गंगा में खनन के विरुद्ध

गंगा से जुड़ी एक लोककथा है -
“भगीरथ के कठिन तप के बाद ब्रह्मा जब मान गए कि गंगा को धरती पर जाना चाहिए तो गंगा ने ऐतराज किया और धरती पर जाने से मना कर दिया।
तब ब्रह्मा ने कहा ‘देवी! आपका जन्म धरती के लोगों के दुख दूर करने के लिये हुआ है।’
गंगा बोलीं ‘ठीक है, आपका कहा मानती हूँ। पर वहाँ मेरी पवित्रता की रक्षा कौन करेगा। धरती पर पापी, पाखण्डी, पतित रहते हैं। वे मेरी पवित्रता को बरकरार नहीं रख सकेंगे।’
तब सन्तों ने कहा कि यह ज़िम्मेदारी हमारी है, हम गंगा की रक्षा करेंगे।”

यह लोककथा तोता-रटंत की तरह गंगा-किनारू काफी गुरुओं को याद तो है, पर करनी ठीक उल्टी है। गंगा-भक्ति के नाम पर हरिद्वार, ऋषिकेश, बनारस सभी पवित्र शहरों में गंगा किनारे आश्रमों की भरमार है। इन आश्रमों ने गंगा-रक्षा तो दूर, गंगा की जमीन तक पर कब्जा ही किया है।

ऐसे में कुछ लोग ही हैं जिन्हें यह गंगा-वादा याद है, उन्हीं में हैं हरिद्वार स्थित आश्रम मातृसदन। मातृसदन और उसके सन्तों ने पिछले लगभग डेढ़ दशक से गंगा मैया का सीना चीर-रहे खनन माफियाओं के खिलाफ आवाज़ उठा रखी है।

मातृसदन, सन्यास मार्ग, जगजीतपुर, कनखल, हरिद्वार; यही पता है उन लोगों का जो हरिद्वार में बह रही गंगा और उसके सुन्दर तटों और द्वीपों के विनाश को रोकने के लिये लड़ाई लड़ रहे हैं। इस लड़ाई के अगुआ मातृसदन के कुलगुरु और निगमानन्द के गुरू शिवानन्द हैं।

हरिद्वार की गंगा में खनन न हो, इसके लिये 1998 से सन्तों ने कई बार अनशन किए हैं। गंगा के सौंदर्य को बरकरार रखने और गंगा में खनन के विरुद्ध मातृसदन के दो सन्त गोकुलानन्द और निगमानन्द जी ने 1998 में गाँधीवादी तरीके से संघर्ष का आगाज किया था। संघर्षों के कारण क्रशर माफियाओं को कई बार अपने क्रशर बन्द करने पड़े। लेकिन दोनों ही सन्तों की असामयिक मौत हुई। गोकुलानन्द जी एकान्त तपस्या में गए थे, वहीं उन्हें जहर दिया गया और निगमानन्द जी को 68 दिन के लम्बे अनशन के बाद पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और पुलिस की गिरफ्तारी में ही जान चली गई। 13 जून 2011 को वे पंचतत्व में विलीन हो गए। इसके पहले भी कई बार वे लंबे अनशन कर चुके थे और खनन को प्रभावित कर चुके थे।

मातृ-सदन के सन्त न केवल सरकारी जेल और मुकदमों की मार झेल रहे हैं बल्कि खनन माफियाओं की आए दिन धमकी और हमले भी। फिर भी अपने संकल्प पर अडिग हैं। गंगा में खनन के विरुद्ध शहादत की हद तक लड़ रहे हैं।

 

 

गंगा में खनन से विनाशलीला


मातृसदन की स्थापना के साल वर्ष 1997 में सन्यास मार्ग, हरिद्वार के चारों तरफ स्टोन क्रेशरों की भरमार थी। दिन रात गंगा की छाती को खोदकर निकाले गए पत्थरों को चूरा बनाने का व्यापार काफी लाभकारी था। स्टोन क्रेशर के मालिकों के कमरे नोटों की गडिडयों से भरे हुए थे और सारा आकाश पत्थरों की धूल (सिलिका) से भरा होता था।

पूरा वातावरण ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण से भयंकर रूप से त्रस्त था। आम्र कुंज पर बौर नहीं लगती थी। कंकड़-कंकड़ में शंकर का सम्मान पाने वाले पत्थर स्टोन क्रेशरों की भेंट चढ़ गये। गंगा के बीच पड़े पत्थरों की ओट खत्म होने से मछलियों का अण्डे देने का स्थान समाप्त हो गया। अब शायद ही किसी को याद हो, हरिद्वार की गंगा में कभी बड़ी-बड़ी असंख्य मछलियाँ अठखेलियाँ करती थीं, तीर्थ यात्री आँटे की छोटी-छोटी गोलियाँ खरीदकर मछलियों को खिलाने का आनन्द लेते थे।

