गंगा पर बड़े बांधो का भ्रम

अलंकनंदा गंगा पर बने पहले निजी बांध (जे.पी. कंपनी) की सुरंग से धंसे चाई गांव के लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। मंदाकिनी घाटी में निर्माणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी व फाटा-ब्योंग बांधों की निमार्णाधीन सुरंगो से त्रस्त, अपने जंगलों की रक्षा में खड़े लोगों को जेल भेजा जा रहा है। और बांध कंपनियों की निगरानी तक नहीं है। 65 मीटर के बांध और 200 मेगावाट के लिये प्रस्तावित श्रीनगर परियोजना में 95 मीटर का बांध और 330 मेगावाट के लिये बन रही है। पिंडर घाटी में जहां लोगों ने बांध का विरोध किया, दो बार जनसुनवाई नहीं होने दी वहां तीसरी बार बैरीकेट लगाकर जनसुनवाई की गई।

23 मार्च को 67 दिनों से उपवास सहित तपस्यारत सन्यासी जी.डी अग्रवाल जी को सरकार ने आश्वासन दिया है कि उनके प्रश्नों को 17 अप्रैल को राष्ट्रीय गंगा प्राधिकरण की बैठक में उठाया जायेगा। यहां ध्यान देने की जरूरत है कि उत्तराखंड राज्य में बड़े बांधो की नहीं वरन् पहाड़ के लिये स्थायी विकास हेतु प्राकृतिक संसाधनों के जनआधारित उपयोग की जरूरत है। राज्य में नयी सरकार के नये मुख्यमंत्री ने राज्य में ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने की बात की है। यह बयान चिंताजनक है और अपने में एक भय दिखाता है। इसका अर्थ होता है कि बांधों पर नयी दौड़ शुरू होगी। हाल ही में 14 मार्च से 22 मार्च तक ‘वैश्विक बड़े बांध विरोधी सप्ताह’ पर माटू जनसंगठन ने उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों पर बड़े बांधों के विरोध में प्रदर्शन किया। अलकनंदा गंगा पर निर्माणाधीन विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध (444 मेगावाट) प्रभावितों ने पीपलकोटी शहर में जुलुस निकाला और अलकनंदा गंगा को स्वतंत्र रखने के लिये संघर्ष को तेज करने का संकल्प लिया।

हाल ही में इस परियोजना को विश्व बैंक से कर्जा मंजूर हुआ है। 24 दिसंबर को विश्व बैंक के मिशन का भी लोगो ने 3 घंटे घेराव करके अपना विरोध प्रकट किया टौंस घाटी में जखोल-सांकरी बांध (51 मेगावाट) प्रभावित क्षेत्र में भी बड़ा जुलूस प्रर्दशन हुआ यह क्षेत्र गोविंद पशु विहार में आता है। यहां लोगों के पांरम्परिक हक-हकूको पर पाबंदी है। किंतु बांध की तैयारी है। जखोल गांव 2,200 मीटर की उंचाई पर है और भूस्खलन से प्रभावित है। बांध की सुरंग इसके नीचे से ही प्रस्तावित है। यहां लोगों ने मई 2011 से टेस्टिंग सुरंग को बंद कर रखा है। जिस तरह बिजली उत्पादन के लिये पर्यावरण नियमों और नदी घाटी के निवासियों के हक-हकूकों को एक तरफ करके नये बांधों को जल्दी-जल्दी बनाने की कोशिश हो रही है। वह किसी भी तरह से उत्तराखंड के भविष्य के लिये सही नहीं है। पुराने बांधों की कमियों और उनके नुकसानों पर कोई चर्चा तक नहीं है।

