ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों में जल संरक्षण एवं प्रबन्धन की विधियाँ

बढ़ती जनसंख्या ने कई प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है जिनमें एक प्रमुख समस्या जल प्राप्ति की भी है। वर्तमान समय में जल प्राप्ति की समस्या किसी एक क्षेत्र विशेष में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में है और वह दिन दूर नहीं जब जल के लिये ही विश्व युद्ध छिड़ जाए। अतः आवश्यकता है क्षेत्र विशेष की भौगोलिक, जलवायुगत् तथा वहाँ प्राप्त होने वाले जल संसाधनों की प्राप्ति के अनुसार जल के संरक्षण एवं प्रबन्धन की।

पर्वतीय क्षेत्रों में जल का मुख्य स्रोत प्राकृतिक स्रोत व वर्षा आधारित जल है। यह कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों के लिये भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है। उत्तराखण्ड के अधिकांश क्षेत्रों में पेयजल एवं सिंचन जल की अत्यन्त कमी है, जहाँ सकल सिंचित क्षेत्र विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 10 प्रतिशत है। जल संरक्षण एवं जल सम्वर्धन की आवश्यकता तथा इसकी विधियों को अपनाने के लिये जलागम कार्यक्रमों का अत्यधिक महत्व है। यह सर्वविदित है कि पिछले कुछ समय से पर्यावरण में हुए विपरीत परिवर्तनों से प्राकृतिक जल स्रोत या तो सूख रहे हैं अथवा उनके महत्व में काफी कमी आ गई है। इस प्रकार उत्तराखण्ड में जल की उपलब्धता एवं संरक्षण का महत्व निर्विवाद रूप से सर्वोपरि है।

प्रदेश में जल की आवश्यकता कुल वर्षण के 3.86 प्रतिशत भाग संरक्षित कर लिये जाने से पूर्ण हो जाएगी। उत्तराखण्ड में प्रत्येक गाँव अपनी जल माँग की पूर्ति स्वयं कर सकता है। औसतन जल की माँग की पूर्ति रेनवाटर हार्वेस्टिंग द्वारा आवश्यक जमीन के क्षेत्रफल 1.26 हेक्टेयर प्रति गाँव से हो सकती है। अतः कृषि विभाग द्वारा संचालित जलागम कार्यक्रमों में जन सहभागिता के माध्यम से जल संरक्षण की विभिन्न विधियों को अपनाकर प्रत्येक ग्राम या जलागम क्षेत्र स्वतः अपनी माँग की पूर्ति कर सकता है।

जल संरक्षण एवं प्रबन्धन की विधियाँ


जल संरक्षण एवं प्रबन्धन की अनेक महत्वपूर्ण विधियाँ हैं। जिन्हें कुछ उपयोगी महत्वपूर्ण वानस्पतिक तथा अभियान्त्रिकी विधियों के माध्यम से आवश्यकता के अनुरूप प्रत्येक सूक्ष्म जलागम क्षेत्र/ग्राम में अपनाया जा सकता है, जो कि निम्न प्रकार से हैं-

जीवित कन्टूर मेड़ों का निर्माण - भूमि पर समान ऊँचाई के विभिन्न बिन्दुओं को आपस में जोड़ने वाली रेखाओं पर यदि मेड़ों का निर्माण कर उसमें स्थानीय प्रजाति की घास व झाड़ियों का रोपण किया जाए तो पानी की अधिकतम मात्रा को मिट्टी में संरक्षित किया जा सकता है, जिससे मिट्टी में नमी व उर्वरकता में वृद्धि हो सकती है।

चाल-खाल का संरक्षण व निर्माण - पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ ढाल टूट कर एक मैदान सा निर्मित करती है, चाल-खाल का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें वर्षा काल का एकत्रित जल जानवरों को पिलाने व सिंचाई आदि के लिए उपयोग किया जाता है। पुरानी चाल-खाल को मलबा, घास आदि की सफाई द्वारा पुनर्जीवित किया जा सकता है व नए स्थानों को चिन्हित कर चाल-खाल के निर्माण द्वारा जल संरक्षण किया जा सकता है।

नौले व धारे का संरक्षण और निर्माण - ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल का अधिकांश भाग नौले, धारे से ही प्राप्त होता रहा है। वर्तमान में कला और तकनीकी के ये अभूतपूर्व पारम्परिक निर्माण जन अवहेलनाओं के कारण नष्ट अथवा दूषित हो रहे हैं। इनकी साफ-सफाई व संरक्षण के द्वारा अपनी जल आवश्यकताओं का एक बड़ा हिस्सा पुनर्जीवित कर सकते हैं। अपने क्षेत्रों में निरन्तर जल रिसाव वाले स्थानों को चिन्हित कर नए नौले व धारों का निर्माण भी किया जा सकता है।

