हाल ही में आई आपदा में उत्तराखंड के लोगों की आर्थिक व्यवस्था को चरमरा दिया तिस पर चार धाम यात्रा भी बहुत कमजोर चल रही है। जून 2013 की आपदा से घबराई हुई सरकार थोड़ा-सा कुछ भी होने पर यात्रा रोक रही है ऐसे में बाँध कंपनियों द्वारा बांध मरम्मत के कामों में स्थानीय लोगों को ठेके मिलना बहुत बड़ी बात है। बांध कंपनियों के लिए थोड़े से ठेके देकर बांध का विरोध बंद करना बड़ी जीत है। गंगा पर रुड़की विश्वविद्यालय व भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्टाें के बाद पूर्ववर्ती यूपीए सरकार की बनाई गंगा प्राधिकरण की 17 अप्रैल 2012 को सम्पन्न तीसरी बैठक में तात्कालिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने एक अंतरमंत्रालयी समिति बनाई थी। भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा गंगा घाटी में जिन 24 जलविद्युत परियोजनाओं को रोका था। अंतरमंत्रालयी समिति ने उन सबको पास कर दिया।
इसके बाद 13 अगस्त 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 15 अक्तूबर को श्री रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जिसका काम मूलतः जून आपदा में गंगा पर बांधों की भूमिका को देखना था। जबकि उच्चतम न्यायालय ने मात्र गंगा घाटी के बांधों के विषय में नहीं कहा था। 13 अगस्त 2013 के आदेश में साफ कहा गया था किः-
पहले से मौजूद, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं के क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले संभावित नकारात्मक प्रभावों का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है। हम देख रहे हैं कि कोई उचित आपदा प्रबंधन योजना भी लागू नहीं की गई है, जिसके कारण जीवन और संपत्ति का नुकसान हुआ। इस स्थिति को मद्देनजर रखते हुए, हम निम्नलिखित निर्देश देते हैं -
“हम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के साथ-साथ उत्तराखंड राज्य को आदेश देते हैं, कि वे इसके अगले आदेश तक, उत्तराखंड में किसी भी जल विद्युत परियोजना के लिए पर्यावरणीय या वन स्वीकृति न दें।’’
यमुना घाटी में, उत्तराखंड के कुमांऊ क्षेत्र में भी नदी घाटी में कार्यरत, बन रही व प्रस्तावित बांध परियोजनाओं के क्षेत्र में भयानक तबाही हुई थी। उत्तराखंड व केन्द्र सरकार ने क्रमशः अलकनंदा गंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटि और यमुना पर लखवार परियोजनाओं को स्वीकृति दी। दोनों पर काम चालू है। अलकनंदा की सहयोगिनी धौलीगंगा पर लाता-तपोवन जलविद्युत परियोजना पर भी चोरी छुपे काम चालू किया गया।
न्यायालय ने रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट जल्दी मांगी। वन मंत्रालय को जब ये आभास हुआ की यह समिति कुछ सख्त सिफारिशें कर सकती है तो उसने एक नयी समिति बनाई। जबकि यह बात दीगर है कि रवि चोपड़ा समिति में ऐसे भी सदस्य थे जिन्होंने गंगा पर बांधों को स्वीकृति दी थी और बांध कंपनियों द्वारा पर्यावरण उलंघनों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया था।
सर्वाेच्च न्यायालय ने रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट 28 अप्रैल को दाखिल हुई। मंत्रालय ने दूसरी समिति की भी रिपोर्ट सर्वाेच्च न्यायालय में दाखिल की। अब इसके बाद विभिन्न बांध कंपनियों ने भी उसमें अपनी याचिका दायर की।
इसी बीच भरत झुनझुनवाला ने सर्वाेच्च न्यायालय में लखवार और विष्णुगाड-पीपलकोटि के मामले में अवमानना याचिका दायर की। उच्चतम न्यायालय में मुकदमा चालू हैं। सरकारें बदल गईं मगर 24 मेें से ज्यादातर बांधों का काम माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही रुका।
