यह विडम्बना है कि एक ओर केन्द्र सरकार गंगा की सफाई को लेकर फिक्रमंद है, वहीं केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय नमामि गंगे योजना का बजट खर्च करने में नाकाम है। यह स्थिति समझने के लिये पर्याप्त है कि गंगा निर्मलीकरण को लेकर नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय कितना गम्भीर है। मंत्रालय की सुस्ती के कारण ही केन्द्र सरकार ने एक फरवरी को पेश आम बजट में नमामि गंगे योजना में 700 करोड़ रुपए की कटौती कर दी है। उल्लेखनीय है कि चालू वित्त वर्ष में सरकार ने नमामि गंगे के लिये 2,250 करोड़ रुपए आवंटित किए थे, लेकिन पेश आम बजट में वित्त वर्ष 2016-17 के लिये संशोधित आवंटन घटाकर 1,440 करोड़ रुपए कर दिया है। पहली बार नहीं है, जब मंत्रालय की सुस्ती के कारण इस मद के बजट में कटौती हुई है। वित्तीय वर्ष 2015-16 में मंत्रालय ने सिर्फ 1,000 करोड़ रुपए खर्च किया और 1,200 करोड़ रुपए वापस हो गए।
इसी तरह वित्त वर्ष 2014-15 में भी मंत्रालय ने आवंटित धनराशि का पूरा इस्तेमाल नहीं किया। मंत्रालय की सुस्ती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चालू वित्त वर्ष में अप्रैल से दिसम्बर के दौरान पहले नौ महीने में जहाँ सरकार ने अपने कुल योजनान्तर्गत आवंटन का 74.6 फीसद खर्च किया, वहीं गंगा संरक्षण मंत्रालय अपने कुल योजनागत आवंटन का सिर्फ 68 फीसद ही खर्च कर पाया। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय गंगा की सफाई को लेकर संवेदनशील नहीं है। उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने गंगा को निर्मल बनाने के लिये एक अलग से मंत्रालय का गठन कर 2037 करोड़ रुपए की ‘नमामि गंगे’ योजना शुरू की। इसके तहत गंगा को प्रदूषित करने वाले उद्योगों पर निगरानी रखना, उनके विरुद्ध कार्रवाई करना, के अलावा गंगा नदी के किनारे स्थित 118 शहरों व जिलों में जलमग्न शोधन संयंत्र व सम्बन्धित आधारभूत संरचना का अध्ययन के साथ गंगा नदी के किनारे स्थित श्मशान घाटों पर लकड़ी निर्मित प्लेटफार्म को उन्नत बनाना तथा प्रदूषण व गंदगी फैलाने वालों पर लगाम कसना सुनिश्चित हुआ। लेकिन अभी तक यह सिर्फ कागजी कार्रवाई ही प्रतीत हुआ है।
गंगा का सिर्फ धार्मिक महत्त्व ही नहीं है, बल्कि जीवन से जुड़ा उसका आर्थिक सरोकार भी है। गंगा के बेसिन में देश की 43 फीसद आबादी का निवास है। प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उनकी जीविका गंगा पर ही निर्भर है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की लगभग 66 फीसद आबादी का मुख्य व्यवसाय कृषि है और सिंचाई की निर्भरता गंगा पर है। गंगा गोमुख से निकल उत्तराखण्ड में 450 किमी, उत्तर प्रदेश में 1,000 किमी, बिहार में 405 किमी, झारखंड में 40 किमी और पश्चिम बंगाल में 520 किमी सहित कुल 2,525 किमी लम्बी यात्रा तय करती है। पर तमाशा है कि गंगा की सफाई के लिये पर्याप्त धन होने के बावजूद भी जीवनदायिनी गंगा की सफाई की रफ्तार धीमी है। गौरतलब है कि 1985 में गंगा की सफाई के लिये गंगा एक्शन प्लान प्रारम्भ किया गया, लेकिन 31 साल गुजर जाने और हजारों करोड़ रुपए खर्च होने के बाद भी गंगा की स्थिति जस की तस है।