इनको रिचार्ज पिट, कच्चे तालाब, कन्टूर ट्रेन्च तथा चौड़ी पत्तियों वाले वानस्पतिक आच्छादन से पुनः आवेशित किया जा सकता है।

रिचार्ज पिट - नौला में जल वृद्धि हेतु नौला के जल ग्रहण क्षेत्र में 1×1×1 मीटर साइज की रिचार्ज पिट खोदे जाते हैं। पिट खोदने के बाद सर्वप्रथम पिट में 30-40 मि.मी. साइज के पत्थर के टुकड़े 25 सेमी. ऊँचाई तक भरे जाते हैं। उसके बाद 25 सेमी ऊँचाई तक बालू भरा जाता है तत्पश्चात 50 सेमी. ऊँचाई तक 100-150 मि.मी. साइज के पत्थर भरे जाते हैं। इस प्रकार रिचार्ज पिट तैयार किया जाता है।

भूमिगत जल को पुनः आवेशित करना - हमारी पेयजल आवश्यकताओं का बहुत बड़ा हिस्सा हमें भूजल से ही प्राप्त हो रहा है। शहरी क्षेत्रों में तो 80-90 प्रतिशत जल आवश्यकताओं की पूर्ति भूमिगत जल से की जा रही है। अनियमित व अनियन्त्रित भूमिगत जल दोहन के फलस्वरूप जल स्तर लगभग एक मीटर प्रतिवर्ष की दर से गिरता जा रहा है। यदि वर्षा जल को छोटे-छोटे गड्ढों में एकत्रित होने दें तो वह रिसाव द्वारा भूजल स्तर की वृद्धि में सहायक होगा। भवन की छतों में पड़ने वाले वर्षाजल को पतनालों से एकत्रित कर आसपास के खाली स्थानों पर कच्चे गड्ढे बनाकर एकत्रित किया जा सकता है।

समोच्य रेखीय खन्तियाँ एवं फर्रो का निर्माण- साधारणतया पर्वतीय क्षेत्रों में अकृषि भूमि में वृक्षारोपण के लिये समोच्च रेखाओं के साथ-साथ खन्तियाँ खोदी जाती हैं, जिससे खन्तियाँ ढलान पर अपवाह के प्रवाह को कम कर देती हैं तथा जल के अधिकतर भाग का गहरी मृदा की परतों में निःस्सरण का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

इस प्रकार उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वैज्ञानिक संस्तुतियों के आधार पर मुख्यतया 0.30 मीटर गहरी व चौड़ी तथा 3 मीटर लम्बाई की खन्तियाँ इस प्रयोजन के लिए बनाई जाती हैं, कम ढलान वाले क्षेत्रों में उक्त आकार के अलावा 0.50 मीटर गहरी व चौड़ी तथा 3 मीटर लम्बाई की खन्तियाँ भी उपयोगी होंगी। इस प्रकार यह तकनीकी सभी प्रकार की जल संरक्षण संरचनाओं में अपवाह को रोकने तथा उसके फलस्वरूप पुनः आवेशन हेतु बहुत प्रभावशाली है।

वानस्पतिक बंधियाँ – बाँध जल संरक्षण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण उपचार है लेकिन इसके अधिक निर्माण लागत एवं समय-समय पर मरम्मत की आवश्यकता को देखते हुए समोच्य रेखीय-स्थाई पट्टी में घनी उगाई गई घासें वानस्पतिक बाँधों (बन्धियों) के रूप में तुलनात्मक अधिक उपयोगी साबित होती हैं। ये अपवाह में कमी के साथ-ही-साथ नमी बनाए रखने में उपयोगी सिद्ध होती हैं।

पर्वतीय क्षेत्रों में मुख्यतया नैपियर, गुनियाँ, भाबर, मूंज घासें आदि इस पद्धति में उपयोगी पाई गई हैं।

