गंगा को लेकर एनजीटी सख्त

गंगा
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गंगा शुद्धीकरण के बत्तीस वर्ष पुराने मामले में 543 पन्नों का विस्तृत आदेश देते हुए राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने गंगा की धारा से 500 मीटर के दायरे में कूड़ा-कचरा जमा करने पर रोक लगा दी है और ऐसा करने पर 50 हजार रुपए जुर्माना लगाने का आदेश दिया है। साथ ही धारा से 100 मीटर के दायरे को ‘कोई विकास नही’ क्षेत्र घोषित कर दिया है जिसे हरित पट्टी बनाया जाएगा। गंगा को निर्मल बनाने की सरकारी कवायद पर गम्भीर प्रश्न उठाते हुए अधिकरण ने साफ संकेत दिया है कि गंगा को गन्दा करना बन्द करें, वह शुद्ध और निर्मल तो अपने आप हो जाएगी।

गंगा-प्रदूषण मामले को लेकर पर्यावरण कार्यकर्ता एमसी मेहता ने 1985 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। उन्हीं दिनों नए-नए प्रधानमंत्री बने राजीव गाँधी ने गंगा एक्शन प्लान आरम्भ करने की घोषणा की। तभी से गंगा शुद्धिकरण की योजनाएँ लगातार चलती रही हैं, लेकिन गंगा की गन्दगी भी लगातार बढ़ती गई है। गंगा एक्शन प्लान एक चरण पूरा हुआ, दूसरा चरण आरम्भ हुआ वह भी पूरा हो गया।

मामला बार-बार अदालत में उठता रहा, अदालत आदेश देते रहे, पर उसके फैसलों में बच निकलने के चोर रास्ते खोजकर और नई योजनाएँ या कार्रवाई की घोषणा करके सरकार और उसकी एजेंसियाँ असली मुद्दों से बचती रहीं। मनमोहन सिंह सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने की घोषणा की तो नरेन्द्र मोदी सरकार ने नमामि गंगे परियोजना पर बीस हजार करोड़ खर्च करने की योजना के साथ सामने आई। अब तो केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय का नाम भी बदल दिया गया है और गंगा पुनर्जीवन को उसके नाम में जोड़ा गया है। इन भरमाने वाले कार्यों से असली समस्याएँ वहीं-की-वहीं बनी रहती हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में यह मामला हरित अधिकरण को सौंप दिया था। अधिकरण ने विभिन्न पक्षों की दलीलों की लम्बी बहसें करीब 18 महीने में सूनकर 31 मई को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

13 अगस्त को सुनाए अन्तिम आदेश में अधिकरण ने स्पष्ट निर्देश दिये हैं और उन्हें पूरा करने की समय सीमा बाँध दी है। उसने मलजल शोधन केन्द्रों के निर्माण और नालों की सफाई दो साल के भीतर पूरा करने का निर्देश दिया है। लेकिन कानपुर के जजमउ से चमड़ा शोधन इकाइयों को छह सप्ताह के भीतर हटाकर उन्नाव के लेदर पार्क या दूसरे किसी उपयुक्त जगह भेजना है।

अदालत ने कहा है कि टेनरी को हटाना उत्तर प्रदेश सरकार की बाध्यता है। यही नहीं, गंगा तट पर होने वाली धार्मिक गतिविधियों को देखते हुए उनके लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाने का निर्देश उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड सरकारों को दिया है। विभिन्न एजेंसियों द्वारा कराए जाने वाले कार्यों का विवरण आदेश के करीब एक सौ पन्नों में फैला है। उन कार्रवाइयों की निगरानी के लिये जल संसाधन मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में निगरानी समिति बनाने का निर्देश दिया गया है जिसमें विभिन्न विभागों के प्रतिनिधियों के अलावा विशेषज्ञों को रखा जाएगा। समिति को नियमित अन्तराल पर प्रगति रिपोर्ट देनी है।

