गंगा को निर्मल-अविरल बनाने का सपना


नमामि गंगे को लेकर जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संवेदनशील प्रतीत होते हैं उसे देखते हुए यह अलख जगती है कि इस बार गंगा की साफ-सफाई को लेकर किया गया नियोजन और होमवर्क कहीं अधिक वैज्ञानिक और तार्किक है। यदि सियासत से परे यदि सरकार, विपक्ष और जनता एकजुट होकर प्रयास करें तो आने वाले कुछ ही वर्षों में निर्मल गंगा का सपना साकार होगा। मई 2014 के शासनकाल से ही मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना में नमामि गंगे को भी देखा जा सकता है। इतने ही समय के नियोजन के बाद अन्ततः केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने उत्तराखण्ड एवं उत्तर प्रदेश समेत गंगा बेसिन के सभी पाँचों राज्यों में नमामि गंगे नामक इस ड्रीम प्रोजेक्ट को हरिद्वार से प्रारम्भिकी दे दी है।

प्रथम गंगा एक्शन प्लान से अब तक हजारों करोड़ रुपए गंगा सफाई पर खर्च किये जा चुके हैं। यह सच है कि आशातीत परिणाम नहीं मिले, पर देखा जाय तो इसे लेकर चुनौती इतनी बड़ी है कि इसके लिये भागीरथ प्रयास की जरूरत पड़ेगी। गंगा ऋग्वैदिक काल से ही अनमोल रही है और इसे लेकर बहुत कुछ पहले भी पढ़ा-लिखा गया है।

गंगा की सफाई से जुड़े पहले के प्रयासों को विस्तार से देखें तो यह औपनिवेशिक काल से ही चिन्ता का सबब रही है। महामना मदन मोहन मालवीय और ब्रिटेन के बीच वर्ष 1916 में इस मसले को लेकर एक समझौता हुआ था। औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति के बाद बुनियादी ढाँचों के निर्माण एवं मरम्मत में पूरा सरोकार झोंकने के चलते गंगा सफाई को लेकर गम्भीरता मानो समाप्त हो गई। हालांकि उस दौर में औद्योगीकरण एवं नगरीकरण का प्रवाह धीमा होने के चलते गंगा मैली होने का सिलसिला भी कमजोर रहा।

1991 में उदारीकरण के बाद जिस तीव्रता से गंगा के बेसिन में विकास की बयार बही तथा नगरों, महानगरों एवं औद्योगिक इकाइयों की जिस कदर बाढ़ आई उसके चलते प्रतिदिन लाखों लीटर पड़ने वाले कचरे का निस्तारण केन्द्र जीवनदायिनी गंगा हो गई। अर्थात गंगा निरन्तर कूड़ा-कचरा, सीवेज, औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट पदार्थों से लेकर जानवरों और मानव के शव का पोषण केन्द्र बन गई।

इन सबके बीच लम्बा वक्त निकल गया और गंगा की सफाई को लेकर की गई चिन्ता भी कमोबेश बढ़ती गई। सरकारें आईं-गईं, पर गंगा को निर्मल कर पाने में किसी ने असरदार काम नहीं किया। मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी अपने चुनावी काल में भी गंगा को लेकर काफी संवेदना से भरे दिखाई देते थे।

प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने बाकायदा इसके लिये एक अलग गंगा संरक्षण मंत्रालय का निर्माण ही कर दिया, जिसका कार्यभार उमा भारती के पास है। हालांकि वे केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री भी हैं। बीते सात जुलाई को हरिद्वार के ऋषिकुल मैदान में मोदी सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट की चुनौती को उपलब्धि में बदलने की कसरत शुरू हुई। गंगा की साफ-सफाई और सौन्दर्यकरण की कई योजनाओं का खाका तो यहाँ गढ़ा ही गया, साथ ही 43 परियोजनाओं के शुभारम्भ के बाद इसके निर्मल और अविरल बनाने के सपने को पंख भी दिया गया।

परियोजना के तहत 250 करोड़ रुपए का बजट दिया गया है। इस बजट से हरिद्वार, श्रीनगर, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, केदारनाथ गंगोत्री और यमुनोत्री में कार्य सम्भव होगा। 2525 किलोमीटर गंगा कहीं-कहीं यह आँकड़ा 2510 का भी है, देश की सबसे लम्बी नदी है जिसे संप्रग सरकार के दिनों में राष्ट्रीय नदी का दर्जा मिला था।

सर्वोच्च न्यायालय ने भी गंगा सफाई पर अप्रसन्नता जाहिर की, यहाँ तक कह दिया कि इस तरह तो गंगा को साफ होने में दो सौ साल लगेंगे। साथ ही यह भी कहा कि पवित्र नदी के पुराने स्वरूप को यह पीढ़ी तो नहीं देख पाएगी, कम-से-कम आने वाली पीढ़ी तो ऐसा देखे। सवाल है कि कोशिशों के बावजूद ऐसी क्या खामी है कि सफाई के नाम पर मामला ढाक के तीन पात ही रहा। आरोप है कि सरकारों ने गंगा के सवाल पर अधिक आवेश दिखाया। साथ ही सरकारें अदूरदर्शी भी रहीं।गंगा बेसिन का विस्तार 10 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग एक तिहाई और 40 फीसद जनसंख्या यहाँ प्रवास करती है। जाहिर है कि गंगा की गाथा सदियों से न केवल संस्कृति के धरोहर के रूप में, बल्कि सभ्यता को फलने-फूलने के मौके के रूप में देखा जाता रहा है। माँ का सम्बोधन पाने वाली गंगा उत्तराखण्ड में 450 किलोमीटर, उत्तर प्रदेश में एक हजार किलोमीटर, जबकि बिहार एवं झारखण्ड में क्रमशः 405 एवं 40 किलोमीटर का विस्तार लिये हुए है। अन्तिम प्रान्त पश्चिम बंगाल में यह 450 किलोमीटर बहती है। इसकी दर्जनों सहायक नदियाँ भी हैं, पर सब अपशिष्ट के चलते बहुत बोझिल हो गई हैं, जिसकी कीमत आज भी गंगा को चुकानी पड़ रही है।