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा किसी भी नदी में मक डालने पर पाबंदी है। मक को कहीं पर भी रखे जाने के लिये भी नियम मंत्रालय द्वारा दिये गये है। किंतु राज्य में कहीं भी इसका पालन नहीं हो रहा है। टिहरी बांध परियोजना जिसमें टिहरी बांध, पंप स्टोरेज प्लांट व कोटेश्वर बांध आते हैं। इनकी पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 को हुई थी जिसमें शर्त संख्या 3.7 में भागीरथी प्रबंध प्राधिकरण बनाने के लिये थी। इस प्राधिकरण का काम पूरी घाटी के प्रबंधन का होना चाहिये। किंतु नदी को जिस तरह कचरा फेंकने की जगह बना दिया गया है वह शर्मनाक है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्राधिकरण भी पूरी तरह जिम्मेदार है। दोनों की ओर से कोई निगरानी नहीं हो रही है। इसके लिये बांध कंपनी टिहरी जलविद्युत निगम (टीएचडीसी) व बांध ठेकेदारों पर कार्यवाही होनी चाहिये। किंतु टीएचडीसी को नये बांधों का ठेका दिया जा रहा है। विश्व बैंक ने टीएचडीसी को अलकनंदा गंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध के लिये पैसा दिया है। वहां भी यही हाल है।

भागीरथी गंगा पर जिस लोहारी नागपाला बांध को रोका गया था वहां पर बन चुकी सुरंग को ऐसे ही छोड़ दिया है। मकानों में आई दरारों, सूखे जलस्रोतों के लिये कोई उपाय नहीं किये गये हैं। मनेरी-भाली चरण दो में बांध चालू होने के बाद भी जलाशय पूरा नहीं भरा जा सका चूंकि जलाशय से नई डूब आई। डूब का क्षेत्र पहले मालूम ही नहीं था। इसी बांध की सुरंग से कितने ही गांवों के जल स्रोत सूख गये। बांध बनने के बाद इसका विद्युतगृह टिहरी बांध की झील में आ रहा है। यह बताता है कि अभियांत्रिकी व सर्वे कितने गलत है। भागीरथी गंगा के बांधों से कभी भी पानी छोड़ने के कारण दसियों लोग डूब चुके हैं। अभी 18 फरवरी, 2012 को उत्तरकाशी में गंगा के बीच में दो बच्चे फंस गये थे। गंगा सर्दियों में सूखी नजर आती है। बांध कंपनियां शाम को बिजली पैदा करने के लिये ही पानी छोड़ती है। नदी किनारे रहने वाले, नदियों से ही वचिंत हो गये हैं।

माननीय उच्च न्यायालय द्वारा 3 नवम्बर 2011 को एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह की याचिका पर टीएचडीसी को टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास कार्य पूरा करने के लिये 102.99 करोड़ रुपये देने का निर्देश दिया है। जबकी सरकारें 2005 में ही पूर्ण पुनर्वास की घोषणा कर चुकी थी। अभी भी अलंकनंदा गंगा पर बने पहले निजी बांध (जे.पी. कंपनी) की सुरंग से धंसे चाई गांव के लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। मंदाकिनी घाटी में निर्माणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी व फाटा-ब्योंग बांधों की निर्माणाधीन सुरंगो से त्रस्त, अपने जंगलों की रक्षा में खड़े लोगों को जेल भेजा जा रहा है। और बांध कंपनियों की निगरानी तक नहीं है।

65 मीटर के बांध और 200 मेगावाट के लिये प्रस्तावित श्रीनगर परियोजना में 95 मीटर का बांध और 330 मेगावाट के लिये बन रही है। पिंडर घाटी में जहां लोगों ने बांध का विरोध किया, दो बार जनसुनवाई नहीं होने दी वहां तीसरी बार बैरीकेट लगाकर जनसुनवाई की गई और तमाम उलंघनों के बाद भी स्थानीय प्रशासन और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय मंत्रालय को गलत तथ्य पेश किये। यह पर्यावरण मंत्रालय की बंद आंखो वाली स्वीकृति प्रक्रिया का प्रमाण है। ये सब कुछ उदाहरण मात्र है कि कैसे बांधों से विकास के भ्रम को आगे बढ़ाया जा रहा है।

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