गंगा स्वच्छता एवं पुनर्जीवनः अतीत व भविष्य


गंगा का स्थान हर भारतीय के दिल में खास है। अद्वितीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व रखने वाली गंगा देश की सबसे पवित्र नदी है। 2500 किलोमीटर से अधिक लम्बा सफर तय करने वाली गंगा को लोग उसके उद्गम स्थल गंगोत्री ग्लेशियर से लेकर बांग्लादेश के सुंदरवन डेल्टा तक प्रयोग करते और पूजते हैं। गंगा बेसिन में देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा उत्पन्न होता है और यह देश का महत्त्वपूर्ण पर्यावरण और आर्थिक संसाधन है। अपनी लम्बी यात्रा के दौरान गंगा नदी मैदानी इलाकों की विशाल भूमि को समृद्ध करती है और इसके सहारे लगभग 50 प्रमुख शहरों और सैकड़ों छोटे शहरों का जीवन चलता है

.ऊँचे इलाकों में गंगा की सहायक नदियाँ देश की ऊर्जा आपूर्ति को पूरा करने के लिये पर्याप्त पनबिजली उत्पन्न करती हैं और नीचे की ओर गंगा माल और जन साधारण को जलमार्ग प्रदान करती है। भारत में यह अकेली नदी घाटी (बेसिन) है जोकि संसाधनों से सम्पन्न है और अभी भी इसमें अतिरिक्त जल की बड़ी मात्रा उपलब्ध है। लेकिन दुर्भाग्य से दशकों से गंगा जैसी विशाल नदी लापरवाही और दुर्व्यवहार से जूझ रही है जिसका बहुत बड़ा कारण बढ़ती जनसंख्या है। गंगा के उल्लेख मात्र से मन में परस्पर विरोधाभासी छवियाँ सी उभरती हैं। एक ओर यह पवित्रता का प्रतीक है तो दूसरी ओर इसका पानी प्रदूषित, स्थिर और गंदगी व प्लास्टिक से भरा हुआ है। भारी प्रदूषण का भार, सूखे के मौसम में व्यापक सिंचाई के लिये अत्यधिक पृथक्करण, पानी की बढ़ती माँग और मुख्य धारा और सहायक नदियों को मोड़ा जाना, अवरुद्ध किया जाना, इससे गंगा पर बहुत असर पड़ता है। इसका परिणाम यह होता है कि इसके सहारे चलने वाला लाखों लोगों का जीवन और कामकाज प्रभावित होता है। (रुहल, 2015) इस प्रकार हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि किस तरह दुनिया की सबसे ताकतवर नदियों में से एक नदी कचरे का भंडार बन गई है।

नदियों को प्रभावित करने वाले मुद्दे असंख्य हैं और उन्हें समझना बिल्कुल सरल नहीं है। इनमें अक्सर अनुपचारित जल-मल और औद्योगिक कचरा भरा होता है और बड़े पैमाने पर भूमिगत जल निकासी के साथ-साथ इन्हें अवरुद्ध किया जाता है। इन्हें तमाम तरह से प्रदूषित किया जाता है। इस प्रदूषित पानी का असर उन लोगों पर पड़ता है जोकि सीमा पार नदी तट पर रहते हैं। इसके अतिरिक्त नदी घाटी में बाढ़ और सूखा एक सामान्य समस्या है जिसका असर फसलों, मवेशियों और बुनियादी ढाँचे पर पड़ता है। हिमनदों के पीछे हटने, आइस मास के कम होने, बर्फ के जल्दी पिघलने और सर्दियों में धारा प्रवाह के बढ़ने से जलवायु पर दबाव बढ़ रहा है। इससे पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन पहले से ही हिमालय की बर्फ को प्रभावित कर रहा है जिसका असर दीर्घकाल में गंगा पर भी दिखाई देगा।

