सैंड्रप द्वारा तैयार की गई आलोचनात्मक टिप्पणी, जिसे माटू के अलावा अन्य कई जन संगठनों ने अनुमोदित किया है, बिंदुवार समिति की रिपोर्ट की बदनीयत, चालाकी और गैरजानकारी का खुलासा करती है। जो जलविद्युत परियोजनाएं भागीरथीगंगा पर रोक दिए गए हैं उन्हें भी निर्माणाधीन की श्रेणी में दिखाया गया है। ऐसे कई उदाहरण इस रिपोर्ट में मिलेंगे जो बताते हैं की समिति ने बांध समर्थन की भूमिका ली है। बांधों की स्थिति बताने वाली सारिणी भी गलत आंकड़ों से भरी है। नदी की लम्बाई का अनुपात भी गलत लगाया गया है। समिति 81 प्रतिशत भागीरथी और 69 प्रतिशत अलकनन्दा को बांधों से प्रभावित कहती है जो कि पूरी तरह से गलत है। नापे सौ गज और काटे इंच भी नहीं। प्रधानमंत्री जी बार-बार गंगा के लिए प्रतिबद्धता जताते हैं उनकी पार्टी गंगा रक्षण का दम भरते हुए वोट भी मांगती है। किंतु ज़मीनी स्तर यह नहीं दिखाई देता है। जिसका उदाहरण है हाल ही में गंगाजी पर आई अंतरमंत्रालयी समिति की रिर्पोट। सरकार ने 17 अप्रैल, 2012 को स्वामी सानंद जी के उपवास के समय राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण की बैठक बुलाई थी। तब सानंद जी को सरकार ने एम्स में रखा हुआ था। बैठक में वे नहीं गए उनकी ओर से कुछ संत प्रतिनिधि गए थे। प्रधानमंत्री ने उन्हें अलग से मिलने का वादा किया। बैठक में डब्ल्यू. आई. आई. और आई. आई. टी. आर. की रिपोर्ट के बारे में उठ रही तमाम शंकाओं पर विराम लगाते हुए इन रिर्पोटों को सही ठहराया। इन संत प्रतिनिधियों ने इस पर कुछ कहा हो ऐसी कोई खबर बाहर नहीं आई। बैठक शांति से निबट गई। 15 जून 2012 को सरकार ने चुपचाप से गंगा के लिए चिल्लाने वालों के मुंह में अंतरमंत्रालयी समिति का लड्डू रखा दिया गया। 15 सदस्यों में बिना किसी चयन प्रक्रिया के तीन गैर सरकारी सदस्यों को भी समिति में रखा गया। रिपोर्ट के बीच बांधों के कामों पर भी कोई रोक नहीं लगाई गई थी। समिति की रिपोर्ट आने की कोई समय सीमा नहीं रखी गई थी। समिति को भागीरथी, अलकनन्दा तथा गंगा की अन्य सहायक नदियों पर बांधों के असरों को जांचने और उनको दूर करने के उपाय सुझाने का काम दिया था। जिसका आधार डब्ल्यू. आई. आई. और आई. आई. आर. टी. की रिपोर्टे दी गई थी। इस अंतरमंत्रालयी समिति का माटू जनसंगठन व कुछ अन्य संगठनों ने विरोध किया था। इस बाबत पत्र भी प्रधानमंत्री को लिखा था। समिति के मात्र दो सरकारी सदस्यों ने विवादास्पद श्रीनगर परियोजना से प्रभावित धारी देवी तक की यात्रा की। गैर सरकारी सदस्यों ने इस बीच गंगाघाटी की ना कोई यात्रा की। ना ही इस बाबत कोई बैठक बुलाई। खैर समिति की रिपोर्ट 3-4 महीने में आने के बजाए लगभग 11 महीनों में आ पाई। इस बीच कितने ही बांधों की प्रक्रियाएं आगे बढ़ गई। श्रीनगर परियोजना तो बन भी गई।
