![गंगा](https://farm2.staticflickr.com/1513/24207025071_6425a3ed97.jpg)
नदियाँ, पर्वत-पठार एवं वन किसी भी राष्ट्र की अमूल्य धरोहरें हैं। किसी भी राष्ट्र की प्रगति सिर्फ उसकी उन्नत प्रौद्योगिकी एवं नगरों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से नहीं आँकी जा सकती है। वस्तुतः एक उन्नत एवं विकसित राष्ट्र वह होता है, जहाँ न सिर्फ उन्नत प्रौद्योगिकी का विकास हो वरन वहाँ के निवासियों का प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ कैसा तालमेल है, यह इस पर भी निर्भर करता है। कलकल बहती नदियाँ, वनों से आच्छादित भूमि प्रदेश एवं वहाँ मिलने वाली विभिन्न जातियों के पशु एवं पक्षी न सिर्फ किसी राष्ट्र की उन्नति में चार चाँद लगा देते हैं, वरन वह ईको टूरिज्म के रूप में विदेशी आय के एक प्रमुख स्रोत भी होते हैं।
भारत इस बात पर गर्व कर सकता है कि प्रकृति का उसे भरपूर आशीर्वाद मिला हुआ है। यहाँ एक तरफ तो हिमालय रूपी लोकपाल न सिर्फ उसे सुदूर उत्तर-पूर्व की भयानक बर्फीली आँधियों से रक्षा करता है अपितु उसका गर्भ नाना प्रकार के पशु-पक्षियों एवं जड़ी-बूटियों का बसेरा भी है। वहीं तीन तरफ से घिरी अनंत जल सम्पदा भारत के निवासियों को जीवित रहने लायक वातावरणीय दशा प्रदान करती है। भारतीय उपमहाद्वीप में बहने वाली प्रमुख नदियों में से लगभग 15 प्रमुख नदियों जैसे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, सिंधु, महानदी, तुंगभद्रा इत्यादि न जाने कितने वर्षों से भारत की पावन भूमि को सिंचित करती चली आ रही हैं। ये नदियाँ वाकई भारत एवं भारतीय लोगों की जीवन-रेखा सदृश्य हैं। इतिहास गवाह है कि दुनिया में जितनी भी सभ्यताओं ने जन्म लिया किसी न किसी नदी के तट पर ही लिया जैसे नील नदी के किनारे बसी प्राचीन मिस्र की सभ्यता, यूफ्रेट्स के तट पर बसी प्राचीन मेसोपोटामिया की सभ्यता इत्यादि। खुद भारत में जब 1500 ई.पू. आर्य आए तो उन्होंने भी अपना डेरा सिंधु नदी के किनारे ही बसाया। भारतीय उपमहाद्वीप में बहने वाली प्रमुख नदियाँ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग 26 लाख वर्ग कि.मी. भूमि को जल प्रदान करती हैं। इन नदियों में से लगभग आधी नदियाँ हिमालय से निकलती हैं और 1276 अरब लीटर पानी तथा लगभग 1 करोड़ टन से भी ज्यादा मिट्टी भूमि के रास्ते सालाना समुद्र में प्रवाहित करती जाती हैं।
गंगा इन सभी नदियों में से भारत की सर्वप्रमुख नदी है। यदि यह कहा जाए कि गंगा एवं भारत एक दूसरे के पर्याय हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। पता नहीं कितने हजारों-लाखों सालों से गंगा न सिर्फ भारत की भूमि को सिंचित करती चली आ रही है, वरन अपने सतत एवं गरिमापूर्ण प्रवाह से हर भारतीय की आत्मा को भी सिंचित करती चली आ रही है। हमारे वेद-पुराण एवं असंख्य धार्मिक ग्रंथ गंगा की गुण गाथा से भरे पड़े हुए हैं। और हों भी क्यों न, क्योंकि हमारे प्राचीन मुनियों ने तो इसे आनंदमयी, चैतन्यमयी, श्क्तिमयी एवं परमेश्वर सादृश्य ही माना है। गंगा न सिर्फ एक नदी है वरन यह एक सम्पूर्ण जीवन स्रोत भी है। गंगा के बिना भारत की चर्चा ठीक वैसी ही है जैसे पार्वती के बिना शिव की चर्चा या वेदों के बिना पुराणों की चर्चा। सचमुच भारत के लिये भगवान का वरदान है गंगा। सच पूछा जाए तो इस देश की पहचान है गंगा। गंगा एक विशाल रत्नगर्भा है। इसके गर्भ में तरह-तरह के जलचर