नदी श्रृंखला को जगह-जगह पर पानी की गुणवत्ता चुनौती देती है। (i) गंगोत्री से ऋषिकेश तक गंगा में अनेक छोटी और तेजी से बहने वाली सहायक नदियाँ मिलती हैं लेकिन यहाँ तक गंगा मानव गतिविधियों से कम, और पनबिजली की कुनियोजित बाँध परियोजनाओं से ज्यादा प्रभावित होती है जिनके कारण अत्यधिक संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र और जैव-विविधता बर्बाद हो रही है। (ii) इसके बाद गंगा का मध्य विस्तार यानि ऋषिकेश से कानपुर, इलाहाबाद, पटना और फरक्का का जल मार्ग पृथक और सबसे अधिक प्रदूषित है जिसका कारण घरेलू, म्युनिसिपल, कृषि और औद्योगिक अपशिष्ट है। (जबकि नीचे की ओर बहने पर प्रदूषण का स्तर कम होता है)। इससे पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार के मैदानी इलाकों में भारी बाढ़ भी आती है। (iii) गंगा के आखिरी विस्तार में सुंदरवन आते हैं जो दुनिया के सबसे बड़े सक्रिय डेल्टा का हिस्सा और यहाँ नदी के पथ में जबरदस्त बदलाव आते हैं। इसमें लवणता आती है और ज्वारीय तूफान भी। यहाँ गंगा नदी तट देशों के बीच जल बँटवारे के संघर्ष का विषय बन जाती है। (आईआईटीसीए 2010)

गंगा में प्रदूषण के मुख्य कारण


गंगा की घाटी दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाली नदी घाटी मानी जाती है। यहाँ 60 करोड़ शहरी और ग्रामीण आबादी बसी हुई है या कहें तो देश की कुल आबादी का लगभग आधे से अधिक हिस्सा यहाँ रहता है। लेकिन यहाँ बहुत अधिक गरीबी है और पानी एवं स्वच्छता के बुनियादी ढाँचे का अभाव है या उसकी स्थिति संतोषजनक नहीं है। गंगा की घाटी मूल रूप से कृषि प्रधान है और यहाँ बसे शहरों में छोटे पैमाने पर, अनियमित और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग हैं। इसके अलावा तीर्थ या धार्मिक स्थल भी हैं। इसलिये प्रदूषण मूल रूप से अप्रबंधित सीवेज, सीपेज और ठोस कचरे के कारण फैलता है जोकि बड़ी आबादी, औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि रसायनों और अपशिष्ट, धार्मिक चढ़ावे से उत्सर्जित होता है। सूखे के महीनों में नदी में कम प्रवाह होता है और जलवायु परिवर्तन के दौरान यह स्थिति और विकट हो जाती है।

सीवेज, सीपेज और ठोस अपशिष्ट


गंगा की मुख्य धारा 36 क्लास वन शहरों (100000 से अधिक की आबादी), 14 क्लास टू शहरों (50000 से 100000 के बीच आबादी) और 20000 से ऊपर की आबादी वाले 50 छोटे शहरों से होकर गुजरती है। भारत के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी, 2013) के अनुसार क्लास वन और क्लास टू शहर हर दिन 2.7 अरब लीटर से अधिक का सीवेज उत्पन्न करते हैं, हालाँकि यह आँकड़ा कम करके आँका जा रहा है। (सीएसईए 2014) चूँकि यहाँ शहरों और कस्बों में म्युनिसिपल जल आपूर्ति के हिसाब से आकलन किया जा रहा है। इसमें शहरों में रहने वाले उन समूहों को शामिल नहीं किया गया है जिनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता और न ही इसमें छोटे शहरों में उत्पन्न होने वाला अपशिष्ट जल शामिल है।

प्रतिदिन 1.2 लीटर की स्थापित क्षमता के साथ इस गंदे पानी का कुछ ही हिस्सा नदी में जाने से पहले उपचारित किया जाता है। (कार्यात्मक या वास्तविक परिचालन क्षमता और भी कम है) सीपीसीबी निरीक्षण और आकलन के अनुसार, गंगा के साथ उत्पन्न अपशिष्ट जल के केवल 26 प्रतिशत को उपचारित किया जाता है और अपशिष्ट जल एक बड़ी मात्रा में सीधे नदी में फेंक दिया जाता है। गंगा की सहायक नदियाँ जैसे रामगंगा, गोमती, काली, यमुना, हिंडन, कई अन्य और भी अधिक प्रदूषित हैं गंगा में समाने पर यह समस्या और भी बढ़ जाती है। सीपीसीबी ने गंदे पानी के 138 बड़े नालों को चिन्हित किया है जोकि गंगा में 6 अरब लीटर प्रदूषित पानी को सीधे उगलते हैं। स्टोरेज, लीकेज और सेप्टिक टैंकों के माध्यम से ठोस कचरे का निपटान एक और गंभीर समस्या है।