रिर्पोट से मालूम पड़ता है कि बहुत तरीके से सरकार ने गंगा के विषय को दबाया है। पहले तो चुपचाप 15 जून 2013 को समिति बनाई और उसकी खबर भी बाहर नहीं की गई। समिति ना तो गंगाघाटी में ज़मीनी स्तर पर कार्यरत संगठनों से नहीं मिली ना ही गंगाघाटी का विस्तृत दौरा किया। समिति से माटू जनसंगठन ने 19 अगस्त को पत्र द्वारा मिलने का समय मांगा था, जो नहीं मिला। जबकि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 17 जुलाई 2011 के अपने आदेश में समिति को यह निर्देश भी दिया था। समिति मात्र कुछ ही चुनिंदा लोगों से मिली। समिति की रिपोर्ट को भी कुंभ के बाद निकाला गया ताकि कुंभ के जमावड़े का कोई फायदा बांध विरोधियों को न मिल जाए। फिर रिपोर्ट भी जो निकली वो पूरी तरह से बांधों के पक्ष में आ रही बाधाओं को दूर करती है। पर्यावरणीय प्रवाह पर समिति ने किसी भी तरह की कोई परिभाषा नहीं दी है। अवैज्ञानिक व आधारहीन वक्तव्यों से भरी इस रिपोर्ट में जिन छोटी सहायक नदियों के बारे में कहा गया है कि उन पर आगे कोई नया बांध नहीं बनेगा। वे नदियां तो पहले से ही लगभग बांधी जा चुकी हैं या वहां बांध परियोजनाएं निमार्णाधीन हैं।
सरकार ने आज तक इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। डॉ. भरत झुनझुनवाला के एक मुक़द्दमे में सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने यह रिपोर्ट ज़रूर दाखिल की है। इस तरह समिति के बनने से रिपोर्ट आने तक पूरी गोपनीयता का माहौल बनाए रखा गया है। हां समिति का हवाला देकर गंगा पर बांधों को आगे बढ़ाए जाने की पूरी उम्मीद है। सरकार ने डब्ल्यूआईआई और आईआईटीआर की रिपोर्ट के बाद इस समिति को बनाकर गंगा में पर्यावरणीय प्रवाह के मुद्दे को समाप्त करने की कोशिश की है। वैसे समिति के तीन गैर सरकारी सदस्यों में से वीरभद्र जी का देहावसान बीच में ही हो गया था। सुनीता नारायण जी और राजेन्द्र जी ने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। राजेन्द्र जी ने असहमति का पत्र लिखा है। सुनिता जी ने भी एक नोट डाला है किंतु उन्होंने बांधों के वर्गीकरण पर समिति द्वारा अनजाने में सहमति दी है।
सैंड्रप द्वारा तैयार की गई आलोचनात्मक टिप्पणी, जिसे माटू के अलावा अन्य कई जन संगठनों ने अनुमोदित किया है, बिंदुवार समिति की रिपोर्ट की बदनीयत, चालाकी और गैरजानकारी का खुलासा करती है। आईए जरा विस्तृत रूप में इसे समझें।जो जलविद्युत परियोजनाएं (जविप) भागीरथीगंगा पर रोक दिए गए हैं उन्हें भी निर्माणाधीन की श्रेणी में दिखाया गया है। ऐसे कई उदाहरण इस रिपोर्ट में मिलेंगे जो बताते हैं की समिति ने बांध समर्थन की भूमिका ली है। बांधों की स्थिति बताने वाली सारिणी भी गलत आंकड़ों से भरी है। नदी की लम्बाई का अनुपात भी गलत लगाया गया है। समिति 81 प्रतिशत भागीरथी और 69 प्रतिशत अलकनन्दा को बांधों से प्रभावित कहती है जो कि पूरी तरह से गलत है। वास्तव में पूरी नदी या तो सुरंगों में होगी या जलाशयों में। तो समिति कौन से हिस्से के बचने की बात कर रही है? आकंड़ों के खेल ये हैं कि कोटली भेल-2 को बांधों में गिना ही नहीं है। जबकी वो