भारतीय जन-मानस, बल्कि स्वयं भारतीयता, की आस्था का जीवन्त प्रतीक है, गंगा। असाधारण धार्मिक महत्त्व के साथ भारत में सबसे बड़ी नदी है गंगा। यह नदी भारत के 11 राज्यों में भारत की आबादी के 40 प्रतिशत लोगों को पानी उपलब्ध कराती है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की जीवनरेखा (Life Line) है - गंगा। गंगोत्री से अवतरित पावन गंगा आज दिन-प्रतिदिन मैली होती जा रही है। आज यह दुनिया की छठी सबसे प्रदूषित नदी मानी जाती है।
लोगों को मोक्ष दिलाने वाली गंगा का पानी प्रदूषण के कारण काला पड़ रहा है। गंगा में प्रदूषण का एक प्रमुख कारण इसके तट पर निवास करने वाले लोगों द्वारा नहाने, कपड़े धोने, सार्वजनिक शौच की तरह उपयोग करने की वजह है। अनगिनत टैनरीज, रसायन संयंत्र, कपड़ा मिलों, डिस्टिलरी, बूचड़खानों और अस्पतालों का अपशिष्ट गंगा के प्रदूषण के स्तर को और बढ़ा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों का गंगा के प्रदूषण में बढ़ता योगदान प्रमुख चिन्ता का कारण है। औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे की बहुतायत ने गंगाजल को बेहद प्रदूषित किया है। जाँच के अनुसार पाया गया कि गंगा में 2 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा प्रतिदिन गिर रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा का जल है। यह घोर चिन्तनीय है कि गंगाजल न पीने के योग्य रहा, न स्नान के योग्य और न ही सिंचाई के योग्य रहा है। गंगा की पराभव का अर्थ होगा, हमारी समूची सभ्यता का अन्त। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार गंगा के जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड एवं क्रोमियम जैसे जहरीले तत्व बड़ी मात्रा में मिलने लगे हैं।
केन्द्रीय जल आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार गंगा का पानी तो प्रदूषित हो ही रहा है साथ ही बहाव भी कम होता जा रहा है। यदि यही स्थिति रही तो गंगा में पानी की मात्रा बहुत कम व प्रदूषित हो जाएगी। देश के प्रमुख धार्मिक शहर वाराणसी की पहचान गंगा के निर्मल जल पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गंगा का जलस्तर इस तेजी से गिर रहा है कि विगत एक वर्ष के भीतर गंगा में ढाई फिट पानी घट गया है। जिन घाटों पर बैठकर कभी लोग गंगा के निर्मल जल में स्नान कर पापों का नाश किया करते थे उन घाटों से गंगा का जल दूर हो गया है। गंगा के घटते जलस्तर से सभी परेशान हैं। गंगा नदी में आॅक्सीजन की मात्रा भी सामान्य से कम हो गई है। वैज्ञानिक मानते हैं कि गंगा के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों को समाप्त कर देते हैं। किन्तु प्रदूषण के चलते इन लाभदायक विषाणुओं की संख्या में भी काफी कमी आई है। इसके अतिरिक्त गंगा को निर्मल व स्वच्छ बनाने में सक्रिय भूमिका अदा कर रहे कछुए, मछलियाँ एवं अन्य जल-जीव समाप्ति की कगार पर हैैं।
गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिये केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने कई योजनाएँ बनाई हैं। इन योजनाओं के तहत करोड़ों रुपए प्रदान किये गए हैं। गौरतलब है कि अकेले वाराणसी मेें ही गंगा को स्वच्छ करने के लिये काफी खर्चा किया गया, लेकिन इतने खर्चे के बावजूद भी गंगा के पानी में प्रदूषण की मात्रा कम नहीं हुई। पर्यावरणविदों एवं वैज्ञानिकों के अनुसार जब तक गन्दे नालों का पानी, औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक कचरा, सीवेज, घरेलू कूड़ा-करकट पदार्थ आदि गंगा में गिरते रहेंगे तब तक गंगा का साफ रहना मुश्किल है।
गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिये विशेष प्रकार के कछुओं व घड़ियालों की मदद ली जा रही है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तथा औद्योगिक अपशिष्टों को साफ करने के लिये संयंत्रों को लगाया जा रहा है और उद्योगों के कचरों को इसमें गिरने से रोकने के लिये कानून बने हैं। इसी क्रम में गंगा नदी को ‘राष्ट्रीय धरोहर’ भी घोषित कर दिया गया है और ‘गंगा एक्शन प्लान व राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना’ लागू की गई है। सरकार द्वारा इन योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च किये जा चुके हैं लेकिन हकीकत में क्या गंगा के प्रदूषण में कमी आई है? इसमें सन्देह है। इसके अलावा ‘राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण’ (एनआरजीबीए) पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा-3 के अन्तर्गत 20 फरवरी, 2009 को केन्द्र सरकार द्वारा स्थापित किया गया।
इसके तहत भी भारत की ‘राष्ट्रीय नदी’ गंगा को प्रदूषण मुक्त किये जाने हेतु योजनाएँ बनाई गई। सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी गंगा नदी के किनारे औद्योगिक संयंत्रों को बन्द करने और स्थानान्तरित करने हेतु सरकार को समय-समय पर निर्देशित करने का कार्य किया गया है। किन्तु सच्चाई यह है कि इस सबके बावजूद गंगा नदी के प्रदूषण में कमी दृष्टिगोचर नहीं होती है। योजनाएँ तो अच्छी हैं परन्तु जब तक इन योजनाओं का वास्तविक रूप से सही मायनों में क्रियान्वयन नहीं किया जाता तब तक इनका कोई प्रभाव दिखाई देना मुश्किल है। जनता भी इस विषय पर जागृत हुई है। इसके साथ ही धार्मिक भावनाएँ आहत न हों इसके भी प्रयत्न किये जा रहे हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद गंगा के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हुए हैं। पतित पाविनी गंगा नदी के अस्तित्व को बचाने एवं प्रदूषण को समाप्त करने हेतु आम आदमी की जागरुकता एवं प्रयास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। सरकार चाहे जो योजना बना ले जब तक आम जन-मानस की सहभागिता नहीं होगी तब तक इन योजनाओं की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा।
‘सेन्ट्रल पाॅल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड’ की वर्ष 2012 की रिपोर्ट के अनुसार सरकार अभी तक गंगा की सफाई हेतु विभिन्न परियोजनाओं हेतु लगभग 20,000 करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है। लेकिन गंगा नदी के जल की स्थिति अत्यन्त सोचनीय है। साबरमती परियोजना, गुजरात की तर्ज पर गंगा की सफाई अभियान को चलाने की जो पहल मा. प्रधानमंत्री जी द्वारा की जा रही है, उससे एक आशा की किरण जगी है। सम्भव है कि मजबूत प्रतिबद्धता एवं योजनाओं के सही दिशा में क्रियान्वयन के चलते गंगा नदी अपने पूर्व वैभव एवं स्वच्छता को प्राप्त कर सकेगी।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार गंगा के जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड एवं क्रोमियम जैसे जहरीले तत्व बड़ी मात्रा में मिलने लगी हैं।
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