गंगा घाटी के राज्य जैसे उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल का स्वच्छता का बुनियादी ढाँचा बहुत कमजोर है। नवीनतम जनगणना (2011) के अनुसार, लगभग 45 से 53 प्रतिशत शहरी परिवार सेप्टिक टैंक का उपयोग करते हैं और उनके पास सेप्टिक प्रबंधन की कोई योजना और तंत्र नहीं है। खुले मैदानों, गड्ढों और नालियों में शौच करने वाले भी बहती नदी को गंदा कर रहे हैं। देश की 25 प्रतिशत से अधिक आबादी खुले में शौच करती है और यह मानव स्वास्थ्य तथा जल प्रदूषण के लिये एक गंभीर प्रत्यक्ष खतरा है। गंगा घाटी के राज्यों में ठोस कचरे की संग्रह क्षमता और उचित निपटान का अभाव है। अधिकांश गाँव, कस्बे और शहर ऑर्गेनिक, प्लास्टिक, काँच, मरे हुए जानवरों और अन्य अपशिष्ट को नदियों के किनारे फेंकते हैं जिससे नदियों की जल धारा अवरुद्ध और प्रदूषित होती है। यह दृश्य लोगों की आँख में खटकता है और उनका सौंदर्यशास्त्र बिगड़ता है।

नदियों में धार्मिक चढ़ावा


गंगा भारत की सबसे पवित्र नदी है और परम्पराओं तथा पौराणिक कथाओं में इसका उल्लेख है। इसलिये रोजाना लाखों की संख्या में भक्त नदियों में चढ़ावा चढ़ाते हैं। विशेष अवसरों और त्योहारी सीजन में लाखों तीर्थयात्री इसके तट पर इकट्ठा होते हैं और नदी में डुबकी लगाते, नहाते हैं। साथ ही शरीर और कपड़ों की गंदगी से इसे भर देते हैं। देवी-देवताओं की रंगीन मिट्टी की मूर्तियाँ भी गंगा में विसर्जित की जाती हैं। अगर इन सबको मिला दिया जाए तो इन कई टन विषैले पदार्थ नदी को दूषित और उसे अवरुद्ध कर रहे हैं। गंगा में लावारिस शव, अधजले या समूचे जले शव भी अपना अंतिम ठौर पाते हैं जो ताजा पानी को गंदा और प्रदूषित करते हैं।

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औद्योगिक अपशिष्ट


बड़े शहरी केंद्र ऐसे औद्योगिक केंद्र भी होते हैं जहाँ अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले बड़े और छोटे उद्योग- जैसे रसायन, डिस्टिलरी, खाद्य, डेयरी, लुगदी, कागज, चीनी, कपड़ा, रंगाई और चमड़ा होते हैं। इन सभी उद्योगों में गंदे पानी की खपत होती है और ये बड़ी मात्रा में नदी के पानी को प्रदूषित करते हैं (तालिका 1)। इस अपशिष्ट जल को उपचारित करने से सम्बन्धित नियम कमजोर हैं और अक्सर उद्योगों द्वारा उनका उल्लंघन किया जाता है। ये आमतौर पर विषाक्त और न घुलने वाले अपशिष्ट होते हैं इसलिये नदी के लिये एक बड़ा खतरा होते हैं।

कपड़ा, चमड़े के कारखाने और लुगदी तथा कागज उद्योग के आँकड़ों से स्पष्ट है कि जो उद्योग घाटी में सबसे अधिक व्यापक हैं, वही सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले हैं। इनमें से कई छोटे पैमाने पर और घरेलू क्षेत्र में काम करते हैं और उनपर किसी भी प्रकार के नियम लागू नहीं होते।

कृषि क्षेत्र से प्रदूषण


हालाँकि म्युनिसिपल और औद्योगिक प्रदूषण के मुकाबले कृषि क्षेत्र से होने वाला प्रदूषण उतना गंभीर नहीं है, फिर भी नदी के किनारे और घाटी में की जाने वाली खेती से खतरनाक कीटनाशकों के अवशेष जल प्रदूषण का कारण बनते हैं। (त्रिवेदी, 2010) कृषि रसायनों के कारण नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को इस हद तक नुकसान होता है कि वह अपनी स्व उपचार की क्षमता खो देती है। मवेशियों और मत्स्य पालन के कारण होने वाले प्रदूषण को तो अभी तक ठीक से समझा नहीं गया है। उर्वरकों और कृषि रसायनों के अत्यधिक प्रयोग और कृषि गहनता एवं विविधीकरण से मीठे पानी की गुणवत्ता में गिरावट का संभावित खतरा है।