गंगा सफाई का पूरा सच तीन दशक पुराना है। इसकी शुरुआत वर्ष 1981 में उसी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से देखी जा सकती है, जिसके निर्माता महामना मदन मोहन मालवीय थे जिन्होंने गंगा की सफाई को लेकर अंग्रेजों से पहली बार समझौता किया था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में 68वें विज्ञान कांग्रेस का आयोजन इसी वर्ष हुआ था, जिसके उद्घाटन के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी विश्वविद्यालय में उपस्थित थीं। इनके साथ कृषि वैज्ञानिक और योजना आयोग के सदस्य डॉ. एमएस स्वामीनाथन भी थे।

इसी समय गंगा प्रदूषण को लेकर पहली शासकीय चिन्ता और चर्चा देखने को मिलती है। तत्पश्चात उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को निर्देश जारी किये गए कि गंगा प्रदूषण रोकने के लिये एक समग्र कार्ययोजना शुरू करें। इस पहल को गंगा को गुरबत से बाहर निकालने के एक मौके के रूप में देखा जाने लगा। लगा कि मैली गंगा अब निर्मल गंगा हो जाएगी। समय और परिस्थितियाँ बदलीं, राजीव गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रथम गंगा एक्शन प्लान के तहत पाँच सौ करोड़ सफाई के लिये स्वीकृत भी किये गए।

रोचक यह भी है कि उन दिनों के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस ने इसे अपने चुनावी एजेंडे में भी शामिल किया था। दरअसल यह विचार आया। कहाँ से उसकी कहानी भी पूरी होनी चाहिए। असल में राष्ट्रपति द्वारा पर्यावरण मित्र पुरस्कार प्राप्त कर चुके प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी उन दिनों बीएचयू के वनस्पति विज्ञान विभाग में गंगा पर्यावरण विषय पर अनुसन्धान कर रहे थे। इन्हीं के दिमाग की उपज आज गंगा निर्मल करने का अभियान बन गई है।

हालांकि वर्ष 1981 में ही सांसद एसएम कृष्णा ने पहली बार संसद में इस मसले पर प्रश्न भी उठाया था। दूसरा गंगा एक्शन प्लान भी आया, जिसके लिये 12 सौ करोड़ रुपए स्वीकृत किये गए। पहले एक्शन प्लान से ही कानपुर, काशी, पटना सहित कई स्थानों पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से सफाई को लेकर जोर-आजमाइश भी चल रही थी, पर आशातीत सफलता कोसों दूर थी। उस समय उच्च न्यायालय ने अनुकूल सफलता न मिलने के चलते इसे रोकने का आदेश भी दिया था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नमामि गंगे को एक बार फिर बड़ी आशा की दृष्टि से देखा जा रहा है। सम्भव है कि मोदी के नेतृत्व में इस बार वह सफलता मिले जिसका बीते तीन दशकों से इन्तजार है, पर सियासत न हो तब। जिन प्रदेशों में गंगा बहती है उनमें केवल झारखण्ड में ही भाजपा की सरकार है।

ऐसे में अन्य सरकारों का समन्वय गंगा सफाई के लिये बड़े काम का साबित होगा, पर नमामि गंगे को लेकर गैर भाजपाई की तरफ से आई टिप्पणी निर्मल गंगा को लेकर समुचित करार नहीं दिया जा सकता। 30 बरस सफाई करते-करते बीत चुके हैं। जाहिर है, अपशिष्टों के चलते गंगा हाँफने लगी है।

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भी गंगा सफाई पर अप्रसन्नता जाहिर की, यहाँ तक कह दिया कि इस तरह तो गंगा को साफ होने में दो सौ साल लगेंगे। साथ ही यह भी कहा कि पवित्र नदी के पुराने स्वरूप को यह पीढ़ी तो नहीं देख पाएगी, कम-से-कम आने वाली पीढ़ी तो ऐसा देखे। सवाल है कि कोशिशों के बावजूद ऐसी क्या खामी है कि सफाई के नाम पर मामला ढाक के तीन पात ही रहा।

आरोप है कि सरकारों ने गंगा के सवाल पर अधिक आवेश दिखाया। साथ ही सरकारें अदूरदर्शी भी रहीं। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के प्रमाणित अनुसन्धानों को दरकिनार करके गंगा को निर्मल बनाने की बेतुकी कोशिश की गई और लगभग सात हजार करोड़ जनता के टैक्स का पैसा पानी में बहा दिया गया।

नमामि गंगे को लेकर जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संवेदनशील प्रतीत होते हैं उसे देखते हुए यह अलख जगती है कि इस बार गंगा सफाई को लेकर किया गया नियोजन और होमवर्क कहीं अधिक वैज्ञानिक और तार्किक है। अन्ततः आशा से भरी बात यह है कि सियासत से परे यदि सत्ता, सरकार और जनता साथ रही तो इसी पीढ़ी में निर्मल गंगा सम्भव होगी।

(लेखक रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)

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