मुख्य गंगा, भागीरथी व अलकनन्दा नदी को डुबाने वाली है। बांधों के बीच की दूरी पर भी दोमुंही बाते हैं। समिति या तो चालाकी पूर्ण या मूर्खता की बात कर रही है, या वो नदी विज्ञान की समझ से पूरी तरह अनजान है। जैसे समिति कहती है कि तकनीकी जरूरत के अनुसार बांधों के बीच की दूरी तय हो। इस तरह समिति ने सभी बांधों को छूट ही दे दी है। बांधों की श्रृंखला होने से जो प्रभाव होता है उनको पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया है। डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट में जिन 24 बांधों को रोकने की बात कही गई थी समिति ने उसे बिना कोई कारण दिए नकारा है। रिपोर्ट में जगह-जगह गंगा घाटी की जैवविविधता, सुंदरता, फूलों की घाटी, नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान आदि का जिक्र है किंतु वहां के बांधों पर रोक की बात नहीं की है।
कोटली भेल-2 की पर्यावरण स्वीकृति रद्द की गई है, और इसके साथ ही अलकनंदा जविप की भी वन स्वीकृति तीन बार रद्द की गई है उसे निर्माणधीन बताना गैरजानकारी नहीं बल्कि बद्नीयत की ओर इशारा करता है। 6 नदियों को अक्षुण्ण रखने की बात मज़ाक से कम नहीं है। इनमें से अस्सी गंगा, बिरही गंगा तो बंध ही चुकी हैं। इस तरह बड़े बांधों को हरी झंडी दी है। मात्र गंगा की बड़ी सहायक नदी पिंडर अभी तक अक्षुण्ण है। जिस पर अभी कोई बांध नहीं है ना ही कोई स्वीकृति मिली है। उस पर समिति का ध्यान नहीं गया। दूसरी 4 नदियों पर भी बांध बने हैं और बन रहे हैं। फिर कौन सी नदी को बचाने की बात समिति ने की है? समझ से परे हैं। फिर इन नदियों पर जविप ना बनने से बिना आधार दिए 400 मेगावाट के हानि की बात भी समिति ने कही है।
समिति साथ ही कहती है कि बांध मितव्ययी और चलाने लायक हो हर हालत में यानि पर्यावरणीय, सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक असरों को एकतरफ करते हुए बांध बनते रहे बस। समिति ने कहीं भी पर्यावरणीय प्रवाह की बात नहीं की है जो की उसका मुख्य काम था समिति कहती है की अविरल धारा पाईप लाईन में भी हो सकती है यानि नदी का अर्थ ही समिति ने नहीं समझा है। समिति रिपोर्ट में सामायिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पक्षों की बात लगातार कर रही है किंतु वो किन्हीं ऐसे समूहों से नहीं मिली। ना ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को भी देखा जो कहता है की किसी भी नदी को 50 प्रतिशत से ज्यादा नही मोड़ा जा सकता है समिति ने जो महीनेवार प्रवाह की बात कही है वो किसी प्रक्रिया तथ्य आदि पर आधारित नहीं है। पर्यावरणीय प्रवाह की निगरानी भी बांध कंपनी की ज़िम्मेदारी पर छोड़ दिया है और वो भी 25 मेगावाट से ज्यादा की जविप में ही। आप बाघ से बकरी की निगरानी करने को कह रहे हैं। बांधों के पक्ष में समिति ने नया आधारहीन तर्क गढ़ा है की हिमालयी नदियों में मछलियों को कम जलस्तर की जरूरत होती है। जिन परियोजनाओं को कोई पर्यावरणीय और वन स्वीकृति तक नहीं मिली उन्हें भी निमार्णाधीन बताया है। बांधों के पक्ष में यह गलत प्रस्तुतीकरण साज़िश जैसा ही लगता है।