 

तालिका 1 : गंगा घाटी की प्रमुख औद्योगिक इकाइयों में मीठे पानी का उपभोग और उत्सर्जित होने वाला अपशिष्ट जल

औद्योगिक इकाइयाँ

कुल इकाइयाँ

जल का उपभोग** (मिलियन लीटर प्रति दिन)

अपशिष्ट जल का उत्सर्जन** (मिलियन लीटर प्रति दिन)

रासायनिक*

27

210.9

97.8 (946.4:)*

डिस्टिलरी

23

78.8

37.0 (46.9:)

खाद्य, डेयरी और पेय पदार्थ

22

11.2

6.5 (58.0:)

लुगदी और पेपर

67

306.3

201.4 (65.8:)

चीनी

67

304.8

96.0 (31.5:)

वस्त्र, ब्लीचिंग और डाइंग

63

14.1

11.4 (80.9:)

चमड़ा

444

28.7

22.1 (77.0:)

अन्य

41

168.3

28.6 (17.0:)

कुल

764

1123

501 (44.6:)

स्रोतः केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड 2013

(*कोष्ठक में दिये गये आँकड़े कुल पानी की खपत के दौरान उत्पन्न होने वाले अपशिष्ट जल का प्रतिशत हैं)


(**मिलियन लीटर प्रतिदिन)

 

अपर्याप्त पर्यावर्णीय बहाव


नदी स्वस्थ रहे, इसके लिये अनिवार्य है कि सभी की जरूरतों को पूरा करने के बाद उसमें साल भर साफ पानी बहता रहे लेकिन किसी भी समय ऐसा नहीं होता। नदी के लगभग सभी खण्डों में नदी का प्रवाह अपर्याप्त और असंगत बना रहता है। चूँकि सभी उपयोगकर्ता और उपयोग बहुत मुखर हैं, इसलिये नदी मूक हो जाती है और उसके पर्यावरणीय प्रवाह का बलिदान कर दिया जाता है। घाटी में नहरों के अपवर्जन और भूजल के वितरित प्रयोग से सतही जल बड़े पैमाने घाटी पर पृथक होता रहता है जिसका नदी के प्रवाह पर बहुत असर पड़ता है। हरिद्वार से वाराणसी के बीच का 1080 किलोमीटर लम्बा विस्तार सबसे ज्यादा गंदा है जिसका एक बड़ा कारण है- सिंचाई के लिये प्रयोग किया जाने वाला नहरों का नेटवर्क और भूमिगत जल का प्रयोग (पंपेज)। साथ ही इसमें विभिन्न स्रोतों से आने वाला प्रदूषण भी शामिल है। हरिद्वार, बिजनौर और नरोरा में नहरों के अपवर्जन के बाद मिले संकेतों से पता चलता है कि मूल गंगा तो कहीं है ही नहीं। उसमें अपने पारिस्थितिकी तंत्र का प्रयोग करने और बड़े प्रदूषण भार को आत्मसात करने की क्षमता लगभग समाप्त हो गई है या बहुत कम बची है। (मतिओ-सगास्ता, 2015)

