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम शुरू होने पर पहले से चल रही योजनाएँ बंद नहीं की गईं। ये सभी जारी रहीं और कुछ अन्य भी इनसे जुड़ गईं। ‘काम के बदले भोजन’ कार्यक्रम पुनः परिभाषित किया गया और इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (एन.आर.ई.पी.) और ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम के तहत पुनर्गठित करके शुरू किया गया। इसका उद्देश्य प्रत्येक ग्रामीण भूमिहीन परिवार के एक सदस्य को कम से कम सौ दिन का रोजगार उपलब्ध कराना तथा ‘ट्राइसेम’ के तहत ग्रामीण युवाओं को उत्पाद-कुशलता सिखाना था।
साथ ही ग्रामीण विकास का कार्य कृषि मन्त्रालय से हटा लिया गया और 1979 में ग्रामीण पुनर्निर्माण नाम का अलग मन्त्रालय बनाया गया। इस तरह तत्कालीन सरकार की ग्रामीण क्षेत्र के विकास की प्राथमिकताएँ सामने आईं। मन्त्रालय को नया रूप देने और उसके कार्यों को व्यापक आधार प्रदान करने से एक बार फिर यह तथ्य सामने आया कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष सुधार सुनिश्चित करने के लिए विशुद्ध कृषि-उन्मुख नीति पर्याप्त नहीं है।
राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद द्वारा 1975-76 में विभिन्न परिवारों की आय के बारे में किए गए अध्ययन से उपरोक्त विचार को और बल मिला। इस अध्ययन में बताया गया था कि हरित क्रांति के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र शहरी क्षेत्र की तुलना में निर्धन ही बना रहा। इस अध्ययन से यह बात भ्रामक साबित हुई कि हरित क्रांति से ग्रामीण क्षेत्रों में अमीरी आई क्योंकि मात्र 4.95 प्रतिशत ग्रामीण परिवार ऐसे थे जिनकी वार्षिक आय 10,000 रुपये या इससे अधिक थी और मात्र 0.2 प्रतिशत परिवारों की आय 30,000 रुपये या इससे अधिक थी जबकि शहरी क्षेत्रों में 17.6 प्रतिशत परिवारों की वार्षिक आय 10,000 रुपये या इससे अधिक और 1.5 प्रतिशत परिवारों की वार्षिक आय 30,000 रुपये या इससे अधिक थी।
इस पृष्ठभूमि के साथ नए मन्त्रालय ने अपनी गतिविधियों के विस्तार की मांग करते हुए ग्रामीण उद्योगों, ग्रामीण विद्युतीकरण, ग्रामीण सड़क, ग्रामीण ऋण आदि को भी अपने कार्यक्षेत्र में शामिल कराने का प्रयास किया किन्तु अंततः उसे ग्रामीण जलापूर्ति, ग्रामीण सड़कों, ग्राम और कुटीर उद्योगों और ग्रामीण क्षेत्र से सम्बद्ध कस्बों तथा गाँवों की आयोजना का ही दायित्व दिया गया। ग्रामीण स्वास्थ्य, ग्रामीण विद्युतीकरण आदि के सन्दर्भ में मन्त्रालय को आंशिक दायित्व सौंपा गया।
छह वर्ष बाद 1985 में ग्रामीण विकास और गरीबी उन्मुलन सम्बन्धी प्रशासनिक प्रबंधों की समीक्षा के लिए जी.वी.के. राव समिति की स्थापना की गई। समिति ने पाया कि जिला ग्रामीण विकास एजेंसियों के गठन और एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के तहत विकासखंडों को मजबूत बनाने से अपेक्षित एकीकरण नहीं हो सका, यानि जिला या खंड स्तर पर पूरी तरह समन्वय स्थापित नहीं हुआ और अनेक उदाहरण ऐसे मिले जहाँ अलग-अलग एजेंसियों द्वारा समान लक्ष्य-समूह अथवा समान भौगोलिक क्षेत्र के लिए योजनाओं की शृंखला तैयार की गई और उन्हें लागू किया गया तथा ऐसा करते समय उनमें किसी तरह का समन्वय नहीं रखा गया। कई एशियाई देश ऐसे हैं जिनमें भारत के मुकाबले विकास की क्षमता और वैज्ञानिक विशेषज्ञता कम रही है और वे सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टि से भी कम सुधारवादी रहे हैं किन्तु उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों से भूख और गरीबी को बड़े पैमाने पर समाप्त कर दिया है, जबकि भारत के अधिकतर हिस्सों में ये चिरकालिक समस्याएँ आज भी बनी हुई हैं।
सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है लोगों में उनके कल्याण के लिए चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में जागरुकता पैदा करना। इस दिशा में स्वयंसेवी एजेंसियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। गैर-सरकारी संगठनों की सक्रिय भागीदारी से ग्रामीण विकास में सफलता की कई मिसालें कायम हुई हैं। इन सफलताओं को कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित न रखकर उनका व्यापक विस्तार किए जाने की आवश्यकता है।
विशेषज्ञों ने इसके कई कारण बताए हैं। इनमें से एक कारण यह है कि सामुदायिक विकास की अवधारणा कई कार्यक्रमों में विखंडित रही है जो एकीकृत ग्रामीण विकास के दायरे में स्वतः उपयुक्त नहीं हैं। इसका एक और कारण यह रहा कि कई राज्यों में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम लागू करने के लिए सुदृढ़ प्रशासनिक तंत्र का अभाव रहा। यह भी महसूस किया गया कि गाँव के गरीबों को परिसम्पत्तियाँ देने भर से ग्रामीण निर्धनता को समाप्त नहीं किया जा सकता। एक अन्य विचार यह भी व्यक्त किया गया कि आयोजना की कमजोरी एक गम्भीर खामी रही।सातवीं पचवर्षीय योजना के दस्तावेज में कार्यक्रमों की अधिकता और संगठनात्मक संरचनाओं की विविधता का विशेष रूप से उल्लेख किया गया और समूचे ढाँचे की समीक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया गया ताकि योजनाओं को सरल एवं युक्तिसंगत बनाया जा सके, उनमें आवृत्ति कम की जा सके तथा स्थानीय स्तर पर समानान्तर समन्वय सुनिश्चित किया जा सके।
नए सिरे से विचार की आवश्यकता
जी.वी.के. राव समिति ने यह भी सुझाव दिया कि ग्रामीण विकास के समूचे परिदृश्य पर नए सिरे से विचार किया जाए और इसमें विभिन्न एजेंसियों द्वारा क्षेत्र स्तर पर चलाई जा रही सभी प्रकार की आर्थिक और सामाजिक विकास सम्बन्धी गतिविधियों को शामिल किया जाए। समिति के विचार में सरकारी तंत्र अकेले सफलता हासिल नहीं कर सकता, अतः स्थानीय प्रयासों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में समिति ने पंचायती राज संस्थानों को सक्रिय बनाने की सिफारिश की और सुझाव दिया कि नीति-निर्धारण एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन के लिए जिले को मूलभूत इकाई समझा जाए। समिति ने ग्रामीण विकास की देखरेख के लिए राज्य स्तर पर मुख्य सचिव के समकक्ष एक वरिष्ठ अधिकारी की विकास आयुक्त के रूप में नियुक्ति का सुझाव दिया तथा जिला बजट एवं जिला योजना की अवधारणा प्रस्तुत की। इस समिति की रिपोर्ट पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया।
किन्तु ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की आयोजना और उनके कार्यान्वयन में समुदाय की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पंचायती राज संस्थानों को मजबूत बनाने की दिशा में किए गए ठोस उपाय अंतिम दशक के प्रारम्भ में सामने आए। संविधान में संशोधन के जरिए पंचायतों के नियमित चुनाव कराने, उन्हें धन उपलब्ध कराने और उनमें महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के उपाय किये गये। साथ ही जिला ग्रामीण विकास एजेंसियों के माध्यम से लागू कराने के लिए पंचायती राज संस्थानों को विकास गतिविधियों की व्यापक सूची सौंपी गई।
इन सभी प्रयासों के लिए अधिक धन दिया गया और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की दिशा में इनका अनुकूल असर पड़ा। ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, दूरसंचार, बिजली आदि मूलभूत सुविधाओं की स्थिति में सुधार आया और साथ ही पेयजल आपूर्ति तथा सफाई सुविधाओं में बढ़ोत्तरी हुई। किन्तु सभी राज्यों में समान उपलब्धियाँ हासिल नहीं हुई। आर्थिक उदारीकरण की नई नीति के सन्दर्भ में हुए संरचनागत समायोजन से यह भ्रांति पैदा हुई कि सामाजिक क्षेत्र में राज्य की भूमिका कम हो जाएगी। भारत सरकार ने शीघ्र ही इस आशंका का निराकरण करते हुए स्पष्ट शब्दों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई और इसके लिए धन आवंटन में बढ़ोत्तरी की।