बहुत सारे पर्यावरणीय प्रभावों को समिति ने छुआ तक नहीं है। जैसे पीकिंग पावर उत्पादन यानि आवश्यकता के अनुसार बिजली का उत्पादन जिससे नदी का पानी कभी भी ऊपर नीचे हो सकता है। हर बांध के नीचे नदी पर बड़े-बड़े बोर्डो में लिखा भी है कि नदी का जलस्तर कभी भी 5 से 15 मीटर तक ऊंचा हो सकता है। कृपया नदी किनारे नहीं जाएं। मगर समिति ने यदि क्षेत्र का दौरा किया होता तो ये तथ्य वो समझ पाती डब्ल्यू आई आई, आईआईटीआर की रिपोर्ट को सही सिद्ध करने का एक प्रयास में समिति कहती है की टिहरी को छोड़कर सभी रन ऑफ द रिवर जविप है टिहरी बांध के ठीक नीचे कोटेश्वर उन्हें नहीं दिखा और जिन्हें ऑफ द रीवर कहा गया है उन कोटली भेल की तीनों जविप आदि के जलाशय 33 कि.मी. तक के हैं इस प्रकार के हर बांध के नीचे स्लूस गेट बने हैं जो रेत निकालने के लिए हैं। जबकि डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट भी कहती है की 69 जविप में से 13 जविप जलाशय वाली है।समिति को अलकनन्दा जविप के धारी देवी मंदिर पर असरों को भी देखना था। राजेन्द्र सिंह जी और वीरभद्र मिश्रा जी ने परियोजना में परिवर्तन सुझाए किंतु बिना कोई कारण दिए वे सुझाव अमान्य कर दिए गए। समिति बांधों को सामाजिक असरों पर मौन है जबकि देवसारी व विष्णुगाड पीपलकोटी बांधों में विरोध जारी है।
पर्यावरणीय प्रवाह वर्तमान में कार्यरत जविप के लिए भी समिति ने मान्य करने को कहा है किंतु उसकी कोई प्रक्रिया नहीं बताई है। समिति ने प्रदूषण के प्रमुख विषयों जैसे सहकारिता का अभाव, शहरी पानी और प्रदूषण नियंत्रण में प्रजातांत्रिक सत्ता आदि के बारे में कहा है कि नदी के सभी हिस्सों में प्रवाह लगातार रहना चाहिए। किंतु मात्र यह कह देने से उद्देश्य पूरा नहीं होता। समिति की रिपोर्ट में आपसी चर्चा को कहीं नहीं बताया गया है। बांधों की सूची तक पूरी और सही नहीं है। गंगा के पांचों प्रयागों को सुरक्षित रखने के बारे में भी समिति मौन है। राजेन्द्र सिंह की नोट छोड़ दे तो समिति की रिपोर्ट पूरी तरह बांधों के पक्ष में ही है। बल्कि पर्यावरण मंत्रालय के वर्तमान में स्थापित दिशा निर्देश ज्यादा सही नजर आते हैं। समिति ने यह दिखाने के लिए की उसने कुछ काम किया है। इन दिशा निर्देशों की एक सूची बनाई है। यह समिति बनाना अपने में बहुत बड़ी बात हो सकती थी किंतु गंगा के स्वास्थ्य व पर्यावरण और स्थानीय विकास को निरूपित करने का मौका समिति में गँवा दिया है। यह रिर्पोट मात्र और मात्र गंगा को मारने की नई साज़िश का हिस्सा है। इसे स्वीकार करना मात्र गंगा के लिए ही शर्मनाक बात नहीं होगी वरन यह अन्य नदियों के लिए भी एक खतरनाक मापदंड होगी। मगर शर्म उन्हें नहीं आती।