गंगा को साफ करने के पूर्व प्रयास


नकारात्मक पर्यावरणीय, सांस्कृतिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभावों के अतिरिक्त नदी की खराब सेहत का असर उन लोगों पर भी पड़ता है जोकि अपने जीवनयापन के लिये नदी पर निर्भर होते हैं। गंगा की घाटी में बसे लगभग 20 करोड़ लोग भारत के सबसे गरीब वर्ग में आते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में व्यापक निर्धनता और जल निर्धनता के बीच करीबी सम्बन्ध है। (शर्मा और अन्य, 2010) अनुपचारित सीवेज और सीपेज के कारण विषाक्त जल मल का सीधे धारा में गिरना भी चिंता का विषय है। गंगा के पानी में कॉलिफोर्म का बढ़ता स्तर परम्परागत स्नान के लिये अनुपयुक्त है। अपस्ट्रीम लोकेशनों को छोड़कर आप और कहीं इसका पानी पीने की बात सोच भी नहीं सकते। अधिक खतरनाक यह है कि पिछले दशकों में इस स्थिति में सुधार नहीं हुआ है, बल्कि कॉलिफोर्म का स्तर बढ़ रहा है और 1996 से 2010 के बीच पूरी नदी में, हर स्थान पर इसमें कॉलिफोर्म के स्तर में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुई है। (आईआईटीसी 2013, चित्र 1) गंगा घाटी के क्लास वन शहरों में 44 प्रतिशत सीवेज को उपचारित करने की क्षमता है लेकिन क्लास टू शहरों ने सिर्फ आठ प्रतिशत (तालिका 1) (सीपीसीबीए 2009) और छोटे शहरों में आभासी तौर पर 0 प्रतिशत। शहरों के अधिकतर हिस्सों और अधिकतर कस्बों में सीवेज नेटवर्क हैं ही नहीं, या ये नेटवर्क परिचालित नहीं हैं। या फिर इन नेटवर्कों को उपचार संयंत्रों से जोड़ा नहीं गया है और बड़े पैमाने पर गंदे पानी को उपचारित नहीं किया जाता। जहाँ सीवर और उपचार संयंत्रों का निर्माण किया गया है, वहाँ अक्सर वे ठीक से काम नहीं करते या उनका रखरखाव नहीं किया जाता जिसका मतलब यह है कि वास्तविक उपचार, स्थापित क्षमता की तुलना में काफी कम होता है। (सीएसईए 2014)

श्रेणी कः पारम्परिक उपचार के बिना लेकिन कीटाणुशोधन के बाद पेयजल स्रोत के रूप में पानी का उपयोग

श्रेणी खः संगठित बाहरी स्नान हेतु पानी

श्रेणी गः पारम्परिक उपचार और कीटाणुशोधन के बाद पेयजल स्रोत के रूप में पानी का उपयोग शहरों, उद्योगों और कृषि के कचरे और अपशिष्ट में रोगजनक जीव और रसायन होते हैं जोकि गंगा के जल में घुल जाते हैं और उसकी पोषण श्रृंखला में गाद के तौर पर जमा हो जाते हैं जिससे मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और उत्पादक गतिविधियों को गंभीर खतरा होता है। (हेरनांदे-सांचो और अन्य, 2015) इससे नदी में पाए जाने वाले जीव-जगत पर भी संकट बढ़ता है। गंगा के मध्य विस्तार में जलीय प्रजातियों को सबसे अधिक खतरा है क्योंकि यहाँ नदी में बड़ी मात्रा में औद्योगिक अपशिष्ट पाया जाता है। (सरकार और अन्य, 2012) नदी के इस हिस्से में भारी धातुओं का संचय भी मिलता है। पिछले छह दशकों में इलाहाबाद में भारी प्रदूषण के कारण उन सभी मछलियों की संख्या में गिरावट देखी गई है जिनका आर्थिक महत्व अत्यधिक है। सरकार और अन्य, 2012 के अनुसार 1950 से 2010 के दौरान फिस कैच/प्रति किलोमीटर में 1344 किलो से 300 किलो की गिरावट हुई है।

वर्ष 1982 और 1984 के दौरान केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दो गंभीर खुलासे किये। इसमें पता चला है कि बिंदु स्रोतों से सबसे ज्यादा प्रदूषण उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 क्लास वन शहरों से हो रहा है। इसी वजह से 1985 में पहली बार गंगा के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये गंगा कार्य योजना (गैप) बनी जोकि एक बहु राज्यीय और राष्ट्रीय स्तर का ठोस प्रयास था। इसके केंद्र में 25 शहरों से उत्सर्जित होने वाले सीवेज का अवरोधन, अपवर्तन और उपचार करना था। यह योजना नदी के पानी की गुणवत्ता में कोई सुधार न करने के बावजूद कई वर्षों तक जारी रही। इसके बाद गैप-दो को 1993 में शुरू किया गया जोकि उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में जारी है। गैप-एक और गैप-दो के प्रावधानों के तहत 37 से अधिक शहरों में सीवेज के अवरोधन, अपर्वतन और उपचार का कार्य किया गया। इसे उपचार के प्रावधानों के माध्यम से स्थापित किया गया था।