पशु, अनेकानेक जातियों की मछलियाँ, लगभग 300 तरह के शैवाल एवं कई तरह की जल प्लावित पादप प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। ये जीव एवं पादप प्रजातियाँ न सिर्फ गंगा को स्वच्छ रखती हैं बल्कि गंगा पर आश्रित अन्य जातियों के पशु एवं पक्षियों को भी स्वच्छ जल मुहैया कराती हैं। गंगा में पायी जाने वाली गंगेय डाॅल्फिन, कछुए, मगर, घड़ियाल एवं मछलियाँ जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के महत्त्वपूर्ण घटक भी हैं।
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ये जीव एवं अन्य सूक्ष्मजीव गंगा के पानी की Self Healing Capacity के जिम्मेदार कारक हैं। अनेक रिसर्चों एवं शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि गंगा के पानी का भण्डारण करके यदि रख दिया जाए तो वह बहुत दिनों तक खराब नहीं होता है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो गंगा खुद अपनी मरम्मत करना जानती है। प्रकृति का यह अनोखा वरदान विश्व में पाए जाने वाली सभी नदियों में सिर्फ गंगा को ही प्राप्त है, दूसरी किसी भी नदी को नहीं। यह एक अद्भुत एवं आश्चर्यजनक तथ्य है। पर अब अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विगत कुछ वर्षों से अमानवीय क्रियाकलापों एवं जरूरत से ज्यादा मानवीय हस्तक्षेपों के कारण गंगा अपनी अस्मिता निरंतर खोती जा रही है। यह बड़े शर्म की बात है। हम जिस गंगा को अपनी माता कहते हैं, हमारे जन्म एवं मृत्यु की डोर जिससे बंधी हुई है आज हम उसी माता स्वरूप गंगा नदी को विलोपन की कगार पर ढकेले जा रहे हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि एक तरफ तो विगत कुछ सौ-सवा-सौ सालों में हम अपनी लगन एवं परिश्रम के फलस्वरूप विश्व मानचित्र पर अपनी मजबूत एवं प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो पाए हैं, परन्तु दूसरी तरफ यह अत्यन्त खेद की बात है कि हमने अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु अपने आस-पास की पर्यावरण प्रणालियों का विनाश कर डाला है। खुद यदि गंगा की बात करें तो अत्यधिक धर्मांधता एवं प्रदूषण के कारण लगता है कि गंगा आत्माविहीन सी हो गई है और गंगा नदी की जगह पर सिर्फ मटमैले एवं प्रदूषित पानी की जलधारा मात्र रह गई है।
![शैवाल](https://farm2.staticflickr.com/1628/24289554575_c499c7fec4.jpg)
गंगा में निवास करने वाले जीवों (जैसे गांगेय डॉल्फिन, घड़ियाल, मगर एवं कछुए) तो लगता है जैसे अब बीते जमाने की किवदंतियाँ बनकर रह गए हैं। हिन्दू मान्यतानुसार जब गंगा पहली दफ़ा धरा पर आई तो पृथ्वी के सम्पर्क में आते ही वह गंदगी से सरोबार होती चली गई। तब देवों के अनुरोध पर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने गाँगेय डॉल्फिनों का निर्माण किया और आदेश दिया कि वे गंगा में अवशिष्ट पदार्थों का सफाया कर गंगा को स्वच्छ एवं प्रदूषणमुक्त रखें। कथा है कथाओं का क्या, परन्तु वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि डॉल्फिनों के अवैध शिकार एवं आवास की कमी के कारण गंगा के पानी की Self Healing Capacity धीरे-धीरे ही सही परन्तु खत्म हो रही है। हिमालय के तराई वाले क्षेत्रों में वनों की अंधाधुंध कटाई एवं अब इस पर अनेक बाँध बनने के कारण गंगा में भारी मात्रा में गाद जमा हो रही है और डॉल्फिनों एवं अन्य जलीय जन्तुओं को अपेक्षित गहराई न मिलने के कारण वे आसानी से शिकारियों के हाथ लग जाती हैं। पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी गैर-सरकारी संगठनों में से एक बाॅम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (BNHS, Mumbai) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत की तीन बड़ी नदियाँ गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं महानदी में अवैध शिकार के कारण घड़ियालों एवं मगरों का लगभग सफ़ाया हो चुका है।
