गंगोत्री में बाढ़ का संकेत यानि गंगा घाटी में खतरा


कभी गंगोत्री से गोमुख मात्र एक किमी दूर था, अब 14 किमी दूर हो गया है और तो और अब तो गोमुखनुमा आकार भी नहीं बचा गंगोत्री ग्लेशियर का। ये परिवर्तन कई बार और लगातार पर्यावरण विज्ञानियों, चिन्तको को सता रहा है। वर्तमान में तो गंगोत्री में ही गंगा-भागीरथी का पानी दो से तीन मीटर बढ़ गया है और गंगोत्री में बने स्नान घाटों को भगीरथी का पानी अपने साथ बहाकर ले गया है। यह ग्लोबल वार्मिंग नहीं है तो क्या है?

अहम सवाल इस बात का है कि मनुष्य की लालसा जितनी विलासिता की ओर बढ़ेगी उतने ही प्राकृतिक खतरे भी बढ़ेंगे। ऐसा वैज्ञानिक कई बार सत्ता-प्रतिष्ठानों को बता चुके हैं मगर हम लोगों पर सत्ता की लोलुपता इतनी सिर चढ़ गई कि अपने लिये खुद ही आपदाओं के रास्ते बना रहे हैं। जैसा कि अभी हाल ही गंगोत्री में देखने को मिल रहा है।

बताया जा रहा है कि अगर यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में गंगोत्री मन्दिर का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा और नीचली जगहों पर बसी बसासत कितनी खतरे में पड़ जाएगी जो समय की गर्त में है। मौजूदा हालात यह है कि गंगोत्री में भागीरथी ने विकराल रूप ले लिया है। गोमुख ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा है।

वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियर से बनी गोमुख की आकृति अब नहीं दिखाई दे रही है। गोमुख स्थित में भी बर्फ तेजी से पिघल रही है। भागीरथी का जलस्तर मूल स्रोत से ही उफान पर है। गंगा-भगीरथी के किनारे बसे गाँव कभी भूस्खलन तो कभी बाढ़ के खतरों से डरे हुए हैं। कई बार भागीरथी और उसकी सहायक नदियों ने इतना कहर ढाया कि जान-माल का नुकसान लोगों को उठाना पड़ा।

यह हालात तब से तेज हुए हैं जब से गंगा-भागीरथी नदी पर बाँध बनने आरम्भ हुए। यानि की साल 2003 से उत्तरकाशी में प्राकृतिक आपदाओं के खतरे तेजी से बढ़े हैं। 2003 का वरूणावत भूस्खलन आज भी नासूर बना है। थोड़ी सी बरसात से लोगों में डर पैदा कर देता है। वरूणावत भूस्खलन के बाद से उत्तरकाशी नगर का सौन्दर्य ही विद्रुप हो चुका है।

भागीरथी के किनारे बने स्नानघाट व मुर्दाघाट वर्ष में एक बार भागीरथी की भेंट चढ़ ही जाते हैं। उत्तरकाशी के किनारे बाल्मीकी बस्ती, तिलोथ, निचला ज्ञानसू, पुलिस लाइन, मनेरा स्टेडियम, मातली आईटीबीपी परिसर, गंगोरी, गंवाणा, मनेरी, नैताला, हुर्री, सुनगर, भटवाड़ी बाजार, गंगनाणी, दराली बाजार, भैरवघाटी आदि स्थल भागीरथी के जलस्तर बढ़ने से खतरे से खाली नहीं है। कई मर्तबा यहाँ के लोगों ने अपने घर छोड़कर लोगों के घरों में शरण ली है जब भागीरथी का पानी कम हुआ तब ही अपने घरों की ओर जा पाये हैं।

भागीरथी पर 480 मेगावाट की पाला-मनेरी जल विद्युत परियोजना बन रही थी। सो वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से बन्द पड़ी है। 2003 में जब इस परियोजना की टेस्टिंग चल रही थी तो उन दिनों पाला गाँव के लोग कई बार घर छोड़कर भाग जाते थे। ग्रामीण बताते हैं कि परियोजना की टेस्टिंग के लिये जमीन के भीतर जो ब्लास्ट होता था उससे न कि सिर्फ उनके घर थर्रा जाते थे बल्कि चूल्हे पर बन रही रोटी बनाने का तवा भी दूर फटक जाता था।

इन्हीं दिनों से उनके पाला गाँव में जगह-जगह दरारें आ चुकी हैं जो बरसात के दिनों ग्रामीणों को सांसत में डाल देती है। उन दिनों की दरारें वर्तमान में बड़ी-बड़ी हो रही हैं। हर बरसात में गाँव में कुछ-न-कुछ भूस्खलन की भेंट चढ़ ही जाता है। उनके गाँव के नीचे से पाला-मनेरी 480 मेगावाट जल विद्युत परियोजना की सुरंग गुजर रही है जिसमें 80 फीसदी काम हो चुका है इस सुरंग बनने से पाला गाँव में दरारें तो आई ही बल्कि ग्रामीणों के जलस्रोत सूख गए हैं।