इस योजना में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की पहचान की गई और उपचार संयंत्र स्थापित करना अनिवार्य बनाया गया। पर्यावरण एवं वानिकी मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2011 में 1612.38 करोड़ रुपये की अनुमानित राशि को खर्च किया गया। हालाँकि इन प्रयासों ने गंगा में प्रदूषण की समस्या की भयावहता को उजागर किया लेकिन इसकी कुछ सीमाएँ और बाधाएँ थीं। आईआईटी कंसोर्टियम (आईआईटीसी 2011) के निष्कर्षों के अनुसार, इसमें केवल सीमित प्रदूषण मुद्दों पर विचार किया गया था। स्थानीय शहरी निकायों के बीच स्वामित्व की कमी थी। कार्यान्वयन में विलम्ब हो रहा था और सृजित परिसम्पत्तियों के संचालन और रखरखाव के लिये कोई कारोबारी मॉडल या प्रावधान नहीं बनाए गए थे। स्थापित एसटीपी बंद या गैर कार्यात्मक थे या उनका क्षमता से कम इस्तेमाल हो रहा था जिसका कारण सीवर का गलत स्थान पर लगा होना या बिजली का उपलब्ध न होना था।

वर्तमान और भावी योजनाएँ तथा नवाचार


न्यायाधिकरणों और अदालतों के निर्देशों और सजग नागरिक समाज तथा नई सरकार के संकल्प के कारण गंगा की सफाई और कायाकल्प के लिये गंभीर और सार्थक उपाय किये जा रहे हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैंः

स्वच्छ गंगा राष्ट्रीय मिशन (एनएमसीजी)


राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (एनजीआरबीए) की विश्व बैंक द्वारा सहायता प्राप्त राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन परियोजना (एनजीआरबीपी) के कार्यान्वयन के लिये जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्रालय ने सोसायटी पंजीकरण अधिनियम 1860 के तहत एनएमसीजी की स्थापना की (शुरू में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अधीन)। एनएमसीजी केंद्र सरकार की नियोजित, वित्त पोषित और समन्वयक निकाय है और इसे एनजीआरबीए के निम्नलिखित दो उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये उपयुक्त राज्य स्तरीय कार्यक्रम प्रबंधन समूहों (एसपीएमजी) द्वारा समर्थन प्रदान किया जा रहा हैः प्रदूषण का प्रभावी उपशमन और व्यापक दृष्टिकोण को अपनाकर गंगा का संरक्षण। इसके लिये, एनएमसीजी को ऐसे सभी कार्यों के लिये पर्याप्त सशक्त किया गया है जोकि उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये आवश्यक या आकस्मिक हो सकते हैं।

कार्य का पुनः आवंटन और मंत्रालय की भूमिका में परिवर्तन


गंगा नदी की सफाई वर्तमान सरकार का प्रमुख कार्यक्रम है जिस पर कैबिनेट सचिवालय और प्रधानमंत्री कार्यालय द्वार नियमित रूप से नजर रखी जा रही है। गंगा की सफाई से सम्बन्धित अधिकांश कार्य पर्यावरण एवं वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से जल संसाधन मंत्रालय (जल संसाधन मंत्रालय) में स्थानांतरित हो गए हैं। बदलती रुचि को प्रतिबिम्बित करने के लिये मंत्रालय का नाम ही जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्रालय रख दिया गया है। विभिन्न देशों की सरकारों (जैसे जापान, फ्रांस, इजरायल, ब्रिटेन, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया आदि) और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के कंसोर्टियम सहित अन्य संस्थानों (आईडब्ल्यूएमआईए टेम्स प्राधिकरण, मुरे-डार्लिंग बेसिन अथॉरिटी) से सहायता प्रदान करने का अनुरोध किया गया है।

नमामि गंगे


भारत सरकार ने हाल ही में (2015) नमामि गंगे कार्यक्रम को मंजूरी दी है जो व्यापक तरीके से गंगा को स्वच्छ और संरक्षित करने का एकीकृत प्रयास है। अगली योजना अवधि के लिये 200 अरब रुपये का आवंटन किया गया है और गैप कार्यक्रमों को इसके दायरे में लाया गया है। यह बहुत व्यापक है और इसमें बायो रेमिडिएशन के जरिए खुली नालियों में बहने वाले अपशिष्ट जल का उपचार, नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग, अतिरिक्त एसटीपीए नए औद्योगिक उपचार संयंत्रों को लगाना और सभी मौजूदा संंयंत्रों की रेट्रोपिटिंग की स्थापना करना है जिससे उन्हें कार्यात्मक बनाया जा सके।