ग्रामीण पुनर्निर्माण मन्त्रालय का नाम बदलकर ‘ग्रामीण क्षेत्र और रोजगार मन्त्रालय’ कर दिया गया और इसके तहत तीन विभाग रखे गए। ये थे: ग्रामीण रोजगार और गरीबी उन्मूलन विभाग, ग्रामीण विकास विभाग और बंजर भूमि विकास विभाग। इनमें से पहले विभाग को अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से दिहाड़ी रोजगार में वृद्धि, बुनियादी ढाँचे के विकास, स्वरोजगार और उद्यमशीलता-विकास का दायित्व सौंपा गया। साथ ही सूखे की आशंका वाले क्षेत्रों के लिए विशेष कार्यक्रम और मरुभूमि विकास कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी भी इसी विभाग को सौंपी गई।
ग्रामीण विकास विभाग को राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई जिसके तहत राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेन्शन योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना और राष्ट्रीय प्रसूति लाभ, ग्रामीण जलापूर्ति और सफाई योजना, भूमि सुधार, पंचायती राज, कृषि विपणन, ग्रामीण प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन देना जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। तीसरे विभाग को बंजर भूमि विकास को बढ़ावा देने का दायित्व सौंपा गया।
उपरोक्त बातों का ध्यान रखकर मन्त्रालय का पुनर्गठन किए जाने से इस विश्वास को बल मिला कि ग्रामीण विकास को सर्वव्यापक बनाने के लिए दृष्टिकोण सामंजस्यपूर्ण होना चाहिए, न कि मात्र कृषि-उन्मुख। निश्चय ही बड़ी संख्या में योजनाएँ होनी चाहिए किन्तु उपलब्ध मानवीय एवं वित्तीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए कार्यक्रमों का लाभ निचले स्तर तक पहुँचना आवश्यक है।
एक उपयोगी कार्यशाला
विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की गहराई से समीक्षा के लिए अगस्त 1996 में परियोजना निदेशकों की एक कार्यशाला आयोजित की गई जिसमें कार्यान्वयन की शृंखला के कमजोर सम्पर्कों को उजागर किया गया। ग्रामीण क्षेत्र और रोजगार मन्त्री श्री के. येरन्नायडु के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की गति को तेज करने के लिए अधिक धन आवंटित करना ही पर्याप्त नहीं है। बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए कुछ मूलभूत संरचनात्मक परिवर्तनों की भी आवश्यकता है। समूचे कार्यक्रम में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य जरूरतमंद व्यक्ति की सही पहचान करना है। हालाँकि चयन प्रक्रिया ग्राम-सभा को सौंपी गई है, फिर भी अक्सर यह पाया गया है कि लाभार्थियों की सूची में कुछ अवांछित नाम शामिल हो जाते हैं। स्थानीय अधिकारियों से कहा गया है कि वे सतर्क रहें और किसी प्रकार के दबाव के सामने न झुकें।
दूसरे यह महसूस किया गया कि यथासम्भव योजना का चयन लाभार्थी की मर्जी पर छोड़ दिया जाना चाहिए। योजना को मंजूरी देने से पहले बाजार से सम्पर्क जोड़ने पर विचार करना चाहिए तथा योजना मंजूरी और उसके कार्यान्वयन के बीच की अवधि कम से कम होनी चाहिए। बैंकरों के साथ प्रत्येक स्तर पर अधिक समन्वय रखने की आवश्यकता महसूस की गई है।
कार्यशाला से एक और तथ्य यह उजागर हुआ कि लोगों की भागीदारी अपेक्षित स्तर की नहीं रही है और ‘ट्राइसेम’ तथा अन्य कार्यक्रमों के बीच सम्पर्क मजबूत बनाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के लाभार्थियों में से मात्र 3.8 प्रतिशत को ट्राइसेम प्रशिक्षण दिया गया और उनमें से केवल 47.2 प्रतिशत सफल रहे। इसका मतलब यह हुआ कि एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के संदर्भ में ट्राइसेम का योगदान मात्र दो प्रतिशत रहा। गरीबों को विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण देने के लिए प्रत्येक खंड में मिनी-औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान खोलने का प्रस्ताव स्वागत योग्य कदम है।