![पनकौआ](https://farm2.staticflickr.com/1549/23921710259_1ff2a93f64.jpg)
यह सर्वविदित है कि गंगा तथा इसके तटीय क्षेत्र अनेकों स्थानीय एवं प्रवासी पक्षियों का स्थाई एवं आंशिक बसेरा भी है जिनमें प्रमुख हैं: पनकौआ (Cormorant), अधंगा, शिलट्टी (Lesser Whistling Teal), पिंटेल डक (Pintail Duck), निलसर, टफटेड पोचार्ड (Tufted Pochard), सोभलर, काॅमन पोचार्ड, रिवर टर्न, स्क्रीमट, पेलिकन, जाँघिल (Painted Stork), घोंघिल (Open Billed Stork), गल, स्टार्क, बत्तकों तथा चाहा की अनेक प्रजातियाँ। परन्तु खेद की बात है कि अनदेखी के कारण आज इन मासूम परिंदों का धड़ल्ले से (बिना रोक-टोक के) शिकार एवं व्यापार किया जा रहा है। चिड़ीमार जाति के लोग लम्बे बाँस एवं अन्य पारम्परिक साधनों द्वारा इन्हें पकड़ते हैं तथा बाजार में भारी कीमतों पर बेचते हैं। पर्यावरण एवं वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिये कार्यरत भागलपुर (बिहार) की चर्चित संस्था ‘अर्थ मैटर्स, नेचर क्लब’ तथा ‘मंदार नेचर क्लब’ के सदस्यों द्वारा जब भागलपुर में स्थित विश्व प्रसिद्ध विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन अभ्यारण्य (Vikramshila Gangetic Dolphin Sanctuary, Bhagalpur) का जब वर्ष 2010-2011 के शुरूआती महीनों अर्थात जनवरी से लेकर मार्च तक Asian Mid Water Fowl Census के तहत (जिसमें लेखक भी शामिल थे) सर्वे किया गया तो यह पाया गया कि कुछ जगहों पर तो गंगा की गहराई मात्र 15-20 फुट तक ही रह गई है जिसे स्थानीय निवासी ‘मरगंगा’ के नाम से सम्बोधित करते हैं, यानि जहाँ गंगा बिल्कुल मृतप्रायः है और जहाँ जलीय जीवन का नामो-निशान नहीं बचा है। यह स्थिति वास्तव में किसी भी पर्यावरणविद के दिल में छेद करने के लिये काफी है।
![डॉल्फिन](https://farm2.staticflickr.com/1614/24181366032_aa52e572f1.jpg)
सर्वे में सदस्यों ने यह भी पाया कि गंगा में राष्ट्रीय जल-जीव अर्थात गांगेय डॉल्फिनों की संख्या मात्र 200-250 के आस-पास ही बची रह गई है वहीं दूसरी ओर कभी इस डॉल्फिन अभ्यारण्य में बहुतायत में मिलने वाले उद्बिलावों (Smooth Indian Otters) की संख्या में भी भारी कमी देखी गई। सर्वे में मछलियों की संख्या तथा प्रजातियों की भी कमी देखी गई। जहाँ 1990 के दशक में अभ्यारण्य में लगभग 250 प्रजातियों की मछलियाँ नोट की गई थीं वहीं अब यह घटकर 63 से भी कम रह गई हैं। पटना और भागलपुर के आस-पास तो गंगा के पानी में हानिकारक तत्वों जैसे आर्सेनिक, लेड मरकरी, आदि की मात्रा खतरनाक रूप से बढ़ी हुई है जिससे लोग कई प्राणघातक बीमारियों का शिकार बन रहे हैं। गंगा में मौजूद बी.ओ.डी. (Biological Oxygen Demand) का स्तर भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। हाँ, पर घुलित ऑक्सीजन (O