बांध काम चालू रहने का नतीजा यह होता है कि यदि कोई बांध रोकने का अंतिम निर्णय होता भी है तो कंपनियां कह देती हैं कि अब तो बांध बहुत आगे तक बन गया है इसीलिए इसे रोकना संभव नहीं है।
हाल ही में आई आपदा में उत्तराखंड के लोगों की आर्थिक व्यवस्था को चरमरा दिया तिस पर चार धाम यात्रा भी बहुत कमजोर चल रही है। जून 2013 की आपदा से घबराई हुई सरकार थोड़ा-सा कुछ भी होने पर यात्रा रोक रही है ऐसे में बाँध कंपनियों द्वारा बांध मरम्मत के कामों में स्थानीय लोगों को ठेके मिलना बहुत बड़ी बात है। बांध कंपनियों के लिए थोड़े से ठेके देकर बांध का विरोध बंद करना बड़ी जीत है।
उदाहरण के लिए अलकनंदागंगा पर कार्यरत विष्णुप्रयाग बांध के दरवाजे 16-17 जून 2013 की रात न खुलना नीचे के कई गांवों में नुकसान और हेमकुंड साहेब जाने का रास्ता टूटने का कारण रहा है। अब बांध कंपनी ने मरम्मत के कामों में क्योंकि लामबगड़ और पांडुकेश्वर गांव के लोगों को कुछ काम दिया है इसीलिए गांव के लोग बांध कंपनी की किसी भी गलती पर नहीं बोल सकते। ये स्थिति अपने में बहुत भयानक है।
हाल ही में 12-13 जून 2014 की रात को जेपी कंपनी द्वारा बहाए गए मलबे के कारण पानी में जो भारीपन आया उससे गोविंदघाट पर बना नया पुल जो हेमकुंड साहेब की यात्रा के लिए महत्वपूर्ण है, बह गया किंतु इस बात को गांव के लोग कैसे बोलें?
विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना को सर्वाेच्च न्यायालय के 13 अगस्त 2013 के आदेश का उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने वन स्वीकृति दी। नतीजा बांध कंपनी गांव में पुलिस के साथ घुसकर पुलिस के बल पर उनकी स्वीकृति लेने की कोशिश कर रही है जो बांध के खिलाफ उठते संघर्ष को कुचलने तरीका है।
इतिहास बताता है कि टिहरी बांध और दूसरे बांधों के उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके मुकदमें अभी भी लोगों पर चालू हैं। अदालती आदेशों का उल्लंघन करते हुए स्वीकृतियां दी जाती हैं और कंपनियां बांध कार्य को आगे बढ़ाती हैं।
सरकार और बांध कंपनियों द्वारा साठ-गांठ से इंकार नहीं किया जा सकता। चूंकि बांध के रोकने की बात कहते ही ऊर्जा संकट का प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है और फिर विकास और ऊर्जा के लिए सब जायज मान लिया जाता है। गंगा मंथन के इस दौर में बांध मंथन कब चालू होगा?
इसके बाद 13 अगस्त 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 15 अक्तूबर को श्री रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जिसका काम मूलतः जून आपदा में गंगा पर बांधों की भूमिका को देखना था। जबकि उच्चतम न्यायालय ने मात्र गंगा घाटी के बांधों के विषय में नहीं कहा था। 13 अगस्त 2013 के आदेश में साफ कहा गया था किः-
पहले से मौजूद, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं के क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले संभावित नकारात्मक प्रभावों का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है। हम देख रहे हैं कि कोई उचित आपदा प्रबंधन योजना भी लागू नहीं की गई है, जिसके कारण जीवन और संपत्ति का नुकसान हुआ। इस स्थिति को मद्देनजर रखते हुए, हम निम्नलिखित निर्देश देते हैं -
“हम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के साथ-साथ उत्तराखंड राज्य को आदेश देते हैं, कि वे इसके अगले आदेश तक, उत्तराखंड में किसी भी जल विद्युत परियोजना के लिए पर्यावरणीय या वन स्वीकृति न दें।’’
यमुना घाटी में, उत्तराखंड के कुमांऊ क्षेत्र में भी नदी घाटी में कार्यरत, बन रही व प्रस्तावित बांध परियोजनाओं के क्षेत्र में भयानक तबाही हुई थी। उत्तराखंड व केन्द्र सरकार ने क्रमशः अलकनंदा गंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटि और यमुना पर लखवार परियोजनाओं को स्वीकृति दी। दोनों पर काम चालू है। अलकनंदा की सहयोगिनी धौलीगंगा पर लाता-तपोवन जलविद्युत परियोजना पर भी चोरी छुपे काम चालू किया गया।