हालात यह है कि आज भी प्रतिदिन गंगा के बेसिन में 275 लाख लीटर गंदा पानी बहाया जाता है। इसमें 190 लाख लीटर सीवेज व 85 मिलियन लीटर औद्योगिक कचरा होता है। गंगा की दुर्गति के लिये मुख्य रूप से सीवर और औद्योगिक कचरा ही जिम्मेदार है, जो बिना शोधित किए गंगा में बहा दिया जाता है। गंगा नदी के तट पर अवस्थित 764 उद्योग और इससे निकलने वाले हानिकारक अवशिष्ट बहुत बड़ी चुनौती है, जिनमें 444 चमड़ा उद्योग, 27 रासायनिक उद्योग, 67 चीनी मिलें तथा 33 शराब उद्योग शामिल हैं। जल विकास अभिकरण की मानें तो उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा तट पर स्थित इन उद्योगों द्वारा प्रतिदिन 112.3 करोड़ लीटर जल का उपयोग किया जाता है। इनमें रसायन उद्योग 21 करोड़ लीटर, शराब उद्योग 7.8 करोड़ लीटर, चीनी उद्योग 30.4 करोड़ लीटर, कागज व पल्प उद्योग 30.6 करोड़ लीटर, कपड़ा व रंग उद्योग 1.4 करोड़ लीटर और अन्य उद्योग 16.8 करोड़ लीटर गंगाजल का उपयोग प्रतिदिन कर रहे हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि गंगा नदी के तट पर प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग और गंगा जल के अंधाधुंध दोहन से नदी के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो गया है। उचित होगा कि गंगा के तट पर बसे औद्योगिक शहरों के कल-कारखानों के कचरे को गंगा में गिरने से रोका जाए और ऐसा न करने पर कल-कारखानों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाए। गंगा की सफाई हिमालय क्षेत्र से इसके उद्गम से शुरू करके मंदाकिनी, अलकनंदा, भागीरथी व अन्य सहायक नदियों में होनी चाहिए। क्योंकि गत वर्ष पहले वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो गयी है। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरे को बहाने से क्रोमियम व मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा बढ़ी है। प्रदूषण की वजह से गंगा में जैविक ऑक्सीजन का स्तर 5 हो गया है। जबकि नहाने लायक पानी में कम से कम यह स्तर 3 से अधिक नहीं होना चाहिए।
गोमुख से गंगोत्री तक तकरीबन 2500 किमी के रास्ते में कॉलीफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति दर्ज की गयी है, जो अनेक बीमारियों की जड़ है। गत वर्ष पहले औद्योगिक विष-विज्ञान केन्द्र लखनऊ के वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गंगा के पानी में ई-कोलाई बैक्टीरिया पाया गया है, जिसमें जहरीला जीन है। वैज्ञानिकों ने माना कि बैक्टीरिया की मुख्य वजह गंगा में मानव और जानवरों का मल-मूत्र बहाया जाना है। वैज्ञानिकों की मानें तो ई-कोलाई बैक्टीरिया की वजह से सालाना लाखों लोग गम्भीर बीमरियों की चपेट में आते हैं। प्रदूषण के कारण गंगा के जल में कैंसर के कीटाणुओं की सम्भावना प्रबल हो गयी है। जाँच में पाया गया है कि पानी में क्रोमियम, जिंक, लेड, आर्सेनिक, मरकरी की मात्रा बढ़ती जा रही है।