अधिकरण ने कहा है कि जीरो लिक्विड डिस्चार्ज और मलजल की ऑनलाइन मानिटरिंग की व्यवस्था उद्योगों पर लागू नहीं होगी। साथ ही उसने गंगा के जलग्रहण क्षेत्र में स्थित औद्योगिक इकाइयों को बेतहाशा भूजल दोहन बन्द कर देने का निर्देश भी दिया है। अधिकरण ने सफाई कार्यों के लिहाज से गंगा के प्रवाह क्षेत्र को चार हिस्सों में बाँटा है। पहला चरण गोमुख से हरिद्वार और हरिद्वार से उन्नाव तक है। उन्नाव से उत्तर प्रदेश की सीमा तक दूसरा चरण, उत्तर प्रदेश की सीमा से झारखण्ड की सीमा तक तीसरा चरण और झारखण्ड की सीमा से बंगाल की खाड़ी तक चौथा चरण। इस बँटवारे से गंगा की सफाई के काम में स्थानीय जरूरतों के अनुसार अधिक सुविधा होगी।

गंगा शुद्धिकरण के नाम पर सरकारी कोष की बर्बादी बन्द करने की हिदायत देते हुए अधिकरण ने याचिकाकर्ता एमसी मेहता के इस अनुरोध का उल्लेख किया है कि लगभग सात हजार करोड़ खर्च होने की सीबीआई या सीएजी से जाँच कराई जाये। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की दी सूचना के अनुसार 14 जनवरी 1986 को गंगा एक्शन प्लान आरम्भ होने से अब तक इस काम के लिये केन्द्र सरकार ने 6788.78 करोड़ जारी किये हैं जिसमें से 4864.48 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं और 1924.30 करोड़ रुपए बिना खर्च हुए बचे हुए हैं। हालांकि एमसी मेहता का कहना है कि सरकारी रकम का खर्च इससे कहीं अधिक हुआ है क्योंकि विभिन्न एजेंसियाँ गंगा शुद्धीकरण के नाम पर खर्च करती रही हैं, उन सबकी जानकारी केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को नहीं होगी।

इस जनहित याचिका पर करीब 32 वर्षों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट और 2014 में मामला राष्ट्रीय हरित अधिकरण को सौंपे जाने के बाद अधिकरण में कई बार केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और उनकी एजेंसियों को फटकारा, विभिन्न मुद्दों पर हलफनामा माँगा और अनेक निर्देश दिये। मगर अदालत के आदेशों में बच निकलने का रास्ता निकालने, कोई नया वायदा और घोषणा करने में असली काम टलते रहे। प्रवाह क्षेत्र को अलग-अलग चार चरणों में विभक्त कर देने से कुछ कार्यों, खासकर मलजल शोधन और श्मशान आदि की व्यवस्था करने में सुविधा होगी।

हालांकि जलधारा से 500 मीटर के दायरे में कूड़ा-कचरा नहीं डालने और 100 मीटर में कोई निर्माण नहीं होने के आदेश का पालन करना आसान नहीं होगा। गंगा तट पर बसे नगरों, महानगरों में मलजल निकासी का रास्ता गंगा में ही खुलता है। जब शोधन संयंत्र लगने लगे तो उन्हें गंगा तट पर ही बनाया गया है। शोधित या असंशोधित गंगा में ही बहा दिया जाता है। क्या इस फैसले के बाद सारे संयंत्रों को तटों से दूर ले जाना होगा? इसी तरह गंगा तट पर महानगरों की घनी आबादी बसी है। उनका क्या करना होगा? इस तरह के दूसरे प्रश्न भी हैं जिनका उत्तर खोजना होगा। लेकिन यह ऐसा फैसला है जिसका लक्ष्य स्पष्ट है- गंगा में गन्दा डालना बन्द करें, वह स्वयं अपने को साफ और शुद्ध कर लेगी।
 

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