गंगाजल पर अनुसन्धान

गंगाजल की करोड़ों बार जाँच हुई होगी लेकिन अजीबोगरीब तर्क के साथ ऐसी सरकारी पहल पहली बार देखने को मिली है। अकबरनामा में गंगाजल की गुणवत्ता पर विस्तार से चर्चा की गई है। ब्रिटिश जीवाणु विशेषज्ञ अर्नेस्ट हेनबरी हेन्किन सालों पहले गंगा के बैक्टीरियोफेज को अमृत का स्रोत बताया था। पिछले अट्ठारह महीनों में गंगा सफाई की सरकारी कोशिशों के बदलते रंग केन्द्रीय मंत्री के बयानों में साफ नजर आते हैं।

सदियों से गंगा का धर्म और आस्था के नाम पर दोहन हो रहा है। पच्चीस करोड़ से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर आर्थिक रूप से गंगा पर निर्भर हैं। अब बड़ी विदेशी कम्पनियाँ गंगा के जीवन देने वाले गुण के बाजार की सम्भावनाएँ तलाश रही हैं।

वैज्ञानिकों के लिये यह शोध का विषय रहा है कि कुम्भ के दौरान करोड़ों लोग एक साथ डुबकी लगाते हैं, इलाहाबाद संगम में तो पूरा एक शहर ही बस जाता है लेकिन कभी कोई महामारी या बीमारी नहीं फैली। यह कमाल है गंगा में पाये जाने वाले बैक्टीरियोफेज का।

बैक्टीरियोफेज एक तरह का वायरस है जो पानी को सड़ने नहीं देता और बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं को पनपने नहीं देता। आज जब एंटीबायटिक के दुष्परिणाम सारी दुनिया में नजर आ रहे हैं। अमेरिकी और यूरोपीय कम्पनियाँ नदी के इस गुण से इलाज की सम्भावनाएँ तलाश रही हैं। हालांकि थोड़ा बहुत बैक्टीरियोफेज दुनिया की सभी नदियों में पाया जाता है लेकिन गंगा वाली बात दुनिया में कहीं नहीं है।

सरकार ने भी गंगा को अनुसन्धान के रूप में पेश करने में तत्परता दिखाई और स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने एलान कर दिया कि सरकार गंगा के चिकित्सीय लाभों पर अनुसन्धान कराएँगे। उन्होंने आश्वासन देते हुए कहा कि डुबकी लगाने वाले करोड़ों लोगों की सेहत पर पड़ने वाले इसके प्रभाव को स्थापित किया जाना जरूरी है।

गोया बस पिछले साल से ही लोगों ने गंगा में डुबकी लगाना शुरू किया है और अब उनके स्वास्थ पर पड़ने वाले असर की जाँच जरूरी है। सरकार ने गंगाजल के चिकित्सीय लाभ पर शोध पत्र भी आमंत्रित कर लिये है जिन पर छह माह बाद होने वाले सम्मेलन में चर्चा की जाएगी। इसमें विशेषज्ञ नदी में मौजूद उन तत्वों पर चर्चा करेंगे जिससे नदी की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सके।

सच्चाई यह है कि खुद गंगा बेहद बीमार है और उसका इलाज महज नारों और संकल्पों के मंत्रोच्चार से किया जा रहा है। उसकी सफाई में निरन्तरता की जरूरत है लेकिन ज्यादातर जगहों पर अब तक सफाई की शुरुआत ही नहीं हुई। सिर्फ वाराणसी में ही गंगा का विस्तार देखने वाली निगाहों में गंगा पथ के हजारों घाटों में फैली गंदगी नहीं दिखाई दे रही।

यह तो ऐसा ही है कि आईसीयू में पड़े व्यक्ति से रक्त दान की अपील करना। दरअसल बैक्टीरियोफेज पर अनुसन्धान के बहाने सरकार अपनी नाकामियों पर पर्दा डालना चाहती है। एक सरकारी अधिकारी का तर्क देखिए, उनका कहना है कि बैक्टीरियोफेज का आकलन तभी सम्भव होगा जब गंगा में बैक्टीरिया होंगे। अब गंगा को लैब की तरह उपयोग करने के लिये जरूरी है कि उसमें पर्याप्त बैक्टीरिया यानी गन्दगी हो।

गंगाजल की करोड़ों बार जाँच हुई होगी लेकिन अजीबोगरीब तर्क के साथ ऐसी सरकारी पहल पहली बार देखने को मिली है। अकबरनामा में गंगाजल की गुणवत्ता पर विस्तार से चर्चा की गई है। ब्रिटिश जीवाणु विशेषज्ञ अर्नेस्ट हेनबरी हेन्किन सालों पहले गंगा के बैक्टीरियोफेज को अमृत का स्रोत बताया था।

पिछले अट्ठारह महीनों में गंगा सफाई की सरकारी कोशिशों के बदलते रंग केन्द्रीय मंत्री के बयानों में साफ नजर आते हैं। उमा भारती ने ऋषिकेश में कहा कि 2018 तक गंगा साफ हो जाएगी इससे पहले वे यही दावा 2016 के लिये लगातार करती रहीं हैं। अमृत से भरी नदी को यह समाज और सरकार सम्भाल नहीं पा रही।

एक आम आदमी भी जानता है कि यदि गंगा में सरकारी नाले गिरना बन्द हो जाएँ तो वो खुद-ब-खुद साफ हो जाएगी। जरूरत इस बात की है कि 2500 किलोमीटर बहने वाली नदी को जनजागरण और कड़े कानूनों को लागू कर हर हाल में प्रदूषित होने से रोका जाये।

जरूरत इस बात की भी है कि उन प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को तुरन्त विस्थापित किया जाये जिसका दावा सरकार बनने तक उमा भारती हर रैली में किया करती थीं। गंगा का उद्गम गोमुख की बजाय कैलाश मानसरोवर बताने और गंगा को दवा कम्पनियों के लिये उपलब्ध कराके उसकी वाहवाही करने वाले टोटके अब काम नहीं आने वाले हैं।

यह स्वागत योग्य बात है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान गंगाजल की गुणवत्ता को एंटीबायोटिक्स के विकल्प के रूप में देख रहा है। लेकिन क्या वास्तव में गंगाजल को किसी अमेरिकी कम्पनी के सर्टिफ़िकेट की जरूरत है?

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Post By: RuralWater
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