कार्यशाला के दौरान खंड स्तर और ग्राम स्तर पर प्रशासनिक तंत्र की खामियों को सामने लाया गया। अधिकतर राज्यों में यह पाया गया कि पंचायती राज संस्थानों के द्वितीय स्तर, यानि खंड स्तर के संस्थान भली-भाँति काम नहीं कर रहे हैं। यहाँ तक कि सभी राज्यों में जिला पंचायतें भी पूरी तरह सक्रिय नहीं हैं। यह महसूस किया गया कि अधिकतर विभागों के स्वयं के ग्राम-स्तरीय कार्यकर्ता हैं। अतः उन सभी को एक समान संवर्ग में रखकर पंचायती राज संस्थानों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाए।
इन सभी कार्यक्रमों का अंतिम उद्देश्य गरीबी दूर करना है जिसका मूल्यांकन गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे लोगों की संख्या के अनुसार किया जाता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 1987-88 के पंचवर्षीय उपभोक्ता खर्च सर्वेक्षण के अनुसार 20 करोड़ 14 लाख लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे थे जो कुल आबादी का 25.49 प्रतिशत था। इनमें से 16 करोड़ 82 लाख लोग ग्रामीण क्षेत्रों में थे, जो कुल ग्रामीण आबादी का 28.37 प्रतिशत था। गरीबी की रेखा से नीचे उन लोगों को समझा जाता है जिनकी वार्षिक आय 11,000 रुपये से कम होती है। मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी को देखते हुए आय की इस सीमा में संशोधन की मांग भी की जा रही है। अगर ऐसा किया गया तो गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या और भी अधिक होगी।
वास्तव में विभिन्न एजेंसियों द्वारा गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे लोगों की संख्या के बारे में अलग-अलग अनुमान व्यक्त किए गए हैं। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि नौवीं पंचवर्षीय योजना शुरू करने से पहले गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे लोगों के बारे में नया सर्वेक्षण कराया जाए। परियोजना निदेशकों की कार्यशाला में भी यही सुझाव दिया गया। इससे गरीबी की समस्या की सही तस्वीर सामने आ सकेगी और विभिन्न गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की व्यावहारिक नया रूप देने में मदद मिलेगी।
इस बात का विशेष महत्व है क्योंकि नौवीं पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के लिए आठवीं योजना के मुकाबले दुगुना धन खर्च करने का प्रस्ताव किया गया है। आठवीं योजना में इसके लिए 30,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गए थे, जिसे नौवीं योजना में 60,000 करोड़ रुपये करने का प्रस्ताव है। वर्तमान सरकार ने सन 2005 तक गरीबी समाप्त करने का संकल्प व्यक्त किया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों को नया रूप देना होगा। इस संदर्भ में प्रशासनिक तंत्र को पुनर्गठित करने की आवश्यकता की अनदेखी नहीं की जा सकती और इसके लिए जी.वी.के. राव समिति की सिफारिशों पर विचार किया जाना चाहिए। समिति ने अन्य बातों के अलावा जिला विकास आयुक्त का पद बनाने का सुझाव दिया है जिसका दर्जा जिला कलेक्टर से बड़ा होगा। समिति ने राज्य स्तर पर मुख्य सचिव के समकक्ष एक विकास आयुक्त की नियुक्ति का सुझाव भी दिया है जिसके नीचे ग्रामीण विकास से सम्बद्ध सभी विभागों को रखा जा सके।
सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है लोगों में उनके कल्याण के लिए चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में जागरुकता पैदा करना। इस दिशा में स्वयंसेवी एजेंसियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। गैर-सरकारी संगठनों की सक्रिय भागीदारी से ग्रामीण विकास में सफलता की कई मिसालें कायम हुई हैं। इन सफलताओं को कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित न रखकर उनका व्यापक विस्तार किए जाने की आवश्यकता है।
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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