रिर्पोट से मालूम पड़ता है कि बहुत तरीके से सरकार ने गंगा के विषय को दबाया है। पहले तो चुपचाप 15 जून 2013 को समिति बनाई और उसकी खबर भी बाहर नहीं की गई। समिति ना तो गंगाघाटी में ज़मीनी स्तर पर कार्यरत संगठनों से नहीं मिली ना ही गंगाघाटी का विस्तृत दौरा किया। समिति से माटू जनसंगठन ने 19 अगस्त को पत्र द्वारा मिलने का समय मांगा था, जो नहीं मिला। जबकि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 17 जुलाई 2011 के अपने आदेश में समिति को यह निर्देश भी दिया था। समिति मात्र कुछ ही चुनिंदा लोगों से मिली। समिति की रिपोर्ट को भी कुंभ के बाद निकाला गया ताकि कुंभ के जमावड़े का कोई फायदा बांध विरोधियों को न मिल जाए। फिर रिपोर्ट भी जो निकली वो पूरी तरह से बांधों के पक्ष में आ रही बाधाओं को दूर करती है। पर्यावरणीय प्रवाह पर समिति ने किसी भी तरह की कोई परिभाषा नहीं दी है। अवैज्ञानिक व आधारहीन वक्तव्यों से भरी इस रिपोर्ट में जिन छोटी सहायक नदियों के बारे में कहा गया है कि उन पर आगे कोई नया बांध नहीं बनेगा। वे नदियां तो पहले से ही लगभग बांधी जा चुकी हैं या वहां बांध परियोजनाएं निमार्णाधीन हैं।
सरकार ने आज तक इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। डॉ. भरत झुनझुनवाला के एक मुक़द्दमे में सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने यह रिपोर्ट ज़रूर दाखिल की है। इस तरह समिति के बनने से रिपोर्ट आने तक पूरी गोपनीयता का माहौल बनाए रखा गया है। हां समिति का हवाला देकर गंगा पर बांधों को आगे बढ़ाए जाने की पूरी उम्मीद है। सरकार ने डब्ल्यूआईआई और आईआईटीआर की रिपोर्ट के बाद इस समिति को बनाकर गंगा में पर्यावरणीय प्रवाह के मुद्दे को समाप्त करने की कोशिश की है। वैसे समिति के तीन गैर सरकारी सदस्यों में से वीरभद्र जी का देहावसान बीच में ही हो गया था। सुनीता नारायण जी और राजेन्द्र जी ने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। राजेन्द्र जी ने असहमति का पत्र लिखा है। सुनिता जी ने भी एक नोट डाला है किंतु उन्होंने बांधों के वर्गीकरण पर समिति द्वारा अनजाने में सहमति दी है।
सैंड्रप द्वारा तैयार की गई आलोचनात्मक टिप्पणी, जिसे माटू के अलावा अन्य कई जन संगठनों ने अनुमोदित किया है, बिंदुवार समिति की रिपोर्ट की बदनीयत, चालाकी और गैरजानकारी का खुलासा करती है। आईए जरा विस्तृत रूप में इसे समझें।जो जलविद्युत परियोजनाएं (जविप) भागीरथीगंगा पर रोक दिए गए हैं उन्हें भी निर्माणाधीन की श्रेणी में दिखाया गया है। ऐसे कई उदाहरण इस रिपोर्ट में मिलेंगे जो बताते हैं की समिति ने बांध समर्थन की भूमिका ली है। बांधों की स्थिति बताने वाली सारिणी भी गलत आंकड़ों से भरी है। नदी की लम्बाई का अनुपात भी गलत लगाया गया है। समिति 81 प्रतिशत भागीरथी और 69 प्रतिशत अलकनन्दा को बांधों से प्रभावित कहती है जो कि पूरी तरह से गलत है। वास्तव में पूरी नदी या तो सुरंगों में होगी या जलाशयों में। तो समिति कौन से हिस्से के बचने की बात कर रही है? आकंड़ों के खेल ये हैं कि कोटली