गंगा नदी बेसिन प्रबंधन योजना


अध्ययन और विचार-विमर्श के आधार पर सात आईआईटी के एक संघ ने व्यापक गंगा नदी बेसिन प्रबंधन योजना (जीआरबीएमपी) विकसित की है विचार और कार्यान्वयन के लिये उसे गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण को प्रस्तुत किया है। (तारे और अन्य, 2015)

प्रस्तावित योजना आठ मिशन के रूप में सुझाव और सिफारिशें करती हैः अविरल धारा (सतत निर्बाध प्रवाह), निर्मल धारा (अप्रदूषित स्वच्छ प्रवाह), पारिस्थितिकी की बहाली, सतत कृषि, भूवैज्ञानिक सुरक्षा, आपदाओं से घाटी का संरक्षण, नदी जोखिम प्रबंधन और पर्यावरण का ज्ञान-निर्माण और संवेदीकरण। इसकी मुख्य सिफारिशों में से एक यह है कि सभी प्रदूषणकारी उद्योगों के लिये जीरो डिस्चार्ज नीति सुनिश्चित की जाए। इन सुझावों को लागू करने के लिये अगले 25 सालों में 100 अरब अमेरिकी डॉलर की लागत का अनुमान है।

निष्कर्ष


विश्व में ऐसी अनेक नदियाँ हैं जो कभी गंगा से भी अधिक प्रदूषित थीं, जैसे डेन्यूब, टेम्स, राइन, नील, और एल्बे। विभिन्न देशों में विभिन्न नदी घाटियों में जल प्रबंधन संगठनों ने जानकारियाँ और परिदृश्यों को तैयार करके, प्रदूषण के स्थानों को चिन्हित करके, कृषि में पोषण अंतराल को कम करने के लिये शहरी तथा ग्रामीण कचरे का उपचार करके, निवेश को बढ़ावा देकर और जागरूकता फैलाकर नदियों की सफाई और कायाकल्प किया। भारत में प्रदूषण नियंत्रण पर वर्तमान प्रयास और निवेश केवल सीवर और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण पर केंद्रित रहे हैं।

वर्तमान योजना को फिलहाल अनियंत्रित सीपेज निपटारे और गैर नेटवर्क सीवेज क्षेत्रों से गंदे पानी के बहाव तथा कृषि व मवेशियों के गैर बिंदु स्रोत की समस्या की तरफ ध्यान देना चाहिए। यह प्रस्ताव बहु-आयामी हो सकता है और इसे निम्नलिखित के माध्यम से समग्र रूप से समस्या का हल तलाशना चाहिए (i) शहरी क्षेत्रों में सीवेज से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण के भार को कम करना और कृषि के क्षेत्र में उनका सुरक्षित उपयोग, (ii) एक व्यवहार्य पर्यावरणीय जल गुणवत्ता प्रबंधन प्रणाली का विकास करना (iii) अभिनव गंगा प्रदर्शन केंद्र या गंगा विश्वविद्यालय की स्थापना करना और (iv) प्रमुख हितधारकों की प्रशासनिक, संवाद और कार्यान्वयन क्षमता में सुधार करना। इन प्रयासों के अच्छे तालमेल से गंगा को स्वच्छ और सतत रूप से प्रवाहित करना संभव हो सकता है।

संदर्भ


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गंगा नदी बेसिन प्रबंधन योजना (2015): मुख्य दस्तावेज। मुम्बई, दिल्ली, गुवाहाटी, कानपुर, खड़गपुर, मद्रास, रुड़की स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान।

त्रिवेदी आर सी, 2010: गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता- एक अवलोकन। जलीय पारिस्थितिकी तंत्र का स्वास्थ्य एवं प्रबंधन

लेखक परिचय


लेखक भारतीय अन्तरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान नई दिल्ली में एमिरेट्स वैज्ञानिक हैं। पूर्व में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में समेकित जल प्रबंधन विभाग के अपर महानिदेशक रहे हैं। लगभग 200 शोधपत्र/पुस्तकें प्रकाशित। ईमेलः briwmiyahoo.co.in

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