कच्चे तालाब निर्माण - कृषि क्षेत्रों में अपवाहित जल का भण्डार करने के लिये या तो भूमि बन्धनों द्वारा या तालाब खोदकर वर्षाजल संचय एक प्रभावशाली तकनीकी है। चूँकि तालाबों में जल काफी समय तक उपलब्ध रहता है, जिसके कारण तालाब उल्लेखनीय मात्रा में भूमिगत जल को पुनः आवेशन हेतु जल उपलब्ध कराते हैं। हमें अपने क्षेत्रों में ऐसे स्थान चिन्ह्ति कर जहाँ पर मिट्टी चिकनी हो, तालाबों का निर्माण प्रोत्साहित करना चाहिए। 5×5×3×1×5 मीटर कच्चे तालाब के द्वारा लगभग 20-22 हजार लीटर वर्षाजल का संग्रहण किया जा सकता है।

रुफ टाप वाटर हार्वेस्टिंग टैंक -वर्षा जल को संग्रह करने हेतु छत के पानी को एक टैंक बनाकर भी एकत्रित किया जा सकता है। इसका उपयोग किचन, गार्डन तथा अन्य घरेलू उपयोग में भी किया जा सकता है। यह एक बहुत ही प्रभावशाली और सस्ती तकनीकी है जिससे प्रत्यक्ष लाभों के साथ-साथ भूमिगत जलस्तर में बढ़ोतरी जैसे अपरोक्ष लाभ लिये जा सकते हैं।

पालीथीन टैंक - वर्षाजल एकत्रित करने का एक स्रोत पालीथीन टैंक भी है। थोड़े से तश्तरीनुमा ढाल वाले स्थान पर 5×4×15 मीटर में 1.15 के ढाल पर खुदाई के उपरान्त इसके अन्दर की दीवारों पर तल पर एक पॉलीथिन शीट बिछाने पर इसमें लगभग 16 हजार लीटर जल का संरक्षण किया जा सकता है। टैंक के ऊपरी हिस्से की पॉलीथिन को ईंट अथवा पत्थर की चिनाई द्वारा दबा देना चाहिए।

समोच्य रेखीय खेती - सामान्यतया पर्वतीय क्षेत्रों के ऊपर से नीचे ढाल के साथ आसान जुताई एवं बुआई के कारण खेती की विधि को अपनाया जाता है। जबकि इस विधि से भू-क्षरण, अपवाह के साथ-साथ खेत में असमान नमी का विस्तार जैसी कमियों को देखा गया है, इन्हीं कमियों को दूर करने के साथ-साथ जल संरक्षण में भी उपयोग सिद्ध होने के कारण ढाल के विरुद्ध समोच्च रेखीय खेती को अपनाने पर बल दिया जाना चाहिए।

मल्चिंग - इस विधि में फसल के अवशेष, जैविक खाद तथा पत्तियाँ एवं घासों का फैलाव खेत में किया जाता है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में नमी संरक्षण हेतु यह विधि अत्यन्त उपयोगी है। फसल के अवशेष द्वारा मल्चिंग से 66 से 72 प्रतिशत जबकि घास मल्चिंग से 24 से 40 प्रतिशत तक अपवाह एवं भू-क्षरण में कमी पायी जाती है।

River (Gad Ganga) and Ecology Revive in Ufaraikhal, Bironkhal, Pauri-Garhwal, UK, Indiaगली प्लग एवं चैकडेम - ये संरचनाएं भू-संरक्षण रोकने के लिये गली में बनाई जाती है। ये संरचनाए अपवाह एवं रोके गए जल का 0.5 से 1.0 मीटर की गहराई तक भण्डारण करती हैं, जो प्रत्येक संरचना के आकार पर निर्भर करता है। ये संरचनाएं वर्षा के मौसम में अपवाह द्वारा कई बार भराव कर सकती है, जिससे धारा के निचले सिरे से 1 किमी. की दूरी तक उल्लेखनीय रूप से भूमिगत जल पुनःआवेशित हो जाता है।

वाटर लिफ्टिंग पम्प - पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्यतया ढालदार असिंचित खेत जो कि मुख्यतः नदी, गदेरों से काफी ऊँचाई वाले हिस्से में होते हैं। ऐसे क्षेत्रों को सिंचित करने के लिए वाटर लिफ्टिंग पम्प जैसी विशिष्ट मशीन का उपयोग कर सम्बन्धित क्षेत्रों से मूल्यवान फसलें लेकर कृषक अपने जीवन स्तर को समृद्ध बना सकते हैं तथा साथ-ही-साथ जल का समुचित उपयोग एवं संरक्षण भी कर सकते हैं।

उपरोक्त विधियों को अपनाकर उत्तराखण्ड के ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों में जल का संरक्षण एवं प्रबन्धन करके चिरकाल तक सबके लिये जल की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है।

(लेखक श्री अ.प्र.ब. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड में भूगोल विभाग में प्रवक्ता हैं।)

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Post By: Shivendra
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