भेल-2 को बांधों में गिना ही नहीं है। जबकी वो मुख्य गंगा, भागीरथी व अलकनन्दा नदी को डुबाने वाली है। बांधों के बीच की दूरी पर भी दोमुंही बाते हैं। समिति या तो चालाकी पूर्ण या मूर्खता की बात कर रही है, या वो नदी विज्ञान की समझ से पूरी तरह अनजान है। जैसे समिति कहती है कि तकनीकी जरूरत के अनुसार बांधों के बीच की दूरी तय हो। इस तरह समिति ने सभी बांधों को छूट ही दे दी है। बांधों की श्रृंखला होने से जो प्रभाव होता है उनको पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया है। डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट में जिन 24 बांधों को रोकने की बात कही गई थी समिति ने उसे बिना कोई कारण दिए नकारा है। रिपोर्ट में जगह-जगह गंगा घाटी की जैवविविधता, सुंदरता, फूलों की घाटी, नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान आदि का जिक्र है किंतु वहां के बांधों पर रोक की बात नहीं की है।
कोटली भेल-2 की पर्यावरण स्वीकृति रद्द की गई है, और इसके साथ ही अलकनंदा जविप की भी वन स्वीकृति तीन बार रद्द की गई है उसे निर्माणधीन बताना गैरजानकारी नहीं बल्कि बद्नीयत की ओर इशारा करता है। 6 नदियों को अक्षुण्ण रखने की बात मज़ाक से कम नहीं है। इनमें से अस्सी गंगा, बिरही गंगा तो बंध ही चुकी हैं। इस तरह बड़े बांधों को हरी झंडी दी है। मात्र गंगा की बड़ी सहायक नदी पिंडर अभी तक अक्षुण्ण है। जिस पर अभी कोई बांध नहीं है ना ही कोई स्वीकृति मिली है। उस पर समिति का ध्यान नहीं गया। दूसरी 4 नदियों पर भी बांध बने हैं और बन रहे हैं। फिर कौन सी नदी को बचाने की बात समिति ने की है? समझ से परे हैं। फिर इन नदियों पर जविप ना बनने से बिना आधार दिए 400 मेगावाट के हानि की बात भी समिति ने कही है।
समिति साथ ही कहती है कि बांध मितव्ययी और चलाने लायक हो हर हालत में यानि पर्यावरणीय, सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक असरों को एकतरफ करते हुए बांध बनते रहे बस। समिति ने कहीं भी पर्यावरणीय प्रवाह की बात नहीं की है जो की उसका मुख्य काम था समिति कहती है की अविरल धारा पाईप लाईन में भी हो सकती है यानि नदी का अर्थ ही समिति ने नहीं समझा है। समिति रिपोर्ट में सामायिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पक्षों की बात लगातार कर रही है किंतु वो किन्हीं ऐसे समूहों से नहीं मिली। ना ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को भी देखा जो कहता है की किसी भी नदी को 50 प्रतिशत से ज्यादा नही मोड़ा जा सकता है समिति ने जो महीनेवार प्रवाह की बात कही है वो किसी प्रक्रिया तथ्य आदि पर आधारित नहीं है। पर्यावरणीय प्रवाह की निगरानी भी बांध कंपनी की ज़िम्मेदारी पर छोड़ दिया है और वो भी 25 मेगावाट से ज्यादा की जविप में ही। आप बाघ से बकरी की निगरानी करने को कह रहे हैं। बांधों के पक्ष में समिति ने नया आधारहीन तर्क गढ़ा है की हिमालयी नदियों में मछलियों को कम जलस्तर की जरूरत होती है। जिन परियोजनाओं को कोई पर्यावरणीय और वन स्वीकृति तक नहीं मिली उन्हें भी निमार्णाधीन बताया है। बांधों के पक्ष में यह गलत प्रस्तुतीकरण साज़िश जैसा ही लगता है।
