गंगा प्रेमियों की इच्छा और मांग है कि गंगा मूल धारा के चारों तरफ कोई उद्योग न लगे। पूरा बेसिन प्रदूषित उद्योगों से मुक्त बने। गंगा मैया सर्वोच्च श्रेणी की नदी हैं इसको नैसर्गिक नहीं तो पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करना जरूरी है। गंगा मैया के पर्यावरणीय प्रवाह से ही हमारी सेहत और हमारी आर्थिक स्थिति सुधरेगी।
भारत में पवित्रता से गंदगी को दूर रखना, अमृत में जहर को न मिलने देना तथा वर्षा जल और गंदे पानी को अलग-अलग बहने के लिए नदियों को नालों से अलग रखने का विधान था। लेकिन अब लगता है, औद्योगिक घरानों, राजनेताओं तथा सरकारी संस्थानों, नगर पालिकाओं एवं नगर पंचायतों को गंदा जल गंगा में मिलाने की राज-स्वीकृति मिल गई है। लोकतंत्र आने से पहले 1932 में बनारस के मंडलायुक्त हॉकिंस ने बनारस में सबसे पहले गंगा में गंदे नाले मिलाने की स्वीकृति दी थी। यहां के समाज ने भी इसे स्वीकार किया था। वहां से फिर पूरी गंगा के साथ ऐसा ही बुरा व्यवहार होने लगा। आजादी के बाद हमने जिन्हें वोट देकर अपना नेता बनाया, उन्होंने हमारी गंगा मैया की सेहत को ठीक रखने की भूमिका नहीं निभाई परिणामस्वरूप अंग्रेजी हुकूमत से मिली मैली गंगा मैया आजादी के बाद गंदगी ढोने वाली गंगा बन गई। अन्न व ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने के नाम पर गंगा को बांधों में बांध दिया, जिसके कारण गंगा की अपनी विलक्षण प्रदूषण नाशिनी शक्ति नष्ट हो गई।धीरे-धीरे गंगा मैया स्वयं बीमार हो गई। गंगा अमृत की दो बूंद मरते समय अपने कंठ में पाने के लिए भारतीयों की अंतिम इच्छा पूरी करने वाला गंगा का गौरव ही अब समाप्त हो गया है। लेकिन अब एक बार फिर भारतवासी खड़े हो रहे हैं। गंगा की अविरलता-निर्मलता को लक्ष्य बनाकर गंगा मुक्ति संग्राम शुरू किया गया है। इस हेतु ‘गंगा तपस्या’ से गंगा मुक्ति संग्राम, शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की प्रेरणा से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद, स्वामी सानंद, गंगा प्रेमी भिक्षु कृष्ण प्रियानंद ब्रह्मचारी के साथ तमाम गंगा और प्रयावरणप्रेमियों ने गंगा तपस्या का संकल्प लिया था। मकर संक्रांति के दिन यानी 14 जनवरी को गंगा सागर जाकर विविध रूपों में गंगा तपस्या शुरू हुई थी। यह तपस्या बिना स्वार्थ गंगा सेवा और रक्षण कार्यों के लिए लंबे समय तक चली। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद की शिष्य साध्वी कृष्णम्मा ने अपने गुरू के स्थान पर जल त्याग कर घोर कठिन तपस्या शुरू कर रखी है। इनके साथ शारदाम्मा भी घोर तप कर रही है।
जल छोड़कर इस समय सात तपस्वी तपस्यारत हैं। इनमें औघड़ स्वामी श्री विद्या मठ वाराणसी में जल छोड़कर तपस्या कर रहे हैं। शेष छह तपस्वी गंगा प्रेमी भिक्षु कृष्ण प्रियानंद ब्रह्मचारी, साध्वी कृष्णम्मा, साध्वी शारदाम्मा, योगेश्वर नाथ व नागेश्वर नाथ हैं। ये राजकीय चिकित्सालय, कबीर चौरा, वाराणसी में तपस्यारत हैं। लेकिन सरकार संवेदनहीन बनकर इन गंगा तपस्वियों की अनदेखी कर रही है। तपस्वियों की तरफ सरकार नहीं देखती तो न देखे पर गंगा आस्था और गंगा पर्यावरण रक्षा का काम तुरंत प्रभाव से शुरू कर दे। गंगा कानून बनवाए। गंगा मुक्ति संग्राम उन दुर्जन शक्तियों के खिलाफ है जो गंगा में प्रदूषण, गंगा पर बांध बनाकर या उसके किनारे नए शहर बसाकर तथा गंगा जल, रेत, पत्थर आदि का खनन करके गंगा का शोषण कर रही हैं। अब इस अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण से गंगा मुक्ति का संग्राम आज यानी 18 जून, 2012 को दिल्ली से शुरू हो रहा है।
