गंगा पर नजर
शायद यही वजह है कि बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय ने गंगा कार्ययोजना की दिशा में कुछ खास प्रगति न होने पर फिर सरकार को फटकार लगाई और पूछा कि क्या आप इस कार्यकाल में गंगा की सफाई कर पाएँगे या इसके लिए आपको अगला कार्यकाल चाहिए! अदालत की यह टिप्पणी सरकार के लिए शर्मिन्दगी का विषय होना चाहिए, पर अब भी पहले की तरह उम्मीदों के सिवा कोई ठोस कार्यक्रम नहीं दिखता।
यों सरकार के गठन के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा की सफाई के महाअभियान के तहत् राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण, राष्ट्रीय गंगा सफाई अभियान जैसे कई विभागों को जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनर्जीवन मन्त्रालय के अधीन स्थानान्तरित कर दिया पर सवाल है कि दिखने में बड़ी-बड़ी कवायदों का क्या हासिल है, अगर जमीन पर उससे कुछ ठोस होता न दिखे।
आखिर किन वजहों से सुप्रीम कोर्ट को इस मोर्चे पर सरकार के अब तक के काम का पूरा खाका माँगना पड़ा, ताकि जाँच कर उसकी पुष्टि की जा सके! अदालत ने सरकार से बाकायदा हलफनामा दायर कर गोमुख से रुड़की तक जल-मल शोधन संयन्त्रों का पूरा ब्योरा पेश करने को कहा है।
गौरतलब है कि सरकार के लगातार टालमटोल भरे रवैए के चलते पिछले साल अक्टूबर में सुप्रीमकोर्ट ने ‘अन्तिम उम्मीद’ के तौर पर गंगा को प्रदूषित करने वाली औद्योगिक इकाइयों पर नकेल कसने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय हरित पंचाट को सौंपी थी। अदालत ने कहा था कि अब हरित पंचाट खुद गंगा में प्रदूषण फैलाने के लिए जिम्मेदार कारखानों की जाँच और निगरानी करे और जरूरत पड़े तो उनका बिजली पानी बन्द कर दे।
साफ है, सर्वोच्च न्यायालय का वह निर्देश गंगा की सफाई से जुड़े सभी सरकारी महकमों के कामकाज की शैली और जिम्मेदारी निभाने में उनकी विफलता पर एक सख्त टिप्पणी थी। लेकिन लगता है, अदालतों के निर्देश सरकार के लिए बहुत मायने नहीं रखते। तथ्य यह है कि गंगा में प्रदूषण और उसकी बुरी हालत के मद्देनजर करीब तीन दशक पहले अदालत में याचिका दाखिल की गई थी और तब से सुप्रीम कोर्ट ने कई आदेश दिए।
मगर अब तक दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम बहा दिए जाने के बावजूद उन पर अमल की स्थिति का अन्दाजा आज गंगा की दशा से लगाया जा सकता है। गंगा की सफाई के लिए चलाए गए विशेष अभियानों और सरकारी कोशिशों का असर शायद ही कहीं दिखता है। लगभग ढाई हजार किलोमीटर लम्बी गंगा में जहाँ छोटी या बरसाती नदियाँ मिल जाती हैं, वहीं गन्दे पानी के नाले, औद्योगिक इकाइयों से निकले जहरीले रसायन वाला पानी और कचरा उसी में बहा दिए जाते हैं।
यहीं नहीं, गंगा को पवित्र नदी मानने वाले लोग भी इसे कम नुकसान नहीं पहुँचाते, जब वे किसी त्यौहार, धार्मिक आयोजन और परम्परागत् सामाजिक मेलों के दौरान हर साल गंगा के किनारे पूजा-पाठ के बाद निकले कचरे और दूसरी गन्दगी को सीधे नदी में फेंकने को पुण्य काम मानते हैं। सवाल है कि गंगा को जीवन देने के लिए चलाए जाने वाले अभियान में इन पहलुओं से किस तरह निपटा जाएगा।
दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम बहा दिए जाने के बावजूद उन पर अमल की स्थिति का अन्दाजा आज गंगा की दशा से लगाया जा सकता है। गंगा की सफाई के लिए चलाए गए विशेष अभियानों और सरकारी कोशिशों का असर शायद ही कहीं दिखता है। लगभग ढाई हजार किलोमीटर लम्बी गंगा में जहाँ छोटी या बरसाती नदियाँ मिल जाती हैं, वहीं गन्दे पानी के नाले, औद्योगिक इकाइयों से निकले जहरीले रसायन वाला पानी और कचरा उसी में बहा दिए जाते हैं।