न्यायालय ने रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट जल्दी मांगी। वन मंत्रालय को जब ये आभास हुआ की यह समिति कुछ सख्त सिफारिशें कर सकती है तो उसने एक नयी समिति बनाई। जबकि यह बात दीगर है कि रवि चोपड़ा समिति में ऐसे भी सदस्य थे जिन्होंने गंगा पर बांधों को स्वीकृति दी थी और बांध कंपनियों द्वारा पर्यावरण उलंघनों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया था।
सर्वाेच्च न्यायालय ने रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट 28 अप्रैल को दाखिल हुई। मंत्रालय ने दूसरी समिति की भी रिपोर्ट सर्वाेच्च न्यायालय में दाखिल की। अब इसके बाद विभिन्न बांध कंपनियों ने भी उसमें अपनी याचिका दायर की।
इसी बीच भरत झुनझुनवाला ने सर्वाेच्च न्यायालय में लखवार और विष्णुगाड-पीपलकोटि के मामले में अवमानना याचिका दायर की। उच्चतम न्यायालय में मुकदमा चालू हैं। सरकारें बदल गईं मगर 24 मेें से ज्यादातर बांधों का काम माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही रुका।
बांध काम चालू रहने का नतीजा यह होता है कि यदि कोई बांध रोकने का अंतिम निर्णय होता भी है तो कंपनियां कह देती हैं कि अब तो बांध बहुत आगे तक बन गया है इसीलिए इसे रोकना संभव नहीं है।
हाल ही में आई आपदा में उत्तराखंड के लोगों की आर्थिक व्यवस्था को चरमरा दिया तिस पर चार धाम यात्रा भी बहुत कमजोर चल रही है। जून 2013 की आपदा से घबराई हुई सरकार थोड़ा-सा कुछ भी होने पर यात्रा रोक रही है ऐसे में बाँध कंपनियों द्वारा बांध मरम्मत के कामों में स्थानीय लोगों को ठेके मिलना बहुत बड़ी बात है। बांध कंपनियों के लिए थोड़े से ठेके देकर बांध का विरोध बंद करना बड़ी जीत है।
उदाहरण के लिए अलकनंदागंगा पर कार्यरत विष्णुप्रयाग बांध के दरवाजे 16-17 जून 2013 की रात न खुलना नीचे के कई गांवों में नुकसान और हेमकुंड साहेब जाने का रास्ता टूटने का कारण रहा है। अब बांध कंपनी ने मरम्मत के कामों में क्योंकि लामबगड़ और पांडुकेश्वर गांव के लोगों को कुछ काम दिया है इसीलिए गांव के लोग बांध कंपनी की किसी भी गलती पर नहीं बोल सकते। ये स्थिति अपने में बहुत भयानक है।
हाल ही में 12-13 जून 2014 की रात को जेपी कंपनी द्वारा बहाए गए मलबे के कारण पानी में जो भारीपन आया उससे गोविंदघाट पर बना नया पुल जो हेमकुंड साहेब की यात्रा के लिए महत्वपूर्ण है, बह गया किंतु इस बात को गांव के लोग कैसे बोलें?
विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना को सर्वाेच्च न्यायालय के 13 अगस्त 2013 के आदेश का उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने वन स्वीकृति दी। नतीजा बांध कंपनी गांव में पुलिस के साथ घुसकर पुलिस के बल पर उनकी स्वीकृति लेने की कोशिश कर रही है जो बांध के खिलाफ उठते संघर्ष को कुचलने तरीका है।
इतिहास बताता है कि टिहरी बांध और दूसरे बांधों के उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके मुकदमें अभी भी लोगों पर चालू हैं। अदालती आदेशों का उल्लंघन करते हुए स्वीकृतियां दी जाती हैं और कंपनियां बांध कार्य को आगे बढ़ाती हैं।
सरकार और बांध कंपनियों द्वारा साठ-गांठ से इंकार नहीं किया जा सकता। चूंकि बांध के रोकने की बात कहते ही ऊर्जा संकट का प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है और फिर विकास और ऊर्जा के लिए सब जायज मान लिया जाता है। गंगा मंथन के इस दौर में बांध मंथन कब चालू होगा?
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