सच तो यह है कि आस्था से जुड़ी हमारी इस नदी को बचाने के लिए की जा रही तपस्या से ही गंगा की शिक्षा, सेवा करने का एहसास जगा है। संग्राम से गंगा मुक्ति कार्य कराने का आभास होगा। यह तपस्या गंगा तीर्थों – गंगा सागर (पश्चिम बंगाल), प्रयागराज (इलाहाबाद), मायापुरी (हरिद्वार), मोक्षपुरी (काशी) में अभी तक होती रही है। अब यह दिल्ली में होगी। भारत के संतों का मानना है कि गोमुख से लेकर गंगा सागर तक अविरल-निर्मल गंगा बहे। कानपुर जैसे भयंकर प्रदूषण फैलाने वाले शहरों का प्रदूषण तुरंत प्रभाव से रुके। गंगा भारतीयों की धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक श्रद्धा का केंद्र रही है लेकिन इस पर कुछ मुख्यमंत्रियों के वक्तव्य निराशाजनक हैं। उत्तराखंड राज्य में अभी तक जितनी विद्युत परियोजनाएं बनी हैं उन्होंने आज तक अपने लक्ष्य का आधा उत्पादन भी नहीं किया है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अभी केवल 23 प्रतिशत ऊर्जा उत्पादन ही हो रहा है।
भागीरथी में गंगा तपस्या के बल से तीन बांध रद्द हुए लेकिन अलकनंदा पर नए 50 प्रस्तावित बांध हैं। पांचों प्रयागों की जननी अलकनंदा और मंदाकिनी पर नए-पुराने बांध गंगा तपस्वियों और पर्यावरणप्रेमियों को स्वीकार नहीं हैं। गंगा को जन्म देने वाले हिमालय में गंगा की सभी धाराओं को उनकी अपनी ताल-तरंगों के साथ तीव्र गति से चट्टानों से टकराती हुई हड़-हड़ ध्वनि के साथ हम चलते देखना चाहते हैं। दुनिया भर से आने वाले तीर्थ यात्री एवं पर्यटक गंगा के हिमालयी आकर्षण से आकृष्ट होकर करोड़ों की संख्या में उत्तराखंड जाते हैं। इन तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों की उत्तराखंड पहुंचने से उत्तराखंड शासन को जो लाभ है, वह ऊर्जा उत्पादन से नहीं होगा। इसीलिए उत्तराखंड में गंगा पर अब किसी भी तरह का निर्माण स्वीकार्य नहीं है। गंगा राष्ट्रीय नदी है इसलिए इसको यथोचित राष्ट्रीय सम्मान दिलाने वाला एक कानून बनना चाहिए।
राज्य सरकारों को भी इसके राष्ट्रीय महत्व को सम्मान देना चाहिए। शास्त्रों से भी स्पष्ट होता है कि गंगा हरिद्वार से ऊपर विशेषण सहित प्रभावित होती है और हरिद्वार में आकर गंगा मैया कहलाने लगती है। अतः गंगा के ये दोनों स्वरूप या वृहद आयाम अविरलता-निर्मलता से युक्त होने चाहिए। उत्तराखंड यानी स्वर्ग लोक जहां केवल देवता स्नान करते हैं वहां गंगा के साथ खिलवाड़ करना देवत्व के साथ खिलवाड़ है। भगीरथ का रथ गंगा कणों, रेत, भूभूति, हिमालय के औषधीय गुणों को गोमुख से गंगा सागर तक पहुंचना चाहिए। यह भागीरथी का गंतव्य गंगा सागर तक जाना चाहिए। नहीं तो गंगा सागर के सारे द्वीप नष्ट हो जाएंगे। हिमालय की रेत सागर के द्वीपों में जमकर वहां का उपजाऊपन, समृद्धि व भूगोल को बनाकर रखती है। गंगा प्रेमियों की इच्छा और मांग है कि गंगा मूल धारा के चारों तरफ कोई उद्योग न लगे। पूरा बेसिन प्रदूषित उद्योगों से मुक्त बने। गंगा मैया सर्वोच्च श्रेणी की नदी हैं इसको नैसर्गिक नहीं तो पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करना जरूरी है। गंगा मैया के पर्यावरणीय प्रवाह से ही हमारी सेहत और हमारी आर्थिक स्थिति सुधरेगी। भारत का स्वाभिमान गौरव और ज्ञान को प्रतिष्ठित करने के लिए अब गंगा की अविरलता और निर्मलता भारत सरकार के कार्यों की प्राथमिकता बनना चाहिए।
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