वैज्ञानिकों की मानें तो नदी जल में हैवी मेटल्स की मात्रा 0.01-0.05 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए। जबकि गंगा में यह मात्रा 0.091 पीपीएम के खतरनाक स्तर तक पहुँच चुका है। जबकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने भी गोमुख से हरिद्वार तक गंगा किनारे इस प्रकार के प्लास्टिक पर पाबंदी लगा दी है। साथ ही गंगा और उसकी सहायक नदियों में घरेलू कूड़ा व सीवेज डालने वाले होटल, धर्मशाला तथा आश्रमों पर 5000 रुपए प्रतिदिन की दर से जुर्माना लगाने के भी आदेश दिए हैं। लेकिन स्थिति जस की तस है। आज भी गंगा के घाटों पर लाखों लाशें जलायी जाती हैं। दूर स्थानों से जलाकर लायी गयी अस्थियों को भी प्रवाहित किया जाता है। ऐसी आस्थाएँ गंगा को प्रदूषित करती हैं। हद तो यह कि गंगा सफाई अभियान से जुड़ी एजेंसियाँ भी गंगा से निकाली गयी अधजली हड्डियाँ और राखें पुन: गंगा में उड़ेल देती हैं। त्योहारों के मौसम में गंगा में फूल, पत्ते, नारियल, प्लास्टिक व ऐसे ही अन्य अवशिष्टों को बहाया जाता है। आखिर इस सफाई अभियान से किस तरह का मकसद पूरा होगा।
जब तक आस्था और स्वार्थ के उफनते ज्वारभाटे पर नैतिक रूप से लगाम नहीं लगेगी, तब तक गंगा का निर्मलीकरण सम्भव नहीं है। गत वर्ष पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार ने गंगा के किनारे दो किलोमीटर के दायरे में प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया था। लेकिन यह प्रतिबंध सिर्फ दिखावा साबित हुआ। मनाही के बावजूद भी गंगा के किनारे प्लास्टिक बिखरे देखे जा सकते हैं। गौर करें तो इसके लिये सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि समाज भी उतना ही जिम्मेदार है। जब तक समाज गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने का व्रत नहीं लेगा, तब तक गंगा की सरकारी सफाई से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। ध्यान रखना होगा कि गंगा में तकरीनब एक हजार छोटी-बड़ी नदियाँ मिलती है। अगर गंगा को स्वच्छ रखना है तो इन नदियों की भी साफ-सफाई भी उतना ही जरूरी है।
पर्यावरणविदों की मानें तो गंगा की दुर्दशा के लिये एक हद तक गंगा पर बनाए जा रहे बाँध भी जिम्मेदार हैं। गोमुख से निकलने के बाद गंगा का सबसे बड़ा कैदखाना टिहरी जलाशय है। इस जलाशय से कई राज्यों को पानी और बिजली की आपूर्ति होती है। यह भारत की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजनाओं में से एक है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी कीमत गंगा को विलुप्त होकर चुकाना पड़ेगा। पर्यावरणविदों का तर्क है कि गंगा पर बाँध बनाए जाने से जल प्रवाह में कमी आयी है। प्रवाह की गति धीमी होने से गंगा में बहाए जा रहे कचरा, सीवर का पानी और घातक रसायनों का बहाव समुचित रूप से नहीं हो रहा है। पर्यावरणविदों का यह भी कहना है कि गंगा पर हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट लगाने से पर्यावरणीय असंतुलन पैदा होगा।
उत्तरकाशी क्षेत्र में लोहारी नागपाला पनबिजली परियोजना को पुन: हरी झंडी दिखायी गयी तो गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच गंगा का तकरीबन सवा सौ किलोमीटर लम्बा क्षेत्र सूख जाएगा। उनका कहना है कि अगर गंगा पर प्रस्तावित सभी बाँध अस्तित्व में आए तो गंगा का 39 फीसद हिस्सा झील बन जाएगा। इससे प्राकृतिक आपदाओं की सम्भावना बढ़ जाएगी। गंगा पर बनाए जाने वाले 34 बाँधों और गंगा की कोख का खनन को लेकर भी संत समाज आंदोलित है। उचित होगा कि केन्द्रीय जल संसाधन एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय निर्मलीकरण के लिये आवंटित धनराशि का शत-प्रतिशत उपयोग कर गंगा को स्वच्छ व निर्मल बनाए।
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