2) की मात्रा कमोवेश ठीक है। हमारा अनियंत्रित प्लास्टिक का इस्तेमाल भी गंगा के अविरल प्रवाह को अवरुद्ध कर रहा है। गंदे तथा अनुपचारित किए गए सीवेज (United Sewage) तो ख़ैर पहले से ही गंगा की कोख में गंदगी भर रहे हैं जिससे न सिर्फ मानव वरन गंगा के आँचल में निवास करने वाले प्रत्यक्ष तथा परोक्ष जीव-जन्तुओं तथा पक्षियों की कई किस्में असमय ही फ़जा की भेंट चढ़ रहे हैं। बड़ी ही दयनीय तथा विकट समस्या से जूझ रही है हमारी गंगा मैया।
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कारण चाहे कुछ भी हो पर यह सत्य है कि यदि अभी भी हम आँख रहते अंधे तथा कान रहते बहरे की तरह सब कुछ देख सुन कर भी अपनी चंचल मानसिकता पर ब्रेक नहीं लगायेंगे तो आने वाले समय में गंगा नदी तथा हमारी मृत्यु तय है। हजारों वर्षों पूर्व हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों जैसे गौतम, कणाद, भृगु आदि ने हमें प्रकृति के साथ मित्रवत व्यवहार करने की तथा वसुधैव कुटुम्बकम की शिक्षा दी थी, पर क्या आज का मानव अपने प्राचीन संस्कारों तथा शिक्षाओं का सही पालन कर पा रहा है? शायद नहीं। गंगा सिर्फ एक नदी ही नहीं है बल्कि वह हिन्दू तथा मुस्लमानों की एकता की परिचायक भी है। यदि हिन्दूओं की जन्म तथा मृत्यु की डोर सीधे तौर पर गंगा से जुड़ी है तो वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज गंगा के जल से वजु भी करता है। हर दिन लाखों लोग गंगा में सिर्फ एक डुबकी इस अभिप्राय से लगाते हैं, कि उनका विश्वास है कि गंगा उनके पापों को धोकर बंगाल की खाड़ी में बहा देगी। पर इस कोशिश में वे इस बात को नज़र अंदाज कर देते हैं कि इस क्रिया में वे गंगा को कितनी मैली कर चुके होते हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद डाॅ. जी.डी. अग्रवाल के अनुसार गंगा तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों में हमारी समग्र विकास कार्य प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि हमारी पतित-पावनी गंगा को कोई नुकसान न पहुँचे। परन्तु खेद की बात है कि विगत कुछ वर्षों में कुछ ऐसी परियोजनाओं को हरी-झंडी दिखाई गई है जिसके क्रियान्वयन से गंगा तथा इस पर निर्भर करने वाले इसके बाशिंदों का भविष्य दाँव पर लग सकता है। कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी हमसे यह पूछने लग जाए कि ‘राम तेरी गंगा कहां है?’ आखिर हम उस देश के निवासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। हर्ष की बात है कि गंगा की वर्तमान चिन्ताजनक स्थिति को दृष्टिगोचर करते हुए अनेक धार्मिक संगठन गंगा को बचाने की अन्तिम पहल जोश-ख़रोश के साथ कर रहे हैं।
मित्रों, बात सिर्फ देखने-सुनने या जानने की नहीं है बल्कि उसे समझने की भी है। प्रकृति ने जहाँ एक ओर हमें विनाश, दहशत पैदा करने की ताकत दी है तो वहीं दूसरी ओर हमें सृजनशीलता, परमार्थ, सेवा, सुचिता तथा जीवों से प्यार करने की भावना भी दी है। वस्तुतः हमारी आन्तरिक खुशी ही प्रकृति की हरियाली की अन्तिम परिणति है। तो फिर देर किस बात की है। हम आज क्या, अभी से ही यह प्रण करें कि हम ऐसा कुछ भी न करें या सोचें जिससे न सिर्फ प्रकृति को नुकसान पहुँचे वरन ऐसे सृजनशील काम करें जिससे हमारी और प्रकृति के बीच जो अंतःसलिला तारतम्यता है वह हमेशा बनी रहे तथा हमारी आने वाली पीढ़ी भी मुक्तकंठ से अपनी प्राकृतिक सुषमा का इस्तकबाल कर सके।
सम्पर्क : राहुल रोहिताश्वरिर्सच स्काॅलर, सुपुत्रः श्री विजय वर्धन, लहरी टोला, भागलपुर, बिहार - 812002