बहुत सारे पर्यावरणीय प्रभावों को समिति ने छुआ तक नहीं है। जैसे पीकिंग पावर उत्पादन यानि आवश्यकता के अनुसार बिजली का उत्पादन जिससे नदी का पानी कभी भी ऊपर नीचे हो सकता है। हर बांध के नीचे नदी पर बड़े-बड़े बोर्डो में लिखा भी है कि नदी का जलस्तर कभी भी 5 से 15 मीटर तक ऊंचा हो सकता है। कृपया नदी किनारे नहीं जाएं। मगर समिति ने यदि क्षेत्र का दौरा किया होता तो ये तथ्य वो समझ पाती डब्ल्यू आई आई, आईआईटीआर की रिपोर्ट को सही सिद्ध करने का एक प्रयास में समिति कहती है की टिहरी को छोड़कर सभी रन ऑफ द रिवर जविप है टिहरी बांध के ठीक नीचे कोटेश्वर उन्हें नहीं दिखा और जिन्हें ऑफ द रीवर कहा गया है उन कोटली भेल की तीनों जविप आदि के जलाशय 33 कि.मी. तक के हैं इस प्रकार के हर बांध के नीचे स्लूस गेट बने हैं जो रेत निकालने के लिए हैं। जबकि डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट भी कहती है की 69 जविप में से 13 जविप जलाशय वाली है।समिति को अलकनन्दा जविप के धारी देवी मंदिर पर असरों को भी देखना था। राजेन्द्र सिंह जी और वीरभद्र मिश्रा जी ने परियोजना में परिवर्तन सुझाए किंतु बिना कोई कारण दिए वे सुझाव अमान्य कर दिए गए। समिति बांधों को सामाजिक असरों पर मौन है जबकि देवसारी व विष्णुगाड पीपलकोटी बांधों में विरोध जारी है।
पर्यावरणीय प्रवाह वर्तमान में कार्यरत जविप के लिए भी समिति ने मान्य करने को कहा है किंतु उसकी कोई प्रक्रिया नहीं बताई है। समिति ने प्रदूषण के प्रमुख विषयों जैसे सहकारिता का अभाव, शहरी पानी और प्रदूषण नियंत्रण में प्रजातांत्रिक सत्ता आदि के बारे में कहा है कि नदी के सभी हिस्सों में प्रवाह लगातार रहना चाहिए। किंतु मात्र यह कह देने से उद्देश्य पूरा नहीं होता। समिति की रिपोर्ट में आपसी चर्चा को कहीं नहीं बताया गया है। बांधों की सूची तक पूरी और सही नहीं है। गंगा के पांचों प्रयागों को सुरक्षित रखने के बारे में भी समिति मौन है। राजेन्द्र सिंह की नोट छोड़ दे तो समिति की रिपोर्ट पूरी तरह बांधों के पक्ष में ही है। बल्कि पर्यावरण मंत्रालय के वर्तमान में स्थापित दिशा निर्देश ज्यादा सही नजर आते हैं। समिति ने यह दिखाने के लिए की उसने कुछ काम किया है। इन दिशा निर्देशों की एक सूची बनाई है। यह समिति बनाना अपने में बहुत बड़ी बात हो सकती थी किंतु गंगा के स्वास्थ्य व पर्यावरण और स्थानीय विकास को निरूपित करने का मौका समिति में गँवा दिया है। यह रिर्पोट मात्र और मात्र गंगा को मारने की नई साज़िश का हिस्सा है। इसे स्वीकार करना मात्र गंगा के लिए ही शर्मनाक बात नहीं होगी वरन यह अन्य नदियों के लिए भी एक खतरनाक मापदंड होगी। मगर शर्म उन्हें नहीं आती।
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