ग्रामीण बता रहे हैं कि इस तरह के निर्माण से ग्लेशियर पर तो असर पड़ेगा ही। क्योंकि गोमुख ग्लेशियर के पास तेज स्वर में भी बोलना मना ही है। अब तो गोमुख ग्लेशियर के पास लोगों का आना-जाना तो है ही साथ में गोमुख के आस-पास की जगह चीड़वासा, सन्तोपथ आदि जगह पर लोग रात्री निवास कर रहे हैं और उपयोग की जा रही वस्तुओं के कचरे को बिना नष्ट किये हुए वही छोड़कर आते हैं।

गोमुख से निकलती गंगादूसरी तरफ स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि एक तरफ भागीरथी नदी पर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में उपयोग की जा रही सामग्री और दूसरी तरफ जंगलों पर हर वर्ष लग रही आग गोमुख ग्लेशियर को पिघलाने के लिये खतरा बढ़ा रहे हैं। वे कहते हैं कि इस कारण से ही गोमुख में तापमान तेजी से बढ़ रहा है। रक्षासूत्र आन्दोलन के प्रणेता सुरेश भाई कहते हैं कि यदि जंगलों की आग और व्यवसायिक वन कटान पर रोक लग जाय तो गोमुख ग्लेशियर को काफी हद तक खतरे से बचाया जा सकता है।

पर्यावरण विज्ञानी डॉ. रवि चोपड़ा कहते हैं कि जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर सरकार को पुनर्विचार करना होगा। क्योंकि इन परियोजनाओं के कारण पहाड़ गर्म ही नहीं हो रहा है पहाड़ की तमाम जैवविविधता पर संकट आ चुका है जिससे तापमान में तेजी से वृद्धि हो रही है। यही कारण है कि पहाड़ पर भूस्खलन, प्राकृतिक आपदा व ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना जारी है।

पर्यावरणविद डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि जिस तरह से सरकार आर्थिक गणना करती है उसी तरह से सरकार को प्राकृतिक संसाधनों की गणना करनी चाहिए। इससे मालूम हो जाएगा कि प्रत्येक नागरिक को कितने प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता है। ऐसा हो नहीं रहा है बजाय प्राकृतिक संसाधनों को कुछ चुनिन्दा लोगों के स्वार्थ के लिये बली चढ़ाया जा रहा है। जिससे पूरे हिमालय के पर्यावरण का स्वास्थ्य गड-मड हो गया है।

सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही किया जा रहा है और संरक्षण की बात करनी तो अब बेईमानी कही जाएगी। उन्होंने कहा कि अगर गोमुख ग्लेशियर के पिघलने पर हम नहीं जागे तो आने वाले दिनों में प्राकृतिक आपदाओं के भेंट तो हम चढ़ेंगे ही साथ में पानी का भयंकर अकाल पड़ने वाला है।

कुल मिलाकर जिस तेजी से गोमुख ग्लेशियर पिघलने के कगार पर आ गया है उसके संरक्षण की कोई कारगर योजना सरकारों के पास नहीं है। उल्टे गंगोत्री को नए रूप में बसाने की बात हो रही है। गंगोत्री के विधायक इस बात को गाँव-गाँव जाकर कह रहे हैं कि नया गंगोत्री जब बस जाएगी तो स्थानीय लोगों के हाथों में स्वयं ही रोजगार दौड़कर आएगा। परन्तु लोगों में एक सवाल कौतुहल का विषय बना हुआ है कि जब-जब गंगोत्री में बाढ़ का संकेत आया तब-तब पूरी गंगा घाटी खतरे में रही है।

1978 की बाढ़ ने तो उत्तरकाशी की सूरत ही बदल डाली थी। स्थानीय लोग कहते हैं कि तब भी गंगोत्री से ही भागीरथी ने बाढ़ का स्वरूप ले लिया था। पीछे से बाढ़ का पानी और आगे से कामरेड कमलाराम नौटियाल और उनके साथियों ने जीप पर वाकर फिट करके टिहरी (अब टिहरी जलाशय) तक लोगों को अगाह किया था कि बाढ़ आ गई है अपनी जान बचाओ आदि-आदि। गोमुख ग्लेशियर का तेजी से पिघलना और गंगोत्री में बाढ़ जैसी हालत बननी भविष्य के लिये खतरे के संकेत पैदा हो गए हैं।
 

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Post By: RuralWater
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