पिछले साल आम चुनावों के दौरान भाजपा ने गंगा की सफाई को अपना चुनावी मुद्दा बनाया और घोषणापत्र में भी इस नदी के निर्मलीकरण का वादा किया था। चुनावों में बहुमत से मिली जीत के बाद शुरुआती सक्रियता से कुछ उम्मीद जगी थी। मगर लगता है, फिर से इस मामले में पुरानी शिथिलता छाती जा रही है।शायद यही वजह है कि बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय ने गंगा कार्ययोजना की दिशा में कुछ खास प्रगति न होने पर फिर सरकार को फटकार लगाई और पूछा कि क्या आप इस कार्यकाल में गंगा की सफाई कर पाएँगे या इसके लिए आपको अगला कार्यकाल चाहिए! अदालत की यह टिप्पणी सरकार के लिए शर्मिन्दगी का विषय होना चाहिए, पर अब भी पहले की तरह उम्मीदों के सिवा कोई ठोस कार्यक्रम नहीं दिखता।
यों सरकार के गठन के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा की सफाई के महाअभियान के तहत् राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण, राष्ट्रीय गंगा सफाई अभियान जैसे कई विभागों को जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनर्जीवन मन्त्रालय के अधीन स्थानान्तरित कर दिया पर सवाल है कि दिखने में बड़ी-बड़ी कवायदों का क्या हासिल है, अगर जमीन पर उससे कुछ ठोस होता न दिखे।
आखिर किन वजहों से सुप्रीम कोर्ट को इस मोर्चे पर सरकार के अब तक के काम का पूरा खाका माँगना पड़ा, ताकि जाँच कर उसकी पुष्टि की जा सके! अदालत ने सरकार से बाकायदा हलफनामा दायर कर गोमुख से रुड़की तक जल-मल शोधन संयन्त्रों का पूरा ब्योरा पेश करने को कहा है।
गौरतलब है कि सरकार के लगातार टालमटोल भरे रवैए के चलते पिछले साल अक्टूबर में सुप्रीमकोर्ट ने ‘अन्तिम उम्मीद’ के तौर पर गंगा को प्रदूषित करने वाली औद्योगिक इकाइयों पर नकेल कसने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय हरित पंचाट को सौंपी थी। अदालत ने कहा था कि अब हरित पंचाट खुद गंगा में प्रदूषण फैलाने के लिए जिम्मेदार कारखानों की जाँच और निगरानी करे और जरूरत पड़े तो उनका बिजली पानी बन्द कर दे।
साफ है, सर्वोच्च न्यायालय का वह निर्देश गंगा की सफाई से जुड़े सभी सरकारी महकमों के कामकाज की शैली और जिम्मेदारी निभाने में उनकी विफलता पर एक सख्त टिप्पणी थी। लेकिन लगता है, अदालतों के निर्देश सरकार के लिए बहुत मायने नहीं रखते। तथ्य यह है कि गंगा में प्रदूषण और उसकी बुरी हालत के मद्देनजर करीब तीन दशक पहले अदालत में याचिका दाखिल की गई थी और तब से सुप्रीम कोर्ट ने कई आदेश दिए।
मगर अब तक दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम बहा दिए जाने के बावजूद उन पर अमल की स्थिति का अन्दाजा आज गंगा की दशा से लगाया जा सकता है। गंगा की सफाई के लिए चलाए गए विशेष अभियानों और सरकारी कोशिशों का असर शायद ही कहीं दिखता है। लगभग ढाई हजार किलोमीटर लम्बी गंगा में जहाँ छोटी या बरसाती नदियाँ मिल जाती हैं, वहीं गन्दे पानी के नाले, औद्योगिक इकाइयों से निकले जहरीले रसायन वाला पानी और कचरा उसी में बहा दिए जाते हैं।
यहीं नहीं, गंगा को पवित्र नदी मानने वाले लोग भी इसे कम नुकसान नहीं पहुँचाते, जब वे किसी त्यौहार, धार्मिक आयोजन और परम्परागत् सामाजिक मेलों के दौरान हर साल गंगा के किनारे पूजा-पाठ के बाद निकले कचरे और दूसरी गन्दगी को सीधे नदी में फेंकने को पुण्य काम मानते हैं। सवाल है कि गंगा को जीवन देने के लिए चलाए जाने वाले अभियान में इन पहलुओं से किस तरह निपटा जाएगा।
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Post By: Shivendra