 

 

 

 

खनन के पक्ष-विपक्ष


हरिद्वार में खनन के लिए अधिकृत एजेंसी है ‘गढ़वाल मण्डल विकास निगम’। वह लोगों को खुदाई का पट्टा, लाइसेंस आदि देता है। उसका मानना है कि यदि खनन नहीं होगा तो हरिद्वार स्टोन-बोल्डरों से भर जाएगा। गंगा के प्रवाह में दिक्कत आएगी। इसलिये खुदाई जरूरी है।

मातृसदन का कहना है कि गंगा में लगातार बाँध बने हैं, टिहरी बाँध, भीमगौड़ा बैराज आदि जिससे अब गंगा में बारीक रेत तो भले आती है, पर बोल्डर नहीं आते। जिससे सहमत हुई है, भारत सरकार भी। अभी हाल में ही पर्यावरण मन्त्रालय की एक टीम ने माना है कि इसके प्रमाण लगभग न के बराबर हैं कि अब भी ऊपर से बोल्डर आते हैं।

 

 

 

 

कुम्भ-क्षेत्र की परिभाषा


वर्ष 1952 में तत्कालीन गवर्नर ने एक नोटिफिकेशन निकालकर हरिद्वार ‘कुम्भ-क्षेत्र’ की भौगोलिक व्याख्या की थी। इससे एक बात स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में खनन किसी कीमत पर सम्भव नहीं। ‘गढ़वाल मण्डल विकास निगम’ और स्थानीय प्रशासन ने कई बार इस परिभाषा में छेड़-छाड़कर खनन की अनुमति दी।

1998 से चली लड़ाई अदालतों के दरवाज़े पर भी पहुँची, उत्तराखण्ड हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट में भी। फैसले आते रहे। यह तय हुआ कि हरिद्वार ‘कुम्भ-क्षेत्र’ की भौगोलिक व्याख्या का नोटिफिकेशन 1952 ही ठीक है।

तब तो खनन कम-से-कम हरिद्वार ‘कुंभ-क्षेत्र’ में तो रुकना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ है, सभी माननीय अदालतों के आदेश के बाद बड़े खनन-पट्टे देना सम्भव न रहने पर स्थानीय प्रशासन ने छोटे-छोटे पट्टे दे दिए हैं। ये पट्टे बिना किसी मंजूरी के धड़ल्ले से जारी हैं। देखने में और कानूनी तौर पर ये छोटे पट्टे हैं, पर यह सम्भव है कि एक हेक्टेयर के पट्टे पर रोज़ाना 1000 से ज्यादा डम्फर, ट्रैक्टर स्टोन उठा रहे हों।

ग्रीन-ट्रीब्यूनल ने भी अभी हाल के अपने एक आदेश में इस तरह के खनन को भी ‘अवैध’ करार दिया है। फिर आखिर खनन रुकता क्यों नहीं?

 

 

 

 

आखिर खनन रुकता क्यों नहीं


13 मार्च 2015 को उत्तराखण्ड विधानसभा में बजट सत्र के तीसरे दिन खनन पर चर्चा के दौरान हुई बहस में इस सवाल का उत्तर है। भारतीय जनता पार्टी के नेता और नेता-प्रतिपक्ष अजय भट्ट ने सदन में सरकार पर खनन माफ़िया के गिरफ़्त में होने और खनन को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। जवाब में मुख्यमन्त्री हरीश रावत ने दो टूक कहा कि, “खनन में विपक्ष अपने गिरेबाँ में भी झाँक लें। मुझे मजबूर न किया जाए। अगर मैं सभी का डीएनए बताने लगा तो मुश्किल हो जाएगी। उन्होंने कहा कि हकीक़त तो यह है कि जितने भी खनन पट्टे, क्रशर दिए गए हैं, उनके आवंटन की प्रक्रिया भाजपा के कार्यकाल में शुरू हुई। मेरे पास खनन को लेकर आने वालों में केवल मेरे और मेरी पार्टी के मित्र ही नहीं है।”

सभी पार्टियों के डीएनए लगभग एक जैसा ही है। वर्तमान सरकारों का गंगा बचाने के नारों में जितना जोर है, धरातल पर तो बदलाव कम ही दिखाई पड़ रहा है। ऐसे नाउम्मीदी में भी उम्मीद की किरण है मातृसदन। नमन है मातृसदन के सन्तों को जो खुशी-खुशी गंगा पर अपना जीवन न्यौछावर कर रहे हैं।

लेखक ‘गाँव गंगा मिशन’ से जुड़े हुए हैं। ‘वाटर कीपर एलाइंस’, अमेरिका के सदस्य हैं।

 

 

 

 

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